गांधी के ‘कुजात’ शिष्य का अधूरा सपना और सप्तक्रांति की ज़रूरत

रविकान्त चंदन रविकान्त चंदन
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आजादी की लड़ाई के महान योद्धा और समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया की आज जयंती है। 23 मार्च 1910 को फैज़ाबाद जिले के अकबरपुर में पैदा हुए डॉ. लोहिया को उनके जीवन संघर्ष, विचारधारा और मौलिक चिंतन के लिए जाना जाता है। उन्होंने जिस राजनीतिक धारा को स्थापित किया, वह समूचे उत्तर भारत में आज भी मजबूती के साथ मौजूद है। लोहिया जी की राजनीतिक धारा सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता, मजबूत लोकशाही और संसदीय व्यवस्था के लिए विख्यात है। स्वतंत्र भारत में उनके राजनीतिक आदर्शों को संविधान और संसदीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया के मार्फत स्थापित किया गया है। पंचायती राज व्यवस्था और जिला परिषदों का गठन लोहिया जी कल्पित चौखंभा राज की याद दिलाता है। उनके मतानुसार स्वस्थ और सफल लोकतंत्र की बुनियाद स्वायत्त संस्थाओं और सत्ता के विकेन्द्रीकरण में निहित है।

डॉ. लोहिया का अपने आरंभिक जीवन में ही स्वाधीनता आंदोलन के साथ जुड़ाव हुआ। अपने पिता के साथ वे गांधीजी से मिले। छात्र जीवन में वे अवध के किसान आंदोलन से जुड़े रहे। इसी दरम्यान वे उच्च शिक्षा की पढ़ाई करने के लिए जर्मनी चले गये। वहां से लौटने बाद लोहिया जी फिर से गांधी जी के नेतृत्व में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े, लेकिन वे कांग्रेस के वर्गीय चरित्र को भी देख रहे थे। कांग्रेस के साथ पूंजीपति, राजा-महाराजा, सेठ-साहूकार और सामंत भी जुड़े हुए थे। लोहिया के सामने यह सवाल था कि कांग्रेस के नेतृत्व में मिलने वाली आजादी क्या सच्ची आजादी होगी!

आजादी का मतलब केवल सत्ता परिवर्तन नहीं है। देश के लाखों करोड़ों स्त्री, दलित, आदिवासी, मजदूर और किसान जब मुक्त होंगे तभी आजादी का असली मतलब होगा। लोहिया जी ने देखा कि 15 अगस्त 1947 की आधी रात को राजनीतिक आजादी तो मिल गई है लेकिन सामाजिक और आर्थिक आजादी के प्रश्न अभी भी बाकी हैं। संविधान सभा में इन प्रश्नों पर बहस और चिंतन-मनन जरूर हुआ। मूल अधिकार और नीति निर्देशक तत्व जैसे अनेक प्रावधानों के माध्यम से इन प्रश्नों के राजनीतिक और प्रशासनिक समाधान करने की भी कोशिश की गई लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार और प्रशासन सामाजिक और आर्थिक आजादी के लिए अक्षम साबित हुए। इसलिए राजनीतिक आजादी के बाद भी लोहिया जी इन प्रश्नों पर संसद से लेकर सड़क तक संघर्ष करते रहे। दरअसल, वे आदर्श नहीं यथार्थ के कायल थे।

लोहिया बीसवीं शताब्दी के भारत के अनूठे व्यक्तित्व हैं। उनके भीतर भारतीय संस्कृति के विशिष्ट मूल्यों के साथ-साथ पूरी दुनिया की श्रेष्ठ मानवीय विशेषताओं का समावेश है। समाजवादी चिंतक आनंद कुमार डॉ. लोहिया का विशिष्ट अंदाज में परिचय देते हुए लिखते हैंः

”डॉ. लोहिया राम के अवध में जन्मे। सीता की मिथिला में उनका ननिहाल था। कृष्ण की कथा उन्हें आनंद में सरोबार करती थी और गोवर्धन, ब्रज, द्वारिका से लेकर मणिपुर तक कृष्ण की लीला वे बार-बार याद करते थे। बुद्ध, कबीर,तुलसी की काशी और विवेकानंद, अरविंद, टैगोर, सुभाष के कलकत्ता में पढ़कर बड़े हुए थे। फिर यूरोपीय सभ्यता की दार्शनिक धुरी जर्मनी में उच्च शिक्षा पूरी कर गांधी और नेहरू के नेतृत्व में ब्रिटिश साम्राज्य को जड़ से उखाड़कर भारतीय समाज और संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए जोखिम भरे राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े।“

अपने पिता के साथ गांधी के सत्याग्रह और आंदोलन में शामिल होने वाले लोहिया ने जर्मनी में बर्लिन से ‘नमक सत्याग्रह के अर्थशास्त्र’ पर पीएच.डी. की डिग्री हासिल की। जर्मनी में रहने के दौरान उन्होंने पूरे यूरोप का भ्रमण करते हुए साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के शोषण तंत्र को यथार्थपरक ढंग से समझा था। इसीलिए भारत लौटने के बाद उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन की धारा में समाजवादी विचारों के साथ नए भारत के निर्माण का सपना सृजित किया।

भारत के स्वाधीनता आंदोलन की क्रांतिकारी धारा के शहीदों का सपना भारत को एक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी राष्ट्र बनाना था। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी  हो गई। इसके पहले क्रांतिकारियों ने 1928 में फिरोजशाह कोटला की बैठक में अपने पूर्व संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन कर लिया था। इसके मुख्य कमांडर चंद्रशेखर आजाद और मुख्य विचारक भगतसिंह के शहीद होने के बाद यह धारा लगभग खत्म हो गयी। क्रांतिकारियों के सपनों को साकार करने के लिए लोहिया आगे आते हैं।

लोहिया ने 23 मार्च को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी के कारण अपना जन्मदिन मनाना बंद कर दिया। वास्तव में डॉ. लोहिया ने क्रांतिकारियों के विचारों को कांग्रेस की धारा के साथ जोड़ने का काम किया। 1934 में उन्होंने आचार्य नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण के साथ मिलकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। गांधी जी के तमाम आंदोलनों में वे साथ रहे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जब गाँधी, नेहरू समेत तमाम नेता अंग्रेज हुकूमत द्वारा गिरफ्तार कर लिए गये तब भूमिगत रहकर लोहिया ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया।

आजादी के आंदोलन के सम्मुख आने वाली चुनौतियों से भी वे लगातार जूझ रहे थे। साम्प्रदायिक राजनीति इस समय की सबसे बड़ी चुनौती थी। हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग की कट्टर सांप्रदायिक राजनीति के कारण हिन्दू मुस्लिम नाहक ही एक दूसरे के दुश्मन बन रहे थे। सांप्रदायिक दंगों की आग में देश जल रहा था। लोहिया इस बीच गांधी जी के साथ दंगाग्रस्त इलाकों में शांति और सद्भाव कायम करने के लिए जाते हैं। 15 अगस्त 1947 को जब दिल्ली में आजादी का जश्न मनाया जा रहा था, लोहिया गाँधी जी के साथ बंगाल में सांप्रदायिकता की आग बुझाने में लगे थे। एक ऐसे वक्त में लोहिया गाँधी के साथ हैं जब गाँधी जी के जीवन के सारे आदर्श धू धू करके राख हो रहे हैं और गाँधी निहत्थे चट्टान की तरह उन्हें बचाने में लगे हुए थे। गाँधी के दुर्दिनों में लोहिया द्वारा साथ चलने के इन लम्हों को इतिहासकारों ने अकसर नजरअंदाज किया है लेकिन आज का बांगलादेश लोहिया के इन कामों को बड़ी शिद्दत के साथ याद करता है।

नोआखली और कलकत्ता में साप्रदायिक पागलपन को दूर करके शांति और सद्भाव कायम करते हुए गाँधी और लोहिया दिल्ली लौटते हैं। 30 जनवरी 1948 को गाँधी जी के बुलावे पर लोहिया उनसे मिलने जा ही रहे थे, तभी उन्हें पता चला कि एक कट्टरपंथी हिन्दू नाथूराम गोड्से ने गाँधीजी की हत्या कर दी है। साप्रदायिकता और विभाजन के लिए हिन्दू महासभा की राजनीति को जिम्मेदार ठहराते हुए लोहिया ने अपनी किताब ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ में लिखा हैः

“हिन्दू कट्टरवाद उन शक्तियों में शामिल था जो भारत के विभाजन का कारण बनीं…जो लोग आज चिल्ला-चिल्ला कर अखंड भारत की बात कर रहे हैं अर्थात आज का जनसंघ और उसके पूर्ववर्तियों ,जो हिन्दू धर्म की गैर हिन्दू परंपरा के वाहक थे,ने भारत का विभाजन करने में अंग्रेजों और मुस्लिम लीग की मदद की। उन्होंने कतई यह प्रयास नहीं किया कि हिन्दू और मुस्लिम नजदीक आएं और एक देश में रहें बल्कि उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के परस्पर संबंधों को खराब करने के लिए हर संभव प्रयास किए और दोनों समुदायों के बीच यही अनबन और मनमुटाव भारत के विभाजन का जड़ बनी।”

ध्यान देने की बात यह है कि आज नए रूप में ये सांप्रदायिक शक्तियां हमारे सामने हैं। इतिहास की गलत व्याख्या करके हिन्दू और मुसलमानों के मन में एक दूसरे के प्रति घृणा और नफरत पैदा की जा रही है। इससे दोनों समुदायों में दूरियां बढ़ी हैं। आशंकाओं और गलतफहमियों के कारण परस्पर विश्वास दरक रहा है जबकि आजादी के आंदोलन में बनी एकता आजाद हिन्दुस्तान के लिए भी उतनी ही जरूरी है।

लोहिया जी ने दोनों ही समुदायों को फटकारते हुए आजादी का पाठ पढ़ाया है- “जो हिन्दू रजिया, शेरशाह, जायसी और रहीमन को अपना पुरखा मानने से इनकार करता है वह हिन्दू हिन्दुस्तान की आजादी की कभी रक्षा नहीं कर सकता; जो मुसलमान गजनी, गौरी और बाबर को अपना पुरखा मानता है और उन्हें विदेशी हमलावर और लुटेरा कहने से इनकार करता है वह मुसलमान आजादी का मतलब नहीं समझता और आजादी की कभी रक्षा नहीं कर सकता।”

जरूरत मिल जुलकर एक मजबूत राष्ट्र बनाने की है। देश का कोई हिस्सा या समुदाय अगर विकास की धारा में पिछड़ जाता है तो देश का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता। दंगों की वजह से जान माल का नुकसान तो होता ही है देश की एकता, अखंडता, भाईचारे और सौहार्द की बुनियाद भी कमजोर होती है। नफरत और घृणा के माहौल में पलने वाले लोग महत्वहीन सभ्यता और बिखरे हुए राष्ट्र का निर्माण करते हैं।

डा.लोहिया गाँधी जी के विचारों और आदर्शों के प्रशंसक हैं लेकिन अंध समर्थक नहीं। लोहिया खुद को गाँधी का ‘कुजात’ शिष्य कहते हैं। चर्चित सोशलिस्ट चिंतक और लोहियावादी मूल्यों के वाहक किशन पटनायक कहते हैं कि एक ‘सच्चा शिष्य’ हमेशा अपने गुरू का ‘विकृत’ रूप होता है। लोहिया खादी पहनते थे लेकिन चरखा कभी नहीं कातते थे। गाँधी पक्के सनातनी थे लेकिन लोहिया नास्तिक। अलबत्ता लोहिया भारतीय संस्कृति और उसके मिथकों से समाज और राजनीति के संबंध जोड़ते थे। वे राजनीति के साथ धर्म को गड्डमड्ड नहीं करते थे बल्कि उनके लिए “धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म। धर्म श्रेयस की उपलब्धि का प्रयत्न करता है, राजनीति बुराई से लड़ती है।”

वे समकालीन परिस्थितियों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, “हम आज एक दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति में हैं, जिसमें कि बुराई से विरोध की लड़ाई में धर्म का कोई वास्ता नहीं रह गया है और वह निर्जीव हो गया है जबकि राजनीति अत्यधिक कलही और बेकार हो गयी है।” आज की परिस्थितियां ज्यादा मुश्किल और गंभीर हैं, इसीलिए लोहिया के विचारों की प्रासंगिकता और भी बढ़ गयी है।

किशन पटनायक कहते हैं कि “लोहिया ने गाँधी से एक बहुत बड़ा गुण ग्रहण किया था- अपरिग्रह। मृत्यु से सिर्फ चार वर्ष पहले वह लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए थे। इसके पहले उनके पास किराये का मकान तक नहीं था और न ही बैंक में कोई खाता। युसुफ मेहर अली उन्हें ‘प्यारा आवारा’ कहा करते थे। मृत्यु के समय उनके पास जो कुछ व्यक्तिगत माल-असबाब था वह यात्रा में काम आने वाले एक बक्से और किताबों के सिवाय और कुछ नहीं था।” दरअसल, वे दुनिया के सभी लोगों को खुशहाल देखना चाहते थे। उनके समाजवाद के तीन आधार मूल्य हैं- स्वतंत्रता, समता और संपन्नता। लोहिया जी ने पूरी दुनिया में इन मूल्यों की स्थापना के लिए सप्तक्रांति का आह्वान किया- स्त्री पुरुष भेदभाव से मुक्ति, रंग और नस्ल पर आधारित भेदभाव से मुक्ति, जातिगत भेदभाव से मुक्ति, औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति, निजी पूँजी और आर्थिक असमानता से मुक्ति, निजता के हनन से मुक्ति और अस्त्र-शस्त्र यानी हिंसा से मुक्ति।

क्या इन भेदभावों से दुनिया को मुक्ति मिल गयी है? स्त्री उत्पीड़न, जातिगत अन्याय, निजता का हनन से लेकर परमाणु बमों की उपस्थिति यह दर्शाती है कि दुनिया अमानवीयता के मुहाने पर खड़ी है। तमाम तकनीकी और वैज्ञानिक विकास के बावजूद इक्कीसवीं सदी में भी गरीबी, शोषण और अन्याय जारी है। स्वतंत्रता, समता और संपन्नता के साथ-साथ सहिष्णुता, सौहार्द और शांति स्थापित करने के लिए लोहिया जी के दिखाये रास्ते पर चलकर बेहतर दुनिया को बनाया जा सकता है।

बकौल लोहियाः “जिंदा कौमें पाँच साल इंतजार नहीं करतीं।”


लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं