पनामालीक्स के बीच जनसत्ता: जीते जी मर जाना शायद इसी को कहते हैं!

अभिषेक श्रीवास्तव
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एक समय में प्रतिष्ठित रहे हिंदी के अखबार जनसत्ता के बारे में जब भी कोई बात होती है, तो पहला सवाल हर किसी के मुंह से यही निकलता है, ”ये जनसत्ता को क्या हो गया है?” वैसे, पिछले अगस्त ओम थानवी के कार्यकारी संपादक के पद से रिटायर होने के बाद जनसत्ता के बारे में शायद ही कोई सार्वजनिक चर्चा हुई हो, ऐसा याद पड़ता है। दिल्ली में कुछ लोगों ने बीते आठ-दस महीने में अखबार लेना बंद कर दिया। उससे पहले बीते दसेक साल में जनसत्ता ही इकलौता अखबार रहा जिसके बारे में लोग दिल से चिंता किया करते थे और रह-रह कर अफ़वाह उड़ा करती थी कि यह बंद होने वाला है। बंद तो अब तक नहीं हुआ, लेकिन इसे जो पुराना गुप्तरोग लगा हुआ है उसका निदान भी आज तक नहीं हो पाया।

 

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बीते 4 अप्रैल को दि इंडियन एक्सप्रेस ने #panamaleaks की पहली किस्त छापकर हड़कंप मचा दिया और हमेशा की तरह अहसास दिलाया कि चाटुकारिता व दलाली के चरम पर भी एक अखबार ऐसा बचा है जिसे पढ़ा जा सकता है। रितु सरीन और उनकी टीम ने खोजी पत्रकारों के अंतर्राष्ट्रीय कंसोर्शियम के साथ बीते आठ महीनों के दौरान जो मेहनत की, वह सलाम करने लायक है। पहली बार इतनी बड़ी खोजी कवायद में देश के 500 से ज्यादा व्यक्तियों का नाम सामने आ रहा है जिन्होंने कर चोरी की है और अवैध धन विदेशी ठिकानों में छुपा रखा है। इसमें सदी के महानायक अमिताभ बच्चन से लेकर उनकी विश्व सुंदरी बहू तक शामिल हैं।

क्या आपने 4 अप्रैल और उसके बाद का जनसत्ता देखा? खुलासे के पहले दिन यानी 4 अप्रैल को पनामा दस्तावेजों से जुड़ी कोई खबर जनसत्ता में मौजूद नहीं थी। अगले दिन यानी 5 अप्रैल को एक ख़बर पहले पन्ने पर सेकंड लीड के तौर पर शाया हुई। उम्मीद बंधी कि एक दिन देर से ही सही, परिवार का छोटा भाई अब बड़े भाई के पदचिह्नों पर लगातार चलेगा। आश्चर्य कि अगले दिन यानी 6 अप्रैल को पहले पन्ने पर दाएं किनारे एक सिंगल कॉलम खबर अमिताभ बच्चन के बयान और आइसलैंड के प्रधानमंत्री के इस्तीफे की छपी थी जिसका शेष आठवें पन्ने पर भी सिंगल कॉलम ही था। संतोष इस बात का था कि उस दिन संपादकीय पन्ने पर पहला संपादकीय पनामा खुलासे पर लिखा गया था जिसमें बार-बार यह सवाल पूछा जा रहा था कि इस खुलासे से ”क्या हासिल होगा”?

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अगला दिन यानी 7 अप्रैल को जनसत्ता से पनामा गायब है। पूरा सन्नाटा है। कहीं एक भी खबर नहीं। क्या संपादकीय लिख देने के बाद ख़बर छापना ज़रूरी नहीं रह जाता? आखिर क्या वजह है कि एक्सप्रेस समूह के पत्रकारों की मेहनत को उसी समूह का हिंदी अखबार कोई तवज्जो नहीं दे रहा जबकि एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर किस्तवार पनामा पेपर्स लगातार छप रहा है और तमाम हिंदी अखबार उसे अपने तरीके से फॉलो भी कर रहे हैं? क्या यह अनुवाद करने में सक्षम संपादकीय स्टाफ के टोटे का मसला है? क्या यह हिंदी के नए संपादक की स्वायत्तता का मामला है? या यह महज लापरवाही है?

जब ओम थानवी संपादक हुआ करते थे तो उनके ऊपर लगातार यह आरोप लगता था कि उन्होंने अखबार को रविवारी साहित्यिक पत्रिका में तब्दील कर के रख दिया है और इसका इस्तेमाल प्रकारांतर से अपनी साहित्यिक अड्डेबाज़ी को चमकाने के लिए करते हैं। 2014 के चुनाव परिणामों के बाद से शायद थानवी खबरों पर भी ध्यान देने लगे और 2015 में उनके हटने तक पहले पन्ने पर खबरों का तेवर लगातार सत्ताविरोधी बना रहा। इसके बाद आए मुकेश भारद्वाज, जिनके बारे में सुना गया कि वे फील्ड के पत्रकार रहे हैं और खबरों पर ज्यादा ज़ोर देते हैं। इनके आते ही संपादकीय पन्ने के लेआउट को बदला गया और हर हफ्ते इनकी अपनी बाइलाइन से एक पन्ने की स्टोरी छपने लगी। इस स्तम्भ का नाम रखा गया ”बेबाक बोल”! सभी पुराने स्तंभकार धीरे-धीरे कर के छंटते चले गए। हेडलाइन लिखने में कलाकारी दिखाई देने लगी। फोटो भी हास्यास्पद होने की हद तक नवाचारी होने लगी। खुद मुकेश भारद्वाज की एक ओप-एड स्टोरी में अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को आम चूसते हुए आधे पन्ने पर दिखाया गया था।

इस किस्म की सस्ती खुराफातों का नतीजा यह हुआ कि जो जनसत्ता के अपने पाठक थे वे तो हाथ से फिसल ही गए, नए पाठक बनने से रहे क्योंकि उनके लिए नवभारत टाइम्स और पंजाब केसरी जैसे मनोरंजन के कहीं बेहतर विकल्प मौजूद थे। भारद्वाज की सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा और जनसत्ता की वेबसाइट पर ‘ट्रेंडिंग‘ नाम का एक कॉलम जोड़ दिया गया। अव्वल तो हिंदी के अखबारों की खबरें ‘ट्रेंड’ नहीं करती हैं, उस पर से जो खबरें ट्रेंड करती हुई दिखायी जाती हैं उनका शीर्षक आप देखें (7 अप्रैल, 2016):

 

जनसत्ता की पत्रकारिता परंपरा के ताबूत में यह ‘ट्रेंड’ आखिरी कील साबित होगा!

बहरहाल, जहां तक पनामा पेपर्स का सवाल है, तो जनसत्ता की वेबसाइट पर दाहिने साइडबार में ”खुलासे से जुडी हर खबर” का एक टैब बना हुआ है। उस पर क्लिक करने से आपको पनामा की अधिकतर खबरें देखने को मिल जाएंगी, हालांकि उनमें इतना विवरण नहीं है जितना एक्सप्रेस की खबरों में है। सवाल उठता है कि जब अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद हो रहा है और वेबसाइट पर छप रहा है, तो इसे जनसत्ता के प्रिंट एडिशन में क्यों नहीं लिया जा रहा। यह बात समझना काफी मुश्किल है।

अखबार के एक कर्मचारी ने अनौपचारिक बातचीत में बताया, ”यहां सब ऐसे ही चलता है। अंग्रेज़ी वाले हमारे पास खबरें भेजते नहीं हैं। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि अगले दिन का अखबार उठाकर हमें खबर पता चलती है तो हम लोग उसे लेकर अनुवाद करते हैं। वैसे भी डेस्क पर इतने कम लोग हैं और कभी-कभी तो अखबार को भरना तक मुश्किल हो जाता है।”

स्टाफ का टोटा जनसत्ता की एक पुरानी बीमारी रहा है। आज हालत यह है कि अखबार के नेशनल ब्यूरो में मात्र दो रिपोर्टर हैं। कुछ दिन पहले तक दिल्ली ब्यूरो में केवल पांच रिपोर्टर थे। अभी तीन को रखा गया है तो कुल मिलाकर आठ हो गए हैं। फिलहाल यहां कनिष्ठ पदों के लिए कोलकाता और नोएडा के लिए वैकेंसी निकली हुई है। सूत्रों के मुताबिक पैसा इतना कम है कि पहली नज़र में ही किसी की दिलचस्पी यहां काम करने में नहीं होगी। एक समय था जब जनसत्ता को रिपोर्टिंग के लिए जाना जाता था और यहां की रिपोर्ट एक्सप्रेस अपने लिए अंग्रेज़ी में अनुवाद करवाता था। जिस तरीके से यहां रिपोर्टिंग को मारा गया है, उसी का नतीजा है कि पूरा अखबार डेस्क पर आश्रित हो गया है और डेस्क का मतलब एजेंसी की खबरों की सफाई करना है, और कुछ नहीं।

क्या जनसत्ता बंद होगा? बार-बार पूछा गया यह सवाल अब बेमतलब जान पड़ता है। एक कर्मचारी की मानें तो, ”बंद तो नहीं होगा, हां पंजाब केसरी बनने के चक्कर में इसकी साख लगातार गिरती जाएगी।” बीते दशक में जनसत्ता जैसा और जितना भी छपता रहा हो, लेकिन इसके इतवार अंक का इंतज़ार आम तौर से पढ़ने-लिखने वाले लोगों को रहता ही था। अगर यही इसका यूएसपी था यही बने रहने देना था। मुकेश भारद्वाज इस अखबार और इसके पाठकों के मिजाज़ को समझ नहीं पाए। अब वे एक ऐसे जहाज पर तमाम लोगों को लेकर चढ़े हुए हैं जो न तो आगे बढ़ रहा है और न ही उसे डूबने दिया जा रहा है। जीते जी मर जाना शायद इसी को कहते होंगे।