हिंदी अखबारों के सम्पादकीय में मजदूर, किसान, छात्र, नौजवान, महिलाएं अगर नहीं, तो बचा कौन?

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मीडियाविजिल पर हर सुबह प्रमुख हिंदी दैनिकों के संपादकीय का नियमित प्रकाशन होते महीना भर से ज्‍यादा हो गया। इस स्‍तंभ की संकल्‍पना के पीछे अव्‍वल तो यह उद्देश्‍य था कि किसी गंभीर पाठक को सारे संपादकीय आलेख एक ही छत के नीचे पढ़ने को मिल जाएं ताकि उसे सारे अख़बार न खरीदने पड़ें। वैसे भी जिस तरीके से शहरों-कस्‍बों में अख़बारो के स्‍टॉल कम हुए हैं, आज एक साथ सारे अख़बार मिल पाना ही दुष्‍कर हो चला है। पाठकों की सुलभता के अलावा एक और उद्देश्‍य था कि एक बार यह स्‍तंभ नियमित हो जाए और इसमें सारे अहम अख़बार जुड़ जाएं तो साप्‍ताहिक आधार पर इनका एक तुलनात्‍मक अध्‍ययन करवाया जाए ताकि पता चल सके कि अख़बारों का किन विषयों पर वैचारिक फोकस ज्‍यादा है और कौन से विषय उनके संज्ञान से छूट रहे हैं। कोशिश यह भी थी कि इस तुलनात्‍मक अध्‍ययन को वीडियो फॉमेट में एक संक्षिप्‍त दैनिक समीक्षा तक ले जाया जाए।
ज़ाहिर है, इस काम में वक्‍त और संसाधन दोनों लगने थे। यह योजना अभी प्रक्रिया में ही थी कि भारतीय जनसंचार संस्‍थान के एक छात्र दीपक कुमार ने हमें 15 फरवरी से 15 मार्च तक के हिंदी अखबारों के संपादकीय आलेखों का तुलनात्‍मक विश्‍लेषण कर के भेज दिया। इससे सुखद भला क्‍या हो सकता था। तमाम तकनीकी खामियों के बावजूद प्रस्‍तुत तुलनात्‍मक अध्‍ययन हम जस का तस प्रकाशित कर रहे हैं। संपादकीय आलेखों की तुलना के लिए जो कोटियां बनाई गई हैं, वहां कुछ दिक्‍कत है। कुछेक ओवरलैपिंग हैं। कुछ कोटियां जिन पर हम ज़ोर देने के इच्‍छुक थे- जैसे ‘सामाजिक न्‍याय’, ‘सांप्रदायिकता’, वह नदारद है। बावजूद एक छात्र और प्रशिक्षु पत्रकार के काम के लिहाज से यह अध्‍ययन मौजूं है। ध्‍यान देने वाली बात है कि बिना ज्‍यादा तकनीकी लागलपेट के सात हिंदी अखबारों के संपादकीय लेखों पर डाली गई सरसरी निगाह का जो निष्‍कर्ष निकलता है, वह एक आम पाठक के अनुभव से मेल खाता है।
शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, लोकहित के मुद्दे, खेतीबाड़ी, किसान, मजदूर, महिलाएं, छात्र-नौजवान आदि जो देश की आबादी में अब भी 70 फीसदी से ज्‍यादा हिस्‍सा रखते हैं, अखबारों के संपादकीय पन्‍नों से वे नदारद हैं। त्रासद है कि जब देश का किसान, छात्र, नौजवान सड़क पर अपनी मांगों को लेकर आंदोलन पर उतर चुका है, अखबार अब भी शुतुरमुर्ग की तरह मुंह छुपाए बैठे हैं।   (संपादक)
दीपक कुमार 

संपादकीय किसी भी समाचारपत्र के विचारों और नीति का संवाहक होता है। अहम मसलों पर किसी समाचारपत्र का क्या रुख़ है वह उसके संपादकीय लेख से ही अभिव्यक्त होता है। ऐसा माना जाता है कि संपादकीय आलेखों का विषयगत वैविध्य तात्कालिकता और स्थायित्व दोनों से लैस होना चाहिए। यह तय है कि पूंजी आधारित अख़बारों में संपादकीय लेखन की धार एकदम कुंद-सी हो गई है। अब अख़बार संपादकीय आलेख के नाम पर अपना कोरम ही पूरा करते हैं। पर यह देखना दिलचस्प होगा कि इस दौर में अख़बार अपने संपादकीय आलेखों में किन मुद्दों को जगह दे रहे हैं।

बीते दिनों कई अहम घटनाएं घटीं। कई अहम रिपोर्ट भी सामने आईं। पीएनबी स्कैम से लेकर एसएससी स्कैम जैसे घोटाले सामने आए। छात्रों और किसानों को अपनी मांगों के लिए सड़क पर उतरना पड़ा। देश में आर्थिक असमानता बढ़ने और विश्व खुशहाली सूचकांक (जीएनएच) में लुढ़क जाने जैसी रिपोर्टें भी सामने आईं। इसी बीच विश्व सामाजिक न्याय दिवस से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस भी मनाया गया।

इस अहम समय में हिंदी अख़बारों के नज़रिए से अहम मसले क्या थे? कौन-से मुद्दे उनके नज़र में महत्वपूर्ण थे जिन्हें उन्होंने अपने संपादकीय में उठाया है? इस संदर्भ में हमने यहाँ हिंदी के कुछ प्रमुख अख़बारों के एक महीने (15 फरवरी से 15 मार्च 2018) के संपादकीय का जायजा लिया है।

सबसे पहले संपादकीय में उठाए गए मुद्दों को कई विषयों के अन्तर्गत बाँटा गया है ताकि हमें यह समझने में आसानी हो कि अख़बारों ने अपने संपादकीय में किन-किन विषय को प्रमुखता दी है और किसे उपेक्षित किया है। मुद्दे के अनुसार विषयों का बँटवारा एक जटिल काम है फिर भी एक समझ के अनुसार उसे अलग-अलग विषयों के अन्तर्गत डाला गया है। यह पहले ही स्पष्ट कर दिया  जा रहा है कि इस विश्लेषण में हिंदी के प्रमुख अख़बारों के दिल्ली संस्करण में छपे मुख्य संपादकीय आलेखों को सम्मिलित किया गया है।

निम्न तालिका में अख़बारों के नाम, विषयों के नाम और उस विषय पर प्रकाशित संपादकीय की संख्या को सूचीबद्ध किया गया है।

दैनिक जागरण

­­­­­­­­­दैनिक जागरण ने बीते एक महीने में अधिकतर संपादकीय घरेलू राजनीति पर लिखे हैं: अख़बार ने 15 फरवरी से 15 मार्च के बीच घरेलू राजनीति पर कुल 12 संपादकीय लिखे हैं। इसमें राजनीति के मूल मुद्दों के साथ सेना प्रमुख की राजनीतिक टिप्पणी,रक्षा सौदे में हो रही राजनीति से लेकर चुनाव सुधार जैसे मुद्दे को भी अपने संपादकीय टिप्पणी में सम्मलित किया है। इसके बाद जागरण आर्थिक जगत के मुद्दों पर कुल 8 संपादकीय आलेख को जगह देता है। इन संपादकीय में अख़बार बैंकों में हुए घोटाले, इस संदर्भ में सरकार द्वारा लिए जा रहे फैसले और जीएसटी में सुधार जैसे संबंधित विषयों को उठाता है। अन्तर्राष्ट्रीय विषय पर कनाडा के साथ भारत के संबधों पर एक लेख है।

हाल ही में महाराष्ट्र में किसानों का एक बड़ा आंदोलन हुआ। इसको लेकर जागरण में कोई संपादकीय टिप्पणी नहीं छपी है। एक महीने में कृषि विषय पर एकमात्र संपादकीय लिखा गया है जो प्रधानमंत्री के द्वारा खेती की दशा सुधारने और किसानों की आय बढ़ाने को किए जा रहे उपायों पर प्रकाश डालता है।

बाकी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, युवा, महिला, पार्यावरण, खेल और तकनीक जैसे विषयों पर जागरण में बीते एक महीने में एक भी संपादकीय नहीं लिखा गया है। अहम मुद्दों पर इस प्रकार की शून्यता यह दर्शाती है विश्व का सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला अख़बार अधिसंख्य जनता से कट गया है।

दैनिक भास्कर

दैनिक भास्कर ने भी अपने संपादकीय पेज पर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से जुड़े मुद्दों पर सबसे अधिक संपादकीय लिखा है। बीते एक महीने में राष्ट्रीय राजनीति और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर क्रमश: 5 और 3 संपादकीय है। रक्षा से जुड़े विषय पर दो संपादकीय लिखा गया है। इसके अलावा अर्थजगत, लोकहित से जुड़े मुद्दे, कृषि और तकनीक पर एक-एक संपादकीय लिखा गया है। बाकी भास्कर में भी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, युवा, महिला, पार्यावरण, खेल  जैसे विषयों को लेकर संपादक की लेखनी कुंद कर गई है। इन अहम विषयों पर पाठक को शून्य ही हासिल होता है।

नवभारत टाइम्स

नवभारत टाइम्स में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को लेकर क्रमश: 7 और 6 संपादकीय लिखे गए हैं। अर्थजगत के मुद्दों पर 6 संपादकीय आलेख को जगह दिया गया है। जनहित के मुद्दे पर एकमात्र आधारकार्ड से संबंधित संपादकीय है। महिला जैसे अहम विषय पर एकमात्र संपादकीय है। नवभारत टाइम्स ने खेल पर भी एक संपादकीय को जगह दी है। बाकी विषयों पर नवभारत टाइम्स और अन्य अख़बारों के तरह यह भी शून्यता की स्थिति में ही है।

हिन्दुस्तान

अन्य अख़बारों के मुकाबले हिन्दुस्तान ने विभिन्न विषयों को अपने संपादकीय में जगह दी है। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से संबंधित क्रमश: 4 और 5 संपादकीय, अर्थजगत और लोकहित से संबंधित मुद्दों पर दो-दो संपादकीय लिखे गए हैं। इसके अलावा स्वास्थ्य, कृषि, महिला, खेल जैसे विषयों पर एक-एक संपादकीय आलेख लिखे गए हैं। हिन्दुस्तान ने पर्यावरण को लेकर दो संपादकीय लिखा है। तमाम मुद्दे छूने के बावजूद शिक्षा जैसे अहम मुद्दे पर बीते एक महीने में हिन्दुस्तान में एक भी संपादकीय नहीं है।

जनसत्ता

अपनी संपादकीय विशिष्टटा के लिए कभी जाना जाने वाला जनसत्ता स्वास्थ्य, कृषि, रोजगार, महिला, युवा, पार्यावरण, खेल और तकनीक जैसे अहम विषयों पर शून्यता की स्थिति में है। उसने बीते 15 फरवरी से 15 मार्च के बीच इस विषयों पर एक भी संपादकीय टिप्पणी नहीं की। जनसत्ता में राष्ट्रीय राजनीति और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर क्रमश: 7 और 4 संपादकीय हैं। रक्षा से जुड़े विषय पर चार संपादकीय लिखा गया है। इसके अलावा अर्थजगत और लोकहित से जुड़े तीन-तीन संपादकीय लिखे गए हैं।

राजस्थान पत्रिका

राजस्थान पत्रिका ने दैनिक जागरण के बाद सबसे ज्यादा 11 संपादकीय लिखा है जो घरेलू राजनीति से संबंधित है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और अर्थजगत से संबंधित क्रमश: 2 और 3 संपादकीय है। लोकहित के मुद्दे से भी तीन संपादकीय है। इसके अलावा पत्रिका ने रोजगार के मुद्दे पर भी एक संपादकीय लिखा है। बाकी बीते एक महीने में रक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, महिला और पार्यावरण जैसे मुद्दे पर पत्रिका ने एक भी संपादकीय को अपने संपादकीय में जगह नहीं दी है।

अमर उजाला

अमर उजाला में लोकहित, कृषि, शिक्षा, रोजगार जैसे अहम मुद्दे पर बीते एक महीने में एक-एक संपादकीय लिखा गया है हालांकि कई अहम विषय पर संपादकीय नहीं लिखे गए। राजनीति और अर्थजगत से जुड़े मुद्दों पर ही संपादक की कलम ज्यादा चली।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विश्लेषण से यह साफ़ पता चलता है कि हिंदी के अख़बार राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के मकड़जाल में ही फंसे हैं। हिंदी अख़बारों की संपादकीय कलम स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, युवा और महिलाओं की बुनियादी समस्याओं से दूर होती गई है। समाज से जुड़े ऐसे विषयों का हिंदी के अखबारों से गायब होना अखबारों के समाज से कटते जाने का संकेत है।


दीपक कुमार भारतीय जनसंचार संस्थान में हिंदी पत्रकारिता के छात्र हैं