अपने बनाए जंगल में गौरी लंकेश के हमदर्दों से ‘आहत’ एक दबंग संपादक…

अभिषेक श्रीवास्तव
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यह बड़ी अच्‍छी बात है कि बहुत से लेखक-पत्रकार और संपादक जो पत्रकार गौरी लंकेश की हत्‍या पर तत्‍काल लिख सकते थे / लिखना चाहते थे / लिखने में सक्षम थे, वे ऐन मौके पर ”जान-बूझ कर चुप्‍पी लगा जाने” के बाद अब दस दिन बाद जब मुंह खोल रहे हैं तो उनकी ज़बान से सच्‍चाई ही बयां हो रही है। बीते हफ्ते राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ से जुड़े पत्रकारों द्वारा आयोजित एक अनर्गल श्रद्धांजलि समारोह में न्‍यूज़-18 के डिप्‍टी मैनेजिंग एडिटर सुमित अवस्‍थी मूर्खतापूर्ण दम्‍भ में अंड का बंड बोल गए। उससे पहले आनंद वर्धन ने न्‍यूज़लॉन्‍ड्री पर तथ्‍यात्‍मक रूप से गड़बड़ लेख लिख दिया और आज यानी रविवार को देश के सबसे बड़े अखबारों में एक ‘हिंदुस्‍तान’ के संपादक शशि शेखर ने अपने स्‍तंभ में स्‍वीकार कर लिया है कि गौरी लंकेश के मारे जाने से पहले तक उन्‍होंने उनका नाम नहीं सुना था, फिर भी वे आहत हैं।

मूर्खों और अपढ़ों का ‘आहत’ होना हास्‍य पैदा करता है। शशि शेखर का पूरा स्‍तंभ हास्‍यास्‍पद है और उनके संपादक होने पर प्रश्‍नचिह्न खड़ा करता है। चलिए, एकबारगी मान लेते हैं कि उन्‍हें दक्षिण भारत की पत्रकारिता की परंपरा के बारे में कोई ज्ञान नहीं होगा। मान लेते हैं कि उन्‍होंने महात्‍मा गांधी के अखबार ‘हरिजन’ की तर्ज पर 1980 में बंगलुरु से यशस्‍वी पत्रकार पी. लंकेश द्वारा शुरू किए गए अख़बार लंकेश पत्रिका के बारे में नहीं सुन रखा होगा। यह भी मान लेते हैं कि जब पिता का पता नहीं, तो पुत्री के बारे में वे कैसे जानते होंगे। हम यह कैसे मान लें कि पिछले साल 28 नवंबर को भारतीय जनता पार्टी के दो नेताओं द्वारा गौरी लंकेश पर किए गए मानहानि के मुकदमे का शशि शेखर को पता नहीं है। वो भी तब, जब मुकदमा कायम करने वालों में एक प्रहलाद जोशी तीन बार का विधायक रह चुका है। इतना ही नहीं, इस मुकदमे की ख़बर हिंदुस्‍तान टाइम्‍स में पिछले साल मुंबई ब्‍यूरो से छप चुकी है।

इसका मतलब है कि शशि शेखर भी सुमित अवस्‍थी जैसों की तरह अख़बार नहीं पढ़ते। दूसरे अख़बारों की छोड़ दीजिए, अपनी कंपनी का अंग्रेज़ी अख़बार तक नहीं पढते जहां साल भर पहले गौरी लंकेश के मुकदमे की ख़बरें छपी थीं। वैसे, कायदे से देखें तो एक संपादक को यह कहते हुए कि उसने गौरी का नाम उनकी मौत के बाद जाना, इतनी शर्म महसूस होनी चाहिए कि उसे डूब मरने के लिए चुल्‍लू भर पानी का टेंडर निकाल देना चाहिए। न विरासत का ज्ञान, न ख़बरों की जानकारी, न इतनी समझदारी कि पब्लिक डोमेन में संपादक के बतौर क्‍या बोला जाना चाहिए और क्‍या नहीं! कौन बनाता है ऐसे लोगों को संपादक?

शशि शेखर लिख रहे हैं कि वे चाहते तो इस मुद्दे पर पिछले हफ्ते लिख सकते थे लेकिन ”जान-बूझ कर चुप्‍पी” लगा गए। उन्‍हें लगता है कि ऐस कह के वे बहुत बड़प्‍पन का परिचय दे रहे होंगे। यह सबसे आसानी में पकड़ा जाने वाला झूठ है। जब किसी कार्यक्रम के मंच पर बैठे हुए आपको विषय के बारे में कुछ पता नहीं होता तो आप इंतज़ार करते हैं कि सब लोग बोल लें, उसके बाद लीपापोती कर दी जाएगी और बड़प्‍पन बचा रह जाएगा। शशि शेखर की यही दिक्‍कत है, लेकिन मूल समस्‍या उनके भ्रष्‍ट इंटेलेक्‍ट की है कि वह इस झूठ को छुपा तक नहीं पाते। उन्‍हीं के शब्‍दों में:

”एक विचारशील व्यक्ति की हत्या पर जिस तरह कुतर्क के जाल बुने जा रहे थे, मैं उन्हें किसी मुकाम तक पहुंचते देखना चाहता था, पर ऐसा हुआ कहां? अभी तक बुद्धू बक्से (किसी ने टेलीविजन को क्या खूब उपमा दी है) पर ऊटपटांग बहस के दौर जारी हैं। पहली बार पत्रकार ऐसी तू-तू, मैं-मैं में उलझे हैं कि एक साथी की मौत साझी पीड़ा बनने की बजाय वैचारिक प्रभुता की लड़ाई में तब्दील हो गई है। इस दलदल में महज पत्रकार नहीं, बल्कि विचारक, लेखक अथवा अभिनेता तक शामिल हो गए हैं।”

पहली पंक्ति में दो समस्‍याएं हैं। गौरी लंकेश के मारे जाने के बाद जब शशि शेखर को पता चला कि इस नाम का कोई पत्रकार भी है दुनिया में, तो अव्‍वल वे इस नतीजे पर कैसे पहुंचे कि वह व्‍यक्ति ‘विचारशील’ है। क्‍या पिछले दो हफ्ते में वे गौरी लंकेश के विचार पढ़ गए हैं? बारह दिन में ही उन्‍हें यह भी महसूस हो गया है कि एक ‘साथी की मौत’ हुई है। यह भी दिलचस्‍प है। और ‘वैचारिक प्रभुता’ कह कर वे किसकी ओर इशारा कर रहे हैं? न विचार से एक लेना, न संघर्ष से डेढ़ देना, और दंभ इतना कि गौरी के साथियों के उद्गारों को आप वैचारिक प्रभुता कह डालें? यह तो निम्‍नतम कोटि की वैचारिक भ्रष्‍टता है।

अब भरोसा होता जा रहा है कि कि बहुत से लोग जो संपादक बने बैठे हैं, उन्‍हें वाकई दूसरे धंधों में होना चाहिए था। अमर उजाला की नई इमारत जब बनी थी और उसमें शशि शेखर जब विराजमान हुए रहे, तो एक दिन शिकायत आई कि सामने वाले कारखाने के गार्ड पत्रकारों के स्‍कूटर खड़ा करने पर विवाद कर रहे हैं कि उनकी पार्किंग में क्‍यों पत्रकारों ने अपनी गाड़ी लगा दी है। मामला काफी बढ़ चुका था, तो संपादक ने खुद बाउंसर धर्म अपनाना उचित समझा। शशि शेखर नीचे उतरे, सीधे कारखाने के भीतर गए, उसके मैनेजर को कॉलर से खींच कर बाहर ले आए और लबे सड़क सबके सामने उन्‍होंने निरीह मैनेजर की पिटाई कर डाली। वो दिन और आज का दिन, नोएडा की जनता जानती है कि वहां की इमारत से एक अखबार चलता है और उसमें सबसे बड़े पद पर बैठने वाला आदमी बहुत मारता है इसलिए अपने सामान की सुरक्षा स्‍वयं करें।

इस दबंगई पर अमर उजाला के पत्रकार लहालोट थे। इसी दबंगई पर आज हिंदुस्‍तान के तमाम पत्रकार लहालोट हैं। चर्चे होते हैं कि कैसे शशि शेखर ने अखबार में आते ही पहाड़ी ब्राह्मणों का राज खत्‍म कर दिया। किसी पत्रकार को इस बात की तनिक भी चिंता नहीं कि उसका संपादक इतना बम्‍मड़ और मूढ़ क्‍यों है। कोई पत्रकार इस बात पर शर्म नहीं करता कि उसके संपादक को सही हिंदी लिखने तक नहीं आती। आज हिंदुस्‍तान के किसी कर्मचारी को इस बात की शर्म महसूस नहीं हो रही होगी कि उसका संपादक पूरी बेशर्मी से कह रहा है कि उसने गौरी लंकेश का नाम उनके मरने के बाद सुना और ऐसा कहते हुए वह दरअसल इस बात की मुनादी कर रहा है कि 1980 से लेकर अब तक देश में भाषायी पत्रकारिता के इतिहास का उसे कोई ज्ञान नहीं है।

शशि शेखर को अगर अपने ही अख़बार में छपी ख़बर का पता नहीं है तो यह बेहद गंभीर सवाल है

शशि शेखर राजदेव रंजन का मामला उठाते हैं। राजदेव रंजन उनका स्‍टाफर था। मारा गया। वे गिनवाते हैं कि कैसे उन्‍होंने उसके लिए अखबार के माध्‍यम से संघर्ष किया। वे कहते हैं कि 99 फीसदी पत्रकार स्‍थानीय हैं जो मारे जा रहे हैं। उनसे पूछा जाना चाहिए कि राजदेव रंजन के अलावा बाकी 98 फीसदी मारे जा रहे पत्रकारों के मामले में उन्‍होंने निजी रूप से अब तक क्‍या किया है। क्‍या किसी धरना-प्रदर्शन में आए हैं। क्‍या कोई टीप लिखी है। क्‍या किसी मांगपत्र पर कोई हस्‍ताक्षर किया है। ये भी छोडि़ए। उन्‍हीं के अखबार के रायपुर संवाददाता रितेश मिश्रा को बीते साल पुलिस द्वारा धमकाए जाने पर क्‍या उन्‍होंने एक शब्‍द भी खर्च किया है अब तक?

याद करें, पिछले साल बिलकुल उसी वक्‍त जब गौरी लंकेश के खिलाफ भाजपा नेताओं ने मानहानि का मुकदमा दायर करवाया था, हिंदुस्‍तान टाइम्‍स रायपुर के ब्‍यूरो रिपोर्टर रितेश मिश्रा को छत्‍तीसगढ़ के विवादास्‍पद पुलिस अधिकारी एसआरपी कल्‍लूरी ने नंदिनी सुंदर के मामले में एक खबर लिखने के लिए धमकाया था। रितेश ने ख़बर की थी कि नंदिनी सुंदर और अन्‍य पर जिस आदिवासी की हत्‍या का मुकदमा कल्‍लूरी ने गढ़ा है वह झूठा है। इस खबर के बाद कल्‍लूरी ने रितेश को कहा, ”आप लोग ऐसे करेंगे तो हम आपको जाने ही नहीं देंगे।”

माना जा सकता है कि चूंकि शशि शेखर अखबार नहीं पढ़ते और खुद अपनी कंपनी का ही अख़बार नहीं पढ़ते, तो उन्‍हें इस बारे में पता न हो। खैर, अब हमने उन्‍हें बता दिया है। उन्‍हें वास्‍तव में स्‍थानीय पत्रकारों की इतनी फि़क्र है और विचारधारा की लड़ाइयों से इतनी घृणा, तो उन्‍हें रितेश मिश्रा को साल भर पहले कल्‍लूरी से मिली धमकी के खिलाफ अब लिखना चाहिए। यह उनके अखबार के हक में भी होगा। हम जानते हैं कि वे इस बारे में नहीं लिखेंगे। दबंग होना एक बात है और स्‍टेट की दबंगई के सामने अकड़ना दूसरी बात। उन्‍होंने लिखा है कि यह ”इंसानी जंगल” है जिसमें गौरी लंकेश की हत्‍या पर मच रहा हल्‍ला ”शिकारियों का हांका”। ज़ाहिर है, जंगल के शेर बने रहेंगे तो बाहरी दुनिया के बारे में कैसे जानेंगे? फिर बाहर से आती हर आवाज़ शिकारियों की ही प्रतीत होगी।

संपादकजी, शिकारियों का डर त्‍यागिए। आप दबंग आदमी हैं। केवल मैनेजरों का ही आखेट करते रहेंगे या इंसानी जंगल से कभी बाहर भी निकलेंगे? दुनिया कब की सभ्‍य हो चुकी है। आप अपने बनाए जंगल में कैद हैं, तो हर कोई आपको शिकारी दिखता है। बाहर आइए, दर्जनों गौरी लंकेशों से आपका परिचय होगा। ये सब रोज-ब-रोज़ अपने आसपास की दुनिया को सुंदर बनाने की कीमत गोली खाकर चुका रहे हैं जबकि आप हैं कि अपने जंगल में ही बैठे-बैठे आहत हुए जा रहे हैं!

आपने चार्ली चैप्लिन को ठीक कोट किया है, कि जिंदगी को करीब से देखा जाए तो यह एक त्रासदी है लेकिन दूर से देखने पर वह एक कॉमेडी है। बस दिशा गलत हो गई है। आपके करीब वाले जानते होंगे कि आपके साथ काम करना कितनी बड़ी त्रासदी है। हम तो आपको जानते तक नहीं और बेहद दूर बैठे हैं। हमें आपका ‘आहत’ होना इसीलिए कॉमेडी लग रहा है।

अपने बनाए जंगल से बाहर आइए संपादकजी, रिटायरमेंट करीब है!