अर्थार्थ : मंदी तो दो साल से है, सरकार ने छुपाये रखा था! Yield Curve की रहस्‍यमय कहानी…

सूर्य कांत सिंह
काॅलम Published On :


हाल में ही आयी एक खबर से अमेरिकी शेयर बाज़ार में गिरावट दर्ज़ हुई। अमेरिकी ट्रेजरी का यील्ड कर्व अस्थायी रूप से बुधवार, 14 अगस्त को उलट गया। इस घटना को यील्ड कर्व इनवर्जन कहा जाता है। यह जून 2007 के बाद से पहली बार हुआ है और निवेशक इसे लेकर बहुत चिंतित हैं।

उलटा यील्ड कर्व एक ऐसे वातावरण को दिखाता है जिसमें कर्ज के दीर्घकालिक उपकरण (लंबी अवधि के बॉन्ड), उसी क्रेडिट गुणवत्ता वाले अल्पकालिक उपकरण (शार्ट टर्म बॉन्ड) की तुलना में कम रिटर्न देने लगते हैं। मौजूदा यील्ड कर्व इनवर्जन की वजह से दो वर्ष वाले बॉन्ड 10 वर्ष वाले बॉन्ड के मुकाबले ज़्यादा रिटर्न देने लगे। यील्ड कर्व इनवर्जन के तीन मुख्य प्रकारों में यह कर्व सबसे दुर्लभ है और इसे आर्थिक मंदी (रिसेशन) का पूर्वसूचक माना जाता है।

अमेरिकी यील्ड कर्व पिछले 50 वर्षों में हर बार रिसेशन से पहले उलट गया था। यील्ड कर्व उलटने के बाद अधिकतम दो वर्षों के भीतर अमरीकी अर्थव्यवस्था में रिसेशन आने का इतिहास रहा है और यह संकेत 10 में से 9 बार रिसेशन के संकेत के रूप में सही सिद्ध हुआ है इसलिये निवेशक यह मान रहे हैं कि अमेरिका में जल्द हीं मंदी आने वाली है। इंटरनेशनल बिज़नेस मीडिया में भी यही खबर चल रही है कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था रिसेशन की ओर बढ़ रही है।

इस ऐतिहासिक सह-संबंध के कारण, यील्ड कर्व को अकसर आर्थिक चक्र में आने वाले परिवर्तन के सटीक पूर्वानुमान के रूप में देखा जाता है। उदाहरण के लिए, ज्यादा पीछे जाने की भी ज़रूरत नहीं है। अमेरिकी ट्रेजरी यील्ड कर्व पिछली बार 2007 में उलटा हो गया था जिसके ठीक बाद अमेरिकी इक्विटी बाजारों में भारी गिरावट आयी थी और अमेरिका मंदी की चपेट में आ गया था।

ऐसे में पूछा जाना चाहिए कि इस घटना के साथ भारत की अर्थव्यवस्था का क्या सम्बंध हो सकता है?

अमरीकी यील्‍ड कर्व उलटने से भारत की अर्थव्‍यवस्‍था का रिश्‍ता

अमरीकी ट्रेजरी यील्ड के सदृश भारत की आर्थिक प्रणाली में भारत सरकार के बॉन्ड हैं जो अलग-अलग अवधि की मैच्योरिटी वाले होते हैं और जीओआइ बॉन्ड के नाम से बिकते हैं। ध्यान रहे कि ये भारत सरकार के सेविंग बॉन्ड से भिन्न है। सेविंग बॉन्ड की ब्याज दर पूर्व-निर्धारित होती है। अब अगर जीओआइ बॉन्ड के ऐतिहासिक डेटा को देखें तो यह साफ हो जाता है कि भारत में यील्ड कर्व इंवर्जन पहले ही हो चुका है!! इस घटना को दो वर्ष से ज़्यादा बीत चुके हैं। इसलिए यह कहना कि हम मंदी की ओर जा रहे हैं सरासर बेईमानी है। कटु सत्य यही है कि हम मंदी में आ चुके हैं!

अब अगर आंकड़ों को फिर से देखें तो यह सभी इस बात की पुष्टि कर रहे हैं। भारत की इकॉनमी में रिसेशन आ चुका है और सबसे खतरनाक बात यह है कि मंदी का दौर भारत से शुरु हो रहा है


source: tradingeconomics.com

यील्ड कर्व इंवर्जन की परिघटना दरअसल भविष्य में कम ब्याज दरों की भविष्यवाणी भी है क्योंकि लंबी अवधि के उपकरणों का रिटर्न कम होने की वजह से उनकी मांग घट जाती है। अब ध्यान दें तो भारतीय रिजर्व बैंक लगातार रेपो रेट कम कर रहा है। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि लोग पैसा बैंक में डालने के बजाय बाज़ार में लगाएंगे और पूंजी कम ब्याज पर उपलब्ध होगी जिसके फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में तेज़ी आएगी। रेपो रेट कम करने से मुद्रास्फीति कुछ समय के लिए बढी थी पर अब वह वापस कम होने लगी है। तो यह भी साफ हो चला है कि केवल रेपो रेट में कमी करने से इस भारी समस्या का समाधान नहीं होने वाला। साथ ही यह भी, कि सरकार को बखूबी पता है कि अर्थव्यवस्था में क्या हो रहा है

दुनिया भर का हाल

प्रमुख एशियाई ऋण बाजारों में तो हमेशा से अमरीकी ट्रेजरी की चालों को प्रतिबिंबित करने का इतिहास रहा है इसलिए प्राथमिक रूप में यह आशंका भी है कि विश्व अर्थव्यवस्था मंदी के कगार पर है। मौजूदा वक्त में एशियाई बाजार यूएस और यूके के रुख पर नज़र रख रहे हैं क्योंकि निवेशक चीन और अमेरिका के व्यापार युद्ध से हो रहे नुकसान से बुरी तरह प्रभावित हैं। जहां जर्मनी का जीडीपी कमज़ोर हुआ है वहीं चीन का औद्योगिक उत्पादन भी निराशाजनक रहा है जो वैश्विक अर्थव्यवस्था की कमजोरी को प्रबलता से रेखांकित कर रहा है। निवेशक लंबे अवधि वाले सिक्योरिटीज़ की लगातार छंटनी कर रहे हैं क्योंकि ब्याज दरों में गिरावट जारी रहने का अनुमान है।

दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में स्थापित सिंगापुर भी वैश्विक व्यापार की मंदी महसूस कर रहा है। सिंगापुर में दो और 10 साल की यील्ड के बीच का अंतर पिछले सप्ताह से कम हो गया है, जो नवंबर 2006 के बाद सबसे छोटा अंतर है। यानी वहां कभी भी यील्ड कर्व इंवर्जन हो सकता है। सिंगापुर की जीडीपी में पिछली तिमाही में 3.3 प्रतिशत की कमी आई, जो नरम होती मांग और इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में मंदी की वजह से है।

मलेशिया में तीन साल के नोट की तुलना में 10 साल के नोट की यील्ड में गिरावट है। हालांकि बॉन्ड में किये गए निवेश ने मुद्रास्फीति में हालिया उतार-चढ़ाव को कम कर दिया है पर उम्मीद की है कि आने वाले महीनों में खपत कर में बदलाव के कारण कीमतों पर दबाव बढ़ेगा।

ऑस्ट्रेलिया का यील्ड कर्व सपाट रहा है, साथ ही स्थानीय यील्ड दबाव में हैं। जापान में, 1990 के दशक में देश के आर्थिक बुलबुले के फूटने के बाद पहली बार यील्ड कर्व उलटा हो रहा है। वहां के केंद्रीय बैंक की “यील्ड कर्व कंट्रोल पालिसी” बाजार की चाल को प्रभावित करने में एक बड़ी भूमिका निभाती है लेकिन तब भी स्थानीय नीति वैश्विक बदलावों से प्रतिरक्षा नहीं देती। इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि जापान भी जल्द ही कर्व इंवर्जन का शिकार होने वाला है

हमारी उदासीनता और सरकार की लापरवाही

ऊपर दी गई जानकारियों से यह साफ है कि एक बहुत बड़ा पतन हो रहा है। भारतवासियों को ध्यान देने की ज़रूरत है क्योंकि आम जनता की आर्थिक मामलों के प्रति उदासीनता का पूरी तरह से फायदा उठाते हुए सरकार देश की अवाम को धोखा देने का काम कर रही है। हम इस वैश्विक पतन के ठीक बीचोबीच मौजूद हैं पर जहां दुनिया भर की सरकारें अपने देश को इस मंदी से प्रतिरक्षा देने के प्रतिबद्ध दिखाई देती हैं वहीं हमारी सरकार इस मामले में पूरी तरह लापरवाह दिख रही है। वर्ल्ड गोल्ड काउन्सिल दुनिया भर के सोने के कारोबार पर नज़र रखती है। उसके डेटा के मुताबिक रूस और चीन आने वाले मंदी के दौर के लिये स्वर्ण भंडार बढा रहे हैं, वहीं भारत सरकार देश के पैसे से विदेशी खज़ाना भर रही है।

अब एक और आंकड़े पर नज़र डाली जाए। ज़्यादातर देशों के केंद्रीय बैंकों में आयात के छह महीने के मूल्य के बराबर विदेशी मुद्रा भंडार रखने की प्रवृत्ति होती है क्योंकि विदेशी मुद्रा भंडार केवल चालू खाते के घाटे को पूरा करने के लिए आवश्यक है न कि पूरे आयात के लिए। इसमें भी हालांकि कई मत हैं क्योंकि यह निर्णय किसी अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति के आधार पर लिया जाता है। इस मापदंड के मद्देनजर भारत का विदेशी मुद्रा भंडार बहुत ही बड़ा है। अगर हम चालू खाते का घाटा जीडीपी के 7.5% भी पर मानें (जो कि बहुत अधिक है), तो लगभग 85 बिलियन डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार की आवश्यकता है जबकि भारत का वास्तविक भंडार 400 बिलियन डॉलर से ज़्यादा है। विदेशी मुद्रा भंडार भारत के कुल बाहरी ऋण के 80% के बराबर है। यह भी एक बहुत बड़ा अनुपात है।

जब रुपया डॉलर के मुकाबले अस्थिर होने लगता है तो विदेशी मुद्रा भंडार एक इंश्योरेंस के रूप में कार्य करता है पर भंडार को बनाये रखने की लागत बहुत ज्यादा है। जब आरबीआइ “स्पॉट” में (तुरंत डेलिवरी के लिये) डॉलर खरीदता है तो इससे भारतीय व्यवस्था में पैसा आता है और पैसा आने से महंगाई बढ़ती है। आरबीआइ नहीं चाहता कि महंगाई बढ़े इसलिए वह “स्पॉट” खरीद को “फॉरवर्ड” (देरी से डेलिवरी लेने का कांट्रेक्ट) में परिवर्तित करता है, पर फॉरवर्ड कांट्रेक्ट पर प्रीमियम का भुगतान करना होता है जो कि एक प्रत्यक्ष लागत है।

विदेशी मुद्रा भंडार के अन्य स्रोतों में फेडरल रिजर्व के उपकरण हैं जिनमें भारत का भारी निवेश है। ऊपर के ग्राफ से साफ है कि उस निवेश से जो रिटर्न मिलता है वह नगण्य है। विशेषज्ञों का कहना है कि आरबीआइ का काम सिस्टम में स्थिरता बनाये रखना है न कि निवेश प्रबंधन करना। अब सोचने लायक बात यह कि जो सेंट्रल बैंक 400 बिलियन के मुद्रा भंडार का प्रबंधन करता है वह उसके निवेश का प्रबंधन क्यों नहीं करता? भारत के सर्वोच्च वित्तीय संस्थान से ज्यादा कुशलता से यह काम कौन कर सकता है?

पूर्व आरबीआई प्रमुख और अर्थशास्त्री रघुराम राजन के शब्दों में – “हम अपने पास मौजूद विदेशी भंडार के लिए कुछ भी नहीं करते। हम दूसरे देश को वित्तपोषण कर रहे हैं जबकि हमें हीं वित्तपोषण की आवश्यकता है”।

ऊपर दिया गया आंकड़ा भारत के विदेशी कर्ज़े का संयोजन बताता है। वर्ल्ड बैंक के इस डेटा के मुताबिक भारत के विदेशी मुद्रा भंडार का ‌‌84% हिस्सा डालर में है। इसमें सिर्फ डालर करेंसी की बात नहीं हो रही बल्कि डालर से जुडे हुए अन्य निवेश भी हैं। तब भी यह एक गम्भीर समस्या है। किसी कारणवश अगर डालर के मूल्य में गिरावट आती है तो भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भी भरभरा कर गिर जाएगा। सबसे बुरी खबर यह है कि इस तरह की घटना और इसके नतीजे कितने बड़े पैमाने पर तबाही ला सकते हैं, यह जानने के बावजूद विदेशी मुद्रा भंडार में डालर का अनुपात लगातार बढ़ रहा है।

मुद्रा के रूप में डालर के ध्वस्त होने की भी बहुत चर्चा है और काफी समय से है पर विश्व की अर्थव्यवस्था में भारी अमरीकी दखल से लोग इसकी सम्भावना को कम ही मानते रहे हैं। यह स्थिति अब तेज़ी से बदली है। लगभग सभी अमरीकी उद्योग अब अपने कारखाने चीन में लगा रहे हैं। चीन लगातार इसमें उनकी मदद कर रहा है और वहां लागत भी कम है।

यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि घटती आर्थिक ताकत की वजह से अमरीका अब कहीं से भी दुनिया का नेतृत्व करने में सक्षम नहीं है। वहीं चीन नये ग्लोबल लीडर के तौर पर उभरा है। यही कारण है कि मंदी के दौर में भी चीन अमरीका के आर्थिक प्रतिबंधों का मज़बूती से जवाब देने में सक्षम है। अगर कोई गूगल पर “डालर कोलैप्स” सर्च करे तो उसे वास्तविकता नज़र आ जाएगी।

तो अब ठंडे दिमाग से इन सारी जानकारियों को आत्मसात करें।

बागों में बहार ‘नहीं’ है!

इकॉनमी ढलान पर है, बैंक डूब रहे हैं, सरकारी उपक्रम खस्ताहाल हैं जिन्हें बेदर्दी से औने-पौने दाम में बेचा जा रहा है, आरबीआइ का निवेश मूल्‍यविहीन संपत्तियों पर है और रोज़गार खतम हो चला है। जो उम्रदराज पाठक ये सोच रहे हैं की उनका जीवन तो पेंशन से सुरक्षित है उन्हें चेता देना उचित है कि सरकार उनके पीएफ और पेंशन का भुगतान करने में भी असमर्थ होती जा रही है। इसलिए सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ायी जा रही है। अभी सब सुहाना लग रहा है पर 62 की उम्र में पता चले कि पेंशन नहीं मिलेगी तो क्या करेंगे, यह विचारणीय है।

एक बार इस महामंदी को एनपीए फ्राड से जोड़ कर देखें तो समझ जाएंगे कि आने वाले परिणाम अत्यंत घातक हो सकते हैं, इतने घातक कि अनुमान लगाना भी कठिन है। हो सकता है हमारी सम्पूर्ण वित्तीय प्रणाली का ही पतन हो जाए या फिर हमारी पहले से ही कमज़ोर मुद्रा हाइपर-इनफ्लेशन में चली जाए!

इनमें से कुछ या ये सभी घटनाएं वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के ”निष्कर्ष” के तौर पर देखी जानी चाहिए। निष्कर्ष यह है की पूंजीवादी व्यवस्था का पतन अब बहुत निकट आ चला है। जितना आप और हम सोच रहे हैं उससे कहीं निकट। केवल एक बात है जो हम नहीं जानते। वह है ट्रिगर इवेंट। वह क्या होगा या उसकी समयावधि क्या है जो वैश्विक दहशत का कारण बन सकता है? वह द्विपक्षीय तनाव भी हो सकता है जिसकी पर्याप्त सम्भावनाएं भारत-पाक, भारत-चीन, चीन-अमरीका, अमरीका-रूस के  बीच देखी जा सकती हैं। वह ब्रेगज़िट या कोई अन्य घटना से भी हो सकता है। लेकिन यह निश्चित हो चला है कि‍ अब इसे टाला नहीं जा सकता।

अगले अध्याय में भारत सरकार की नीतियों पर चर्चा होगी जो आग में घी का काम कर रही हैं।


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इस श्रृंखला का पहला भाग यहां पढ़ें

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