वरिष्ठ पत्रकार ने कहा- ‘मीडिया की मोदी भक्ति में नंगई और नीचता का एक पैटर्न है!’ 

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कर्नाटक चुनाव प्रचार में मीडिया ने पहले दिन से ही जिस तरह मोदी चालीसा गाना शुरू कर दिया था, वह वाक़ई हैरान करने वाला था। मशहूर पत्रकार, हरिशंकर व्यास ने दैनिक नया इंडिया के अपने कॉलम “अपन तो कहेंगे” में “मीडिया की नीचता ना कि कीर्तन” में मीडिया को इसके लिए  खूब खरी-खरी सुनाई है। पढ़िए

हरिशंकर व्यास

 

उफ़! दिमाग़ सन्न है भारत के जर्जर मीडिया को उत्तोरतर जर्जर होता देख! न विवेक, न बुद्धि, न तर्क और न गुरदा। बतौर रूपक उस कबीले की याद हो आती है कि जिसमें एक सरदार है, एक सूबेदार है और उनके सामने नाचते वे नंगे स्त्री पुरुष हैं जिन्हें लोक लाज, सभ्यता, संस्कृति. बुद्धि, किसी का कोई भान नहीं। सबमें सिर्फ़ और सिर्फ़ यह नीच कंपटीशन है कि कैसे ख़ुश करें सरदार और सूबेदार को। सरदार और सूबेदार के लिए ये पहले नगाड़ा, ढोल, तोताड़ी बजाने वाले थे, लेकिन ख़ुद अपनी चाहना में नीचता की हद में कोठा सजाए बैठ गए हैं। आओ देखो, हमने भी सर्वे किया! हमने भी जिताया!देखो हम असली ! मेरे यहाँ पधारो, मेरे कोठे में सरदार की इतनी तस्वीरें लगी हैं !..सरदार के अलग-अलग रूप के मंदिर हैं। अलग-अलग शृंगार है। नरेंद्र मोदी के सौ तरह के शृंगार और आरती में विशेष ऐंकर तो अमित शाह की अजेय महिमा में दादरा, ठुमरी, ग़ज़ल सुनाने को सौ तरह के जतन!

उफ! कोई तुक है 18-19 मीडिया हाउस का कर्नाटक पर एक्जिट पोल कराना? कर्नाटक कुल मिला कर एक प्रदेश ही तो है। कोई जीते या हारे, आंधी आए या सूपड़ा साफ हो, उसे विवेक, बुद्धि, तर्क को ताक पर रख नरेंद्र मोदी, अमित शाह की अजेय गाथा में गुंथ देना क्या सरदार के आगे मीडिया की बुद्धिहीनता, नीचता में में नाचना नहीं है? नरेंद्र मोदी का एक मई से प्रचार शुरू हुआ और मीडिया पूरे 12 दिन सरदार-सूबेदार के सामने पहले दिन से ही विजय गाथा बना नाचता रहा।

मतलब सरदार-सूबेदार के मिशन में नाचते-उछलते मीडिया ने डांट भी खाई तो कभी किसी बात पर तो कभी किसी बात पर हवा भी बनाई कि विरोधी भला हैं कहां जो सरदार को लड़ना पड़े। सरदार पहले से ही जीता हुआ है। उसके लिए हुंकारा मार देना ही बाकी को जंगल में भगवा देना है। इसके बाद आखिर में ज्योंही मतदान हुआ एक साथ डेढ़ दर्जन मीडिया हाउस में होड़ हुई कि सरदार तो बस जीत की कगार पर! इस पर उन्होंने लिखा है, “याद करें, सोचें, 12 दिन में किस पत्रकार, मीडिया ने विवेक, बुद्धि, तर्क से बताया कि मोदी-शाह जीत रहे हैं तो फलां-फलां वजह है। इन कारणों से हिंदुओं में जज्बा बना है या कोई फुटेज आपने देखी जो गैर-कार्यकर्ताओं में यह सवाल लिए हुए हो कि किन–किन बातों के लिए मोदी के, राहुल के, येदियुरप्पा के, सिद्धरमैया के मुरीद हैं? पांच साल में सरकार किन-किन बातों में फेल थी और येदियुरप्पा उनमें से कौन-कौन सी बातों में उम्मीद बंधाए हुए हैं? अपने को सुनने–देखने-पढ़ने को यहीं मिला कि मोदी ने, अमित शाह ने राहुल गांधी को धो दिया। मोदी-शाह दहाड़ते हुए और राहुल-सिद्धरमैया जवाब देते हुए और उखड़ते, भागते हुए। आखिर में एक्जिट पोल से शंखनाद!

ऐसी कोई वजह हो तब भी समझ आए। मीडिया हाऊस मोदी-शाह से स्वार्थ साध ले, कोठे की अपनी ग्राहकी बनवा ले यह भी तुक वाली बात नहीं। ऐसे ही खौफ यदि है तो चुप, तटस्थ, सम्यक भाव काम कर सकते है। बेंगलूर जा कर शो करने, कोठा सजाने की जरूरत नहीं है। वैचारिक तौर पर मोदी-शाह के लिए संपादकों-पत्रकारों-मीडिया में उल्लास हो यह भी समझ नहीं आता। इसलिए, या तो जबरदस्ती माहौल बनाने के लिए कहां गया हो या चार साल से बुद्धि, पेशेगत मीडिया-लोकतांत्रिक दायित्व को ताक पर रख देने से कोठा सजाए रखना और नाचना अब स्वभाव बन गया है। सब कुछ एक पैटर्न में हो रहा है।

सो, यह पैटर्न है कि मोदी–शाह किसी लड़ाई के लिए विजय यात्रा पर निकलेंगे। 40 दिन की यात्रा होगी। पहले दिन यदि जीरो थे तो 40 दिन मीडिया के नाचने, उसके शोर में जीत होती दिखती जाएगी और मैसेज बनेगा कि मतपेटियों में जीत है। इस सबके, 40 दिन के बीच वह लॉजिक, बुद्धि, तर्क, विवेक, हकीकत की रिपोर्टिग कहीं नहीं दिखेगी, जिसमें सोचने को मिले कि कर्नाटक में कौन भाजपा के साथ है? क्या 17 प्रतिशत दलित, क्या 13 प्रतिशत मुसलमान, क्या सिद्धरमैया वाले कुरबा, क्या देवगौड़ा के वफादार बताए जाने वाले वोकालिगा या ओबीसी, पुराने कांग्रेसियों में सबका मोदी के लिए वैसा ही मन परिवर्तन हुआ पड़ा है जैसा 2014 में दिखा था? कौन सा मुद्दा है, जिस पर बेंगलुरू के सचिवालय में कन्नड़ लोग येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री चाहते हैं?

जान लें, हर प्रदेश अपनी तासीर लिए होता है। उत्तर प्रदेश में हिंदू–मुसलमान गोलबंदी जैसी होती है वैसे कर्नाटक में नहीं हो सकती। यह बुद्धि, विवेक, आंकड़ों, अनुभव सबसे प्रमाणित है। बावजूद इसके कर्नाटक में भी यदि हिंदू आंधी बनी होने की सोचें तो उसका अहसास कराने वाली बात का कोई लोकल बवंडर तो पहले बना हुआ हो। 2004 के हुबली की ईदगाह में उमा भारती के तिरंगा फहराने जैसा क्या कोई बवंडर इस बार सुना? बैकग्राउंड में क्या ऐसा कुछ चला हुआ था? संदेह नहीं मोदी-शाह ने 40 दिनों में दस तरह से हिंदुओं को रिझाने की कोशिश की। निःसंदेह हिंदू काफी पके हुए भी है और तटीय कर्नाटक को लेकर मैंने लिखा भी है। लेकिन छह दिनों में क्या आठ प्रतिशत वोटों का अंतर आ सकता है?

हो सकता है बुद्धि, तर्क के आधार पर सोचने के कारण मैं एकदम गलत होऊं। आज का वक्त बुद्धिहीनता, अतार्किकता वाला है इसलिए उसमें नंगा नाचता मीडिया सही भी हो जाए। आखिर बुद्धिहीनता की आदिम अवस्था में भी कबीलाई सत्य में लोग जी रहे थे! जो हो, अपने को लॉजिक समझ नहीं आया कि इतने मीडिया घरानों में एक्जिट पोल कराके मोदी-शाह को अजेय बनाने की होड़ क्यों? दूसरे, भला ऐसा कैसे कि तीन–छह मई के सर्वे में भाजपा छह प्रतिशत वोटों से पीछे थी तो छह दिन बाद 12 मई को वह दो फीसदी आगे कैसे हो गई? कोई आठ प्रतिशत का अंतर कैसे बन गया?
अपने अनुभव, समझ, बुद्धि को यह बात भी नहीं जंची कि जब मतदान रिकार्ड तोड़ 2013 के लगभग बराबर व 2014 से ज्यादा है तो त्रिशंकु विधानसभा कैसे हो सकती है? अपना मानना है कि रिकार्ड तोड़ मतदान दो टूक जीत की गांरटी होती है। तब नाचते-कूदते मीडिया ने मोदी–शाह की आंधी क्यों नहीं घोषित की?

दो ही तर्क हो सकते हैं। एक तो यह कि भाजपा को जब 40 दिन पहले तयशुदा हार की स्थिति में माना जा रहा था तो एक्जिट पोल कैसे जीत का एलान लिए हुए हों। कबीले में सब काम सरदार की इच्छा अनुसार होगा। 40 दिन पहले हारते हुए और 15 दिन के मीडिया शोर से जीत की कगार जब बन गई है तो लॉजिक, बुद्धि, जमीनी हकीकत आदि सब को ताक पर रख यदि भाजपा सचमुच में जीतेगी तो पूरे देश में हवा बनेगी कि देखा – मोदी, शाह कभी हारते नहीं। उनकी हवा चुपचाप, घर-घर बनी हुई है। इसलिए भाजपा की जीत स्वभाविक और मीडिया ने इसके संकेत पहले दे दिए थे!

ऐसी बात कहने वाले ईवीएम मशीन का शक लिए हुए हैं। एक साथ इतने एक्जिट पोल और उसमें एक से पैटर्न के पीछे खटका ईवीएम मशीन की धांधली का बन रहा है। आप जानते हैं और मैं लिखता रहा हूं कि मैं ईवीएम मशीन से धांधली की बात पर भरोसा नहीं करता हूं। बावजूद इसके मेरी थीसिस है कि मोदी-शाह चुनाव जीतने के लिए वोटों की असेंबली लाइन बना, माइक्रो प्रबंधन में जैसे अपने वोट निकलवाते हैं और पड़वाते हैं तो उसके पीछे उनकी हर सूरत मे चुनाव जीतने की असाधारण धुन है। ये चुनाव जीतने के लिए कुछ भी करेंगे। कर्नाटक में भी सब किया। जीतने की इस कबीलाई भूख में सब कुछ मान्य और स्वीकार!

उस नाते कर्नाटक के इस चुनाव में, मीडिया से हवा बना कर फिर मीडिया से ही 12 दिन में चुनाव जीत लेने की कगार दिखलाने की रणनीति में, जहां माइक्रो लेवल का प्रबंधन है वहीं पहली बार अपने को लग रहा है कि कही इससे इतर कोई बात तो नहीं? क्या अब बतौर तर्क ईवीएम मशीन से धांधली हो सकने की थीसिस पर विचार करना होगा। मगर मोटे तौर पर अपनी बुद्धि, तर्क में ईवीएम की थीसिस गले नहीं उतरती। ऐसे ही अपना मानना है कि मोदी-शाह ने निश्चित ही मीडिया को औकात बताई हुई है। उसे गुलाम- भांड बनाया हुआ है मगर मीडिया हाउस अपने आपको यदि कोठे में तब्दील कर गए हैं तो ऐसा होना उनका खुद का ऐसा होने की वजह से है! क्या जरूरत है यह शो करने की कि आज हमारे कोठे पर एक्सक्लूसिव मेहमान! यदि भारत के टीवी चैनल, मीडिया हाउस कबीलाई शो, उसके ढोल-नगाड़ों, बुद्धिहीन, नंगे-बेशर्म, टोने-टोटके वाले चेहरों को लिए हुए हैं तो दोष सरदार-सूबेदार का नहीं है, बल्कि मैं इसे सवा सौ करोड़ लोगों का दोष मानता हूं। सवा सौ करोड़ और खास कर हिंदुओं का डीएनए ऐसा है जो राजा झुकने के लिए कहता है और रेंगने लगते है। उसी के चलते विकृत रेंगता लोकतंत्र है और कबीलाई राजनीति व नैरेटिव!
क्या नहीं!

नया इंडिया से साभार