‘सामाजिक दूरी’ पर आधारित समाज में सोशल डिस्टेंसिंग !

मीडिया विजिल मीडिया विजिल
काॅलम Published On :


बहुजन दृष्टि-1

 

आजादी के तुरंत बाद 1947 में जवाहरलाल नेहरू ने यूनेस्को से एक खास निवेदन किया। विकास कार्यों को आरंभ करने के लिए जरूरी था कि इस देश और समाज की समस्याओं को इसके मूल रूप मे समझ लिया जाए। नेहरू ने यूनेस्को से निवेदन किया कि भारत को एक ऐसा सलाहकार दिया जाए, जो भारत में छह महीने तक अध्ययन करके, भारतीय समाज मे ‘सामाजिक तनाव’ के कारणों का पता लगाये। इस कार्य के लिए यूनेस्को ने सबसे प्रतिष्ठित अमेरिकी सामाजिक मनोवैज्ञानिक प्रोफेसर मर्फी को चुना। काम खत्म होने पर प्रोफेसर मार्फी ने तकनीकी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपी। इस रिपोर्ट मे में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तनाव, जाति व्यवस्था से उत्पन्न तनाव, औद्योगिकीकरण के कारण होने वाले तनाव और शरणार्थी समस्या से जुड़े तनावों की बात की गई।

इन समस्याओं को और इनसे जुड़े समाज के मनोविज्ञान को उजागर करते हुए प्रोफेसर मर्फी ने कई सुझाव दिए जो कि एक किताब की शक्ल मे बाद मे प्रकाशित हुए। आज भी भारत को और भारत के समाज को समझने के लिए इस किताब को एक जरूरी दस्तावेज की तरह देखा जाता है। यह किताब भारत की जाति व्यवस्था, सामाजिक संरचना, पारिवारिक संरचना और विभिन्न संप्रदायों के आपसी संबंधों की गहरी पड़ताल करती है। यह किताब बताती है कि किस तरह भारत का समाज जाति, वर्ण, लिंग और धर्म के आधार पर भयानक रूप से विभाजित है और विकास की प्रक्रिया को आरंभ करने के लिये सामाजिक दूरी एवं सामाजिक दूरी से जुड़ी समस्याओं को हाल करना जरूरी है। किताब मे यह भी जोर देकर कहा गया है कि भारतीय समाज मे जो सामाजिक दूरी बनी हुई है वह अगर खत्म नहीं होती तो शिक्षा के प्रसार का भारत मे सामाजिक अर्थ मे कोई विशेष लाभ नहीं होगा।

आजादी के इतने सालों बाद हम जान चुके है कि प्रोफेसर मार्फी का आकलन और उनकी सलाह कितनी सही थी। उस किताब मे जिस सच्चाई को उजागर किया गया है वह आजकल कोरोना वायरस के खतरों के बीच एक लंबे लॉकडाउन के बीच फिर से सर उठाती नजर आ रही है। लॉकडाउन के दौरान समाज के विभिन्न तबकों मे एक-दूसरे के प्रति जिस तरह की प्रतिक्रियाएँ सामने आ रही है, वे बताती हैं कि समाज इस समस्या से एकजुट होकर लड़ने के लिए तैयार नहीं है। वहीं दूसरी तरफ सरकार बिना किसी ठोस योजना और रणनीति के जिस प्रकार से काम कर रही है उससे जाहिर होता है कि स्वयं सरकार भी इस लड़ाई के लिए तैयार नहीं है। इस प्रकार आवश्यक व्यवस्थाओं और योजनाओं के अभाव मे केवल लॉकडाउन को ही कोरोना के खिलाफ लड़ाई का सबसे बड़ा हथियार मान लिया गया है।

यह लॉकडाउन भी मूल रूप से नए संक्रमण से बचने के लिए लोगों को आपस मे घुलने मिलने से रोकने के लिए रचा गया है। इस उपाय के साथ एक अन्य सहयोगी उपाय की तरह द्वारा सोशल डिस्टेंसिंग (सामाजिक दूरी) बनाने की सलाहें आधिकारिक रूप से आ रही हैं। भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय ने सोशल डिस्टेंसिंग की परिभाषा देते हुए स्पष्ट किया है कि इसका उद्देश्य संक्रमित एवं असंक्रमित लोगों के बीच संपर्क को रोकना है ताकि बीमारी को फैलने से रोका जा सके। इस प्रकार एक दूसरे से कम से कम एक मीटर की दूरी बनाना, मुंह को मास्क से ढंकना, खाँसते या छींकते समय अतिरिक्त सावधानी रखना और बार बार हाथ धोना इत्यादि सलाहें साथ मे दी जा रही हैं।

संक्रमण रोकने और सावधानी बरतने की सलाव और सदिच्छा के बीच सामाजिक दूरी शब्द स्वयं ही चर्चा के केंद्र मे आ गया है। सामाजिक दूरी शब्द का चिकित्सा विज्ञान और एपीडिमियोलॉजी मे एक खास तरह का अर्थ है और इससे कुछ खास तरह के फायदे अभिप्रेत हैं। लेकिन सामाजिक दूरी शब्द का एक समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अर्थ एवं पहलू भी है। यह समाजशास्त्रीय अर्थ की सामाजिक दूरी आगे चलकर चिकित्सीय अर्थ की सामाजिक दूरी से होने वाले फायदे को भयानक नुकसान मे बदल देती है। सरल भाषा मे मतलब ये है कि संक्रमण रोकने के लिए एक-दूसरे से मिलना जुलना रोकने के लिए दी गयी सलाह असल मे एक-दूसरे से सहयोग न करने की सलाह मे बदल सकती है। इसीलिए इस खतरे के प्रति जागरूक होते ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सामाजिक दूरी शब्द के बजाय शारीरिक दूरी (फिजिकल डिस्टेंसिंग) का प्रयोग शुरू कर दिया है।

प्रोफेसर मर्फी मे 1948 मे भारत मे सामाजिक दूरी को सामाजिक सहयोग को रोकने वाली और समाज मे नफरत फैलाने वाली हकीकत के रूप मे पहचाना था। आज 2020 मे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी वैश्विक स्तर पर सामाजिक दूरी के खतरों को भांपते हुए इस शब्द से किनारा कर लिया है। असल मे इसके पीछे कारण यह है कि एक सभ्य और नैतिक समाज से यह अपेक्षा की जाती है कि वह संकट के समय मे आपस मे सहयोग और मैत्री का व्यवहार करे। लेकिन सामाजिक दूरी शब्द के जरिए जो संदेश मिलता है वह नकारात्मक संदेश बन जाता है। विशेष रूप से भारत मे जहां कि सामाजिक व्यवस्था और धार्मिक व्यवस्था का जन्म ही समाज के विभिन्न स्तरों को एक दूसरे से दूर रखने के लिए हुआ है – ऐसे देश मे सामाजिक दूरी शब्द को लेकर सरकार से अधिक सावधानी की उम्मीद की जानी चाहिए।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस शब्द के जो खतरे अनुभव किए वे खतरे भारत मे अनुमान नहीं बल्कि हकीकत मे बदल गए हैं। जाति धर्म वर्ण और लिंग के आधार पर सामाजिक दूरी और भेदभाव को अपनी परंपरा और धर्म तक मानने वाले इस देश मे कोरोना के संकट के बीच अपनी जहरीली हकीकत को उजागर कर दिया है। सोशल मीडिया और न्यूज़ मीडिया मे एसी कई खबरों की भरमार है जहां चिकित्सीय सलाह से भरी सोशल डिस्टेंसिंग को सामाजिक भेदभाव से भरी सोशल डिस्टेंसिंग मे ट्रांस्लेट प्रयोग किया जा रहा है। तबलिगी जमात के प्रकरण के बाद जिस तरह से मुसलमानों के खिलाफ एक नफरत का वातावरण बनाया गया है। यह उदाहरण बताता है कि सोशल डिस्टेंसिंग की चिकित्सीय सलाह किस तरह से भेदभाव की राजनीति के उपकरण मे बदल दी गयी है।

इस बिन्दु पर हम डॉ अंबेडकर की सलाह को याद कर सकते हैं। डॉ अंबेडकर ने भारतीय समाज की मूल संरचना का अध्ययन करते हुए यह कहा था कि भारत का समाज असल मे नफरत और दूरी बनाए रखने के सिद्धांत पर रचा गया है। भारत के वर्णाश्रम धर्म का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कहा था कि जब तक इस धर्म द्वारा प्रचलित जातीय भेदभाव और दूरी का वातावरण समाज मे बना रहेगा, भारत मे लोकतंत्र का कोई भविष्य नहीं हो सकता है। आज के भारत मे इस बात को, विशेष रूप से कोरोना संकट के इस दौर मे हम आसानी से देख और समझ सकते हैं। किसी भी समाज का वास्तविक चरित्र उसके संकट के काल मे उजागर होता है। आज हिन्दू समुदाय द्वारा लॉकडाउन के उल्लंघन की खबरों को छुपाकर सिर्फ तबलीगी जमात और मुसलमानों द्वारा लॉकडाउन उल्लंघन की चर्चा मीडिया द्वारा की जा रही है।

कोरोना संकट से घिरे भारत के समाज का वास्तविक चरित्र इस विरोधाभास और इस नफरत की राजनीति के आईने मे देखा जा सकता है। जो नफरत आजादी के दिन शुरू हुए दंगे मे पूरी दुनिया ने देखी थी उससे जवाहरलाल नेहरू बहुत व्यथित हुए थे। इस समय एक नए जन्मे राष्ट्र की चिंता करते हुए जो भय जवाहरलाल नेहरू और अंबेडकर के  मन मे थे वे भय आज कमजोर नहीं हुए हैं बल्कि शायद और मजबूत होकर उभर रहे हैं।

 


संजय श्रमण जोठे एक स्वतन्त्र लेखक एवं शोधकर्ता हैं। मूलतः ये मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं। इंग्लैंड की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन मे स्नातकोत्तर करने के बाद ये भारत के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं। बीते 15 वर्षों मे विभिन्न शासकीयगैर शासकीय संस्थाओंविश्वविद्यालयों एवं कंसल्टेंसी एजेंसियों के माध्यम से सामाजिक विकास के मुद्दों पर कार्य करते रहे हैं। इसी के साथ भारत मे ओबीसीअनुसूचित जाति और जनजातियों के धार्मिकसामाजिक और राजनीतिक अधिकार के मुद्दों पर रिसर्च आधारित लेखन मे सक्रिय हैं। ज्योतिबा फुले पर इनकी एक किताब वर्ष 2015 मे प्रकाशित हुई है और आजकल विभिन्न पत्र पत्रिकाओं मे नवयान बौद्ध धर्म सहित बहुजन समाज की मुक्ति से जुड़े अन्य मुद्दों पर निरंतर लिख रहे हैं। बहुजन दृष्टि उनके कॉलम का नाम है जो हर शनिवार मीडिया विजिल में प्रकाशित होगा। 18 अप्रैल 2020 को प्रकाशित हो रहा यह लेख इस स्तम्भ की पहली कड़ी है।