फ़ातिमी ख़िलाफ़त में जेरूसलम 

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प्रकाश के रे


 

इख़्शीदियों के लिए काहिरा से जेरूसलम में अमन-चैन बहाल करने में परेशानी हो रही थी. इसका एक नतीज़ा यह था कि मुस्लिम और यहूदी तबके ईसाइयों पर लगातार हमलावर हो रहे थे. जैसा कि पिछले भाग में चर्चा की गयी थी, 938 में पाम संडे के मुबारक मौक़े पर हुए हमले में पवित्र चर्चों और अन्य धार्मिक स्थानों को बहुत नुक़सान हुआ था. जेरूसलम में तैनात मलिक काफ़ूर का गवर्नर भी ईसाइयों से ख़ूब उगाही कर रहा था. साल 966 में ईसाई प्रमुख जॉन ने इसकी शिकायत काफ़ूर को भेजी थी. उधर बैजेंटाइन साम्राज्य लगातार जीतें हासिल कर रहा था, इससे उत्साहित होकर जॉन ने सम्राट को चिट्ठी भेजी कि वह जेरूसलम पर भी हमला करे और इस पर दख़ल कर ले. यह चिट्ठी काफ़ूर के लोगों के हाथ लग गयी. इससे नाराज़ मुस्लिम और यहूदी समूहों ने एकबार फिर ईसाइयों को निशाना बनाना शुरू कर दिया.

इन हमलों में लूट-मार और आगज़नी जो हुई, सो हुई ही, दंगों के दौरान तेल के कुंड में छुपे ईसाई प्रमुख जॉन को भी भीड़ ने पकड़ लिया. काहिरा से उनके बचाव के लिए जब तक मदद पहुँचती, उन्हें ज़िंदा जला दिया गया. इख़्शीदियों ने इस घटना के लिए बैजेंटाइन शासक से माफ़ी माँगी और ईसाईयों के हुए नुक़सान की भरपाई के साथ चर्चों एवं अन्य इमारतों की मरम्मत कराने की बात भी कही. लेकिन हालिया जीतों और काहिरा की कमज़ोरी से वाक़िफ़ शासक ने इसे ठुकरा दिया और कहा कि जेरूसलम की ईसाई इमारतों की मरम्मत वह ख़ुद करेगा और ताक़त के दम पर करेगा.

धर्म युद्धों के लंबे सिलसिले की बिसात बिछ रही थी. जेरूसलम में अपनी धाक बढ़ाने की कोशिश में मुस्लिम समुदाय ने होली सेपुखर चर्च के बिलकुल पास एक मस्जिद ख़लीफ़ा उमर की याद में खड़ी कर दी. करेन आर्मस्ट्रॉंग लिखती हैं कि यह इमारत मुस्लिमों ने ईसाइयों को शायद यह याद दिलाने के लिए भी बनायी थी कि ख़लीफ़ा उमर ने उनके साथ कितनी उदारता दिखायी थी, हालाँकि हाल के सालों में मुस्लिम प्रशासकों और आबादी का रवैया ख़लीफ़ा से बिलकुल उलट रहा था. अल-अक़्सा के आसपास हरम के इलाक़े से बाहर यह पहली मुस्लिम इमारत थी, जो पश्चिमी पहाड़ियों पर बनायी गयी. लेकिन ये कोशिशें इख़्शीदियों की कमज़ोर होती ताक़त को बेहतर नहीं कर सकीं. अब उन्हें बहुत जल्दी फ़िलिस्तीन से अपना बोरिया-बिस्तर समेटना था.

आज की कहानी का एक दिलचस्प किरदार इब्न किलिस यानी याक़ूब बेन यूसुफ़ है, जो बग़दाद के एक धनी यहूदी कारोबारी का बेटा था. मोंटेफ़ियोरे ने लिखा है कि इसे सीरिया में बहुत नुक़सान हुआ था, पर जल्दी ही काहिरा में काफ़ूर के दरबार में इसे जगह मिल गयी और वह शासक का वित्तीय सलाहकार बन बैठा. कभी काफ़ूर ने कहा कि अगर इब्न किलिस मुस्लिम होता, तो वह वज़ीर बन सकता था. इस पर उसने धर्मांतरण कर इस्लाम को अपना लिया. लेकिन इससे पहले कि उसके करियर में कोई उछाल आता, काफ़ूर की मौत हो गयी और इब्न किलिस को गिरफ़्तार कर लिया गया. भारी रिश्वत से अपनी आज़ादी ख़रीदकर इब्न किलिस आज के ट्यूनिसिया में राज कर रहे फ़ातिमी दरबार में पहुँचा. वहाँ अपना भरोसा बनाने की कोशिश में फ़ातिमियों का संप्रदाय अपनाकर वह शिया बन गया. उसने ख़लीफ़ा मुईज़ को मिस्र पर हमले की सलाह दी. जून, 969 में सेनापति जवाहर अल-सिक़िली ने मिस्र को जीत लिया. अब उसे जेरूसलम जीतना था.

                                                                    (ख़लीफ़ा मुईज़ का सिक्का)

उधर जेरूसलम में शिया समुदाय के ही क़रमातियों ने दख़ल जमा लिया था, लेकिन मई, 970 में शहर फ़ातिमियों के हाथ में था.  साल 973 में मुईज़ ने अपनी राजधानी काहिरा ला दी. अगले 17 सालों तक फ़िलिस्तीन में फ़ातिमियों, क़रमातियों, बद्दुओं और अब्बासियों में लड़ाइयाँ होती रहीं थी, जो 983 में फ़ातिमी ख़िलाफ़त की मजबूती के बाद ही थमीं. इसके बाद भी बीच-बीच में अरब क़बीले विद्रोह करते रहे थे. फ़ातिमियों को यहूदियों का पूरा समर्थन मिला. बैजेंटाइन साम्राज्य से भी संधि हुई जिसके बदले नयी ख़िलाफ़त को 966 से ही तबाह पड़ी ईसाई इमारतों की मरम्मत कराना था. इस समझौते से ईसाइयों का हौसला बहुत बुलंद हुआ और शहर में शांति क़ायम करने में मदद मिली. आर्मस्ट्रॉंग ने 985 में मुस्लिम इतिहासकार मुक़ादसी का उल्लेख किया है, जिन्होंने लिखा था कि जेरूसलम में धिम्मियों यानी यहूदियों और ईसाइयों का बोलबाला है. इस जेरूसलमवासी इतिहासकार ने फ़ातिमी शासन की बड़ी आलोचना की है. फ़ातिमियों की उदारता में बड़ी भूमिका इब्न किलिस की रही थी, जो ख़लीफ़ा मुईज़ की मौत के बाद ख़लीफ़ा बने उसके बेटे अज़ीज़ का प्रधानमंत्री था. आख़िरकार इब्न किलिस के बारे में काफ़ूर की मंशा सच हुई थी. उदारता की एक बड़ी वज़ह मिस्र के यहूदियों का शाही परिवार के लिए चिकित्सक उपलब्ध कराना भी थी. इससे वे एक तरह से असरदार दरबारी भी हो गए थे. इनके चलते जेरूसलम के ग़रीब और गुटों में बँटे यहूदियों को बहुत मदद मिली थी. ख़लीफ़ा परिवार का ईसाइयों से शादी का सिलसिला भी अहम कारक है.

                                                                     (ख़लीफ़ा अज़ीज़ का सिक्का)

चूँकि फ़ातिमी शिया थे, तो जेरूसलम में सुन्नी समुदाय के लोगों का आना कम हुआ था. बग़दाद के अब्बासी ख़िलाफ़त से जंग की वज़ह से भी सुन्नियों के आने पर असर पड़ा था. नयी ख़िलाफ़त ने शिया संप्रदाय की विचारधारा और धार्मिकता के प्रचार के लिए शहर में एक संस्था भी बनायी थी. फ़ातिमी उस समय के अन्य मुस्लिम संप्रदायों से बहुत अलग थे. इस संप्रदाय में ख़लीफ़ा इमाम भी हुआ करता था. इसकी बुनियाद 899 में सीरिया के एक बड़े कारोबारी उबैद अल्लाह ने रखी थी. उसने ख़लीफ़ा अली और पैग़म्बर की बेटी फ़ातिमा का वंशज होने का दावा करते हुए ख़ुद को इमाम घोषित किया था. उसका यह दावा इमाम इस्माइल से संबंधित होने पर आधारित था. इसी वज़ह से फ़ातिमियों को इस्माइली शिया भी कहा जाता है. इस रहस्यवादी मसीहाई संप्रदाय का तेज़ विस्तार यमन और ट्यूनिसिया में हुआ था.

इसी बीच 974 में तेज़तर्रार बैजेंटाइन शासक जॉन जिमिसकस ने सीरिया में दमिश्क़ पर क़ब्ज़ा जमा लिया और उसने फ़िलिस्तीन आकर जेरूसलम के होली सेपुखर और अन्य धार्मिक स्थलों को ‘मुस्लिमों से आज़ाद’ कराने की धमकी भी दी. पर, उसने शहर पर हमला नहीं क्या और वापस चला गया. इसी दौरान जेरूसलम को एक और नाम मिला- अल-बालात यानी राजमहल. काहिरा के दरबार में यहूदी चिकित्सकों ने जेरूसलम में यहूदियों के लिए ज़ैतून की पहाड़ियों पर अपना धर्मस्थल बनाने, अबसालोम के खम्भे के पास जमा होने तथा टेम्पल माउंट के पूर्वी दीवार के पास सुनहरे दरवाज़े पर प्रार्थना करने जैसे अधिकार हासिल किया था. त्योहारों के दौरान वे टेम्पल माउंट की सात बार परिक्रमा भी कर सकते थे. दो सदियों में यहूदियों को शहर में सबसे ज़्यादा आज़ादी मिली थी.

                                                                       (ख़लीफ़ा अल हाक़िम)

अक्टूबर, 996 में अज़ीज़ की मरने के बाद उसका बेटा अल-हाकिम ख़लीफ़ा बना. वह एक धार्मिक व्यक्ति था और उसका रहन-सहन बहुत साधारण था. सामाजिक न्याय के शिया आदर्श उसे प्रिय थे, लेकिन कभी-कभी वह बेहद हिंसक और क्रूर भी हो जाता था. जानकारों का मानना है कि उसके व्यक्तित्व की अस्थिरता उसके पहचान के संकट से जुड़ी हुई थी. उसकी माता ईसाई थी. इस कारक ने जेरूसलम के ईसाईयों को बहुत लाभ पहुँचाया. अल-हाकिम ने अपने एक मामा ओरेस्टस को ईसाई प्रमुख भी बनाया था. साल 1001 में उसने बैजेंटाइन शासक बेसिल के साथ एक और संधि किया. ऐसा लगने लगा था कि इस्लाम और ईसाईयत के बीच दोस्ती और अमन के एक नए युग की शुरुआत हो रही है.

                                                                      (अल हाक़िम मस्जिद, काहिरा)

यहूदियों और ईसाईयों के अधिकारों ने सुन्नी मुस्लिमों को परेशान कर दिया था, लेकिन बहुत जल्दी जेरूसलम में ही नहीं, बल्कि ख़िलाफ़त के अनेक हिस्सों में भी ईसाईयों पर क़हर बरपा होना था. यहूदी भी परेशान होनेवाले थे. ईसाई माता की संतान अल-हाकिम के पागलपन से मुसलमान भी नहीं बचनेवाले थे. नयी सहस्त्राब्दी के पहले दो दशक काहिरा और जेरूसलम पर बहुत भारी पड़नेवाले थे.


 

पहली किस्‍त: टाइटस की घेराबंदी
दूसरी किस्‍त: पवित्र मंदिर में आग 
तीसरी क़िस्त: और इस तरह से जेरूसलम खत्‍म हुआ…
चौथी किस्‍त: जब देवता ने मंदिर बनने का इंतजार किया
पांचवीं किस्त: जेरूसलम ‘कोलोनिया इलिया कैपिटोलिना’ और जूडिया ‘पैलेस्टाइन’ बना
छठवीं किस्त: जब एक फैसले ने बदल दी इतिहास की धारा 
सातवीं किस्त: हेलेना को मिला ईसा का सलीब 
आठवीं किस्त: ईसाई वर्चस्व और यहूदी विद्रोह  
नौवीं किस्त: बनने लगा यहूदी मंदिर, ईश्वर की दुहाई देते ईसाई
दसवीं किस्त: जेरूसलम में इतिहास का लगातार दोहराव त्रासदी या प्रहसन नहीं है
ग्यारहवीं किस्तकर्मकाण्डों के आवरण में ईसाइयत
बारहवीं किस्‍त: क्‍या ऑगस्‍टा यूडोकिया बेवफा थी!
तेरहवीं किस्त: जेरूसलम में रोमनों के आखिरी दिन
चौदहवीं किस्त: जेरूसलम में फारस का फितना 
पंद्रहवीं क़िस्त: जेरूसलम पर अतीत का अंतहीन साया 
सोलहवीं क़िस्त: जेरूसलम फिर रोमनों के हाथ में 
सत्रहवीं क़िस्त: गाज़ा में फिलिस्तीनियों की 37 लाशों पर जेरूसलम के अमेरिकी दूतावास का उद्घाटन!
अठारहवीं क़िस्त: आज का जेरूसलम: कुछ ज़रूरी तथ्य एवं आंकड़े 
उन्नीसवीं क़िस्त: इस्लाम में जेरूसलम: गाजा में इस्लाम 
बीसवीं क़िस्त: जेरूसलम में खलीफ़ा उम्र 
इक्कीसवीं क़िस्त: टेम्पल माउंट पहुंचा इस्लाम
बाइसवीं क़िस्त: जेरुसलम में सामी पंथों की सहिष्णुता 
तेईसवीं क़िस्त: टेम्पल माउंट पर सुनहरा गुम्बद 
चौबीसवीं क़िस्त: तीसरे मंदिर का यहूदी सपना
पचीसवीं किस्‍त: सुनहरे गुंबद की इमारत
छब्‍बीसवीं किस्‍त: टेंपल माउंट से यहूदी फिर बाहर
सत्‍ताईसवीं किस्‍त: अब्‍बासी खुल्‍फा ने जेरूसलम से मुंह मोड़ा
अट्ठाईसवीं किस्‍त: किरदार बदलते रहे, फ़साना वही रहा 

उन्तीसवीं किस्त:  जेरूसलम का नया इस्लामी नाम- ‘अल क़ुद्स’

तीसवीं किस्त: जेरूसलम : पहला ‘ग़ुलाम’ शासक जो हिजड़ा भी था !