डॉ.आम्बेडकर की नसीहत, मुख्य न्यायाधीश की ‘क़ीमत’ और सरकार की नीयत!

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राजेश कुमार

 

 

‘‘जहां तक न्यायधीशों की नियुक्ति के लिये मुख्य न्यायाधीश की सहमति लेने की अनिवार्यता का सवाल है, मुझे लगता है कि इसकी पैरवी कर रहे लोगों का मुख्य न्यायाधीश की निष्पक्षता और उनके फैसले के सटीक होने में अटूट विश्वास है। निजी तौर पर मुझे कोई संदेह नहीं है कि मुख्य न्यायाधीश एक अत्यंत प्रतिष्ठित हस्ती हैं। लेकिन मुख्य न्यायाधीश भी आखिरकार एक व्यक्ति है, हम आम लोगों की ही तरह, जिसके अपने अवगुण, अपनी पसंद-नापसंद और अपने पूर्वग्रह होते हैं और मेरी राय है कि जजों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश को व्यवहारतः वीटो अधिकार दे देना वास्तव में उसे उन अधिकारों से लैस कर देना होगा, जो हम राष्ट्रपति को और भारत सरकार को भी देने को तैयार नहीं है। मेरी राय में यह अत्यंत खतरनाक है।’’

-यह कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद की टिप्पणी नहीं है, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के उस वक्तव्य पर तो कतई नहीं कि मौजूदा मुख्य न्यायाधीश जिसके नाम की सिफारिश करेंगे, सरकार उसे ही भारत का अगला मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करेगी। अमित शाह ने पिछले महीने के अंत में ‘आज तक’ के एक कार्यक्रम में कहा था कि ‘मुख्य न्यायाधीश अपने उत्तराधिकारी के नाम की सिफारिश करते हैं और सीनियॉरिटी इसका एकमात्र मानदंड नहीं है, लेकिन सरकार मुख्य न्यायाधीश का चयन नहीं करती।’

यह टिप्पणी बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर की है, जो उन्होंने 24 मई 1949 को संविधान सभा की बैठक में उच्च न्यायालयों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के जजों और मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के प्रावधान पर सदस्यों के संशोधन प्रस्तावों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये की थी। रविशंकर प्रसाद ने तो बस उसका सुदीर्घ हवाला दिया था, केवल चार साल पहले, 12 अगस्त 2014 को। प्रसंग यह था कि वह, उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और न्यायाधीशों की नियुक्ति, उनके तबादले और समय-समय पर सामने आनेवाले अन्य संबद्ध मुद्दों पर सिफारिश एवं नियमन के लिये राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग/एन.जे.ए.सी. के गठन हेतु लोकसभा में संविधान संशोधन विधेयक पेश कर रहे थे।

भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद यह पहला बडा विधायी कदम था, और मकसद? उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम के अधिकार का अधिग्रहण। विधेयक पर चर्चा में विपक्षी दलों के मतों को छोड दें तब भी, सुप्रीम कोर्ट के फैसले की भी ध्वनि यही थी। पांच जजों की संविधान पीठ के सभी सदस्यों ने अपना मंतव्य और निर्णय अलग-अलग लिखा और पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर ने तो साफ कहा कि न्यायपालिका और उसके सदस्य ‘सरकार के प्रति कृतकृत्यता के भंवर में फंसने का खतरा नहीं उठा सकते।’ बहरहाल अगर संविधान पीठ ने 16 अक्टूबर 2015 को एन.जे.ए.सी. कानून और आयोग को जजों की नियुक्ति का अधिकार देने संबंधी 99वां संविधान संशोधन खारिज नहीं कर दिया होता तो राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के साथ 31 दिसम्बर 2015 को 6-सदस्यों वाला आयोग अस्तित्व में आ जाता और कॉलेजियम व्यवस्था ख़त्म हो जाती।

तो आम्बेडकर ने संविधान सभा की बैठक में मुख्य न्यायाधीश को वीटो अधिकार देने के जिस खतरे का इशारा किया था, सरकार और उसके कानून मंत्री के लिये वह उपयोगी था, मुफीद था। कॉलेजियम व्यवस्था के ध्वंस के लिये कानून मंत्री ने आम्बेडकर की छतरी ओढ़ ली थी। वकील होना ‘डीबेटर की प्रतिभा का विस्तार’ है और यह प्रतिबद्ध नहीं, समर्पित न्यायपालिका के अभियान में ‘उपयोगी साइटेशन’की खोज भी हो सकती है। अकारण नहीं है कि वह ऐसे समय चुप हैं, जब अगले मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति पर उनकी पार्टी के सर्वशक्तिमान अध्यक्ष ने उसी वीटो अधिकार की पैरवी की है, बल्कि उस मुख्य न्यायाधीश के वीटो अधिकार की पैरवी, जिसके तमाम फैसलों की निष्पक्षता पर सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम के शेष चार वरिष्तम जजों से लेकर लगभग संपूर्ण संसदीय विपक्ष तक ने तमाम सवाल खडे किये हैं। इस साल के शुरू में कॉलेजियम के चार जजों की ऐतिहासिक प्रेस कांफ्रेंस से लेकर मौजूदा मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की नोटिस, राज्यसभा के सभापति द्वारा उसे आनन-फानन में खारिज किया जाना, सभापति के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील और फिर अपील की सुनवाई के लिये न्यायिक पीठ का गठन करनेवाले प्राधिकार की शिनाख्त को लेकर रहस्य और विवाद के बीच अपील वापस लिये जाने तक ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ पर सवाल-दर-सवाल हैं।

बाबा साहब के उस उद्धरण पर लौटें। उन्होंने मुख्य न्यायाधीश को वीटो अधिकार देने को ‘खतरनाक’ कहा है, क्योंकि ‘मुख्य न्यायाधीश भी आखिरकार एक व्यक्ति है, हम आम लोगों की ही तरह, जिसके अपने अवगुण, अपनी पसंद-नापसंद और अपने पूर्वग्रह होते हैं।’ और जिस मुख्य न्यायाधीष पर ‘पसंद-नापसंद और पूर्वग्रह’ के तमाम आरोप हैं, भाजपा अध्यक्ष उसे ‘सीनियॉरिटी’ जैसे मानदंड से भी मुक्त करने का खुला आहवान करते हैं। क्या यह कोई संकेत है? आपतकाल के उदाहरणों के दुहराव का कोई संकेत? भूलना नहीं चाहिये कि चार सबसे सीनियर जजों की पिछली 12 जनवरी की प्रेस कांफ्रेंस में न्यायमूर्ति रंजन गोगोई आम तौर पर चुप जरूर थे, लेकिन संवाददाताओं के एक सवाल पर उन्होने ही स्वीकार किया था कि प्रेस कांफ्रेंस करने का फौरी कारण सी.बी.आई जज लोया की संदिग्ध मौत का मामला एक खास बेंच के सुपुर्द किया जाना है। याद यह भी रखना चाहिये कि अक्टूबर में मुख्य न्यायाधीश के अवकाश-ग्रहण के वक्त, कॉलेजियम के मौजूदा सदस्यों में न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ही वरिष्तम होंगे, जिन्होने 23 अप्रैल 2012 को सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में पदभार ग्रहण किया था।

परम्परा के अनुसार मुख्य न्यायाधीष अपने कार्यकाल के आखिरी दिन नया मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करता है। नियुक्ति की यह प्रक्रिया निवर्तमान सी.जे.आई. द्वारा उत्तराधिकारी के नाम की सिफारिष के साथ षुरू होती है। परम्परा यह है कि सी.जे.आई. सबसे सीनियर जज के नाम की सिफारिष करता है। सीनियाॅरिटी उम्र से नहीं तय होती, बल्कि सुप्रीम कोर्ट में किसी जज की नियुक्ति की तिथि से तय होती है। किन्हीं दो जजों के एक ही दिन सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त होने की स्थिति में पहले षपथ ग्रहण करने वाला सीनियर माना जाता है और शपथ ग्रहण की तारीख एक ही होने पर उच्च न्यायलय में अपेक्षाकृत लम्बी सेवा अवधि बितानेवाले को वरीयता दी जाती है।

आपतकाल के काले दिनों को छोड दें तो न्यायपालिका में सीनियारिटी एक अघोषित नियम है। पहले 1973 में सुप्रीम कोर्ट के 3 सबसे सीनियर जजों- न्यायमूर्ति जे.एम. शेलात, ए.एन.ग्रोवर और के.एस.हेगडे- की और फिर 1977 में न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना की वरिष्ठता का उल्लंघन जरूर किया गया था, लकिन अधिनायकत्व में प्रवेश करती सत्ता की नजर में उनके ‘अपराध’ भी बड़े थे। न्यायमूर्ति जे.एम.शेलात, ए.एन. ग्रोवर और के.एस.हेगडे ने ही न्यायपालिका पर संसद की वरीयता स्थापित करने के इंदिरा गांधी के मंसूबों पर पानी फेरते हुये विख्यात ‘केशवानंद भारती मामले’ में संविधान के आधारभूत ढांचे की संकल्पना प्रस्तावित की थी। जबकि न्यायमूर्ति खन्ना ने आपतकाल के काले दिनों में ए.डी.एम. जबलपुर मामले में ‘जीवन के मूलभूत अधिकार और उचित कानूनी प्रक्रिया के हक में ‘नोट ऑफ डीसेंट’ दे दिया था। लेकिन सीनियॉरिटी का उल्लंघन कर पहले, न्यायमूर्ति ए.एन. रे. और फिर न्यायमूर्ति एम.एच. बेग को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किये जाने के 1973 और 1977 के इन अपवादों को छोड़, सीनियॉरिटी इस कदर पवित्र नियम है कि सेवाकाल में अत्यंत कम समय बचना भी आम तौर पर मुख्य न्यायाधीश के पद पर तैनाती में बाधक नहीं बन सका है। करीब 14 महीने बिताकर आगामी अक्टूबर में सेवानिवृत हो रहे न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के पूर्ववर्ती न्यायमूर्ति खेहर केवल सात महीने और अभी हाल में ही न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर केवल नौ महीने, न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम केवल आठ महीने और न्यायमूर्ति आर.एम. लोढा चार महीने मुख्य न्यायधीश रहे। न्यायमूर्ति राजेन्द्र बाबू ने तो 2004 में गर्मी की छुट्टियों में शपथ ग्रहण किया, 29 दिन मुख्य न्यायधीश रहे और छुट्टियों में ही सेवानिवृत हो गये।

रविशंकर प्रसाद 12 अगस्त 2014 को जब बाबा साहेब का हवाला दे रहे थे, तब भी एक चालाकी थी, क्योंकि ‘सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकार्ड्स एसोसिएशन’ बनाम केन्द्र सरकार मामले मे अक्टूबर 1993 के फैसले से कॉलेजियम की व्यवस्था बनने के साथ ही मुख्य न्यायाधीश के वीटो अधिकार का वह खतरा नहीं रह गया था, जिसका जिक्र 65 साल पहले बाबा साहेब कर रहे थे। वह खतरा बचा है तो केवल मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के प्रसंग में, क्योंकि उत्तराधिकारी के चयन का यह अधिकार केवल और केवल निवर्तमान मुख्य न्यायधीश के पास है, बाबा साहेब के शब्दों में ‘जिसके अपने अवगुण, अपनी पसंद-नापसंद और अपने पूर्वग्रह होते हैं’। हमारे खास इस समय में तो यह खतरा और भी बडा है। रविशंकर फिर भी चुप हैं।

‘हिन्द स्वराज’ में वकीलों पर महात्मा गांधी का कोप यों ही नहीं था।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जिन्हें संसद की रिपोर्टिंग करने का लम्बा अनुभव है।