इंडियन एक्‍सप्रेस का संपादकीय पन्‍ना कारोबारी हितों के हाथों बिका हुआ है!

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पत्रकारिता की आड़ में कारोबारी लॉबी द्वारा उनके हित में प्रायोजित संपादकीय आलेख लिखने वालों को पहचानना वैसे तो मुश्किल काम होता है, लेकिन कभी-कभार लेखक का परिचय और इंटरनेट पर फैला सूचनाओं का जाल इसे आसान बना देता है। ऐसा ही एक उदाहरण बीते 30 जून को सामने आया जब एक्‍सप्रेस समूह के कारोबारी अख़बार ”दि फाइनेंशियल एक्‍सप्रेस” ने जीएम सरसों के पक्ष में और उसका विरोध कर रहे जीएम कार्यकर्ताओं का मज़ाक उड़ाते हुए एक लेख छापा। इस लेख को आप यहां पढ़ सकते हैं। इस आलेख के भीतर क्‍या है, उससे बहुत समझने की ज़रूरत नहीं होगी यदि इसका शीर्ष ही पढ़ लिया जाए: Genetic engineering: Activists behaving like their livelihood depends on blocking GM mustard

शीर्षक कह रहा है कि जीएम सरसों का विरोध करने वाले कार्यकर्ता ऐसे बरताव कर रहे हैं गोया उनकी आजीविका इसके विरोध पर ही टिकी हो। पर्यावरण कार्यकर्ता गोपाल कृष्‍ण ने इस लेख पर एक आलोचनात्‍मक टिप्‍पणी मीडियाविजिल के याहू ग्रुप पर की है जिसमें उनका कहना है कि यह लेख इस बात को दर्शाता है कि कुछ लोेगों की आजीविका बायोटेक उद्योग जैसे प्रच्‍छन्‍न हितों पर टिकी हुई है। गोपाल कृष्‍ण इसी सिलसिले में आगे इंडियन एक्‍सप्रेस में 15 सितंबर, 2015 को प्रकाशित आधार कार्ड पर केंद्रित एक लेख का उदाहरण देते हैं जिसे यूनीक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया के चेयरमैन रहे नंदन नीलेकणि ने खुद लिखा था। उक्‍त लेख में नीलेकणि ने आग्रह किया था कि आधार कार्ड पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ़ एक अपील की जानी चाहिए और इसके कारण गिनवाए थे।

गोपाल कृष्‍ण कहते हैं कि ये दोनों आलेख इस बात का प्रमाण हैं कि कैसे कारोबारों से जुड़े लोग जनहित की अवमानना करते हुए अवैज्ञानिक परियोजनाओं को पत्रकारीय लेखन की आड़ में वैज्ञानिक और प्रामाणिक ठहराने का काम करते हैं तथा प्रच्‍छन्‍न तरीके से कारोबारों की पैरवी करते हैं। यह बात फाइनेंशियल एक्‍सप्रेस के 30 जून को जीएम पर छपे आलेख से बिलकुल साफ़ हो जाती है जिसके लेखक कोई विवियन फर्नांडिस हैं। फर्नांडिस के लिंक्‍डइन प्रोफाइल पर जाकर पता चलता है कि वे पिछले डेढ़ साल से कर्सर एडिटोरियल सर्विसेज़ नामक एक कंपनी चला रहे हैं जहां पैसे लेकर ग्राहकों के लिए अखबारों में संपादकीय लेख लिखे जाते हैं।

फर्नांडिस की प्रोफाइल कहती है: ”At Cursor Editorial Services we do content development on television and the Internet for a fee. Our aim is to bring the rigour of journalism to sponsored content. We do not (repeat not) cede editorial control.” इसका मतलब है कि फर्नांडिस की कंपनी शुल्‍क लेकर टीवी और इंटरनेट के लिए कंटेंट प्रदान करती है। उनका लक्ष्‍य प्रायोजित कंटेंट को पत्रकारीय शक्‍ल देना है। सबसे ख़तरनाक वाक्‍य आखिरी है: ”हम संपादकीय नियंत्रण के सामने समर्पण नहीं करते”। ”नहीं” के सामने कोष्‍ठक में ”रिपीट नॉट” लिखा हुआ है। इसा सीधा सा मतलब है कि इंडियन एक्‍सप्रेस अपने संपादकीय पन्‍ने को उन लोगों के हाथों बेच रहा है जो उसकी संपादकीय नीति से मुक्‍त हैं और किसी और के लिए काम करते हैं।

यह सीधे तौर पर एक विज्ञापन हुआ, जिसे अख़बार के संपादकीय पन्‍ने पर आलेख की शक्‍ल में छाप कर पाठकों को धोखा दिया जा रहा है। गोपाल कृष्‍ण इस प्रवृत्ति को समझने के लिए 1974 में प्रकाशित थॉमस शाज़ की पुस्‍तक ”दि सेकंड सिन” का सहारा लेते हैं जिसमें लिखा है: ”पशुओं के साम्राज्‍य में यह कानून चलता है कि दूसरे को खा जाओ या उसका निवाला बन जाओ। उसी तरह मनुष्‍यों के साम्राज्‍य में नियम यह है कि खुद चीज़ों को परिभाषित करो या परिभाषित हो जाओ।”

फर्नांडिस एक दौर में इंडिया टुडे में काम कर चुके हैं और वे नरेंद्र मोदी पर एक किताब भी लिख चुके हैं। उसी तरह असंवैधानिक संस्‍था यूआइडीएआइ का चेयरमैन बनने से पहले नंदन नीलेकणि इंफोसिस के सीईओ रह चुके हैं। समझा जा सकता है कि जब संपादकीय कंटेंट के नाम पर प्रकाशित किए जा रहे कारोबारी हितों को इंडियन एक्‍सप्रेस जैसा समूह इतने खुले तौर पर जगह दे रहा हो, तो टाइम्‍स ऑफ इंडिया जैसे लोकप्रिय अख़बार  में क्‍या होता होगा जहां अख़बार ने सैकड़ों कंपनियों के साथ प्राइवेट ट्रीटी की हुई है और जिसका मालिक खुद अपने साक्षात्‍कार में कहता फिरता है कि हमारा अख़बार विज्ञापन के लिए निकलता है।

यह आम पाठक के साथ सरासर धोखा है और अभिव्‍यक्ति के संवैधानिक मूल्‍यों की आंख में धूल झोंकने जैसा कृत्‍य है।