आरक्षण ख़त्म करने के ‘मिशन’ में जुटे पत्रकारों का ‘फ़र्ज़ीवाड़ा’ भी मेरिट है !

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नवल किशोर कुमार

नई दिल्ली से प्रकाशित हिंदी समाचार पत्र दैनिक हिंदुस्तान ने 22 अप्रैल, 2017 को पहले पन्ने पर एक खबर प्रकाशित कर सनसनी फैला दी। खबर में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कथित तौर पर 21 अप्रैल को दिए गए एक अहम फैसले के हवाले से कहा गया कि “आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार को आरक्षित वर्ग में ही नौकरी मिलेगी, चाहे उसने सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों से ज्यादा अंक क्यों न हासिल किए हों।” अखबार की इस खबर ने जहां सामाजिक न्याय के पक्षधर कार्यकर्ताओं को बेचैन कर दिया वहीं यूथ फार इक्वलिटी जैसे मनुवादी संगठनों से जुडे लोग खुशी से झूम उठे।

हिंदुस्तान में खबर प्रकाशित होने के अगले दिन कई अन्य समाचार पत्रों ने भी कुछ और मिर्च-मसाला लगाकर इस खबर को प्रकाशित किया। कुछ वेब पोर्टलों ने तो इसी आधार पर यह खबर तक प्रकाशित कर दी कि सुप्रीम कोर्ट ने “सामान्य वर्ग के लिए 50 फीसदी सीटें आरक्षित कर दी हैं।” पूरे मामले के संबंध में एक सघन भ्रमजाल बुनने की कोशिशें जारी हैं।

सच यह है कि उपरोक्त खबर मुख्यधारा के अखबारों द्वारा बहुजन तबकों के विरूद्ध सयास फैलाए जाने वाले एक और झूठ का नमूना भर है। इस संबंध में एक रोचक तथ्य यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति आर भानुमति और न्यायमूर्ति अजय खानविलकर की खंडपीठ ने उपरोक्त फैसला 6 अप्रैल 2017 को सुनाया था, लेकिन अखबार ने उसे 21 अप्रैल को दिया गया “ताजा” और “अहम” फैसला बता कर पहले पन्ने की लीड बनाया।
वस्तुत: शीर्ष न्यायालय ने 6 अप्रैल के अपने फैसले में भारत सरकार द्वारा 1998 में जारी एक ऑफिस मेमोरेंडम का हवाला देते हुए कहा है कि अगर किसी पद के लिए आरक्षित कोटे में उम्र सीमा, अनुभव, योग्यता तथा लिखित परीक्षा में बैठने की निर्धारित सीमा आदि में छूट दी गई है तो जिस उम्मीदवार ने इसका लाभ लिया है, वह सामान्य श्रेणी के लिए घोषित पद पर दावा करने का हकदार नहीं होगा। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया है कि जिन उम्मीदवारों ने इन छूटों को नहीं लिया है, अगर उनके अंक सामान्य कोटि में जाने लायक हैं तो उन्हें सामान्य कोटि में ही लिया जाएगा। इस अादेश से यह भी स्पष्ट है कि अगर आरक्षित श्रेणी का कोई उम्मीदवार कोटे मेें फार्म भरता है लेकिन उपरोक्त छूटों का लाभ नहीं लेता तो अधिक अंक आने पर उसकी नियुक्ति सामान्य श्रेणी में ही होगी।

वस्तुत: सु्प्रीम कोर्ट का जो फैसला आया है, वह सामाजिक न्याय की अवधारणा में विश्वास रखने वालों के लिए चिंताजनक जरूर है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह कतई नहीं कहा है कि आरक्षित वर्ग के आवेदकों की नियुक्ति अधिक अंक लाने के बावजूद सामान्य श्रेणी में नहीं होगी।

क्या है पूरा मामला

भारत सरकार के वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले निर्यात निरीक्षण परिषद‍ ने वर्ष 2012-13 में अपने कोच्ची (केरल) कार्यालय के लिए प्रयोगशाला सहायक ग्रेड-2 के तीन पद विज्ञापित किए थे। इनमें से दो पद सामान्य श्रेणी का था, जबिक एक पद अन्य पिछडा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षित था। सामान्य वर्ग से आने वाले उम्मीदवारों के लिए उम्र सीमा 18 से 25 वर्ष थी तथा अन्य पिछडा वर्ग के उम्मीदवारों को इसमें तीन वर्ष की छूट दी गई थी। सभी श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम कट ऑफ मार्क्स 70 प्रतिशत निर्धारित था।

इन पदों के इंटरव्यू के लिए 11 ओबीसी उम्मीदवारों तथा सामान्य श्रेणी के 4 उम्मीदवारों को बुलाया गया। परीक्षा में सामान्य श्रेणी के किसी भी उम्मीदवार को 70 फीसदी कट ऑफ हासिल नहीं हो सका, जबकि ओबीसी के चारों उम्मीदवारों के मार्क्स 70 प्रतिशत से ज्यादा आए। लेकिन ओबीसी से आने वाले सभी उम्मीदवार 25 वर्ष से ज्यादा आयु के थे, यानी उन्होंने उम्र सीमा में छूट का लाभ लिया था। निर्यात निरीक्षण परिषद‍ ने ओबीसी श्रेणी में के निर्धारित एक पद के लिए सर्वाधिक अंक (93 प्रतिशत) लाने वाली सेरेना जोसेफ को चुन लिया। सरेना लैटिन कैथलिक समुदाय से आती हैं, जो अन्य पिछडा वर्ग का हिस्सा है।

इस प्रकार, ओबीसी के अन्य तीन उम्मीदवार कट ऑफ से अधिक अंक लाने के बावजूद नियुक्ति पाने से वंचित रह गए, जबकि सामान्य कोटे की दो सीटें खाली रहीं।

कट ऑफ से अधिक अंक लाने वाले ओबीसी उम्मीदवारों में केरल के एर्नाकुलम जिले की धीवरा जाति से आने वाली 26 वर्षीय दीपा ईवी भी शामिल थीं। वे ओबीसी श्रेणी के तहत कट ऑफ से अधिक अंक लाने वाले चार उम्मीदवारों में से तीसरे स्थान पर रहीं थीं। उन्हें 82 फीसदी अंक प्राप्त हुए थे। उन्होंने केरल हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया तथा कट ऑफ से अधिक अंक पाने का हवाला देते हुए सामान्य श्रेणी में बहाल किए जाने की मांग की। 16 जनवरी, 2015 को केरल हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ( न्यायमूर्ति एवी रामकृष्ण पिल्लई की अदालत ) ने अपने फैसले में ने मामले को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि चुंकि उन्होंने उम्र सीमा में छूट का लाभ लिया है, इसलिए वे सामान्य श्रेणी की सीट की हकदार नहीं हैं। उन्होंने इस फैसले खिलाफ अपील की। इस बार उनका मामला चीफ जस्टिस अशोक भूषण और एएम सफीक की डिविजन बेंच के पास गया। डिविजन बेंच ने 20 जुलाई, 2015 को इस मामले की विस्तृत व्याख्या करते हुए अपना फैसला दिया। दोनों अदालतों ने भारत सरकार के कार्मिक विभाग द्वारा 1 जुलाई, 1998 को जारी ऑफिस मेमोरेंडम का हलवा देते हुए कहा कि उम्र सीमा में छूट का लाभ लेने के कारण दीपा की नियुक्ति सामान्य श्रेणी के पद पर नहीं हो सकती।

दीपा का तर्क

इस पूरे मामले में दीपा के पक्षकार अधिवक्ता की दलील यह थी कि जितेंद्र कुमार सिंह एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार वर्ष 2010 के फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा था कि यदि आरक्षित वर्ग का कोई अभ्यर्थी किसी भी सरकारी प्रतियोगिता अथवा साक्षात्कार में सामान्य श्रेणी के सफ़ल उम्मीदवारों में सबसे कम अंक प्राप्त करने वाले अभ्यर्थी से अधिक अंक प्राप्त करता है तो उसका नियोजन सामान्य श्रेणी में किया जाना चाहिए। अधिवक्ता का कहना था कि चूंकि सरकार द्वारा उम्र व शुल्क में छूट को चयन के लिए आवश्यक योग्यता का हिस्सा निर्धारित नहीं किया है, इसलिए इन छूटों को योग्यता में कमी नहीं माना जा सकता। अधिवक्ता ने 25 मार्च 1994 को यूपी लोक सेवा आयोग द्वारा जारी कार्यालय आदेश का भी उल्लेख करते हुए कोर्ट को बताया कि आयोग ने आरक्षित वर्गों के अभ्यर्थियों के लिए अधिकतम उम्र सीमा में छूट देने और मेरिट के आधार पर चयनित अभ्यर्थियों को गैर आरक्षित कोटे में शामिल करने हेतु निर्देश दिया था। इस दलीलों को केरल हाईकोर्ट ने 20 जुलाई 2015 को दिये अपने फ़ैसले में स्वीकार किया और कहा कि आरक्षण के अनुपालन के लिए नियम बनाना और उन्हें लागू करने का अधिकार राज्य को है। लेकिन फैसला दीपा के पक्ष में नहीं आया। केरल हाईकोर्ट से निराशा हाथ लगने के बाद दीपा सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर पहुंचीं।

क्या था जितेंद्र कुमार सिंह एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार?

1999 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने सब इंस्पेटर और पलटून कमांडर पदों के लिए विज्ञापन जारी किए थे। इन नियुक्तियों पर लंबा विवाद चला था और विभिन्न श्रेणियों में असफल घोषित उम्मीदवार भेदभाव और अवैध तरीकों के इस्तेमाल की शिकायत लेकर हाईकोर्ट गए थे। इन्हीं में से एक अनुसूचित जाति से आने वाले जितेंद्र कुमार सिंह भी थे। उन्होंने आरक्षित वर्ग को मिलने वाली छूटों का लाभ लिया था, लेकिन उनके अंक सामान्य श्रेणी में जाने लायक थे। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया था। लेकिन कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सर्विस (रिजर्वेशन फॉर शेड्यूल कास्ट, शेड्यूल ट्राइब एंड अदर बैकवर्ड क्लासेज) एक्ट, 1994 तथा उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 25 मार्च, 1994 जारी ऑफिस मेमोरेंडम को आधार बनाया था तथा जितेंद्र कुमार सिंह के पक्ष में फैसला दिया था। उत्तर प्रदेश सरकार के उपरोक्त एक्ट के अनुसार आरक्षित कोटि के लिए निर्धारित छूटों का लाभ लेने के बावजूद अगर उभ्यार्थी को सामान्य कोटि में जाने लायक अंक आते हैं तो उसे आरक्षित कोटि में नहीं धकेला जा सकता।

चिंता की वजहें

सुप्रीम कोर्ट ने दीपा मामले में दिए गए फैसले में उत्तर प्रदेश के उपरोक्त एक्ट को प्रासंगिक मानने इंकार कर दिया तथा भारत सरकार के कार्मिक विभाग द्वारा 1 जुलाई, 1998 जारी ऑफिस मेमोरेंडम (O.M. No.36012/13/88-Estt. (SCT), dated 22.5.1989 and OM No.36011/1/98-Estt. (Res.), dated 1.7.1998 ) को आधार बनाया। “एससी/एसटी उम्मीदवारों को छूट व सुविधाओं से संबंधित स्पष्टीकरण” शीर्षक इस मेमोरेंडम में दो बातें मुख्य रूप से कहीं गईं हैं :

– केंद्र सरकार द्वारा की जाने वाली सीधी नियुक्तियों में एस/एसटी/ओबीसी तबकों से आने वाले वाले ऐसे उम्मीदवार, जो अपने मेरिट से चुने गए हैं, तथा जिनके चयन में उसी स्टैंर्ड का इस्तेमाल किया गया है, जो सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों पर लागू थे, उनकी नियुक्ति को आरक्षित कोटे में समाहित नहीं किया जाएगा। वे सामान्य कोटे में नियुक्त होंगे।

– साथ ही यह “स्पष्टीकरण” दिया गया है कि अगर आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी ने चयन में तय मानकों में छूट का लाभ लिया है – यथा, उम्र सीमा, अनुभव, क्वालिफिकेशन, लिखित परीक्षा में बैठने की के निर्धारित संख्या में छूट और सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों की गई तुलना में चयन का विस्तारित क्षेत्र – तो उसका चयन सामान्य वर्ग में नहीं हो सकेगा।

ध्यातव्य है कि उत्तर प्रदेश एक्ट, 1994 में इन छूटों को “प्ले ग्राउंड को समान” करने वाला माना गया है। प्रतियोगिता परीक्षाओं में सफलता का मानक प्राप्तांक होते हैं। ऐसे में सवाल अनुत्तरित नहीं रह जाता कि भारत सरकार के कार्मिक विभाग का 1998 में जारी उपरोक्त मेमोरेंड किस मंशा से प्रेरित है।

सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में इस सवाल की गंभीरता का संकेत किया है। कोर्ट ने अपने फैसले के अंत में अपनी ओर से लिखा है कि “यह रेखांकित करने योग्य है कि इस मामले में वादी (दीपा) ने कार्मिक विभाग के आॅफिस मेमोरेंडम की संवैधानिक वैधता को चुनौती नहीं दी है तथा सिर्फ यह कहा है कि यह मेमोरेंम उस पर लागू नहीं होता। वादी ने केरल हाई कोर्ट के सिंगल बेच अथवा डिवीजन बेंच के समक्ष भी इसकी वैधानिकता को चुनौती नहीं दी है।”

ऐसे में सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने वाले सामाजिक कार्यकताओं का यह दायित्व है कि वे भारत सरकार के कार्मिक विभाग द्वारा 1 जुलाई, 1998 जारी ऑफिस मेमोरेंडम की वैधानिकता को कोर्ट में चुनौती दें ताकि प्रतियोगिता के मैदानों को समतल बनाए रखा जा सके।

नवल किशोर कुमार

(नवल किशोर कुमार पटना से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र तरुणमित्र के समन्वय संपादक और वेब पोर्टल अपना बिहार डाट ओआरजी के संपादक हैं। लेख फॉरवर्ड प्रेस से साभार प्रकाशित। )