#MeToo : कुछ हश्र तो इनसे उट्ठेगा!

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काॅलम Published On :


 

अशोक कुमार पाण्डेय

 


फेसबुक, ट्विटर या गूगल पर #Metoo टाइप कीजिये और जैसे बरसों से रोका हुआ बदबूदार परनाला बह निकला है। एक सड़े हुए समाज की गिनगिना देने वाली बदबू। वैचारिक बाड़बंदियों को तोड़ती हुई सड़न, उत्तर से दक्खिन और पूरब से पश्चिम तक एक जैसी। यह देश अक्सर ख़ुशबुओं से नहीं ऐसी ही बदबुओं से एक होता है।

अभी कल-परसों की ही बात है एक मित्र से बात हो रही थी। इलहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रतनलाल हांगलू का ज़िक्र चला। घटना से आप सब परिचित हैं। एक आडियो घूम रहा है जिसमें दिल्लीवासी एक कहानीकार और हांगलू साहब के बीच जो बातचीत है वह प्रेम की आड़ में “लेक्चररशिप ले देह दे” जैसी सौदेबाज़ी की ओर इशारा कर रहा है। मित्र ने कहा, “हांगलू तो बड़ा आदमी है दो चार महीने झेलेगा फिर कहीं न कहीं सेट हो जाएगा लेकिन इस महिला पर अब कोई भरोसा नहीं करेगा ।” बेहद ठंडे स्वर में कहा गया यह सच हमारे समाज का कितना भयानक आईना है। हांगलू सच मे बड़े आदमी हैं – बड़े अकादमिक विद्वान- देश दुनिया की अनेक यूनिवर्सिटीज़ में पहुँच है। बड़े लोगों मे भी होगी। लेकिन सिर्फ़ इतना नहीं है – उनकी जो ‘ग़लती’ है वह छोटी सी मानी जाती है तो कुछ दिन मे भुला दी जाएगी, माफ कर दी जाएगी। वह सत्ता संस्थान में थे और वहाँ से लोगों का भला कर सकते थे। लोगों मे जो पुरुष शामिल हैं उनके भले की क़ीमतें अलग हैं । पैसा हो सकता है, सम्बन्ध हो सकता है, धर्म और जाति तो हो ही सकती है। लेकिन स्त्री के संदर्भ में वह क़ीमत अलग है – देह। ‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है’ का अर्थ जेंडर के साथ बदल जाता है और यह लगभग हर क्षेत्र में है। यह क़ीमत देने या देने के लिए मज़बूर किए जाने के बाड़ स्त्री को इसे छिपाना है क्योंकि बात बाहर आई तो यह खेल डिस्टर्ब हो जाएगा। यही नहीं बाहर आने पर भी स्त्री से क़ीमत वसूलने के लिए है एक औज़ार- चरित्र। तो जो भदेस हैं वह कह देंगे – ऐसी ही थी वह, क्यों गई अकेले में, शराब क्यों पी, ऐसे कपड़े क्यों पहने, इतनी रात को फोन पर बात क्यों की…और जो थोड़े सोफिस्टीकेटेड होंगे वे समर्थन का वितान रचने के बाद धीमे से कह देंगे – जाने कितनी जगह मीटू धमकी की तरह उपयोग हो रहा होगा। आप देखिये यह तर्क कितना क़रीब है दलित उत्पीड़न क़ानून के दुरुपयोग की दलीलों के।

खुशवंत सिंह अलग अलग वजहों से मशहूर हैं। उनका एक उपन्यास (?) है – औरतें। कुछ लोगों का मानना है कि अपने ही जीवन को उपन्यास की शक्ल में पेश किया गया है या फिर उनकी सबसे भयानक फंतासियों का कोलाज़। औरतें ही औरतें। योरप मे पढ़ते समय लिंग की मोटाई और लंबाई शुरू मे ही प्रसिद्ध हो जाती है – आख़िर इस ख़ालिस मर्दानगी को औरतों के बिस्तर पर आने के लिए मरे जाने के पक्ष में इससे बेहतर कौन सा तर्क मिलता जो सार्वजनिक पेशाबघरों की दीवारों से लेकर मर्द के जेहन की बैतुलखला में पलता पलता उसके लिंग ही नहीं उसकी देह और दिल-ओ-दिमाग से भी बड़ा हो जाता है। ईमानदारी से सोचिए यह फंतासी किस मर्द की नहीं है! योरप और अफ्रीका की काली-सफ़ेद औरतों से लेकर कश्मीर, पंजाब, दक्षिण, पूरब से होते हुए घर की नौकरानी तक के साथ हमबिस्तर होने की और हर औरत के हर सेक्स के बाद थक-हार कर मर्द की मर्दानगी पर वारे-वारे जाने की? तो देह में बदली यह औरत जब आपके सामने किसी नौकरी, किसी प्रमोशन, किसी फ़ेवर वगैरह वगैरह के लिए होती है तो जो सबसे पहली क़ीमत सूझती है वह है – देह! और सत्ता के लगभग हर केंद्र पर पुरुष क़ब्ज़े के बरक्स देखें तो समझ में आता है कि इतने सारे क़िस्से कैसे सामने आए जबकि हम सब जानते हैं कि हर कह दिये गए क़िस्से के बरक्स सौ अनकहे क़िस्से हैं।

आज़ादी की लड़ाई की शुरुआत में अंग्रेजों को लिखे गए सारे आवेदन अंग्रेज़ी मे थे। नौरोज़ी हों कि गाँधी सब विलायत से पढ़ कर आए थे जहाँ उन्हें यह समझ आई कि बतौर नागरिक उनके अधिकार क्या हैं। कह वही पाते हैं जिनको पहले तो यह मालूम होता है कि जो हुआ वह ग़लत था दूसरे यह कि कहने पर गर्दन काट नहीं दी जाएगी। वरना क्या शोषितों का एक बड़ा तबका ऐसा नहीं जिसकी कन्डीशनिंग ऐसी हुई है कि वह शोषण उसे सामान्य लगता है। रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा, दैवीय नियति। एक अंग्रेज़ी जानने वाले अंबेडकर की ज़रूरत यों ही नहीं होती शिक्षा से बाहर का दिये गए दलितों को, एक जीनियस मार्क्स की फैक्ट्रियों में खट खट कर अपनी मेधा को भूल चुके मज़दूरों को, किसी मैरी वोल्टसनक्राफ्ट की घर बाहर दोयम ज़िंदगी जीने को मज़बूर औरतों की। बड़े सामाजिक राजनीतिक बदलावों का वैचारिक दस्ता अक्सर मध्यवर्ग के पढे लिखे मर्दों-औरतों से बना होता है, चेतना का प्रसार होने के बाद वह नीचे पहुंचता है और फिर सही हो प्रक्रिया तो वही शोषित-दमित वर्ग बदलावों का नेतृत्व करता है वरना जिस मध्यवर्ग ने उसे शुरू किया था वह ऐसा भटकाता है कि नेतृत्व भी उसके ही हाथ मे रह जाता है और अक्सर प्रहसन में तब्दील आंदोलन में वही रह जाता है अकेला। ख़ैर ज़्यादा थियरी झाड़ना मुझ जैसे अधकचरे ज्ञान वाले मध्यवर्गीय की आदत होती है तो मुद्दे पर लौटता हूँ।

यह कहना अधूरा होगा कि अंग्रेज़ी पढ़ी लिखी महिलाएं मी टू के तहत अपने उत्पीड़न के वो क़िस्से सामने ला रही हैं जो अब तक किसी भय के तहत दबा रखे थे। याद करना होगा कि यह लहर पहले पश्चिम में चली जहाँ लोकतन्त्र हमसे मजबूत और समृद्ध है। जहाँ महिला अधिकार आंदोलन हमारे समाज की तुलना मे कहीं अधिक गहरे जड़ों वाला है, उसने दी हिम्मत तो सबसे पहले यहाँ के उस वर्ग ने बोलना शुरू किया जो अधिक सुविधा प्राप्त है ; अब वह वर्ग अंग्रेज़ी मे ही बोलता समझता है तो अंग्रेज़ी मे ही आना था। फिर बढ़ा है कारवाँ बढ़ेगा भी तो राजभाषा हिन्दी ही क्यों पंजाबी, गुजराती, बांग्ला, तमिल, उर्दू…जाने कहाँ कहाँ तक पहुँचेगा। मीनमेख निकालने की जगह “आमीन” कहना कितना खूबसूरत होगा न।

एक मर्द की तरह जो प्राधिकार हमें मिलें हैं बहुत बार हमें पता भी नहीं चलता कि जो हमने किया वह किसी का उत्पीड़न है। हमारी मानसिक बुनावट ही ऐसी है। तो आज अगर औरतें कोई अभियान चला रही हैं तो समर्थन न सही चुपचाप सर तो झुका सकते हैं। “हम ऐसे नहीं हैं”  के वाहियात शोर की जगह अपने भीतर डूब कर बदनुमा दाग़ तलाश सकते हैं। आगे कुछ कहने सुनने से पहले सोच लेने की मौन प्रतिज्ञा कर सकते हैं। ‘इससे क्या होगा’ का सवाल तो और संवेदनहीन है। कोई कार्यवाही हो न हो तो क्या बरसों का दबा गुबार निकल जाना ही एक राहत नहीं देता। क्या कोई नहीं रोया आपके कंधों पर कभी फूटफूटकर कुछ पुराना याद कर और क्या फिर आँसुओं से धुले चेहरे पर नहीं देखी आपने नई सुबह सी चमक? जो हीटू की बेशर्मी लिए चले आए हैं उनसे तो क्या ही कहूँ कुछ लेकिन जो नहीं है उनमें से वे आय एम सॉरी कह सकते हैं न अपने लिए अपनी मर्द बिरादरी के लिए।

बोल्ड अक्षरों मे  I AM SORRY लिखने के बाद  फ़ैज़ साहेब की मक़बूल ग़ज़ल से एक शे’र के सहारे शुभकामना देते हुए सर झुकाना चाहता हूँ।

ऐ जुल्म के मारों लब खोलो चुप रहने वालों चुप कब तक

कुछ हश्र तो इनसे उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएँगे…

     

अशोक कुमार पाण्डेय प्रसिद्ध युवा कवि और लेखक हैं। हाल ही में उनकी किताब ‘कश्मीरनामा: इतिहास और समकाल’ काफ़ी चर्चित हुई है।