वायरस और सत्ता की क्रूरता के इतिहास के बीच ‘दिमाग़ी लॉकडाउन’ के ख़तरे

डॉ. पंकज श्रीवास्तव डॉ. पंकज श्रीवास्तव
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लगभग सौ साल पहले, 1918 में इन्फ़्लुएंज़ा संक्रमण या स्पेनिश फ्लू ने पांच करोड़ लोगों को लील लिया था. भारत में मरने वालों की तादाद क़रीब एक करोड़ अस्सी लाख थी. हिंदी के महाकवि निराला की पत्नी मनोहरा देवी और कई परिजन भी इसी आपदा के शिकार बने थे. शवों को जलाने के लिए लकड़ियों की कमी पड़ गयी थी। गंगा की लहरों में लाशें उतरा रही थीं. प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल होने धरती के की कोनों पर भेजे गये भारतीय सैनिक वापसी में ये संक्रमण भी साथ ले आये थे.

चौदहवीं सदी में प्लेग ने पूरे यूरोप में भयानक तबाही मचाई थी. इस महामारी के कारण यूरोप की एक तिहाई आबादी काल के गाल में समा गयी थी. खेतों में काम करने वाले मज़दूरों की कमी पड़ गयी थी जिसने सामंती ढांचे पर गहरी चोट की.

यूरोप में आबादी की कमी की वजह से नई ज़मीन की तलाश शुरू हुई. इस साम्राज्यवादी दौर में पंद्रहवी-सोलहवीं शताब्दी में अमेरिका महाद्वीप में भीषण हत्याकांड हुए. यूरोपीय तमाम बीमारियाँ लेकर अमेरिका पहुँचे जिनमें चेचक सबसे ख़ास थी. एक अनुमान के मुताबिक युद्ध और बीमारियों की वजह से अमेरिकी महाद्वीप की आबादी छह करोड़ से घटकर साठ लाख रह गयी.

इतिहास के ये कुछ अध्याय बताते हैं कि महामारियों ने किस तरह मानव सभ्यता का नाश किया. उसके सफ़र में ज्ञात-अज्ञात इतिहास के दौरान कितनी महामारियो के दलदल पड़े होंगे, कहना मुश्किल है. लेकिन समय के साथ मनुष्य ने इनसे लड़ना सीखा.प्राचीन और मध्ययुग में जादू-टोना या झाड़-फूंक ही निदान था, लेकिन आज विज्ञान भरपूर जवाब देने में सक्षम है. ज़ाहिर है, कोरोना का यह संकट भी गुज़र जाएगा. इसकी क़ीमत भी वैसी नहीं चुकानी पड़ेगी जैसा कि अतीत के काले अध्यायों में दर्ज हैं. ताली-थाली बजवाने वाले भी जानते हैं कि निदान किसी टोटके से नहीं, प्रयोगशाला से निकलेगा।

 

मनुष्य के लिए ज़रूरी है वायरस

विषाणु या वायरस के बिना मानव जीवन संभव नहीं था. यहाँ तक कि मानव प्रजनन की प्रक्रिया भी वायरस के कारण ही संभव हुई वरना बात अंडा देने से आगे नहीं बढ़ती. हानिकारकर और लाभकारी विषाणुओं के साथ ही मानव प्रजाति विकसित हुई है. विषाणु को फैलने के लिए कोशिकाओं की जरूरत होती है, इसलिए कोरोना भी एक के बाद दूसरे मानव शरीर की तलाश में है जबकि मनुष्य की चुनौती इससे बचने की है. एक समय ऐसा भी आता है जब खतरनाक से खतरनाक वायरस भी मानव शरीर के साथ रहना सीख जाता है यानी नुकसान पहुँचाने की उसकी ताकत घट जाती है.

बहरहाल, कोरोना अभी तीव्रतम रूप में है जिसे काबू करना एक चुनौती है. लेकिन इसी के साथ एक और खेल भी चल रहा है जो हर संकट के समय सत्ताओं का प्रिय खेल रहा है. वे ज़्यादा निरंकुश होने की दिशा में बढ़ गयी हैं. ‘युद्धकालीन परिस्थिति’ का हवाला देते हुए वे हर सवाल को दफ़्न कर देना चाहती हैं. भारत मे तो ये और भी खुले रूप में हो रहा है जहाँ सरकार घंटा बजवाकर अपनी आपराधिक लापरवाही छिपाने की कोशिश कर रही है. 21 दिन का लॉकडाउन सबको स्वीकार करना चाहिए, लेकिन ‘दिमाग़ पर लॉक लगाना’ कोरोना से बचने की कोई शर्त नहीं है.

 

सरकार की आपराधिक लापरवाही

कोरोना को लेकर खतरे की घंटी दिसंबर 2019 से बजने लगी थी. वुहान (जहां से कोरोना फैला) चीन में है और भारत उसका पड़ोसी है पर यहां सरकार पूरी तरह निश्चिंत दिखी जबकि जबकि चीन के कई पड़ोसियों ने तुरंत कार्रवाई किया. ताइवान, सिंगापुर, हांगकांग इसके उदाहरण हैं जिन्होंने बड़े पैमाने पर नुकसान से खुद को बचा लिया. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 31 दिसंबर को ही सार्स जैसे रहस्यमय निमोनिया फैलने की आशंका जता दी थी. इसके तीन-चार दिनों के भीतर उन्होंने बड़े पैमाने पर सीमाओं पर स्क्रीनिंग शुरू कर दी. चीन, खासतौर पर वुहान से आने वाले यात्रियों को देश मे कदम रखते ही अलग-थलग करके उनकी सघन जांच की गयी. उधर, दक्षिण कोरिया ने बड़े पैमाने पर कोरोना टेस्ट कराये, बिना इस बात की परवाह किये कि किसी में लक्षण हैं या नहीं.

अब ज़रा भारत का हाल देख लीजिए. देश के स्वास्थ्यमंत्री डॉ.हर्षवर्धन ने 5 मार्च को ट्वीट करके ‘गाँधी परिवार’ पर देश में कोरोना को लेकर बेवजह सनसनी फैलाने का आरोप लगाया. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी ने कोरोना के सिलसिले में पहला ट्वीट 31 जनवरी को किया था. इसके बाद लगभग दर्जन भर ट्वीट उन्होने अलग-अलग दिनों में किये ताकि सरकार इस गंभीरता को समझे. चलते-फिरते चैनलों को साउंड बाइट भी दी कि देश बड़े संकट में फंसने जा रहा है. कोरोना और उससे होने वाली आर्थिक तबाही को सुनामी बातते हुए गहरी आशंका जतायी. लेकिन जिस व्यक्ति को ‘पप्पू’ साबित करने के लिए सैकड़ो करोड़ रुपये खर्च किये गये हों, उसका मज़ाक न उड़ाया जाता तो क्या किया जाता!

 

कोरोना-काल में हिंसा की राजनीति और तमाशा 

जब कोरोना को लेकर तेज़ कार्रवाई होनी चाहिए थी तो दिल्ली पर चुनाव का बुखार चढ़ा था जिसमें जमकर सांप्रदायिक कार्ड खेला गया. हद तो यह कि देश के गृहमंत्री शाहीनबाग़ को करंट लगाने का आह्वान कर रहे थे तो केंद्रीय मंत्री और सांसद ‘देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को’ टाइप नया राजनीतिक नारा गढ़ रहे थे. चुनाव के बाद दिल्ली में भीषण सांप्रदायिक हिंसा हुई और आरोप है कि ऐसा सरकार के संरक्षण में हुआ. इस बीच सरकार ने ट्रंप के दौरे के नाम पर बड़ा तमाशा हुआ. फरवरी के अंतिम हफ़्ते में जब कोरोना की भयावहता स्पष्ट हो चुकी थी तब अहमदाबाद में लाखों लोगों को स्टेडियम में इकट्ठा करके अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्र्म्प का स्वागत किया गया कुल मिलाकर जब चीन के दूसरे पड़ोसी एकजुट होकर कोरोना के खतरे से जूझ रहे थे, भारत में तमाशे हो रहे थे. यही नहीं सत्ता के संरक्षण में जनता की एकजुटता तार-तार की जा रही थी. जब यह बात साबित हो चुकी थी  कोरोना से बचने का उपाय सोशल डिस्टैंसिंग है तब भी यहाँ 10 मार्च को जमकर होली खेली गयी.

यही नहीं, इस बीच मध्यप्रदेश में सत्ता पलट का खेल भी हुआ. आरोप है कि इसमें करोड़ों का लेन-देन हुआ. नैतिक-आर्थिक भ्रष्टाचार का यह खेल 23 मार्च तक चलता रहा जब तक कि शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री पद की शपथ न ले ली. इस बीच जुलूस और सभाओं का दौर जारी रहा.प्रधानमंत्री मोदी ने 22 मार्च को जनता कर्फ्यू का आह्वान किया था जिसे व्हाट्सऐप युनिवर्सिटी के जरिये अंधविश्वास फैलाना का एक जरिया बना दिया गया. गणेश को दूध पिलाने के बाद यह अपनी तरह का दूसरा प्रयोग था. ‘साउंड वेव’ से कोरोना को मारने की कोशिश हुई. भारतीय संस्कृति में शंखध्वनि के महत्व का ‘वैज्ञानिक प्रमाण’ खोज लिया गया. कुल मिलाकर कोरोना के संकट को एक तमाशे में बदल दिया गया. जिन मेडिकलकर्मियों के सम्मान में 22 मार्च की शाम ताली बजाने का अनुष्ठान किया गया वे डाक्टर और नर्स इस बीच दस्ताने और मास्क जैसी छोटी-छोटी चीजों के अभाव से परेशान रहे, पर कोई सुनने को तैयार नहीं हुआ. सरकार की लापरवाही का आलम यह है कि 27 फरवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पर्सनल प्रोटक्टिव इक्यूपमेंट्स (PEP) के भंडारण की सलाह दी थी लेकिन इसके तहत आने वाले चिकित्सकीय मास्क, गाउन, एन-95 मास्क आदिका निर्यात 19 मार्च तक होता रहा.

 

बिना तैयारी लॉकडाउन

सरकार के मुताबिक हालत ऐसे बन गये हैं कि पूरे देश को लॉकडाउन में धकेलने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है. इस फैसले का कोई विरोध भी नहीं करेगा. लेकिन यह निदान तो कोई आम डाक्टर भी बता सकता है. ज़रूरत बड़े पैमाने पर जांच की है लेकिन आशंका होने पर भी इसकी व्यवस्था नहीं हो पा रही है जैसे कि वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की बहू के मामले में लखनऊ में हुआ.

इस समय लाखों लोग देश के विभिन्न बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों के इर्द-गिर्द पड़े हैं. अचानक घोषित हुए लॉकडाउन ने जैसे उन्हें किसी अनजान ग्रह पर पटक दिया है. उन्हें अपने घर जाने के लिए कोई सवारी नहीं मिल रही है और न सरकारों की ओर से कोई वैकल्पिक व्यवस्था ही की जा रही है. पुलिस से पिटने का खतरा अलग बना रहता है. भूखे-प्यासे और खुले आसमान के नीचे वे 21 दिन कैसे काट पायेंगे, कहना मुश्किल है. उधर, वे लाखों लोग जो अहमदाबाद या मुंबई से समय रहते बिहार या यूपी के अपने गांव पहुँच गये हैं, उनकी जाँच भी नहीं हो रही है। जबकि अब यह साबित हो गया है कि स्वस्थ दिखता व्यक्ति भी वायरस फैलाने का ज़रिया बन सकता है.

 

एक नया अवसर

इस संकट ने यह भी बताया है कि पूंजीतंत्र की लोभ-लाभ की प्राथमिकताएं किस तरह से संकट में डाल सकती हैं। फ्रांसीसी दार्शनिक एलन बेद्यू ने अपने एक ब्लॉग मे लिखा है कि 2003 में आये सार्स-1 के संकट के बाद ही सबको सतर्क हो जाना चाहिए था जो इक्कीसवीं सदी की पहली अज्ञात बीमारी थी. उस समय रिसर्च वगैरह पर जैसा खर्च करना चाहिए था जिससे बचा गया लिहाजा आज कोरोना के रूप में सार्स-2 (severe acute respiratory syndrome) सामने है. बेद्यू कहते हैं कि सरकारें कोरोना से लड़ने के नाम पर निरंकुश हो रही हैं जबकि उन्हें काम करने के लिए ही चुना गया है. इस संकट से राजनीति और अर्थतंत्रके अंतर्विरोध भी बढ़ेंगे सरकारें युद्धकालीन परिस्थिति का हवाला देकर सारे सवाल स्थगित करने का प्रयास करेंगी लेकिन तर्क को स्थगित करके प्रार्थनाओं पर जोर देना हमें उन मध्यकालीन दौर में वापस ले जाएगा जब प्लेग से करोड़ों लोग मर जाते थे. इतिहास बताता है कि ऐसे संकट के समय सत्ता को क्रूरता का लाइसेंस मिल जाता है और वे अधिक ताकतवर होकर उभरती हैं. शातिर ही नहीं भोले लोग भी सत्ता से सवाल को देश के ख़िलाफ़ की गयी कार्रवाई बताने लगते हैं

बहरहाल, यह संकट एक अवसर भी लाया है कि नए राजनीतिक मुहावरे के बारे में सोचा जाए. लोगों को समझ आ रहे तर्क और विज्ञान के महत्व को विज्ञानसम्मत आंकड़ों से पुष्ट किया जाए. शिक्षा और स्वास्थ्य को राजनीतिक विमर्श के केंद्र में लाया जाए.झूठ और अंधविश्वास के प्रसारक सोशल मीडिया के दौर मे यह आसान नहीं है, लेकिन वहीं मोर्चा लेने के अलावा रास्ता भी क्या है जबकि घर के दरवाज़े के बाहर लक्ष्मण रेखा खींच दी गयी हो.

याद रहे, आदमी को लॉक किया जा सकता है, दिमाग़ को नहीं! तीस साल मंदिर-मस्जिद में गंवाने वाले देश के लिए किसी भी तरह का दिमाग़ी लॉकडाउन भारी पड़ेगा!


लेखक मीडियाविजिल के संस्थापक संपादक हैं