बटमार सियासत की गिरफ़्त में देश: निर्वाचित सरकारों का अपहरण !

रामशरण जोशी रामशरण जोशी
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राजस्थान विधानसभा का विशेष सत्र 14 अगस्त से होगा. प्रदेश में सत्तारूढ़ कांग्रेस और केंद्र में सत्तासीन भारतीय जनतापार्टी तथा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत व राज्यपाल कलराज मिश्र के बीच ‘यह शह और यह मात‘ जंग खूब चली; जयपुर – मानेसर-, दिल्ली – जैसलमेर – जयपुर-पोरबंदर के बीच खिलाड़ी अपने प्यादों से चालें चलते रहे हैं। दोनों दलों के सिद्धस्त एक-दूसरे के मोहरों के शिकार में मशगूल हैं। खेल का पटाक्षेप या मात का फैसला सदन में ही होगा। लेकिन इस खेल में देश की ‘पोलिटिकल क्लास ‘ की रही -सही छवि की धज्जियाँ ज़रूर उड़ी हैं। यह खेल 19वीं सदी के पिंडारियों-ठगों की याद ताज़ा ज़रूर कर देता है।

गहलोत सरकार की असमय मौत होती है या इसे जीवन दान मिलता है, यह सवाल अब महत्वपूर्ण भी नहीं है। महत्वपूर्ण यह जानना है कि सियासी बट-मार किस तरह बेशर्मी व निर्ममता से वैध जनमत से निर्वाचित सरकारों को अपनी बट-मारी का शिकार बेखौफ बनाते जा रहे हैं। संसद है, अदालत है, दल-विरोधी कानून है, बावजूद इसके अकाल मौत के कुंए में सरकार-दर-सरकार गिरती चली जा रही हैं। आखिर क्यों ? निर्वाचित सरकारों की मौतों से कौनसा ‘मोगाम्बो खुश हो रहा है‘, यह सबसे बड़ा सवाल है?

सवाल यह भी है कि गहलोत-पायलट द्वंद्व से कांग्रेस फिर से सक्रिय हो सकती है? हालाँकि, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जिस अंदाज़ में भाजपा नेतृत्व को ललकारा है, इसकी आवाज़ दूर तलक जायेगी और कांग्रेस को एक जीवंत विपक्ष की भूमिका निभाने का अवसर राष्ट्रीय स्तर पर मिल सकेगा। यदि गहलोत की ललकार रंग लाती है और आलाकमान शिद्द्त से अपने मुख्यमंत्री के साथ खड़ा रहता है तो भाजपा के के मंसूबों पर पहरा ज़रूर बैठ जाएगा। देश में लोकतंत्र व संविधान की रक्षा की बहस व मुहीम फिर से शरू हो सकती है जिसकी ज़रूरत कांग्रेस सरकार को बचाने से कहीं अधिक बड़ी व व्यापक और अपरिहार्य है।

 

बटमारी की रुग्ण कोख

इसी बरस मार्च महीने में मध्यप्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार की अकाल मौत हुई थी। इस बटमारी के रुग्ण कोख से भारतीय जनता पार्टी की चौहान सरकार ने जन्म लिया था। कोरोना महामारी के बीच शिवराज सिंह चौहान की ताजपोशी की गई और कांग्रेस से भाजपा में गए ज्योतिरादित्य सिंधिया राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। उनके साथ दलबदल कर गए 22 विधायकों में से अधिकांश को दुधारू मंत्रालय दिए गए। गठबंधन पर ज़िंदा महाराष्ट्र की ठाकरे सरकार की सांसें भी सांसत में हैं। कब यह बटमारी सियासत की चपेट में आ जाये, वह आश्वस्त नहीं है। झारखण्ड की गैर भाजपा सरकार की चूलें भी हिलाने की कोशिशें हुईं हैं, इसलिए फूंक-फूंक कर वह कदम रख रही है। प्रचंड बहुमत के बावजूद, छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार अपने भविष्य को लेकर चिंतित है इसलिए कांग्रेस मुख्यमंत्री बघेल ने जयपुर-बटमारी से घबराकर ताबड़तोड़ अपने असंतुष्ट विधायकों को विभिन्न पदों से थोक के भाव उपकृत कर दिया। फिलहाल बघेल-सरकार की अकाल मौत टल गई है। मगर पिछले दो-तीन सालों में अरुणाचल, गोवा, मणिपुर, बिहार, कर्नाटक जैसे राज्यों में बटमार-सियासत का कारोबार खूब फला-फूला है। कांग्रेस सरकार के दौरान उत्तराखंड में भी बटमारी हो चुकी है। यह अलग बात है, तब सफल नहीं रही थी। पिछले कुछ सालों से, विशेष कर 2014 में भाजपा की मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद से जिस ढंग से एक ‘पैटर्न‘ की शक्ल में बटमार सियासत उभरी है, वह निश्चित ही लोकतंत्र व संविधान के दीर्घ जीवन के लिए चिंता का विषय है।

ऐसा नहीं है कि दल-बदल मोदी काल की ही देन है, इससे पहले पूर्ववर्ती शासनों के दौरान भी दलबदल के हथकण्डों से निर्वाचित सरकारें गिराई जाती रही हैं। अलबत्ता मोदी-शाह काल में इसकी बाढ़ आ गई है। वैसे भारत के सभी प्रदेशों में दर्जनों दफे सरकारें गिरीं, दलबदल की मेहरबानी से। संसद और विधानसभाओं में 200 से अधिक बार दल-बदल हुए और सैंकड़ों दलबदलुओं को धड़ल्ले से मंत्रिपद व अध्यक्ष पद मिले। याराना पूंजीवाद या क्रोनी पूंजीवाद के माध्यम से भी उपकृत किया गया। आज भी यह ट्रेंड ज़ारी है। आपको यह जानकार हैरत होगी कि देश की राजनीति में सबसे पहले ‘हॉर्स ट्रेडिंग‘ ( निर्वाचित प्रतिनिधियों की खरीद -फरोख्त ) शब्द का प्रयोग 20- 25 साल पहले प्रिंट मीडिया में शुरू हुआ था अब धड़ल्ले से प्रिंट, चैनल और सोशल मीडिया में इसका प्रयोग बेखौफ हो रहा है। आज की राजनीतिक-आर्थिकी का यह कुरूप चेहरा है। देश की पोलिटिकल क्लास ने बेशर्मी के साथ इसे ही ‘सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक नैतिकता‘ के रूप में ख़ामोशी के साथ मान्यता दे दी है।

 

गयाराम बने आयाराम

मुझे याद 1967 में मध्यप्रदेश में कांग्रेस की मिश्रा सरकार को दलबदल के ज़रिये गिराया गया था। उस समय के मुख्यमंत्री थे कांग्रेस के खुर्रांट नेता द्वारका प्रसाद मिश्र जिन्हें ग्वालियर राजपरिवार की नेता विजय राजे सिंधिया (ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी) ने चुनौती दी थी। पहले वे कांग्रेस में थीं लेकिन मुख्यमंत्री मिश्र के साथ लम्बे समय तक तालमेल नहीं बैठा और स्वतंत्र हो कर विधानसभा का चुनाव लड़ा। अंततः उन्होंने मिश्रा सरकार की घेराबंदी की और कांग्रेस के 11 -12 विधायकों ने बगावत करके अपनी ही सरकार गिरा दी (जिसकी पुनरावृति 2020 में माधवराव सिंधिया के पुत्र व विजयराजेसिंधिया के पौत्र सिंधिया जूनियर ने की) रीवा अंचल से कांग्रेस के ही नेता गोविंदनारायण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया। मिश्रा-सरकार के पतन से पहले बागी विधायकों को विभिन्न स्थानों पर छुपाया गया था, लेकिन किसी होटल या रिसोर्ट का सहारा नहीं लिया गया था। उस समय आज जैसा होटल या रिसोर्ट का चलन भी नहीं था। बागी विधायक सिंह मंत्रिमंडल द्वारा पुरस्कृत भी हुए, लेकिन किसी भी पक्ष ने रुपयों की लेनदेन का आरोप नहीं जड़ा था। प्रेस में खरीदफरोख्त का शब्द नहीं उछला था। दलबदल की घटना को इस लेखक ने तब भोपाल में कवर किया था।

मिश्रा-सरकार के पतन के बाद कई प्रदेशों में नेतृत्व के खिलाफ बगावत का सिलसिला शुरू हो गया। उत्तर प्रदेश में कई सरकारें गिरीं थीं। चौधरी चरण सिंह ने विद्रोह किया और स्वतंत्र भारतीय लोकदल का गठन किया। बाद में भारतीय क्रांति दल बना। . 1968 में यह लेखक लखनऊ में भी था। बगावत, दलबदल और सरकार के पतन-गठन में मंत्री पद और विभिन्न संस्थाओं के अध्यक्ष पदों का कारोबार ज़रूर चलता था लेकिन आज जैसी करोड़ों की लेन-देन की ख़बरें या अफवाहें नहीं के बराबर थीं। उस समय तक राजनीति की टकसाल में आज जैसी कॉर्पोरेट धन की आवक नहीं हुई थीं। अलबत्ता, नैतिक मूल्यों के स्खलन की शुरुआत ज़रूर हो गई थी। मिसाल के तौर पर हरियाणा प्रदेश में ‘आयाराम-गयाराम संस्कृति‘ बेतहाशा फली-फूली। 1967 में पटौदी से निर्वाचित गया लाल ने दलबदल के कीर्तिमान स्थापित किये। फ़क़त 15 दिन में कई दल बदले और अंत में फिर कांग्रेस में शामिल हो गए। उस समय के वरिष्ठ नेता राव बीरेंद्र सिंह ( यादव समुदाय के प्रसिद्ध नेता ) ने गयालाल पर बड़ी मारक टिप्पणी की थी, “गयाराम से अब आयाराम  हो गए हैं.” तब से फिसलन राजनीति का यह ‘टकसाली शब्द’ बन चुका है।  जब भी किसी सरकार में तोड़फोड़ का सिलसिला शुरू होता है, आयाराम-गयाराम मुद्रा चल पड़ती है। 1980 में इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार की वापसी से जनतापार्टी के तत्कालीन मुख्यमंत्री भजनलाल इतने आतंकित हो गए थे कि सत्ता में बने रहने के लिए वे अपने मंत्रिमंडल समेत कांग्रेस में शामिल हो गए थे। थोक के भाव दलबदल या आयाराम -गयाराम की नाव में सवार हो कर अपनी सरकार को बचा सके।

दरअसल, हरियाणा के तीन लालों: देवीलाल, बंसीलाल और भजनलाल के राज में आयाराम-गयाराम संस्कृति अभूतपूर्व पैमाने पर फलीफूली और अमरबेल बन कर आज कर्नाटक,बिहार मध्यप्रदेश, राजस्थान सहित कई प्रदेशों में फैली हुई है। कॉर्पोरटे पूँजी का जैसा माहौल है, इसे खाद-पानी आगे भी मिलता रहेगा। इस विश्वास की पुष्टि गहलोत-सचिन पायलट बटमार ड्रामा से भी की जा सकती है। 17 जुलाई को इस ड्रामा में एक हैरतअंगेज़ दृश्य मंचित हुआ; भाजपा के एक केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के दो विधायकों के बीच लेनदेन व सरकार गिराने की कथित साजिश उजागर हुई। एक बिचौलिये को गिरफ्तार भी किया गया। हालांकि इस कांड में कथित संलिप्तता से तीनों-चारों ने इंकार किया और टेप को ‘फेक’ बताया है। वैसे एक सप्ताह पहले भी करोड़ों रुपयों के लेनदेन की खबरें मीडिया में उछली थीं। इसलिए यह देख कर मुख्यमंत्री गहलोत को पीड़ा व आक्रोश के साथ कहना पड़ा कि भाजपा विधायकों को बकरा मंडी समझती है। दूसरे शब्दों में जब चाहो जिसे खरीद लो। राजस्थान ही नहीं, मध्यप्रदेश में भी ऐसे आरोप सुर्ख़ियों में रहे हैं। दलबदलू को 50-60 करोड़ रु. देने तक की बात सुर्ख़ियों में रही है।

 

विधायक मंडी में कॉर्पोरेट पूँजी

कॉर्पोरटे पूँजी के दलदल में आज की सियासत कितनी गहरे तक सन चुकी है इसकी पुष्टि गहलोत की बेहद आक्रोशपूर्ण प्रतिक्रिया से भी होती है. 20 जुलाई को उनका गुस्सा मीडिया के सामने फूटा. हमेशा शांत -संयत रहने वाले मुख्यमंत्री ने तैश में आकर कह दिया कि मेरी सरकार को गिराने में कॉर्पोरटे का पैसा लगा हुआ है। सचिन पायलट ने अदालत में अपनी पैरवी में जो बड़े बड़े वकील रखे हैं उनकी फीस 40-40, 50 -50 लाख रूपये है। यह फीस कौन दे रहा है। ऐसी फीस कॉर्पोरेट ही दे सकता है। यह भी सच्चाई है कि सचिन की पैरवी करने वाले प्रायः भाजपा के पक्ष वाले माने जाते हैं और तगड़ी फीस वसूलते हैं। सत्यता क्या है यह तो जांच का विषय है लेकिन मुख्यमंत्री का यह सार्वजनिक विस्फोट सोचने के लिए ज़रूर विवश करता है। गहलोत ने सचिन पर यहाँ तक आरोप जड़ दिया कि प्रदेश अध्यक्ष होने के बावजूद अपनी ही पार्टी की पीठ में छुरा घोंपा है। भाजपा के साथ साजिश रच कर अपनी ही पार्टी की सरकार को गिराने की कोशिश की है। यह एक संगीन आरोप है। इस पत्रकार को छठे, सातवें-आठवें दशक की दलबदल की साजिशों में एकाधिकार पूँजी या कॉर्पोरेट पूँजी की ऐसी संलिप्तता के खुल्लमखुल्ला आरोप सुनने को नहीं मिले थे।

सारांश में, यदि अपनी सरकार गिराने के पश्चात् दलबदलू विधायक उपचुनाव हार भी जाते हैं तो भी उनके पास पर्याप्त धन सुरक्षित रहता है।  पिछले साल कर्नाटक में मंचित आयाराम -गयाराम ड्रामा की पटकथा भी मध्यप्रदेश व राजस्थान के ड्रामा से मिलती -जुलती रह चुकी है। इन ड्रामों की अंतर्कथा कितनी शर्मनाक है कि अपने ही निर्वाचित प्रतिनिधियों को जगह जगह होटलों-रेसोर्टों में अर्ध बंधक अवस्था में छिपाना पड़ रहा है; बेंगलुरु से मुम्बई; भोपाल से बेंगलुरु; जयपुर से मानेसर विधायकों को बसों-हवाईजहाजों में भर कर ले जाया जाता रहा है। कितना शर्मनाक है लोकतंत्र के लिए यह कृत्य! क्या दलों को अपने विधायकों पर भरोसा नहीं है? क्या उन्हें ‘बकरा किस्तों पर‘ बनाया जा रहा है? इसका सीधा अर्थ है कि निर्वाचित नेताओं का दल की विचारधारा के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं रह गई है। सिर्फ गुटीय, व्यक्तिगत और सत्ता -पैसा के प्रति वफ़ादारी है; गौरतलब है कि भोपाल में सिंधिया और जयपुर में पायलट, इन दोनों अतिमहत्वाकांक्षी युवा नेताओं और उनके समर्थक विधायकों में से किसी ने भी अपनी मातृ पार्टी ( कांग्रेस ) की विचारधारा पर एक भी सवाल खड़ा नहीं किया है। निजी ईगो, मान-सम्मान, धन और व्यक्तिगत वफादारी दल-बदल के आधार माने जा रहे हैं। इसीलिये अंततः दलबदल -प्रतिदल बदल और अंततोगत्वा विधानसभा भंग, राष्ट्रपति शासन और मध्यावधि चुनाव या उपचुनाव संभावित परिणाम होते हैं। इन चुनावों पर जनता का कितना पैसा खर्च होता है, दलों का नेतृत्व और कथितरूप से बिकनेवाले निर्वाचित नेता को इसकी फ़िक्र कतई नहीं होती है।

दल बदल -आयाराम गयाराम और अन्य विभिन्न कारणों से एक प्रदेश में कई कई बार राष्ट्रपति शासन लगाने पड़े हैं ; उदाहरण के लिए कर्नाटक -6 ; मणिपुर -10 ; हरियाणा -3 ; राजस्थान -4 ;ओडिशा -8 ; उत्तर प्रदेश -10 ; बिहार -9 ; गुजरात -5; मध्य प्रदेश -3 ; तमिलनाडु -5 ; महाराष्ट्र -3 ; पश्चिम बंगाल -4 ; जम्मू -कश्मीर -9 ; झारखण्ड -3 ; केरल -4 ; नागालैंड -4 ;असम -4 ; उत्तराखंड -2; मेघालय -2 ; मिज़ोरम -3 ;पंजाब -8; पॉन्डिचेरी -6 ; केरल -8; गोवा -3 जैसे प्रदेश बरसों केंद्रीय शासन के अधीन रहे हैं। नवगठित छत्तीसगढ़ और तेलंगाना को छोड़ शेष सभी राज्य राष्ट्रपति शासन के किसी न किसी समय अनुभव झेल चुके हैं। मोटे रूप से राष्ट्रपति शासन के तीन -चार प्रमुख कारण रहे हैं : 1. राजनीतिक अस्थिरता व दल बदल ; 2. वैचारिक मुद्दों को लेकर राज्य बनाम केंद्र ; 3. हिंसा का माहौल व क़ानून व्यवस्था का ठप्प होना ; 4. विद्रोह व आतंकवादी -अलगाववादी गतिविधियां आदि।

 

कांग्रेस के अपराध

राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने का सम्बन्ध केंद्र में सत्ता परिवर्तन से भी रहा है। संविधान के अनुच्छेद 356 का केंद्र की सरकारों ने निरंकुश ढंग से इस्तेमाल करके राज्यों की उन सरकारों को गिराया या विधानसभाओं को भंग किया गया जिन्होनें दिल्ली के इशारे पर चलने से इंकार किया था। इसकी ज्वलंत मिसाल है केरल की कम्युनिस्ट सरकार। विश्व में पहली बार 1957 में केरल राज्य के विधानसभा चुनावों में ई. एम. एस. नम्बूदिरीपाद के नेतृत्व में कम्युनिस्ट सरकार संसदीय मार्ग से सत्ता में आई थी लेकिन दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यानि कांग्रेस सरकार इसे अधिक समय तक बर्दाश्त नहीं कर सकी थी। उस समय पार्टी की अध्यक्ष इंदिरा गाँधी हुआ करती थीं। उन्होंने अपने पिता प्रधानमंत्री नेहरू पर बार बार जोर ड़ाला और अंततः 31 जुलाई 1959 को कम्युनिस्ट सरकार की ‘अकाल मृत्यु’ हो गई. कह सकते हैं कि एक वैकल्पिक सामाजिक-आर्थिक- राजनीतिक प्रयोग की भ्रूणावस्था में हत्या करदी गई थी. लेकिन इसके बाद भी यह सिलसिला ज़ारी रहा, थमा नहीं। 1966 -77 के बीच 39 बार राष्ट्रपति शासन लागू किये गए. 1977 में पहली दफा केंद्र में गैर-कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार सत्तारूढ़ हुई थी जिसका नेतृत्व मोरारजी देसाई कर रहे थे। देसाई -सरकार का व्यवहार भी कांग्रेस से भिन्न नहीं रहा। इसने भी जनता के धन की परवाह किए बगैर कांग्रेस शासित 9 प्रदेशों की सरकारों को अकाल मौत के कुएं में धकेल दिया. जाहिर है मध्यावधि चुनाव कराने पड़े। जब 1980 में इंदिरा गाँधी की सत्ता में पुनर्वापसी हुई तो उन्होंने भी जैसे-को -तैसा नीति पर चलते हुये जनता पार्टी की सरकारों को उसी कुएं में धकेल दिया। जनता पार्टी के मुख्यमंत्रियों में भजनलाल उस्ताद निकले। तुरंत पाला बदल कर मय मंत्रिमंडल कांग्रेस में शामिल हो गए थे। 1984 में जब राजीव गाँधी सत्ता में आये थे तब उनकी सबसे बड़ी समस्या या चिंता थी कि अपने प्रचण्ड बहुमत को भूधसान से बचाना। इसीलिए उन्होंने 1985 में दल बदल विरोधी कानून यानि एंटी डिफेक्शन लॉ बनाया भी था। लेकिन इस क़ानून के बावजूद क्या हुआ? पार्टियों और नेताओं में उसमें भी सुराख़ तलाश लिए। पिछले 35 सालों में इसकी भी चिन्दी-चिन्दी करदी। इस समय यह सियासत के लहलहाते खेत में सिर्फ ‘ बिजूका ‘ बन कर खड़ा हुआ है। दल -बदल की पोशाक़ में लूट-खसोट ज़ारी है। विधायकों का अपहरण चल रहा है।

6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद – ध्वंस के बाद केंद्र की राव – सरकार ने भाजपा की 4 सरकारों को बर्खास्त कर दिया था। इसके बाद मध्यावधि चुनाव अपरिहार्य थे. जाहिर है, इन चुनावों में कांग्रेस की जीत हुई थी। लेकिन केंद्र में सरकार परिवर्तन के बाद विरोधी दलों की प्रदेश सरकारों को गिराना नितांत अलोकतांत्रिक क़दम रहे हैं. इससे कांग्रेस, जनता पार्टी और भाजपा के ‘फेक ईगो ‘ की तसल्ली कही जा सकती है लेकिन लोक व राजनीतिक नैतिकता की दृष्टि से ऐसे कृत्यों को किसी भी दृष्टि से वांछित नहीं कहा जा सकता.

 

सैद्धांतिक बग़ावत का दौर

एक समय था जब मुद्दों को लेकर नेतृत्व का विरोध किया जाता था.बगावत होती थी.पार्टी छोड़ी जाती थी. मंत्रीपद से इस्तीफ़ा दिया जाता था. इस सन्दर्भ में डॉ. आंबेडकर, चक्रवर्ती राजगोपाल चारी, आचार्य नरेंद्रदेव, अशोक मेहता, चौधरी चरण सिंह, रफी अहमद किदवई, जगजीवन राम, हेमवती बहुगुणा, मोहन धारिया, वी .पी .सिंह, आरिफ मोहम्मद खान जैसे अनेक नेता हैं जिन्होंने नेहरू, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी जैसे प्रधानमंत्रियों की नीतियों का खुला विरोध किया। युवातुर्क के रूप में चर्चित हुए चंद्रशेखर, कृष्ण कान्त, मोहन धारिया, अमृत नाहटा, अर्जुनअरोड़ा, शशि भूषण आदि ने इंदिरा गाँधी का जम कर विरोध किया था .यहां तक कि युवातुर्क चंद्रशेखर ने 1970 में इंदिरागाँधी के उम्मीदवार के खिलाफ केंद्रीय चुनाव समिति का चुनाव भी लड़ा था और जीते भी। 1974 -75 में बगावत करके जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति ( तथाकथित ) में युवा तुर्क के नेता शामिल हुए और जेल भी गए। चाहते तो युवा तुर्क के नेता प्रधानमंत्री गाँधी से समझौता करके केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्रिपद पा सकते थे। 1977 में ही बाबू जगजीवनराम और हेमवतीनंदन बहुगुणा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से बगावत करके अपनी एक अलग पार्टी ( कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी ) भी बनाई। 1978 -79 में मधुलिमये, मधुदंडवते, जॉर्ज फर्नाडीज़, कृष्णकांत जैसे नेताओं ने ‘ दोहरी सदस्य्ता  का मुद्दा उठा कर अपनी ही जनता पार्टी और सरकार को संकट में डाल दिया था; पूर्व जनसंघ के नेता अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख, मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं से स्पष्ट शब्दों में पूछा गया था कि यदि वे जनता पार्टी व सरकार में रहना चाहते हैं तो उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बन्ध विच्छेद करना होगा। लेकिन इन नेताओं ने भी साफ़ शब्दों में कह दिया कि उनकी मूल प्रतिबद्धता संघ से साथ है इसलिए सम्बन्ध नहीं तोड़ेंगे।

तब की राजनीति सिद्धांतों, विचारधाराओं पर आधारित होती थी। पार्टी रहे या सरकार जाए, इसकी प्राथमिकता प्रथम स्तर की नहीं थी। यद्यपति व्यक्तिगत लाभ- हानि का ध्यान भी रखा जाता था, लेकिन बड़े मुद्दों को ही तरजीह मिलती थी। कांग्रेस पार्टी हमेशा दक्षिण पंथी, मध्यमार्गी और मध्य वाममार्गी रही है और इन तीनों के बीच द्वंद्व भी हमेशा रहा है। लेकिन 1968 -69 में यह द्वंद्व या आंतरिक संघर्ष चरम पर पहुँच गया था। 1969 में इंदिरा-देसाई संघर्ष खुलकर सामने आ गया था। इंदिरा गाँधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और राजाओं के प्रिवी-पर्स को समाप्त कर दिया था, जिसके विरोध में उनके तत्कालीन वित्तमंत्री व उप-प्रधानमंत्री देसाई ने तत्काल ही इस्तीफ़ा दे दिया था और कांग्रेस से अलग हो गए थे। वे दक्षिण खेमे के नेता थे, जबकि इंदिरा गाँधी मध्य वाममार्गी व मास्को समर्थक थीं। आखिरकार कांग्रेस का विभाजन हो गया; निजलिंगप्पा के नेतृत्व में दक्षिणपथी कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ, और प्रधानमंत्री इंदिरा के नेतृत्व में रूलिंग कांग्रेस का अधिवेशन मुंबई में हुआ था। दोनों अधिवेशनों में सांसदों- विधायकों- कार्यकारिणी के सदस्यों की खरीद -फरोख्त -बंधक बनाने के आरोप सुनने को नहीं मिले थे। इस पत्रकार ने मुंबई अधिवेशन, आंतरिक कलह और मध्यरात्रि जंग को काफी कवर किया है। विभाजन के बाद इंदिरा सरकार अल्पमत में रही और वामपंथी व समाजवादी सांसदों के समर्थन से जनवरी,1971 के मध्यावधि चुनाव तक सत्ता में बनी रही। लेकिन, कम्युनिस्ट पार्टियों या समाजवादी पार्टियों किसी नेता या सांसद ने इंदिरा मंत्रिमंडल में शामिल होने या अध्यक्ष बनने की कीमत नहीं वसूली थी। चाहते तो वे वर्तमान सांसदों -विधायकों के पदचिन्हों पर चल कर अग्रज बन सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उस समय कोई भ्र्ष्टाचार -कदाचार बिल्कुल ही नहीं था, इस लेखक का ऐसा मंतव्य कतई नहीं है। नेहरू-काल में कई काण्ड उजागर हुए थे जिनमें कतिपय वरिष्ठ मंत्रियों को इस्तीफ़ा देना पड़ा था, जिसमें टी.टी.कृष्णमाचारी, वी .के. कृष्णा मेनन जैसे दिग्गज भी शामिल रहे हैं। नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री उनके उत्तराधिकारी थे। उन्होंने पंजाब के मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरों से इस्तीफ़ा ले लिया था जोकि भ्रष्ट्राचार के आरोपों से घिरे हुए थे। क्या यह माना जाए कि भाजपा के जितने भी मुख्यमंत्री-केंद्रीयमंत्री- नेता हैं, वे ‘करप्शन प्रूफ‘ हैं? क्या वाजपेयी -सरकार के समय भाजपा अध्यक्ष रिश्वत काण्ड में नहीं फंसे थे। उन्हें अपने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था?

 

बिके नहीं कम्युनिस्ट

पाठकों को मैं इतना ज़रूर याद दिलाना चाहूंगा कि इंदिरा गाँधी जैसी शक्तिशाली प्रधानमंत्री पश्चिम बंगाल व त्रिपुरा की कम्युनिस्ट सरकारों को तोड़ नहीं सकीं। इन सरकारों ने दोनों प्रदेशों में करीब साढ़े तीन दशक तक शासन किया। चुनावों में ही वे पराजित हुईं थीं। इनके सामने पिंडारी-ठग के हथकंडे लाचार ही साबित हुये। इसी प्रकार मोदी- शाह टोली केरल की मार्क्सवादी सरकार में अभी तक सेंध नहीं लगा सकी है। थोक या किस्तों में विधायकों का दलबदल नहीं करा सकी है। क्या नम्बूदिरीपाद, नृपेन चक्रवर्ती, माणिक सरकार, बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे अपने एक भी मुख्यमंत्री की मिसाल भाजपा दे सकती है? नई पीढ़ी के पाठकों को यह याद दिलाना भी मौजूं रहेगा कि मार्क्सवादी मुख्यमंत्री ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने के तीन अवसर मिले थे, लेकिन पार्टी शीर्षतम पद के पीछे दौड़ी नहीं थी। वहीँ 1996 में अटलबिहारी वाजपेयी ने 13 दिन की ही सरकार बनाई थी। इससे भाजपा की सत्ता के प्रति लालसा और वामपंथियों की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता सिद्ध होती है। क्या इस गुणात्मक भिन्नता से इंकार किया जा सकता है? बेशक़, सत्ता की दृष्टि से आज वामपंथी हाशिए पर हैं, संसद-विधानसभाओं में उपस्थिति चिंताजनक है, लेकिन शासक वर्ग और पूंजीपति वर्ग के लिए ये शक्तियां उतनी ही केन्द्रस्थ हैं जितनी पहले रही हैं! यह ‘आधारभूत विशिष्टता’ स्थानीय या राष्ट्रीय नहीं है बल्कि एक ‘सार्विक सत्य‘ है जोकि मध्ययुगीन, राष्ट्रोन्माद-युद्धोन्माद और पूँजीवाद प्रायोजित सियासत से उसे गुणात्मकरूप से अलग दर्शाती है।

 

पार्टी विथ नो डिफ़रेंस 

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सही हैं, सचिन पायलट और उनके साथी गलत हैं, यह निष्कर्ष निकालना इस लेख का उद्देश्य नहीं है। लेखक के मत में प्रतिस्पर्द्धात्मक व संसदीय राजनीति में लिप्त पार्टी और नेता धन व सत्तालोलुपता से मुक्त रहते हैं, यह अपवाद स्वरूप ही सम्भव है, एक ‘चलन या पैटर्न‘ नहीं हो सकता। जब कहीं आग रहती हैतो देर -सबेर धुआं उठता ही है। क्या यह महज़ इत्तफ़ाक़ है कि दल-बदल के वक़्त ही छापे मारी की जाती है। जब सचिन और उनके साथी मानेसर की होटल में आराम कर रहे थे, अशोक गहलोत अपनी सरकार की किलेबंदी कर रहे थे, ठीक उसी समय गहलोत -समर्थक व्यापारियों के छापे पड़ते हैं। भोपाल में भी यही हुआ था। मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन से पहले पूर्वमुख्यमंत्री कमलनाथ के करीबी लोगों के यहां छापे मारे गए। जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के विश्वासपात्र नेता भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे रहते हैं, उनके खिलाफ विभिन्न घोटालों की कार्रवाई चलती है लेकिन भाजपा में शामिल होने के बाद वे ‘हरिश्चंद्र‘ बन जाते हैं! विभिन्न आर्थिक एजेंसियों और गुप्तचर एजेंसियों के माध्यम से देश में ‘भय का माहौल‘ पैदा किया जा रहा है। यदि कोई भ्रष्ट है उसके विरुद्ध एक्शन होना ही चाहिए, बगैर किसी भेदभाव के। किसी समय तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके उर्फ़ करुणानिधि बनाम जयललिता के बीच प्रतिशोध की राजनीति का दंगल रहा करता था। आज वह केंद्रीय स्तर पर हो रहा है। कांग्रेस ने बड़ी कारीगीरी के साथ अपने विरोधियों को ठिकाने लगाया था। आज भाजपा भी उसी खेल को दोहरा रही है। फ़र्क़ सिर्फ यह है कि लम्बे समय तक सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस इस खेल में ‘निष्णात‘ हो चुकी थी, भाजपा दिल्ली के सत्ता-अखाड़े में ताज़ा-ताज़ा रंगरूट है इसलिए सोचे बगैर दांव-पेंच लगाती रहती है, और उसकी चालों का पर्दाफाश भी तुरंत हो जाता है। क्या यह कम हैरत की बात है कि चारों दिशाओं से कोरोना वायरस से घिरे समय में भी कथित खरीद-फरोख्त व दल-बदल के माध्यम से सरकारें गिराने का खेल खेला जा रहा है?  क्या मध्यप्रदेश और राजस्थान कोरोना पीड़ित नहीं हैं? क्या यह खेल भाजपा नेतृत्व की संवेदनहीनता व राजनीतिक अनैतिकता की पराकाष्ठा को उजागर नहीं करता है? क्या भाजपा की शह के बिना सिंधिया और सचिन इतना बड़ा खतरा मोल ले सकते थे? भोपाल में दल बदल के समय भाजपा ने यही तर्क दिया था कि यह कांग्रेस का आंतरिक मामला है। अब भोपाल के बाद जयपुर ड्रामा में भी भाजपा के नेता वही घिसेपिटे डायलॉग बोल रहे हैं। माना आंतरिक मामला है तब ऐसे लोगों को अपने यहां प्रश्रय क्यों देते हैं? उन्हें क्यों राज्यसभा व विधानसभा भेजा जाता है? क्या यह मान लिया जाय कि वे कांग्रेस को त्याग ते ही पलभर में ‘धर्मनिरपेक्षवादी‘ से ‘ हिंदुत्ववादी ‘ बन गये हैं? क्या उन्होंने नेहरू- इंदिरा -राजीव -राहुल का चोला उतारकर दिल -दिमाग से सावरकर -गोलवलकर- भागवत – मोदी-शाह का चोला धारण कल लिया है ? क्या हिन्दू और हिंदुत्व विचारधारा कोई उत्पाद-साबुन है जिससे कोंग्रेसियों और अन्य विरोधी दलों के आयाराम के पापों का प्रक्षालन कि किया जाता है ? भाजपा अपनी विचारधारा को इतनी बाज़ारू न बनाये। कालांतर में उसका ही अहित होगा। कांग्रेस के अवसान का भी यही कारण है। यदि यह सिलसिला ज़ारी रहता है तो देश में अपने विरोधी से ‘ प्रतिशोध’ लेना एक सहज- सुलभ पैटर्न बन जाएगा और ऐसी हालत में कोई भी दल विश्वास के साथ राजनीति नहीं कर सकेगा।

पिंडारियों के हवाले लोकतंत्र

इस लेख को समाप्त करते हुए लेखक यह भी सोचने के लिए विवश है कि ‘ मोदी जी के राज में ब्लैक मनी अभी भी फलफूल रही है? उन्होनें  नवम्बर, 2016 में ‘नोटबंदी‘ की थी.बावजूद इसके करोड़ों रु.का कालाधन कहाँ व किस स्त्रोत से आ रहा है। खबरों के अनुसार मुख्यमंत्री के कथित समर्थक के यहां छापेमारी में 10 करोड़ रु. मिले। करीब दो करोड़ के आभूषण मिले। इससे पहले कमलनाथ के रिश्तेदार के यहाँ से भी छापेमारी में कालाधन मिला था। कर्नाटक में भी यही हुआ था। इसका अर्थ यह हुआ कि  ब्लैक मनी‘ बदस्तूर जारी है और इसकी मदद से सरकारें गिराई या बचाई जा रही हैं।

भाजपा यह भी नहीं सोच पा रही है कि जनमत से निर्वाचित वैध सरकारों को दल -बदल-धनबल- सत्ता बल -भय बल के अवैध हथकंडों से गिराने से देश में कैसी अप-संस्कृति का निर्माण होता जा रहा है! वर्तमान पीढ़ी पर इसका कैसा असर पड़ रहा है? माना कांग्रेस ने विगत में अनेक पाप -अपराध किये हैं। क्या भाजपा भी उसका अनुसरण करना चाहती है? भाजपा नेता व मार्दर्शक मंडल के शीर्ष सदस्य आडवाणी ने अपनी पार्टी को “पार्टी विथ डिफरेंस“ के नारे से गुंजित किया था। आज इसे क्या हो गया है? आडवाणी खामोश क्यों हैं? क्या यही ‘गुजरात मॉडल‘ है ? याद रहे , इन हरकतों से देश की ‘ साइकी ‘ नकारात्मक मोड़ लेने लगेगी। भाजपा की तात्कालिक राजनीतिक सफलताएं और अविवेकपूर्ण कार्रवाइयां आनेवाले कल में देश के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक त्रासदियों की वाहक बन सकती हैं! भारतीय लोकतंत्र को औपनिवेशिक भारत के पिंडारी -ठग की खंदक में धकेल सकती हैं! सावधान !!



रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य हैं। यह लेख मूल रूप से समयांतर में छपा। लेखक ने इसे नये संदर्भों के साथ अपडेट किया। साभार प्रकाशित।