टेंपल माउंट से यहूदी फिर बाहर

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प्रकाश के रे

साल 691-92 में डोम ऑफ द रॉक का काम पूरा होने के तुरंत बाद ही अब्द अल-मलिक ने मक्का, फारस और इराक के इलाकों को अपने कब्जे में कर लिया. इस 65 फीट व्यास की इमारत को उसकी भव्यता और इसमें 800 फीट की लिखाई ने जेरूसलम की सबसे शानदार इमारत बना दिया. साल 705 में पिता की मौत की बाद अल-वलीद सुल्तान बना. इसने भी टेंपल माउंट पर बेहतरीन इमारतें और स्मारक बनाने का सिलसिला जारी रखा. अल-अक्सा मस्जिद उसी के शासनकाल में बना था. दोनों बाप-बेटे ने साल 70 के बाद पहली बार बड़े पुल, दरवाजे और मेहराबों का निर्माण करवाया.

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इन खलीफाओं ने टेंपल माउंट को पूरी तरह से इस्लामी पहचान के केंद्र के रूप में बदल दिया. इसी के साथ उन दास्तानों का भी बनना-बिगड़ना जारी रहा, जिनसे जेरूसलम के आज के मिथक भी जुड़े हुए हैं. जैसे ईसाईयों ने यहूदियों के अनेक धार्मिक आचरणों, मान्यताओं और पहचानों को अपने धर्म में समाहित कर लिया था, उसी तरह से इस्लाम ने भी कई ईसाई आस्थाओं को अपने खाते में डाल दिया. ईसाई तीर्थयात्रियों को जिस पत्थर के चिन्हों को ईसा मसीह से जोड़ कर बताया-दिखाया जाता था, अब वे चिन्ह पैगंबर मोहम्मद से जोड़ दिये गये. यह भी दिलचस्प है कि टेंपल माउंट पर इमारतों के बनाने के काम की अगुवाई बैजेंटाइन शिल्पकार कर रहे थे, जो इंस्तांबुल ने खलीफा को दिये थे. अनेक इस्लामी इमारतों में ईसाई खंडहरों की लकड़ियां और पत्थरों का भी इस्तेमाल हुआ.

वलीद के दौर में भी इस्लामी जीतों का सिलसिला जारी रहा. अब साम्राज्य इधर सिंध तक आ गया था और इस्लामी सेनाएं कश्मीर में भी दस्तक देने लगी थीं. उधर स्पेन पर काबिज होने के साथ फ्रांस के कुछ इलाके भी अब उनके कब्जे में थे. साम्राज्य के अनेक जगहों पर महल और शाही सराय बनाने के साथ वलीद और उसके बेटे ने जेरूसलम में भी अनेक महल बनाये, जो टेंपल माउंट के दक्षिण में थे. दिलचस्प है कि अल-मलिक ने इंसानी चित्रों के उकेरे जाने पर रोक लगा दी थी, पर जॉर्डन के एक महल में वलीद ने दीवारों पर ऐसे चित्र खूब बनवाये जिनमें अर्द्धनग्न स्त्रियों और खिलाड़ियों की तस्वीरें भी थीं.

वलीद ने दमिश्क में ईसाईयों के साथ साझे में पूजा-प्रार्थना करने की परंपरा को रोक दिया है और बड़ा उमय्यद मस्जिद बनाया जो आज भी मौजूद है तथा अरब की सबसे अहम इमारतों में शुमार की जाती है. साल 715 में वलीद का भाई सुलेमान खलीफा बना. उसकी इच्छा जेरूसलम में ही बसने की थी, पर ऐसा नहीं हो सका. इसने रामला शहर बनाया, जो आज फिलीस्तीनी प्रशासन का केंद्र है. दो साल से कुछ अधिक समय तक राज करने के बाद सुलेमान की मौत हो गयी. सीरिया के दबिक शहर में स्थित इसके मकबरे को इस्लामिक स्टेट के आतंकियों ने अगस्त, 2014 में तोड़ दिया.

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सुलेमान के बाद उसका चचेरा भाई उमर खलीफा बना और 720 में करीब 40 साल की उम्र में मौत तक खलीफा रहा. उमर लंबे समय तक राजधानी दमिश्क में रहने के बजाये मदीना में रहा था. हालांकि उसने उमय्यद प्रशासन में अनेक जरूरी सुधार किये, परंतु अपने कट्टर इस्लामी विचारों के कारण 720 में उसने जेरूसलम में टेंपल माउंट में यहूदियों के आने और प्रार्थना करने पर पाबंदी लगा दी. इससे पहले तक शहर में यहूदियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी और अनेक यहूदी इराक और ईरान से भी आकर वहां बस गये थे. इस पाबंदी के बाद यहूदी टेंपल माउंट की दीवारों तथा टेंपल माउंट के पवित्रतम स्थल से नीचे की एक गुफा में बने अपने मंदिर में पूजा करने लगे थे.

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उमर के बाद से उमय्यद खानदान का सितारा गर्दिश में जाने लगा था. बाद के खलीफाओं- अल-वलीद द्वितीय, यजीद, मारवान आदि- को लगातार विद्रोहों का सामना करना पड़ रहा था. ईरान और अफगानिस्तान के खुरासान इलाके से 748 में अबु मुस्लिम नामक एक चर्चित सूफी ने आह्वान किया कि इस्लामी साम्राज्य को इस्लाम के कठोर सिद्धांतों के अनुसार चलाया जाना चाहिए तथा इसका शासन पैगंबर मोहम्मद के वंशजों के हाथ में होना चाहिए.

अबु मुस्लिम की सेनाएं आगे बढ़ती जा रही थीं. उधर यूरोप में इस्लामी टुकड़ियां फ्रांसीसी हमलों के कारण पीछे हट रही थीं. अबु मुस्लिम यह फैसला कर पाता कि उसे हजरत अली के वंशजों का समर्थन करना है या अब्बास के परिवार को- इससे पहले ही अबु अल-अब्बास आखिरी उमय्यद शासक को परास्त कर दमिश्क पर काबिज हो गया. इसमें अबु मुस्लिम का साथ भी मिला था. साल 750 में अबु अल-अब्बास के खलीफा बनने के साथ अब्बासी खलीफाओं का दौर शुरू हुआ. अब दमिश्क की जगह बगदाद इस्लामी साम्राज्य का केंद्र था. राजधानी बदलने के इस फैसले का बहुत असर जेरूसलम पर भी होना था.

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पहली किस्‍त: टाइटस की घेराबंदी

दूसरी किस्‍त: पवित्र मंदिर में आग 

तीसरी क़िस्त: और इस तरह से जेरूसलम खत्‍म हुआ…

चौथी किस्‍त: जब देवता ने मंदिर बनने का इंतजार किया

पांचवीं किस्त: जेरूसलम ‘कोलोनिया इलिया कैपिटोलिना’ और जूडिया ‘पैलेस्टाइन’ बना

छठवीं किस्त: जब एक फैसले ने बदल दी इतिहास की धारा 

सातवीं किस्त: हेलेना को मिला ईसा का सलीब 

आठवीं किस्त: ईसाई वर्चस्व और यहूदी विद्रोह  

नौवीं किस्त: बनने लगा यहूदी मंदिर, ईश्वर की दुहाई देते ईसाई

दसवीं किस्त: जेरूसलम में इतिहास का लगातार दोहराव त्रासदी या प्रहसन नहीं है

ग्यारहवीं किस्तकर्मकाण्डों के आवरण में ईसाइयत

बारहवीं किस्‍त: क्‍या ऑगस्‍टा यूडोकिया बेवफा थी!

तेरहवीं किस्त: जेरूसलम में रोमनों के आखिरी दिन

चौदहवीं किस्त: जेरूसलम में फारस का फितना 

पंद्रहवीं क़िस्त: जेरूसलम पर अतीत का अंतहीन साया 

सोलहवीं क़िस्त: जेरूसलम फिर रोमनों के हाथ में 

सत्रहवीं क़िस्त: गाज़ा में फिलिस्तीनियों की 37 लाशों पर जेरूसलम के अमेरिकी दूतावास का उद्घाटन!

अठारहवीं क़िस्त: आज का जेरूसलम: कुछ ज़रूरी तथ्य एवं आंकड़े 

उन्नीसवीं क़िस्त: इस्लाम में जेरूसलम: गाजा में इस्लाम 

बीसवीं क़िस्त: जेरूसलम में खलीफ़ा उम्र 

इक्कीसवीं क़िस्त: टेम्पल माउंट पहुंचा इस्लाम

बाइसवीं क़िस्त: जेरुसलम में सामी पंथों की सहिष्णुता 

तेईसवीं क़िस्त: टेम्पल माउंट पर सुनहरा गुम्बद 

चौबीसवीं क़िस्त: तीसरे मंदिर का यहूदी सपना

पचीसवीं किस्‍त: सुनहरे गुंबद की इमारत