6 दिसंबर :”रपटों में केवल हुंकार लिखना था, हिंदी अख़बार हिंदू हो गये थे !”

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भाऊ कहिन-2

raghvendraलखनऊ , पॉयनियर चौराहे की वह थोड़ी – थोड़ी बहकी रात भी याद आ रही है । कविता और खबर के बीच बहुत धीमी आंच पर पके रिश्तों की बात ।
( आगधर्मी कविताओं के दिन – श्रृंखला में स्व. जयप्रकाश शाही , स्व. डा. सदाशिव द्विवेदी , रामेश्वर पाण्डेय काका , विनय श्रीकर , रामसेवक श्रीवास्तव , तड़ित कुमार आदि पर लिखना उसी रिश्ते की पड़ताल है )

कहते हैं पाब्लो नेरुदा जब प्रेम कविताएं लिख रहे थे , ठीक उसी दौरान स्टूडेंट फेडरेशन के अखबार क्लारिदाद में कामगारों के मौलिक अधिकारों के सरकारी दमन के खिलाफ रपट भी लिख रहे थे ।

अयोध्या , 6 दिसम्बर 1992 : यहां कविता की गुंजाइश तो थी ही नहीं , मुख्यालय भेजी जा रही रपटों में भी , केवल हुंकार लिखना था , उसमें दबा सच नहीं । एक सनकी आदेश चहेंटता , धकियाता रहता था — कारसेवकों का मिजाज लिखो । दूसरे और भी अखबारों की तरह हिन्दी से हिन्दू हो गए अपने अखबार में भी हम , देश की एक खास नस कट जाने के बारे में बहुत बचा कर ही लिख सके ।

हालांकि अनिल कुमार यादव फिर भी पंक्तियों की तह में ही सही , हादसे के पीछे का सच लिख ले रहे थे । अयोध्या में हम दोनों साथ ही थे । एक डॉक्टर साहिबा के घर साथ ही आलू के पराठे खाये । साथ – साथ ही रहे और 7 दिसम्बर को रेल के एक शंटिंग इंजन पर चढ़ कर लखनऊ साथ ही लौटे ।

आज जमी याद फिर टहक गई । पलीता लगाया पत्रकार राजशेखर ने । सच कहूं तो यह उनका ही असाइनमेंट पूरा कर रहा हूं ।

उस समय , फैजाबाद से निकल रहे दैनिक जनमोर्चा को छोड़ , कुछ हिन्दी अखबारों ने तो इसी उन्माद पर तैरा कर अपने अखबार का प्रसार बढ़ाने की रणनीति भी बना ली । वे अन्हराई ऊर्जा के विस्फोट में हिन्दू राष्ट्र की कौंध देखने लगे ।

स्व. प्रभाष जोशी ने आडवाणी का धतकरम लिख कर , कुछ बाद में ही सही , खुद को करेक्ट किया । लिखा —
बाबरी मस्जिद के ढहे मलबे पर , शाम के धुंधलके में राम लला मुझे बहुत उदास दिखे ।

राजशेखर , शायद रामकृपाल जी को याद हो । एक सेमिनार में आदरणीय जोशी जी का गिल्ट (अपराध बोध ) रिसा भी । हंगामा भी हुआ , जब उन्होंने कहा था — … यह सच है कि अंग्रेजी अखबार मंडल मुद्दे पर तो हिन्दी अखबार मंदिर मुद्दे पर , लेकिन दोनों पगलाये । दोनों ही औचित्यपूर्ण और सन्तुलित नहीं रह सके ।

दिसम्बर का वह बवंडर मन में आज तक मंडरा रहा है । आज से 24 साल पहले का । जब हिन्दू अवाम में ठूंस – ठूंस कर भरे गए निहायत गैर जरूरी गुस्से ने , साझा संस्कृति के अवधारणा की एक तामीर ढाह दी । भारतीयता , जो कई बलवती सभ्यताओं के योग से बनी है ( कुछ दृश्यमान विरोध जो भारतीय संस्कृति के निर्माण में सहायक हुए ) उसका तहस – नहस कर देने की नीयत वाले लोग , पूरा देश हांक ले गए । यह कैसे हो गया।
अब तो जय श्रीराम का घोष डरा देता है ।

अभी – अभी दशहरे के दिन ऐशबाग ( लखनऊ ) में यह जयघोष सुन चुका हूं ।

( क्रमश: )

.राघवेंद्र दुबे

(वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे उर्फ़ भाऊ अपने फ़क्कड़ अंदाज़ और निराली भाषा के लिए ख़ासतौर पर जाने जाते हैं। इन दिनों वे अपने पत्रकारीय जीवन की तमाम यादों के दस्तावेज़ तैयार कर रहे हैं। भाऊ 6 दिसंबर 1992 को साथी पत्रकार अनिल कुमार यादव  के साथ अयोध्या में दैनिक जागरण के रिपोर्टर बतौर मौजूद थे जब बाबरी मस्जिद तोड़ी जा रही थी। भाऊ अपने संस्मरण में जिन राजशेखर को क़िस्सा सुना रहे हैं वे वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं जिन्होंने बड़े प्यार से भाऊ को यादों की वादियों में धकेल दिया है। )

पिछड़ी कड़ी  पढ़ें–भाऊ कहिन-1