सलमान रुश्दी ने सुनी अमेरिका में तानाशाही की आहट, बोले-‘अमरीकियों सावधान!’

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मुझे तानाशाहों की पहचान है, अमरीका सावधान

सलमान रुश्दी

मैंने अपनी ज़िंदगी में कई तानाशाहों को चढ़ते और गिरते देखा है. आज मैं इस अप्रिय नस्ल के लोगों की पिछली पीढ़ियों को याद कर रहा हूँ.

भारत में जब 1975 में इंदिरा गांधी चुनाव में गड़बड़ी की कुसूरवार पाई गईं तो उन्होंने देश भर में इमरजेंसी लगाकर मनमाने अधिकार अपने हाथों में ले लिए. इमरजेंसी तभी खत्म हुई जब इंदिरा गांधी ने चुनाव कराए, उन्हें यकीन था कि उनकी जीत होगी लेकिन उनका सफाया हो गया. उनका अहंकार उनकी हार की वजह बना. मैंने यह कहानी अपने उपन्यास मिडनाइट्स चिल्ड्रेन में एक हिस्से के तौर पर रखी है. 1977 में पाकिस्तान में जनरल ज़िया उल हक ने प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो का तख्तापलट कर दिया और दो साल बाद उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया. यह काली कहानी मेरे उपन्यास शेम का हिस्सा थी. मेरी ज़िंदगी के हालात ऐसे रहे हैं कि मुझे तानाशाहों की दिमागी बनावट काफी हद तक समझ में आती है.

अति आत्ममुग्धता, वास्तविकता से दूरी, चापलूसों से प्रेम और सच बोलने वालों को लेकर गहरा संशय, जनता में अपनी छवि को लेकर खब्त, पत्रकारों से नफ़रत, एक अनियंत्रित बुलडोज़र जैसा रवैया—ये कुछ विशेषताएँ हैं जो हर तानाशाह में पाई जाती हैं.

जहाँ तक फ़ितरत का सवाल है, राष्ट्रपति ट्रंप बड़े खोखले किस्म के तानााशाह हैं जिन्हें टिनपॉट डेस्पॉट कहना चाहिए. लेकिन बात ये है कि वे एक ऐसे देश के राष्ट्रपति बन गए हैं जो ऐतिहासिक तौर पर मानता आया है कि वह स्वतंत्रता के पक्ष में है, हालाँकि यह हमेशा सही नहीं रहा है. अब तक रिपब्लकिन पार्टी की मिलीभगत से उन्होंने देश पर कमोबेश बेलगाम तरीके से ही राज किया है. अब चुनाव सिर पर हैं, ट्रंप अलोकप्रिय हैं, और उनके पास चुनाव जीतने की कोई रणनीति दिख नहीं रही है. अब अगर इसका मतलब ये है कि जीतने के लिए अमरीकियों की आज़ादियों को भी कुचलना हो तो उन्हें खास परवाह नहीं होगी.

मैं अमरीका में बीस साल से रह रहा हूँ, पिछले चार साल से उसका नागरिक हूँ. अमरीकी नागरिकता लेने के पीछे की एक सबसे बड़ी वजह ये भी थी कि मैं स्वतंत्रता के उस विचार की बहुत सराहना करता हूँ जो अमरीकी संविधान के पहले संशोधन के मूल में है. संविधान के प्रति ट्रंप का सम्मान जग ज़ाहिर है, मैं उनको याद दिलाना चाहूँगा कि संविधान का पहला संशोधन दूसरी बातों के अलावा यह भी कहता है कि, “कांग्रेस कोई ऐसा कानून न बनाए जिससे अभिव्यक्ति की या प्रेस की आज़ादी में कमी हो, या लोगों को शांतिपूर्वक जमा होने, सरकार से शिकायत करने में कोई बाधा हो.”

ट्रंप के नकारेपन की वजह से महामारी ने अपनी पकड़ मज़बूत बना ली, ऊपर से उनकी भड़काऊ नस्लवादी ललकार ने खुद को दूसरों से बेहतर समझने वाले गोरों के पागलपन को हमारे गले मढ़ दिया है, उसके बाद नंगी बेशर्मी से व्हाइट हाउस के रोज़ गार्डन में खड़े होकर ये भी कह रहे हैं कि वे शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों की हिफ़ाज़त करेंगे. जब वे यह कह रहे थे तब वहाँ से थोड़ी ही दूरी पर उनके सुरक्षा सैनिक शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर आँसू गैस के गोले छोड़ रहे थे और रबर की गोलियाँ दाग रहे थे . उसके कुछ ही वक्त बाद उन्होंने प्रदर्शनकारियों को टेररिस्ट कहा, और उनके विरोध को ईश्वर के प्रति गुनाह करार दिया.

ट्रंप के पास अपनी बात साबित करने के लिए तस्वीरें हैं, भागते हुए नौजवान हैं, आँसू गैस का धुआँ है, घुड़सवारों की कतार कानून के नाम पर आगे बढ़ रही है. ट्रंप कैमरे की पसंद का सीन तैयार करना बहुत अच्छी तरह जानते हैं. वो आदमी जो राष्ट्रपति बनने से पहले शायद ही कभी किसी प्रार्थना में गया हो, वह हाथ में बाइबल लेकर चर्च के बाहर फोटो खिंचाता है, ये दिखाने के लिए वह कितना धार्मिक है, इसके तुरंत बाद बिशप का बयान आता है कि ट्रंप ने चर्च का दुरुपयोग किया है जो “जीसस की शिक्षा के विपरीत किया गया काम है.”

एक बार फिर ट्रंप के पास तस्वीरें हैं, जो (बिशप के) शब्दों से ज़्यादा बोलती हैं. हमें इस आदमी की हरकतों की आदत सी हो गई है. हम उसके झूठ, दंभ और बेवकूफ़ियों में ऐसे घिर गए हैं कि हमें लगने लगा है कि यह ट्रंपिस्तान में गुजारा गया एक और आम दिन है. लेकिन इस बार कुछ तो अलग हो रहा है, जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या से जो विरोध शुरू हुआ है वह थमने की जगह, बढ़ता जा रहा है. व्हाइट हाउस में बैठा आदमी डर गया है, एक बार तो वह बत्तियाँ बुझाकर भूमिगत बंकर में ही छिप गया था. ऐसा आदमी ऐसे हालात में और कर भी क्या सकता है?

अगर ट्रंप को चंद अपराधियों की करतूतों की आड़ लेकर, गोरे अतिवादी घुसपैठियों की मदद से गरिमापूर्ण विरोध प्रदर्शन को तहस-नहस करने की छूट दी जाती है तो यह उन्हें तानाशाह बनने की तरफ़ आगे बढ़ाएगा. वे अमरीकी नागरिकों के खिलाफ़ सेना के इस्तेमाल की धमकी पहले ही दे चुके हैं, ऐसी धमकी पूर्व सोवियत संघ का कोई नेता शायद दे सकता था, लेकिन अमरीका के नेता से ऐसी उम्मीद तो कोई नहीं करता.

मैंने अपने अगले उपन्यास में मौजूदा दौर को “अब कुछ भी हो सकता है” दौर का नाम दिया है. मैं कहता हूँ, अमरीकियों ख़बरदार, ये मत समझो कि तुम्हारे साथ ऐसा नहीं होगा, तुम्हारे यहाँ ऐसा नहीं होगा, क्योंकि कुछ भी हो सकता है.

 

यह लेख वाशिंगटन पोस्ट में छपा। अनुवाद वरिष्ठ पत्रकार राजेश प्रियदर्शी का है। उनके फेसबुक पेज से साभार प्रकाशित।