चुनाव चर्चा : एक राष्ट्र एक चुनाव का ‘वैताल’ फिर डाल पर

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काॅलम Published On :


 

चंद्र प्रकाश झा 

 

एक राष्ट्र एक चुनाव’ की प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की चाहत पर सरकारी  विचार -विमर्श अब विधि आयोग को सुपुर्द कर दिया गया है। इस सांविधिक आयोग से विधि मंत्रालय ने मुख्यतः तीन बिंदुओं पर परामर्श माँगा है। पहला यह कि इस उपाय को अपनाने से चुनाव कराने के राजकीय खर्च  में कमी आने के तर्क की वास्तविकता क्या है। दूसरा यह कि इससे भारत की राजनीति की सांविधिक संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के वृहत्तर आयाम को कोई नुकसान तो नहीं पहुंचेगा। तीसरा यह कि निर्वाचन आयोग की आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू होने से विकास कार्य क्या सच में बाधित होते हैं। विधि आयोग, सरकार को वैधानिक उपायों के बारे में अपने परामर्श देता है। सरकार के लिए उसका परामर्श मानना आवश्यक नहीं है। मोदी जी ने इस बार के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर भारत में’ एक राष्ट्र एक चुनाव’  का नया प्रस्ताव  पेश किया था। उन्होंने हाल में नीति आयोग की बैठक में विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों के समक्ष भी यह प्रस्ताव रखा था।

विधि मंत्रालय का यह नोट अभी सार्वजनिक नहीं किया गया है। लेकिन अंग्रेजी दैनिक, इकोनॉमिक टाइम्स ने 27 जून को इस नोट के हवाले से रिपोर्ट दी है। रिपोर्ट का सरकारी तौर पर खंडन नहीं किया गया है।  इसलिए हम उस रिपोर्ट पर चर्चा कर सकते हैं। नोट में इस बात का उल्लेख किया गया है कि ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के पक्ष  में  जो सबसे दमदार तर्क है, वह यह है कि इससे चुनाव कराने पर राजकीय खर्च में भारी कमी आएगी।

विपक्षी राजनीतिक दलों ने प्रस्ताव के पक्ष अथवा विरोध में  औपचारिक रूप से कुछ ख़ास नहीं कहा है।  लेकिन आम चर्चा में यह तथ्य  इंगित किया गया है कि भारत संघीयतावादी गणराज्य है जिसके संघ -राज्य के संघटक सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव , केंद्र की विधायिका (संसद ) के निम्न सदन ( लोकसभा ) के चुनाव के साथ ही कराने की अनिवार्यता का कोई संवैधानिक प्रावधान ही नहीं है। स्वतंत्र भारत की पहली लोकसभा के साथ ही सभी राज्यों की विधान सभाओं के भी चुनाव कराने की व्यवस्था का प्रावधान रखने का विकल्प, संविधान सभा के सम्मुख खुला था। पर संविधान के रचियताओं ने भारत में संवैधानिक लोकतंत्र के हितों के संरक्षण के लिए बहुत सोच-समझ कर केंद्र के केंद्रीयतावाद की प्रवृति पर अंकुश लगाना और राज्यों की संघीयतावाद को प्रोत्साहित करना श्रेयस्कर माना।

मीडिया विजिल के चुनाव चर्चा स्तम्भ के पिछले अंकों में हम यह रेखांकित कर चुके हैं कि चुनाव कराने पर राजकीय खर्च खर्च, प्रति मतदाता 2009 में 12 रूपये और 2014 के आम चुनाव में 17 रूपये पड़ा था। कुछ हल्के में सुगबुगाहट है कि मोदी सरकार के लिए इसी बरस मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ , राजस्थान  और मिजोरम विधान सभा के निर्धारित चुनाव के साथ ही  नई लोक सभा चुनाव करा लेना श्रेयस्कर होगा।  पिछले लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में मई 2014 में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस की नरेंद्र  मोदी के प्रधानमंत्रित्व में बनी सरकार का पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा होने में अब 10 माह ही बचे हैं। 2019 में ही कई अन्य राज्यों की विधान सभा के भी चुनाव होने हैं।

विधि आयोग को खर्च में संभावित कमी की वास्तविक परख कर अपना परामर्श देने कहा गया हैं। गौरतलब है कि निर्वाचन आयोग भी ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के प्रस्ताव पर अपनी हामी भर कर कहा है कि वह इसके लिए तैयार है। मीडिया की ख़बरों के मुताबिक़ निर्वाचन आयोग के आंकलन के अनुसार लोकसभा समेत विभिन्न राज्यों की सभी निर्वाचित विधायी निकायों के चुनाव एक ही साथ कराने के लिए 23 लाख इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों और 25 लाख वीवीपीएटी मशीनों की जरुरत होगी। इसके लिए ईवीएम पर 4600 करोड़ रूपये और वीवीपीएटी पर 4750 करोड़ रूपये का खर्च आंका गया है। सुरक्षागत आदि कारणों से नई  ईवीएम और  वीवीपीएटी मशीनों का उपयोग 15 वर्ष तक ही किया जा सकता है। इसलिए उनकी खरीद पर हर 15 वर्ष अलग से 10 हजार करोड़ रूपये का खर्च आएगा। उनके रख-रखाव का खर्च अलग होगा। अगर  ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ पर अमल किया जाता है तो इन नई मशीनों का सिर्फ तीन बार इस्तेमाल किया जा सकेगा। अभी इन मशीनों को एक राज्य से दूसरे राज्य में भेज कर उनका अनेक बार इस्तेमाल किया जाता है।  विधि मंत्रालय के नोट में कहा गया है कि सभी निर्वाचित निकायों के चुनाव एक साथ कराने के लिए मतदान कर्मियों और सुरक्षा कर्मियों की जरुरत और बढ़ेगी। विधि आयोग से पूछा गया है कि इन सबके मद्देनजर  वास्तविक रूप से राजकीय खर्च कम  होंगे या बढ़ेंगे।

आदर्श चुनाव आचार संहिता  के मसले पर नोट में कहा गया है कि इसके बारे में यह तर्क दिए जा रहे हैं कि इसके लागू हो जाने से सारे विकास कार्य बाधित हो जाते है। सम्बंधित निर्वाचन क्षेत्रों में  सामाजिक-आर्थिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है। लेकिन नोट में यह भी रेखांकित किया गया है कि आदर्श चुनाव आचार संहिता, चुनाव के 35 दिन पहले ही लागू किया जाता है और वह चुनाव परिणाम निकलते ही ख़त्म हो जाता है। इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि आदर्श चुनाव आचार संहिता चालू योजनाओं पर नहीं बल्कि नई योजनाओं पर लागू होते हैं।

नीति आयोग की बैठक के बाद उसके उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने कहा था कि प्रधानमंत्री ने कहा है कि देश लगातार चुनाव मोड में ही रहता है।  इससे विकास कार्य पर बुरा असर पड़ता है।  लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराने के सुझाव पर अमल की शुरुआत देश भर में सभी चुनावों के लिये एक ही वोटर लिस्ट बनाने के कार्य से हो सकती है. नीति आयोग का सुझाव है कि वर्ष  2024 से लोकसभा और विधानसभााओं के चुनाव एकसाथ दो चरण में कराये जाने चाहिए ताकि चुनाव प्रचार से राजकाज बाधित नहीं हो. निर्वाचन आयोग भी कह चुका है कि वह एकसाथ सभी चुनाव कराने के लिए तैयार है।

लेकिन कोई नहीं बता रहा है कि भारत संघ -राज्य के मूलतः संघीयतावादी मौजूदा संविधान के किस प्रावधान के तहत लोकसभा के साथ ही सभी राज्यों की विधान सभाओं के भी चुनाव थोपे जा सकते है। इस बारे में हम  चुनाव चर्चा के पिछले अंकों संवैधानिक पक्षों का विस्तार से जिक्र कर चुके हैं कि संविधान निर्माताओं के सम्मुख यह विकल्प खुला था।  फिर भी पहली लोकसभा के चुनाव के साथ -साथ सभी राज्यों की विधान सभाओं के भी चुनाव नहीं कराये गए  तो उसके ठोस आधार हैं।

विधि आयोग के नोट में यह अहम् बिंदु भी उठाया गया है कि हमारे लोकतंत्र की ‘पवित्रता ‘ के संरक्षण के लिए नियमित अंतराल पर चुनाव कराने के क्या लाभ हैं । नोट के अनुसार ऐसी धारणा है कि एकसाथ सभी चुनाव कराने से मतदाताओं पर यह असर पड़ सकता है कि वे  केंद्र और अधिकतर राज्यों में वर्चस्व कायम किये हुए किसी पार्टी विशेष को ही तरजीह  देंगे।  इसलिए इस  उपाय का प्रभाव संक्रामक प्रवर्ति या भेड़चाल में परिणत हो सकता है।  इसका परिणाम अंततः उन क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के खिलाफ जा सकता है जो स्थानीय सामाजिक और आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।  नोट में प्रश्न किया गया है कि क्या यह बेहतर नहीं होगा कि नियमित अंतराल पर चुनाव कराने की मौजूदा व्यवस्था बनायी रखी जाए क्योंकि इससे  पार्टियों और उनकी सरकारों पर दबाब रहता है कि वे लोकतांत्रिक राजनीति का प्रभुत्व  कायम  रखें।

विधि मंत्रालय द्वारा विधि आयोग से मांगी संस्तुतियां जो भी हों। इतना साफ है कि  मोदी सरकार ‘ एक राष्ट्र एक चुनाव ‘के अपने प्रस्ताव पर चुप नहीं बैठी है. यह ‘ हठी ‘ प्रस्ताव आगे क्या गुल खिलायेगा तत्काल उसके कयास ही लगाए जा सकते है।

 



( मीडियाविजिल के लिए यह विशेष श्रृंखला वरिष्ठ पत्रकार चंद्र प्रकाश झा लिख रहे हैं, जिन्हें मीडिया हल्कों में सिर्फ ‘सी.पी’ कहते हैं। सीपी को 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण, फोटो आदि देने का 40 बरस का लम्बा अनुभव है।)