ABP ने सैकड़ों निकाले, पर ठेका मज़दूर बन चुके पत्रकार लड़ें तो कैसे ?

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                                 पत्रकारों को कमज़ोर बनाकर रखने की ‘साज़िश’ का ज़िम्मेदार कौन ?
                                                                  प्रियभांशु रंजन

हाल में खबर आई कि देश के प्रमुख मीडिया समूह आनंद बाजार पत्रिका (ABP) ग्रुप ने अपने बांग्ला अखबार आनंद बाजार पत्रिका और अंग्रेजी अखबार The Telegraph से करीब 120 पत्रकारों की छंटनी कर दी ।

बीते दिसंबर महीने में भी Hindustan Times ग्रुप और ABP ग्रुप ने सैकडों पत्रकारों और गैर-पत्रकारों को रातोंरात नौकरी से निकाल ​दिया था ।

ऐसा नहीं है कि मीडिया में ऐसे वाकये पहली बार हुए हों । मीडिया में काम करने वालों को बखूबी पता है कि नियम-कायदों को ताक पर रखकर पत्रकारों को नौकरी से निकालने की घटनाएं आए दिन सामने आती रहती हैं ।

हैरान करने वाली बात है कि सैकडों पत्रकारों को नौकरी से निकालने की घटनाएं हो जाती हैं, लेकिन कहीं कोई इस पर खुलकर चर्चा नहीं करता । सोशल मीडिया या मुख्यधारा के मीडिया से बाहर के लोगों को कोई क्यों कोसे, जब मीडिया में काम करने वाले ही ऐसे गंभीर मुद्दों पर चर्चा से कतराते हैं ।

आखिर ऐसा क्या है कि दूसरों की हक की आवाज उठाने वाले पत्रकार अपनी हकमारी पर चुप रह जाते हैं ? क्या ये ​बेफिक्री है ? क्या ये बेबसी है ?

ये बेफिक्री नहीं बल्कि बेबसी है । इस बेबसी की शुरूआत तब हुई जब पत्रकारों को ठेके पर काम करने वाला मजदूर समझा जाने लगा ।

एक दौर था जब किसी बडे अखबार या न्यूज एजेंसी का रिपोर्टर भी प्रधानमंत्री और सरकार के ताकतवर मंत्रियों से बराबर के स्तर पर बात करता था । लेकिन आज हालत ऐसी हो गई है कि रिपोर्टर तो क्या, एडिटर भी प्रभावशाली लोगों से कोई तीखी बात करने से पहले 10 बार सोचता है ।

दरअसल, उस दौर में ज्यादातर पत्रकारों की नौकरी पक्की होती थी । तो उसे पता होता ​था कि वो किसी प्रभावशाली नेता या कारोबारी से कोई तीखे सवाल कर भी ले और कोई निगेटिव खबर चला भी दे तो उसका कुछ नहीं बिगडेगा । उसकी नौकरी खतरे में नहीं पडेगी ।

लेकिन आज के 90 फीसदी से ज्यादा पत्रकार ठेके यानी CONTRACT पर काम करने को मजबूर हैं । उन्हें हमेशा ये डर सताता रहता है कि कहीं ज्यादा ‘क्रांतिकारी’ बनने पर नौकरी से हाथ न धोना पड जाए ।

इसके अलावा, आजकल राजनीतिक पार्टियों से लेकर कारोबारी घरानों और फिल्मी हस्तियों तक की अपनी जनसंपर्क यानी PUBLIC RELATIONS टीमें हैं, जो पहले ही ये तय कर देती हैं कि रिपोर्टर कौन से सवाल करेगा और उसे क्या जवाब देना है । ऐसे में पत्रकारिता में धार रह कहां जाती है ? पत्रकारिता तो एक ऐसा औजार बनकर रह गई है कि जिसका इस्तेमाल ‘सेलेब्रिटीज’ अपने मनमाफिक खबरें छपवाने के लिए करते हैं ।

तो क्या इसमें सारा दोष मीडिया घरानों का ही है ? क्या वे ही पत्रकारों को कमजोर करके रखना चाहते हैं ? नहीं । ऐसा कतई नहीं है ।

ठेके पर नौकरी कराकर पत्रकार को ‘दीन-हीन’ बनाने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हमारी सरकारें हैं । किसी और ने नहीं बल्कि हमारी संसद ने 1955 में श्रमजीवी पत्रकार कानून (Working Journalist Act) पारित करके मीडिया की आजादी की दिशा में एक बडा कदम उठाया था ।

लेकिन किसी मीडिया प्रशिक्षण संस्थान में पत्रकारिता के छात्र या किसी प्रशिक्षु पत्रकार से इस कानून के बारे में पूछकर देखिए । ज्यादा ‘आशंका’ इसी बात की है कि उसे इस अहम कानून के बारे में कुछ पता ही नहीं होगा ।

श्रमजीवी पत्रकार कानून ने न सिर्फ पत्रकारों को नौकरी की सुरक्षा दी थी, बल्कि उनके काम के घंटे तक तय कर दिए थे ।

दुर्भाग्य की बात है कि समूची प्रिंट मीडिया पर लागू होने वाला यह कानून Press Trust of India (PTI) और United News of India (UNI) जैसे कुछ मीडिया घरानों तक सीमित होकर रह गया है । हालांकि, अब PTI में भी ज्यादातर पत्रकार ठेके पर ही काम कर रहे हैं ।

सरकार अपने कर्मचारियों के लिए जिस तरह वेतन आयोग गठित करती है, उसी तरह सरकार को श्रमजीवी पत्रकार कानून के दायरे में आने वाले पत्रकारों के लिए ‘वेज बोर्ड’ गठित करना होता है । पिछले वेज बोर्ड की सिफारिशें सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही लागू हो पाईं । हालांकि, आज भी ज्यादातर मीडिया घरानों ने उन सिफारिशों को लागू नहीं किया है ।

गौर करने वाली बात है कि नए वेज बोर्ड के गठन का वक्त आ चुका है, लेकिन इसकी सुगबुगाहट कहीं नहीं है । न तो सरकार को नए वेज बोर्ड के गठन की कोई चिंता दिखती है, न मीडिया घरानों को और न ही श्रमजीवी पत्रकारों को इसकी परवाह है । ठेके पर काम करने वाले पत्रकारों को तो छोड ही दें ।

जरूरत इस बात की है कि पत्रकारों को नौकरी की सुरक्षा दी जाए । तभी इस देश में मीडिया सही मायने में आजाद हो पाएगा । वरना, दिनों-दिन पत्रकारों की विश्वसनीयता घटती ही चली जाएगी । आम जनता तो विश्वसनीयता में कमी के लिए पत्रकार को ही जिम्मेदार ठहराती है । लेकिन जनता को इसकी असल वजह कहां पता?

दूसरों की हक की आवाज उठाने वाले पत्रकारों को अब अपने लिए भी सोचना चाहिए । कहीं ऐसा न हो कि लोकतंत्र के चौथे खंभे की जिम्मेदारी निभाने वाला पत्रकार 8-10 घंटे की ‘नौकरी’ करने वाला शख्स बनकर रह जाए । यदि ऐसा हुआ तो लोकतंत्र के लिए इससे बुरा कुछ नहीं होगा ।

 

 

( लेखक युवा पत्रकार हैं )