दीदउ का एकात्‍म मानववाद गोलवलकर के विचारों में गांधी के कुछ तत्‍वों का मिश्रण था

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प्रतिबद्ध वामपंथी पत्रकार एवं न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव से जुड़े हुए सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गाताड़े ने हाल में संघ के विचारक और एकात्‍म मानववाद के प्रणेता कहे जाने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय पर बहुत अध्‍ययन कर के एक पुस्‍तक लिखी है। नवनिर्मिति, वर्धा, महाराष्ट्र द्वारा प्रकाशित इस पुस्‍तक का नाम है ”भाजपा के गांधी”। लेखक की सहर्ष सहमति से मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए इस पुस्‍तक के अध्‍यायों की एक श्रृंखला चला रहा है। इस कड़ी में प्रस्‍तुत है पुस्‍तक की दसवीं किस्‍त। (संपादक)


अध्‍याय 10 
सिर्फ हिन्‍दू ही राष्ट्र के निर्माता : दीनदयाल 

 

पंडित दीनदयाल उपाध्याय के व्याख्यानों एवं रचनाओं को सरसरी निगाह से भी देखें तो उनके विचारों का पता लगता है जहां वह सोचते थे कि ‘दुनिया की समस्याओं का समाधान समाजवाद में नहीं हिन्‍दू धर्म में है।’’ उनके लिए सिर्फ हिन्‍दू ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं।

‘‘भारत में सिर्फ हिन्दुत्व ही राष्ट्रवाद का आधार है.. हिन्दुओं के लिए यह बिल्कुल गलत होगा कि वह यूरोपीय पैमाने पर अपनी राष्ट्रीयता को प्रमाणित करें। हजारों साल से उसे स्वीकारा गया है।’’

[[v] BN Jog, Pandit Deendayal Upadhyaya: Ideology & Perception-Politics for Nation’s Sake, vol. vi, Suruchi Prakashanek, Delhi, 73.]

और मुसलमान एक ‘जटिल समस्या’ हैं:

‘‘आज़ादी के बाद देश की सरकार, उसकी राजनीतिक पार्टियों और लोगों को तमाम महत्वपूर्ण समस्याओं का सामना करना पड़ा… मगर मुस्लिम समस्या सबसे पुरानी समस्या है, सबसे जटिल है और नए-नए रूप धारण करती रहती है। विगत बारह सौ सालों से इस समस्या का हम सामना कर रहे हैं।”

[[v] BN Jog, Pandit Deendayal Upadhyaya: Ideology & Perception-Politics for Nation’s Sake, vol. vi, Suruchi Prakashanek, Delhi, 73.]

कोई भी देख सकता है कि दीनदयाल उपाध्याय जिस निगाह से मुसलमानों को ‘समस्या’ के तौर पर देखते हैं, इस नज़रिये का और गोलवलकर के विश्व नज़रिये के बीच गहरा सामंजस्य है। याद रहे अपनी चर्चित किताब ‘बंच आफ थॉट्स’ अर्थात विचार सुमन में गोलवलकर मुसलमानों को आंतरिक खतरा नम्बर एक घोषित करते है, जबकि ईसाइयों को आंतरिक ख़तरा नम्बर दो तथा कम्युनिस्टों को आंतरिक ख़तरा नम्बर तीन घोषित करते हैं। यह बात बताने की जरूरत नहीं कि वह धर्मनिरपेक्षता के विचार को नापसंद करते थे, इस विचार से घृणा करते थे। अलीगढ़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बैठक में उन्होंने साफ कहा:

भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित करने से भारत की आत्मा पर हमला हुआ है। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में तो कठिनाइयों का पहाड़ खड़ा रहता है… हालांकि रावण के लंकास्थित धर्मविहीन राज्य में बहुत सारा सोना था, मगर वहां राम राज्य नहीं था।’’

अपने एक अन्य आलेख में वह लिखते हैं :

‘‘अगर हम एकता चाहते हैं, तो हमें निश्चित ही भारतीय राष्ट्रवाद को समझना होगा, जो हिन्‍दू राष्ट्रवाद है और भारतीय संस्कृति हिन्दू संस्कृति है।”

वह संविधान को रैडिकल ढंग से बदलने की बात करते थे क्योंकि उनके मुताबिक

वह उनके मुताबिक वह भारत की एकता और अखंडता के खिलाफ पड़ता है। उसमें भारत माता, जो हमारी पवित्र मातृभूमि है तथा जो हमारे लोगों के दिलों में बसी है – के विचार का कोई स्वीकार नहीं है। संविधान के प्रथम अनुच्छेद के मुताबिक, इंडिया जिसे भारत भी कहा जाता है, वह राज्यों का संघ होगा अर्थात बिहार माता, बंग माता, पंजाब माता, कन्नडा माता, तमिल माता, सभी को मिला कर भारत माता का निर्माण होता है। यह विचित्र है। हम लोगों ने इन सूबों को भारत माता के अवयवों के रूप में देखा है, और न व्यक्तिगत माता के तौर पर। इसलिए हमारे संविधान को संघीय के बजाय एकात्मक होना चाहिए। जनसंघ का मानना है कि भारतीय संस्कृति की तरह भारतवर्ष भी एक है और अविभाज्य है। साझा संस्कृति की कोई भी बात न केवल असत्य है बल्कि ख़तरनाक भी है, क्योंकि वह राष्ट्रीय एकता को कमजोर करती है और विघटनकारी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करती है।

/‘जनसंघज प्रिन्सिपल्स एण्ड पॉलिसीज, जनवरी 25, 1965, पेज 16/

एकात्म मानववाद के दीनदयाल उपाध्याय के विचारों का विश्लेषण करते हुए क्रिस्टोफ जाफरलो (Christophe Jafferlot) वर्ण व्यवस्था के प्रति हिन्दुत्व के विचारकों के सम्मोहन की चर्चा करते हैं जिनके लिए वह ‘सामाजिक एकजुटता/सम्बन्ध का ऐसा मॉडल था जिसका हर जाति पालन करती थी जिसमें ‘अछूत’ भी शामिल थे।

‘‘उपाध्याय भी उसी ढंग से सोचते थे। एकात्म मानववाद’ – जिसे संघ परिवार के अग्रणियों द्वारा उनकी विचारधारा की बुनियाद कहा गया है – उसकी मूलभूत कल्पना वर्णव्यवस्था की जैविक एकता पर टिकी है। वर्ष 1965 में उन्होंने लिखा: चार जातियों की हमारी अवधारणा में, वह विराट पुरूष – आदिम मनुष्य जिसके त्याग ने, जैसा कि ऋग्वेद का कहना है, वर्ण व्यवस्था के रूप में समाज को जन्म दिया – के चार अवयवों के समकक्ष हैं। उनके हिसाब से वर्णव्यवस्था में वह जैविक एकता होती है जो राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को जारी रख सकती है।

[http://www.frontline.in/the-nation/merchant-of-hate/article9266366.ece]

संघ-भाजपा कुनबे में उनका महिमामंडन समझा जा सकता है क्योंकि वह ‘गोलवलकर के चिन्तन’ पर अडिग रहे मगर उन्होंने ‘पूरक के तौर पर गांधीवादी विमर्श भी उसमें जोड़ा’। डैनिश विद्वान थामस ब्लाम हानसेन लिखते हैं:

दीनदयाल उपाध्याय ने ..एकात्म मानववादके नाम पर उन धारणाओं का विकास किया, जिसे जनसंघ ने अपने आधिकारिक सिद्धांत के तौर पर 1965 में अपनाया। एकात्म मानववाद कहीं से भी गोलवलकर के चिन्तन से हटा नहीं अलबत्ता उसने गांधीवादी विमर्श के महत्वपूर्ण तत्वों को अपने में समाहित करके उसे हिन्दू राष्ट्रवाद के एक ऐसे संस्करण में प्रस्तुत किया -जिसका मकसद था कि जनसंघ की साम्प्रदायिक छवि को मिटा कर उसे एक सौम्य, आध्यात्मिक, अनाक्रमणकारी छवि प्रदान करना जो सामाजिक समानता पर, ‘भारतीयकरणऔर सामाजिक सद्भाव पर जोर देती हो। इस नए विमर्श का निर्माण एक तरह से भारत में साठ और सत्तर के दशक के राजनीतिक क्षेत्र की चुनौतियों (challenges) और वर्चस्वशाली विमर्शों के अनुकूल था। पार्टी और व्यापक हिन्दू राष्ट्रवादी आन्दोलन को राजनीति की मुख्यधारा के दक्षिणपंथी हाशिये से ऊंचे स्तर पर ले जाना भी उसका मकसद था, जिसे 1967 के आम चुनावों के बाद शहरी मध्यम वर्ग में अच्छा खासा समर्थन हासिल हुआ था। गोलवलकर के लेखन से महत्वपूर्ण बदलाव भारतीयशब्द के प्रयोग में नज़र आया जिसे रिचर्ड फॉक्स ने हिन्डीयनअर्थात हिन्दू और इंडियनके सम्मिश्रण के तौर पर अनूदित किया है।

(The Saffron Wave: Democracy and Hindu Nationalism in Modern India, Oxford University Press, pages 84-85)

दिल्ली स्थित विद्वान प्रलय कानूनगो, उसी किस्म के विचारों को प्रगट करते हैं:

दीनदयाल उपाध्याय गोलवलकर के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद  के सिद्धांत को एकात्म मानववादके अपने सिद्धांत से प्रतिस्थापित करते हैं। यह नया सिद्धांत  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को थोड़ा नए अंदाज़ में प्रस्तुत करता है और उसकी विचारधारात्मक अन्तर्वस्तु को समृद्ध करता है।

(RSS’ Tryst with Politics; Manohar, page 118)


(जारी)

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