अख़बारनामा: क्या आपके अख़बार ने आपको नोटबंदी पर जानकारों की राय बताई?


आप 500 और 1000 रुपए के नोट बंद कर रहे हैं तो 2000 रुपए के नए नोट क्यों शुरू करेंगे?


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काॅलम Published On :


संजय कुमार सिंह


आज के अखबारों में विश्व हिन्दू परिषद की रैली छाई हुई है। मेरा मानना है कि खबर छपती है इसलिए रैली होती है और रैली होती है इसलिए खबर छपती है। और पहले खबर छपवाने वालों का स्वार्थ होता था अब छापने वालों का भी होता है तो ऐसी खबरें प्रमुखता से छपती हैं। आज गिनती के अखबारों को छोड़कर ज्यादातर में यही खबर लीड है। इसलिए मैं इसकी चर्चा नहीं कर रहा। आज एक अलग खबर दिखी कि नोटबंदी के खिलाफ सरकार के समर्थक लोग भी बोलने लगे हैं और लागू करने के तरीके को ही गलत बताया जा रहा है। मैं यहां अंग्रेजी दैनिक द टेलीग्राफ की खबर का अनुवाद (संपादित) पेश कर रहा हूं। देखिए, आपके अखबार ने यह खबर आज या पहले के जिन मौकों का जिक्र है तब आपको दी क्या? नोटबंदी की खबरें वैसे तो पहले पेज पर छपती रही हैं पर अब संभव है आर्थिक खबरों के पेज पर हो। इसलिए वहां भी देख लीजिए और जानिए कि आपका अखबार आपको कैसी खबरें देता है। क्या नहीं देता है, वह भी।

टेलीग्राफ की खबर, बदले की कार्रवाई के कारण दो साल से लगभग शांत चल रही नोटंबदी को लागू करने के तरीके की निन्दा अब धीरे-धीरे शुरू हो रही है। कारोबारी क्षेत्र के ऐसे लोग सामने आ रहे हैं जो नरेन्द्र मोदी सरकार के सबसे अच्छे समर्थकों में रहे हैं। खुलकर बोलने वालों में सबसे नए हैं उदय कोटक, असाधारण बैंकर और कॉरपोरेट प्रशासन के विशेषज्ञ। सरकार ने अभी हाल में उन्हें आईएलएफएस के मामलों को सुलझाने के लिए बने स्वतंत्र विशेषज्ञों के एक समूह का नेतृत्व करने के लिए कहा था। कोटक ने अब कहा है कि नोटंबदी की योजना अच्छी तरह बनाई गई होती तो इसका परिणाम “बहुत अच्छा” होता।

अखबार के विशेष संवादादाता ने मुंबई डेटलाइन की इस खबर में पीटीआई के हवाले से लिखा है, उन्होंने कहा, मैं समझता हूं कि अगर हमलोगों ने सामान्य चीजों के बारे में भी सोचा होता तो नतीजे बहुत बेहतर होते। अगर आप 500 और 1000 रुपए के नोट बंद कर रहे हैं तो 2000 रुपए के नए नोट क्यों शुरू करेंगे? उन्होंने सप्ताहांत में अरविन्द सुब्रमण्यम की पुस्तक के लोकार्पण के मौके पर मुंबई में यह बात कही थी। काले धन के खिलाफ मोदी के सर्जिकल स्ट्राइक की इसी बुनियादी गड़बड़ी की चर्चा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के पूर्व अर्थशास्त्री और इस समय हावर्ड यूनिवर्सिटी में इकनोमिक्स के प्रोफेसर केनेथ रोगॉफ ने भी की थी।

अपनी किताब दि कर्स ऑफ कैश में रोगॉफ अमेरिकी सरकार से अपील कर चुके हैं कि दुनिया की सबसे उन्नत अर्थव्यवस्था को कैशलेस बनाने के लिए 100 डॉलर के नोट को तत्काल और 50 व 20 डॉलर वाले को धीरे-धीरे खत्म कर दिया जाए। पर उन्होंने कभी यह नहीं सोचा था कि भारत जैसा मध्यम आय वाला देश उच्च मूल्य वाले अपने नोट बंद करेगा। मोदी की चौंकाने वाली घोषणा के तुरंत बाद 17 नवंबर 2016 को उन्होंने एक ब्लॉग में लिखा था, भारत का तरीका दो बुनियादी तौर पर बिल्कुल ही अलग है। सबसे पहले तो मैं धीरे-धीरे (बड़े नोट) बंद करने के पक्ष में हूं जिसमें नागरिकों के पास अपनी मुद्रा बदलने के लिए सात साल तक का समय हो। पर नोट बदलना समय के साथ कम सुविधाजनक किया जाए …. दूसरे, मेरा तरीका बड़े नोट को पूरी तरह खत्म करने का है। पर भारत में बड़े नोट खत्म करने की बजाय पुराने नोट के बदले और बड़ा, 2000 रुपए का नोट दिया जा रहा है।

अपनी नवीनतम पुस्तक में (अरविन्द) सुब्रमण्यम ने नोटबंदी को “एक जोरदार, क्रूर मौद्रिक झटका” कहा है जिससे विकास की गति में मंदी की शुरुआत हुई। गए महीने रिजर्व बैंक के गवरनर रघुराम राजन ने कहा था कि नोटबंदी और जल्दबाजी में लागू की गई जीएसटी ने आर्थिक विकास का गला घोंट दिया है। (भारतीय) उद्योग आमतौर पर नोटबंदी पर हमला करने में हिचकते रहे हैं हालांकि कुछ अपवाद भी रहे हैं। जुलाई में बजाज ऑटो के चेयरमैन राहुल बजाज ने नोटबंदी की उपलब्धियों पर सवाल उठाया था। बजाज समूह के प्रमुख के बेटे राजीव बजाज इसपर हमला करने वाले शुरुआती लोगों में हैं और कहा है कि नोटबंदी का आईडिया ही गलत है।

लोकार्पण के मौके पर कल कोटक ने कहा कि नोटबंदी को लागू करने की रणनीति के भाग के रूप में यह सुनिश्चित करना जरूरी था कि सही राशि के नोट बड़ी संख्या में उपलब्ध होते (ताकि कारोबार और अर्थव्यवस्था पर असर नहीं पड़ता)। पर कोटक ने कहा कि वित्तीय क्षेत्र के लिए नोटबंदी एक जोरदार वरदान रही है।

इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर पहले पन्ने पर दो कॉलम में है। अंदर के पन्ने पर जारी है और काफी विस्तार में है। हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर नहीं है। टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर बिजनेस पेज पर सिंगल कॉलम में है। लेकिन विस्तार में है। हिन्दी अखबारों में यह खबर ढूंढ़नी पड़ेगी। पहले पन्ने पर होने की उम्मीद नहीं है। जो अखबार देखे उनमें मिला नहीं और ढूंढ़ने में देर हो जाएगी इसलिए आप अपने अखबार में देखिए और जानिए कि आपका अखबार आपको कैसी खबरें पढ़ा रहा है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। जनसत्ता में लंबे  समय तक रहते हुए सबकी ख़बर लेते रहे और सबको ख़बर देते रहे।