“तुम सही समय पर गये शशिभूषण,वह लोकतंत्र नहीं रहा जिसमें हम पैदा हुए थे!”

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शशिभूषण द्विवेदी (1975-2020): एक शोकालाप

अनिल यादव

लखनऊ के पीएसी गेस्टहाउस में नामवर-राजेंद्र-निर्मल की ओर गरदने खींचे और छातियों पर गिलास दाबे लेखकों की पार्टी थी. बहुतों से बता चुका हूं, हमारी पहली मुलाकात थी और मारपीट हो गई लेकिन यह याद नहीं कि हम क्यों लड़ पड़े थे. शायद तुम्हारी आवाज में ही कुछ नुकीली चुभने वाली चीज छिपी थी. तुम बताने के लिए नहीं हो लेकिन इससे उन दिनों जीवन के प्रति मेरे नजरिए का पता चलता है. तुम्हें पांच मई को लगा, “अतीत झूठ है क्योंकि स्मृति में ठीक ठीक वापसी संभव ही नहीं है” तो क्या मैने दिल्ली को मारा (जन्नत की हकीकत तो बाद में पता चली) क्योंकि तुम वहीं से आए थे या जिन्हें सुना रहा हूं उन्हें थोड़ा शशि बनाना चाहता हूं या भविष्य में उन लेखकों की पांत में जा बैठने की अवचेतन की योजना थी जिनका आवेग लिखे में नहीं समाता तो हाथपैर फेंकते हैं. यह 98-99 था, ब्लॉग वाला मंथर लेकिन अब से जरा वजनी समय, शायद मैं लेखकों की नजर में चढ़ना चाहता था या यह दुतरफा हिंसक छेड़छाड़ सिर्फ यह जांचने के लिए थी कि तुम पीकर जिस बात पर अड़ते हो क्या उसके लिए लड़ते भी हो? मैने बहुत सा जीवन स्मृति को मनमाना विकृत कर, अतीत के झूठ पर चमकदार परजीवी की तरह जिया है जिससे वर्तमान बंजर हो गया है. अब लिखने बैठता हूं तो अक्सर मेरे भीतर जिंदा मनुष्य नहीं चलते मोटी-मोटी किताबें गिरती हैं. लेकिन हम दोनों को एक ही कीड़े ने काटा था, अपने समय को कुछ शब्दों में निचोड़ कर कहने की लत लग रही थी.

किसी ब्लॉग पर कवि हरेप्रकाश ने एक रुमानी निमंत्रण आगे बढ़ाया, जिन युवा लेखकों को सन्नाटे में सब सहूलियतों के साथ अपना पहला उपन्यास लिखना हो, वे आरा के गांव गोदारा आ सकते हैं तभी पता चला कि उसने तुम्हारा जबड़ा तोड़ दिया. किसी ने कहा, तुमने बीमा का पैसा लेने के लिए हरे से खुद को धक्का दिलवाया था. हम हिंदी में ऐसे ही असंभव ढंग से सोचते हैं. ठोढ़ी बाहर की ओर धसक गई, शराब और उम्र गाल को हड्डी से दूर ले जा रही थी, मैं तुम्हें निर्मल वर्मा कहने लगा. तुम अचानक वैसे लग भी जाते थे. तुम निर्मल से अपनी दूरी को नापते, मुस्कान में निराशा को नमूंदार देख मैं अंदाज से कद की सही नाप बताने का मजा पाता. तुम जिस दिन रामजनम पाठक के साथ पीते, फोन करते, देखो ये कहा रहा है, है तो अहीर लेकिन पता नहीं कैसे सोच अच्छा लेता है. यह तुम्हारा सुल्तापुरिया सुख था. रामजनम को सामने आकर जातीय कुंठा के खत्म होने तक मुझे मारने या उससे पहले खुद ही मर जाने का न्यौता देने के सिवा और क्या किया जा सकता था. कही जा सकती थी अवधी की एक कहावत, ‘अइस मयानी पितिया सास कंडा लैके पोंछैं आंस’ लेकिन मौके पर याद नहीं आती थी.

कुछ अरसा बीता, तुम पतन से व्यथित आलोचक या लेखकों के फूहड़ जीवन की बिडंबनाओं पर चकित लौंडे की फटी आवाज में लंबे लंबे फोन करने लगे. तुम इक्कीस सूचनाएं देते थे लेकिन पाते एक या दो थे. झूठ जीकर मैं चट चुका था, यह फरेबी सजावटी वर्तमान था जिसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी. अपने पंखों में फोन दाबे तुम्हें लगता होगा, मेरा कैसा रोमहीन दोस्त है जिसपर कुछ टिकता ही नहीं. मैं चुप्पा, सोचता था, क्या बघार रहे हो ज्ञान! क्या खोज रहे हो प्रेरणा! क्या कहना चाहते हो, युग के जंगल को चीर कर गुजरती वह ट्रेन, ख्याति एक्सप्रेस अब भी तुम्हारे सपनों में आती है जो खुमारी के कारण कब की छूट चुकी है!

पुस्तक मेला के बहाने मिली जाड़े की एक रात रविप्रकाश के नीचे वाले कमरे में हम लोगों ने खूब पी और नाचे. संगीतमय चीत्कार के बीच, तुमने गोदी चढ़ने के लिए आतुर बच्चे की तरह हुमचते हुए कहा, अबे, तुम नाचते भी ऐसे हो जैसे सेक्स कर रहे हो. मैने कहा, क्या तुम इसका उल्टा करते हो. लेकिन तुमने कितनी वेध्य (vulnerable) जगह पकड़ा मुझे. कहीं मुझे लौंडा, गांडू, लड़की, छक्का न समझ लिया जाए, वही बचपन से बिठाया गया डर जिसने न जाने कब का अंगों को काठ बना दिया था जबकि मैं यह सब था, हूं और रहूंगा. देर से जाना कि इसे स्वीकार करना ही एक लेखक के जीवंत, संपन्न और गहरा होने का रास्ता है…फिर भी झिझकते हुए स्वीकार करना और खामोश शान से जीना दो अलग चीजें है. बिल्कुल अलग.

भाई मेरा संघी है, बाप से बनती नहीं, बीवी समझती नहीं, आकु श्रीवास्तव गधा है, दफ्तर नरक है, शशिशेखर डफर है. कटारा जी को तुम्हारे भरोसे पर जबान दे दी है इसलिए एक लेख लिख दो…अच्छी, साहिबाबाद जाने वाली वह लोकल सवारी गाड़ी है जिसके पायदान पर बैठने से पहले को हवा तीसरे पैग में बदल देती है..और बेटी…यही देख लो हम दोनों एक दूसरे को कितना जानते हैं. मेरे भीतर एक धुंधलका है जिसमें तुम्हारी गोद में चहकती हुई एक बच्ची बैठी है, नहीं तुमने एक फटी गुड़िया के साथ सेल्फी ली है जिसमें मैं बच्ची माने बैठा हूं. हम एक दूसरे को सब ढक कर अपना लेखक दिखाना चाहते थे. ऐसे लेखक जिन्होंने कुछ लिखा नहीं है लेकिन लिखेंगे तो पृथ्वी के भूधर हिल उठेंगे. फिर एक दिन तुम संत बन गए जिसे प्रसन्न करने का सिर्फ एक तरीका बचा था कि मोहन नगर के ठेके पर अविनाश मिश्र कहे, अब बस कीजिए…कम पिया कीजिए! ताकि तुम्हें वह अभय मुद्रा बनाने का अवसर मिल जाए जिसका मतलब होता है, बच्चा! बहुत ज्यादा पीने के कारण आदमी जिस रुद्रपुर या रामनगरिया जाते डरता है, मैं वहां कब का हो आया हूं. समाधि की अवस्था होती थी जब जेब में पैसे होते हुए तुमसे आखिरी पौव्वे के लिए झिकझिक की जाए, मुंह से निकल जाए, जाने दो कम पीते है और तुम कह सको, अबे हाट्ट! तब सचमुच पैसा हाथ का मैल हो जाता था. कहने दो, यही एक बड़ा सुख था जो तुमने जीवन में भरपूर पाया.

किताब के मेले में तुमने कहा, अपनी किताब दो. दिया. तुमने कहा, कुछ लिख दो, इस पेपर प्रोडक्ट से इसके अलावा तुम्हें मिलना ही क्या है. मैने लिखा, रजनीगंधा + तुलसी = शशिभूषण. तुमने बच्चे की तरह त्रिभंगी नाचते हुए जो सामने पड़ा उसे दिखाया. वाकई तुम कनपटी पर पसीना ला देने वाला नशा थे. तुम हंस रहे होगे कि तुम्हें उदयप्रकाश नहीं जानते. कोई बात नहीं इतनी भाषाएं हैं ज्यादातर में उनको भी कोई नहीं जानता. तुम जितना फैलोगे संसार फैलता जाएगा. तुम जैसे अचानक मरने वालों को न जानने का अहंकार पालने का मतलब है एक मनुष्य और लेखक के तौर पर खर्च हो जाना.

तुम सही समय पर गए, हम जिस लोकतंत्र में पैदा हुए थे वह अब नहीं है. अपने मन की जिंदगी जीने के रास्ते धड़ाधड़ बंद किए जा रहे हैं. कलाकार होने का मतलब सत्ता का नरम चारा हो गया है. जो अधेड़ जीवन भर की जड़ता के कारण अब लड़ नहीं सकते, अकेले में युवाओं की तरफ आशीर्वाद मुद्रा में उठी हथेली को संघर्ष के लाभ पाने लायक योगदानी मुद्रा में मोड़ने का अभ्यास किया करते हैं, उनके लिए निकल लेने का सही समय है. महत्वाकांक्षाहीन, तुम्हें न उड़ना था, न नीले अनंत में तनना था, पेंच लड़ाना था लेकिन सिर्फ मौज के लिए…असमय इतनी डोर (वो उम्र जो तुम्हें अभी जीनी थी) से कटकर हवा में गोता खाते हुए, तैरते हुए तुम कितने मनोहर हो गए हो!



न्यूज़ लॉन्ड्री से साभार।