बाँग्लादेश का मुक्ति संग्राम : आँखों देखा हाल -1

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रामशरण जोशी, वरिष्‍ठ पत्रकार, लेखक और टिप्पणीकार हैं।  उन्होंने राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी लंबा वक़्त बिताया है। वे केंद्रीय हिंदी संस्‍थान के अध्यक्ष रहे और कई अन्य संस्‍थानों से भी जुड़ाव रहा। मीडिया विजिल के संपादकीय मंडल के सम्मानित सदस्य हैं और पत्रकारिता पर कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिख चुके हैं। जोशी जी ने 1971 में बांग्लादेश युद्ध को कवर किया था जिसका उनकी हालिया प्रकाशित आत्मकथा ‘मैं बोनसाई अपने समय का’, में विस्तार से ज़िक्र है।  मीडिया विजिल पर इसी प्रसंग के साथ उनका स्तम्भ शुरू हो रहा है। पत्रकारिता के विद्यार्थी इससे निश्चित ही लाभ उठा सकेंगे- संपादक

 

रामशरण जोशी

 

एक रिपोर्टर  की  रिपोर्टिंग  यात्रा में  ऐसे कई अनुभव, मोड़ आते हैं  जिन्हें वह जीवनपर्यन्त याद रखता है.वक्तन-बवक्तन वे  उसे गुदगुदाते रहते हैं.जब वे पीछे मुड़ कर उनपर नज़र दौड़ाता है,वह अचरज से लबरेज़ हो जाता है। सहसा उसकी जुबान बोल पड़ती है , अपने से ही सवाल करते हुए ,” क्या  मैंने इसकी रिपोर्टिंग की ?”

आज जब मैं साढ़े सात दशक की दहलीज़ पर खड़ा हूँ तो रिपोर्टिंग के चंद कारनामों को लेकर अचरज से भर जाता हूँ. हैरत होती है, ‘ क्या मैंने ऐसा किया है.’ बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम की यादों को लेकर मैं फिर रोमांचित हूँ.मैं दो राष्ट्रों को जन्म लेते देखा है- बाग्लादेश और नाम्बिया। अलबत्ता तमिल इलम की ‘प्रसव छटपटाहट ‘ को भी कवर कर चुका हूँ. यह अलग बात है, उसका  ‘ मिस कैरिज ‘ हो गया.श्रीलंका में उसका मुक्ति संग्राम ‘परवान नहीं चढ़ सका.

मैं  यहाँ बात कर रहा हूँ अपने पास के पड़ोसी देश -बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम की.तीन साल बाद यह देश अपनी आज़ादी  की  आधी सदी का  जश्न मनायेगा.पचास साल के इस सफ़र में इसे काफी कुछ खोना पड़ा; इसके राष्ट्रपिता बंग बंधू  मुजीबुर्रहमान की हत्या हुई, सैन्य विद्रोह हुआ; काफी उथल-पुथल हुई है,चरम दक्षिणपंथियों ने राजसत्ता पर कब्ज़ा करने की कोशिश की हैं,प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की हत्याएं हुई हैं;तसलीमा नसरीन जैसी लेखिका का अपना देश छोड़ भारत में शरण लेनी पड़ी है.

इन घटनाओं के मद्देनज़र  जब  1971-72 की अपने रिपोर्टिंग अनुभवों को याद करता हूँ तो सिहर जाता हूँ. हो सकता है, इस पीढ़ी के युवा पत्रकारों के कुछ काम आये. यह वह समय था जब संचार और यातायात के साधन मंद रफ़्तार के थे.मोबाइल नहीं था.खबरें भेजने में घंटों लगा करते थे.आज तो युद्ध भूमि से  ‘लाइव टेलीकास्ट ‘ किया जाता है. दोनों खाड़ी और कारगिल जंगों में इसे देख चुके हैं.कल्पना करिए, 47 बरस पहले किन हालातों में इसे कवर किया होगा  मैंने! इसकी पहली क़िस्त मैं दे रहा हूँ ,और साथ ही में उस समय की कतरने भी लगा रहा हूँ जोकि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं.

 

 

बांग्लादेश युद्ध से जुड़ी लेखक की रपटों की चंद कतरनें….