माफ़ करिये, नेताजी सुभाष होते तो आरएसएस न होता !



आज़ाद हिंद सरकार के गठन की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ, 21 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेताजी सुभाष जैसी टोपी पहनकर लालकिले में जो भाषण दिया, वह नेताजी को ही टोपी पहनाने की कोशिश थी। ‘एक परिवार’ पर हमले के फेर में रात-दिन रहने वाले मोदीजी को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उनकी बातें इतिहाससम्मत हैं या नहीं। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि अगर देश को पटेल और सुभाष जैसी विभूतियों का मार्गदर्शन मिला होता तो देश कहाँ से कहाँ होता! नेहरू का नाम नहीं लिया, लेकिन निशाना स्पष्ट था।

पर सुभाष और पटेल, एक पलड़े पर?

मोदी जी ही नहीं, पूरा आरएसएस दशकों से ऐसा ही विमर्श गढ़ने में जुटा है, यह मानते हुए कि लोग मूर्ख हैं और वे वास्तविकता का पता नहीं करेंगे। लेकिन ज़रा सी कोशिश से यह बात जानी जा सकती है कि सुभाष और पटेल एक दूसरे के धुर विरोधी थे। सुभाष चंद्र बोस के 1939 में काँग्रेस अध्यक्ष बतौर दूसरे कार्यकाल को ‘असंभव’ बना देने वाले कोई और नहीं, पटेल ही थे। दोनों कांग्रेस के अंदर वाम और दक्षिणपक्ष के प्रतीक थे। यही नहीं, दोनों के बीच तिक्तता निजी स्तर पर भी थी और संपत्ति के लिए दोनों के बीच मुकदमेबाज़ी भी हुई थी।

बहरहाल, जब भारत के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित करने वाला कोई राजनेता सुभाषचंद्र बोस जैसे महान नेता को लेकर भ्रम फैलाए तो निर्भय होकर कुछ तथ्य रखना ज़रूरी हो जाता है ताकि लोकतंत्र का कोई अर्थ बचा रहे। तथ्य सिर्फ़ यही नहीं हैं कि नेहरू और सुभाष दरअसल काँग्रेस में वामपक्ष के ही नेता थे, या कि 1938 में काँग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने योजना आयोग (जिसे मोदी सरकार ने भंग कर दिया) गठित करके नेहरू को उसका अध्यक्ष बनाया था, या कि आज़ाद हिंद फ़ौज में सुभाष ने गाँधी और आज़ाद के अलावा नेहरू ब्रिगेड गठित की थी या सुभाष के लापता हो जाने के बाद नेहरू उनकी बेटी के लिए हर महीने आर्थिक सहायता भिजवाते रहे, या कि आज़ाद हिंद के फ़ौजियों के बचाव के लिए उन्होंने काला कोट पहनकर लाल किले में मुकदमा लड़ा था, बल्कि यह बताना भी है कि मोदी जिस सावरकर वाली हिंदू महासभा और गोलवलकर की आरएसएस की विरासत थामे हैं, सुभाष बोस उससे नफ़रत करते थे। उसे पनपने के पहले उखाड़कर फेंक देना चाहते थे। सुभाष होते तो न आरएसएस होते, न मोदी।

यह बात छिपी नहीं है कि सुभाष भारत में दस साल के लिए तानाशाही चाहते थे। यह ‘समझौताहीन तानाशाह’ आरएसएस के साथ क्या करता, इसकी कल्पना ही की जा सकती थी। गाँधी जी की हत्या के बाद पटेल महज़ संविधान बनवा कर प्रतिबंध हटा लेने के लिए राज़ी हो गए थे, लेकिन सुभाष से “राष्ट्रपिता के हत्यारों” के प्रति ऐसी उदारता की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। (ध्यान रहे, बापू को राष्ट्रपिता सुभाष बोस ने ही कहा था।)

दरअसल, सुभाष बोस का पूरा जीवन सांप्रदायिक शक्तियों के साथ तीखे संघर्ष का रहा है।

हिंदू महासभा को एक कट्टर सांप्रदायिक मोड़ देने वाले सावरकर 1937 में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने। अंग्रेज़ों से सहकार और काँग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन का तीखा विरोध उनकी नीति थी। यह वह समय़ था जब हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के सदस्य, काँग्रेस के भी सदस्य हो सकते थे। कई तो पदाधिकारी तक बनते थे। सुभाषचंद्र बोस ने काँग्रेस के अध्यक्ष बनने पर इस ख़तरे को महसूस किया और 16 दिसंबर 1938 को एक प्रस्ताव पारित करके काँग्रेस के संविधान में संशोधन किया गया और हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग के सदस्यों को काँग्रेस की निर्वाचित समितियों में चुने जाने पर रोक लगा दी गई।

दरअसल, कलकत्ता नगर निगम के चुनाव के समय हिंदू महासभा के एक वर्ग के साथ सहयोग लेने का उनका अनुभव बहुत बुरा था। उन्होंने महासभा की घटिया चालों के बारे में खुलकर लिखा और बोला। 30 मार्च 1940 को ‘फार्वर्ड ब्लाक’ में छपे हस्ताक्षरित संपादकीय में वे लिखते हैं-

‘असली हिंदू महासभा से हमारा कोई झगड़ा नहीं, कोई संघर्ष नहीं। लेकिन राजनीतिक हिंदू महासभा, जो बंगाल के सार्वजनिक जीवन में कांग्रेस का स्थान लेना चाहती है और इसके लिए उसने हमारे खिलाफ जो आक्रामक रवैया अपनाया है, संघर्ष तो होना ही है। यह संघर्ष अभी शुरू ही हुआ है।’ (पेज नंबर 98, नेताजी संपूर्ण वाङ्मय, खंड 10, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार।)

सुभाष बोस ने 12 मई 1940 को बंगाल के झाड़ग्राम में एक भाषण दिया था जो 14 मई को आनंद बाज़ार पत्रिका में छपा। उन्होंने कहा-

‘हिंदू महासभा ने त्रिशूलधारी संन्यासी और संन्यासिनों को वोट माँगने के लिए जुटा दिया है। त्रिशूल और भगवा लबादा देखते ही हिंदू सम्मान में सिर झुका देते हैं। धर्म का फ़ायदा उठाकर इसे अपवित्र करते हुए हिंदू महासभा ने राजनीति में प्रवेश किया है। सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि इसकी निंदा करें। ऐसे गद्दारों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल फेंकें। उनकी बातों पर कान न दें।’

(“The Hindu Mahasabha has deployed sannyasis and sannyasins with tridents in their hands to beg for votes. At the very sight of tridents and saffron robes, Hindus bow their head in reverence.By taking advantage of religion and desecrating it, the Hindu Mahasabha has entered the arena of politics. It is the duty of all Hindus to condemn it…Banish these traitors from national life. Don’t listen to them”)

बंगाल में हिंदू महासभा के नेता डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी का सुभाष बोस से साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर बहुत टकराव था। अपनी डायरी में डॉ. मुखर्जी लिखते हैं- “एक बार बोस उनसे मिले थे और उन्होंने यह कहा था कि यदि आप हिन्दू महासभा को एक राजनीतिक दल के रूप में गठित करते हैं तो मैं देखूंगा कि आप उसका राजनैतिक गठन कैसे करते हैं? यदि आवश्यकता पड़ी तो में उस कदम के विरुद्ध बल प्रयोग करूँगा और यदि यह सच में गठित होती भी है तो मैं इसे लड़ कर भी तोडूंगा।”

(यह विरोध इस हद तक था कि जब नेता जी की फौज बर्मा के रास्ते भारत की ओर बढ़ रही थी तो बंगाल सरकार मे उपमुख्यमंत्री बतौर श्यमा प्रसाद मुखर्जी ने उन्हें रोकने के लिए अंग्रेज गवर्नर के सामने एक लंबी-चौड़ी योजना पेश की थी।)

दरअसल, धार्मिक आधार पर राजनीति करना सुभाष बोस की नज़र में ‘राष्ट्र के साथ द्रोह’ था। 24 फरवरी 1940 के फार्वर्ड ब्लाक में हस्ताक्षरित संपादकीय में उन्होंने कहा-

‘सांप्रदायिकता तभी मिटेगी, जब सांप्रदायिक मनोवृत्ति मिटेगी। इसलिए सांप्रदायिकता समाप्त करना उन सभी भारतीयों-मुसलमानों, सिखों, हिंदुओं, ईसाइयों आदि का काम है जो सांप्रदायिक दृष्टिकोण से ऊपर उठ गए हैं और जिन्होंने असली राष्ट्रवादी मनोवृत्ति विकसित कर ली है, जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए युद्ध करते हैं, निस्संदेह उनकी मनोवृत्ति असली राष्ट्रवादी होती है।’                                                                                    (पेज नंबर 87, नेताजी संपूर्ण वाङ्मय, खंड 10)

सुभाषचंद्र बोस अपने सपनों को लेकर बेहद स्पष्ट थे। 1938 में लंदन में रजनीपाम दत्त को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- ‘काँग्रेस का उद्देश्य दोतरफ़ा है। पहला राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करना और दूसरा समाजवादी व्यवस्था की स्थापना।’ बहुत लोग यह जानकार चौंक सकते हैं कि वे भारत में एक सच्ची ‘मार्क्सवादी पार्टी का गठन चाहते थे। (मीडिया विजिल ने नेताजी सुभाष को भेजा गया जेपी का गुप्त पत्र पिछले दिनो छापा था जिसमें एक भूमिगत मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टी बनाने की योजना पेश की गई थी।)

सुभाष काँग्रेस के अंदर वामपक्ष का झंडा बुलंद करते रहे। लेकिन अध्यक्ष बतौर दूसरे कार्यकाल में दक्षिणपंथियों से मिली मात के बाद जब फारवर्ड ब्लॉक बनाने जुटे तो तो मकसद स्पष्ट था-

‘आमतौर पर यह अनुभव किया गया कि कांग्रेस के सभी प्रगतिशील, उग्र सुधारवादी और साम्राज्यवाद विरोधी लोगों की, जो समाजवादी या कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने को तैयार नहीं हैं, समान न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर संगठित किया जाना चाहिए। साथ ही मैंने अनुभव किया कि केवल इसी तरीके से दक्षिणपक्ष के आघात का प्रतिवाद किया जा सकता है तथा एक ‘मार्क्सवादी पार्टी’ के विकास की जमीन तैयार की जा सकती है।’       (फारवर्ड ब्लॉक की भूमिका, 12 अगस्त 1939, पेज नंबर 6, नेता जी संपूर्ण वांङ्मय, खंड 10, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार)

नेताजी सुभाष को लगता था कि काँग्रेस का नेतृत्व ढुलमुल है। ज़रूरत क्रांतिकारी योजना पेश करते हुए नेतृत्व देने की है जैसा कि रूस में लेनिन ने किया था। बिहार के रामगढ़ में 19 मार्च 1940 को ‘अखिल भारतीय समझौता विरोधी सम्मेलन’ का अध्यक्षीय भाषण देते हुए उन्होंने कहा-

‘इस समय की समस्या है- क्या भारत अब भी दक्षिणपंथियों के वश में रहेगा या हमेशा के लिए वाम की ओर बढ़ेगा? इसका उत्तर केवल वामपंथी स्वयं ही दे सकते हैं। अगर वे सभी खतरों, कठिनाइयों और बाधाओं की परवाह किए बिना साम्राज्यवाद के खिलाफ अपने संघर्ष में निर्भीक रहने और समझौता न करने की नीति अपनाते हैं तो वामपंथी नया इतिहास रचेंगे और पूरा भारत वाम हो जाएगा।’                                                              (पेज नंबर 94, नेता जी संपूर्ण वाङ्मय, खंड 10, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार)

निश्चित ही, हिटलर या धुरी राष्ट्रों से सहयोग की नेता जी की योजना ने तमाम भ्रम पैदा किए। लेकिन नेता जी के लेखों और भाषणों से गुज़रते हुए यह साफ़ लगता है कि यह रणनीतिक दाँव था जो अंग्रेजों को कमज़ोर करने और भारत की आज़ादी के एकमात्र लक्ष्य को ध्यान में रखकर लगाया गया था। हिंदू-मुस्लिम एकता पर उनका लगातार ज़ोर था जिसे वे राष्ट्रीय एकता के लिए ज़रूरी मानते थे। उन्होंने फारवर्ड ब्लॉक की जो नीति सूत्रबद्ध की थी, वह खुद बहुत कुछ कहती है-

  1. पूर्ण राष्ट्रीय स्वतंत्रता और इसकी प्राप्ति के लिए अटल साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष।
  2. पूरी तरह आधुनिक और समाजवादी राज्य।
  3. देश के आर्थिक पुनरुद्धार के लिए बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक ढंग से उत्पादन।
  4. उत्पादन और वितरण दोनों का सामाजिक स्वामित्व और नियंत्रण।
  5. धार्मिक पूजा के मामले में व्यक्ति की स्वतंत्रता।
  6. प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार।
  7. भारतीय समुदाय के सभी वर्गों के लिए भाषायी और सांस्कृतिक स्वायत्तता।
  8. स्वतंत्र भारत में नई व्यवस्था के निर्माण में समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को लागू करना।

(काबुल थीसिस, 22 मार्च 1941, पेज 26-27, खंड-11, नेताजी संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार।)

इन तमाम तथ्यों से गुज़रने के बाद क्या किसी को शक़ रह जाएगा कि सुभाष बोस की टोपी पहनकर प्रधानमंत्री मोदी देश को टोपी पहना रहे थे। सांप्रदायिक विद्वेष को अपनी राजनीतिक शक्ति और लोकतंत्र को अंबानी-अदानीतंत्र बनाने को अपनी आर्थिक शक्ति बनाने वाले नेता जी के दुश्मन ही हो सकते थे, दोस्त नहीं। सुभाष ‘वामी’ भी थे और ‘सिकुलर’ भी जिनके खिलाफ मोदी सेना लगातार युद्ध छेड़े हुए है।

पुनश्च: प्रधानमंत्री मोदी ने 21 अक्टूबर के भाषण में कहा कि नेता जी जैसी विभूतियों के योगदान को छिपाया गया। उन्हें यह जानना चाहिए कि नेहरू सरकार ने 1957 में ही ‘नेताजी रिसर्च ब्यूरो” की स्थापना कर दी थी जिसका जिम्मा नेता जी के भतीजे शिशिर बोस को सौंपा गया था। 1980 में इसके पहले अंग्रेज़ी संस्करण का लोकार्पण प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने किया था। प्रकाशन विभाग ने विभिन्न भाषाओं में नेता जी का संपूर्ण वाङ्मय छापा। यही नहीं, मोदी जी ने रानी लक्ष्मी बाई रेजीमेंट को याद करते हुए महिला सशक्तिकरण की बात उठाई, लेकिन इस सवाल का जवाब कौन देगा कि उस रेजीमेंट का नेतृत्व करने वाली और आज़ाद हिंद सरकार की महत्वपूर्ण सदस्य कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने जब भारत के राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा तो मोदी जी की बीजेपी ने उन्हें पराजित करने में पूरा ज़ोर क्यों लगा दिया। क्या उनका राष्ट्रपति बनना सुभाष बोस और आज़ाद हिंद सरकार का सच्चा सम्मान न होता ?

और हाँ, नेताजी सुभाषचंद्र बोस का नारा ‘वंदे मातरम’ नहीं ‘जय हिंद’ था।

 

लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।