शिवसेना बनाम बीजेपी: वजूद पर भारी पड़ते रिश्ते का संकट!

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दास मलूका
 कौन हैं, यह जानने से ज़्यादा अहम यह जानना है कि हमारे समय में ऐसे लोग हैं जो दास मलूका जैसी दृष्टि रखते हैं। यह दृष्टि हमें उस गोपनकी यात्रा कराती है जो दृश्य में होते हुए भी अदृश्य है। दास मलूका बहुत दिनों से चुपचाप ज़माने की यारी-हारी-बीमारी पर नज़र रख रहे थे कि मीडिया विजिल से मुलाक़ात हुई और क़लम याद आया। अब महीने में दो बार गुफ़्तगू का वादा है – संपादक

दास मलूका

 

तलवारें खिंच चुकी थीं, लड़ाई आर-पार की होने को थी, संसद के कुरुक्षेत्र में दोनों ही खेमे खुद को मजबूत करने और दिखाने की जद्दो जहद में थे। हालांकि हर कोई मान रहा था कि मोदी सरकार का पलड़ा भारी है, लेकिन जंग संख्या की नहीं ‘सायकी’ पर कब्जा जमाने की थी। और इस जंग में मोदी सरकार के मैनेजरों को अपनी ही सेना में मौजूद ‘शिवसेना’ ने परेशान कर रखा था।

दिल्ली के कुरुक्षेत्र में ‘शिवसेना के संजय’ राउत ठीक एक रोज पहले तक सरकार को व्यथित करने वाला बयान दिए पड़े थे। हालांकि तहजीब- ओ- तमद्दुन के लिहाज से मराठियों की हिंदी बड़ी ‘लफंगी’ मानी जाती है, लेकिन उसके मानी बड़े सटीक होते हैं।

न्यूज चैनलों के माइक घुसेडू संवाददाताओं से संजय राउत बार बार कह रहे थे कि शिवसेना आखिरी वक्त में फैसला करेगी।

साहब एक जना से तो राउत यहां तक कह गए कि ‘ड्रामा आखिरी मिनट में होगा’

ये आखिरी मिनट वाला पैगाम इतना असरदार था कि राउत लंच के लिए संसद भवन से महाराष्ट्र भवन तक भी न पहुंचे होंगे कि, दिल्ली के दीनदयाल भवन से लेकर मुंबई के मातोश्री तक तमाम फोन घनघना उठे।

जानकारों का कहना है कि उद्धव साहब से खुद शाह साहब बात करने को बेताब थे। जिस वक्त ये फोन जा रहे थे उद्धव साहब अपने नए निक्कॉन कैमरे के लेंस में आंखे गड़ाए सियासत से बेपरवाह कुछ तस्वीरों का आगा पीछा देख रहे थे। उन्हें ऐसे वक्त डिस्टर्ब किया जाना बिल्कुल भी पसंद नहीं, लेकिन मामला गंभीर था लिहाजा वो  भुनभुनाते हुए बाहर निकले।

उनका सवाल था ‘काय रे…..’

बताया गया कि BJP के ‘शाह’ उनसे बात करने को बेताब हैं। जनाब बात हुई और खुशनुमा माहौल में हुई, जैसी कि राजनीति में रीत है। आखिरी वक्त तक न पत्ते खोलो न चेहरे पर कोई राज उजागर करने वाला भाव ले आओ।

हालांकि जानकार बताते हैं कि उद्धव भाऊ से ये सब ‘परवरता’ नहीं। उनके मन में क्या है और मुंह में क्या है सब साफ है।

उन्हीं जानकारों का कहना है कि इस फोन के बाद अचानक उद्धव साहब ‘एक्टिव’ हो गए। उनकी पार्टी के चीफ ह्विप चंद्रकांत खैरे से बात कराई गई। इस बातचीत के कुछ ही देर बाद तीन लाइन का एक ह्विप जारी हुआ जिसमें पार्टी के सभी सांसदों को 19 और 20 जुलाई को लोकसभा में मौजूद रहने और सरकार के पक्ष में मतदान करने का निर्देश दिया गया।

इस निर्देश के जारी होने के बाद न्यूज चैनलों ने संजय राउत को चिढ़ाते हुए हेडलाइन लगाई

‘शिवसेना का ड्रामा खत्म’

लेकिन चैनल एक बार फिर मुगालते में थे, दरअसल ड्रामा तो अब शुरु हुआ था, संजय राउत पिक्चर से गायब हो गए थे, उनका फोन ही नहीं उठ रहा था। शाम ढलते-ढलते अचानक कहानी में एक और ट्विस्ट आया। शिवसेना सांसद अरविंद सावंत ने संसद से बाहर निकलते हुए बयान दिया।

“चंद्रकांत खैरे ने जो व्हिप जारी किया है वो केवल संसद में आने वाले विधेयकों के लिए है, अविश्वास प्रस्ताव पर फैसला कल सुबह 10 बजे ही होगा, ये फैसला खुद उद्दव साहब लेंगे”

अरविंद सावंत के इस बयान ने फिर भ्रम की स्थिति पैदा कर दी, लेकिन बीजेपी के मैनेजर आश्वस्त थे, ह्विप तो जारी हो चुका है, ह्विप के बाद फैसला पलटने की कथा तो सुनी नहीं गई। लेकिन अगली सुबह 10 बजे चौंकाने वाली खबर थी। शिवसेना के सांसदों ने फैसला किया कि वो  सरकार के साथ नहीं खड़े होंगे। विरोध में तो नहीं मगर वो सदन में भी नहीं होंगे।

जरा गौर कीजिएगा ये फैसला मुंबई में नहीं दिल्ली में लिया गया, उद्धव साहेब दूसरी तरफ फोन पर थे, कहा गया कि इस फैसले पर साहेब की मोहर थी, लेकिन जानकारों के मुताबिक फैसला उन्हें बताया गया, फैसले को मानने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं था।

बाला साहेब ठाकरे कहते थे कि पार्टी कहीं भी हो ‘रिमोट’ उनके हाथ में होता है, लेकिन इस बार पार्टी ने उद्धव ठाकरे के हाथ से रिमोट छीन लिया था, जाहिर है परिवार ही नहीं पार्टियां भी दूसरी पीढ़ी का सफर तय करती हैं।

लेकिन वजह क्या हुई, जिस शिवसेना पर बार बार गीदड़ भभकी देने और आखिर में बीजेपी की ही गोद में बैठने के इल्जाम लगते हैं वो इतनी आक्रामक क्यों हो गई। पार्टी ने पहले ही ऐलान कर रखा है कि वो महाराष्ट्र में BJP से अलग होकर चुनाव लड़ेगी, लेकिन BJP उसके इस ऐलान को भी तब तक सीरियसली नहीं ले रही थी, जब तक अविश्वास प्रस्ताव वाला खेल नहीं हुआ।

अविश्वास प्रस्ताव के दौरान शिवसेना की गैर मौजूदगी को BJP के शाह ने दिल पर ले लिया। नतीजा ये हुआ कि मुंबई दौरे में वो कार्यकर्ताओं के बीच ऐलान कर आए कि

“अब बहुत हुआ…अगली जंग अकेले लड़ने की तैयारी हो”

लेकिन अमितशाह के इस जवाबी एक्शन से भी शिवसेना के कस बल ढीले नहीं पड़े। उद्धव ठाकरे ने सामना के संपादक संजय राउत को एक वीडियो इंटरव्यू दिया। इस इंटरव्यू में केंद्र सरकार को लगभग चिढ़ाते हुए उद्धव यहां तक कह गए कि

“गाय की रक्षा के नाम पर भारत अब विश्व में महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश बन गया है …”

ये वही आरोप था जो राहुल गांधी ने अविश्वास प्रस्ताव के दौरान सरकार पर बाहें चढ़ा-चढ़ा कर लगाया था। यही नहीं पार्टी ने राहुल की ‘झप्पी’ को भी ‘झटका’ बताया।

खैर ये तमाम बातें तो अब पब्लिक डोमेन में हैं, लेकिन सवाल तो ये कि शिवसेना और BJP की बढ़ती दूरी का राज़ क्या है। जानकार तो इसे बढ़ती दूरी नहीं बल्कि बढ़ती चिढ़ करार देते हैं

शिवसेना की बेचैनी

जी हां, शिवसेना दरअसल बेचैन ही है, इस बेचैनी पर उत्तर भारतीय राजनीति के एक पुरबिया जानकार की टिप्पणी पर गौर करें।

“भाई एक ही खेत को दो गदहे कब तक चरेंगे। एक न एक दिन तो एक को दूसरा खेत से खदेड़ कर ही मानेगा”

मुंबई में लंबे समय तक शिवसेना से पंगा लेने वाले वरिष्ठ पत्रकार निखिल वागले को अक्सर लिखते और कहते सुना गया है कि “बाल ठाकरे पानीपत की जंग में मराठों की हार की हताशा पर सवार होकर राजनीति में आए”। उनकी राजनीति में मराठी मानुष सबसे उपर था, दूसरे नंबर पर मुंबई पर मराठियों का दावा और तीसरे नंबर पर था हिंदुत्व। यही वजह है कि क्षेत्रीय पार्टी होकर भी शिवसेना महाराष्ट्र में बड़े भाई की भूमिका में रही। लेकिन अक्टूबर 2014 के चुनाव ने ये भूमिका बदल दी, और शिवसेना की बेचैनी यहीं से शुरु हुई।’

मराठी मानुष खास तौर पर नौजवान का एजेंडा कब बदल गया ये शिवसेना को पता ही नहीं चला। ये वो जेनरेशन है जो पानीपत की हार की हताशा से बाहर आ चुकी है। उसके लिए पहले नंबर पर अपना कल है, दूसरे नंबर पर हिंदुत्व और कहीं तीसरे पर मराठा अस्मिता।

दूसरी ओर BJP ने शिवसेना के इर्दगिर्द मराठी नेताओं की ऐसी फील्डिंग खड़ी कर दी है जिनके जरिए वो शिवसेना के साथ रहते हुए भी उसमें सेंध लगा सकें।

ये बात उद्धव साहेब के तो नहीं लेकिन कमिटेड शिवसैनिकों के समझ में आ गई कि भाऊ ये दोस्ती तो हमारा वजूद खत्म करके मानेगी, और उन्होने अपनी ओर से ही बीजेपी से दूरी बनाने की कवायद शुरु कर दी।

यही वजह है कि पहले तो शिवसेना ने अगला चुनाव BJP से अलग लड़ने का ऐलान किया, फिर वो उससे हर संभव दूरी दिखाने की कोशिश में लग गई।

आप पूछेंगे कि फिर शिवसेना सरकार में क्यों है….जानकारों का मानना है कि इसकी वजहें दो हैं

पहली- बगैर पावर के पॉलिटिक्स नहीं होती, और यहां पावर से मुराद पैसे से है, बताने की जरूरत नहीं कि पैसा क्या है और मलाईदार मंत्रालय क्यों होता है।

दूसरी- राजनीति में संभावना का अंत कभी नहीं होता इसलिए दरवाजे आखिरी दम तक बंद नहीं किए जाते।

तो दम साध कर देखिए….. आगे-आगे और… होता है क्या !