राममंदिर विवाद में बौद्धों का दावा और साकेत के अयोध्या बनने का इतिहास

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बाबरी-मस्जिद राममंदिर विवाद में सुप्रीम कोर्ट अब बौद्धों के दावे की भी सुनवाई होगी। दरअसल, अयोध्या के निवासी विनीत कुमार मौर्य ने दावा किया है कि विवादित ज़मीन पर दरअसल मंदिर या मस्जिद नहीं, बौद्ध धर्म से जुड़ा ढांचा था। याचिका में दावा किया गया है कि ए.एस.आई की खुदाई में मिले गोलाकार स्तूप, दीवार और खंभे बौद्ध विहार की विशिष्टता हैं न कि मंदिर या मस्जिद के। इसी के साथ, अयोध्या की ऐतिहासिकता भी चर्चा मे ंआ गई है। यह तथ्य है कि अयोध्या का पुराना नाम साकेत था। बौद्ध साहित्य में इसका काफ़ी उल्लेख है। इस संदर्भ में पढ़िए, इतिहास के शोधार्थी प्रद्युम्न यादव का विश्लेषण- संपादक 

 

क्या हम जिसे अयोध्या समझते हैं वो वाकई राम की अयोध्या है ?

 

हज़ारो साल पहले वाल्मीकि ने अपनी किताब रामायण में राम को जन्म दिया और राम अस्तित्व में आये. रामायण के अनुसार राम त्रेतायुग के मानव थे और त्रेतायुग आज से लगभग 21 लाख साल पहले हुआ करता था. धरती के वैज्ञानिक इतिहास के हिसाब से देखें तो यह समय ‘ प्लीयोसिन शक ‘ का था जब महासागरों और महाद्वीपों को स्वरूप प्राप्त हुआ और धरती पर मानव का जन्म हुआ. इस समय के मानव के पास न भाषा थी न ही अपनी कोई संस्कृति और सभ्यता. वह बिल्कुल वैसा ही था जैसा कुत्ते , बिल्ली , घोड़े , गदहे आदि होते हैं. आधुनिक मानव यानी होमोसेपियंस , जिस मानव प्रजाति के हम हैं उसने धरती पर जन्म ही नहीं लिया था. लिहाज़ा ये समझना आसान है कि त्रेतायुग और उस युग में किसी राम के होने की कहानी कपोल कल्पना मात्र है.

हम भारतीयों के साथ दिक्कत ये है कि हम वैज्ञानिक समझ के अभाव और इतिहासबोध की दरिद्रता के कारण कथा-कहानियों और उससे संबंधित काल्पनिक इतिहास और भूगोल पर आंख मूंदकर यकीन कर लेते हैं. उदाहरण के लिए रामायण जैसे महाकाव्य की सामान्य कहानी को कहानी की तरह लेने की बजाय उसे सच मानने लगते हैं और कई बार इसे लेकर हिंसक भी हो जाते हैं. सिर्फ इसलिए क्योंकि यह किताब और इसकी कहानी कथित हिन्दू धर्म का हिस्सा है और हम संयोग से इस कथित धर्म में पैदा हो गए हैं.

आइए आज रामायण के काल्पनिक भूगोल की पड़ताल करते हैं कि इसमें कितनी सच्चाई है और कितना झूठ है.

काल्पनिक भूगोल वह अवधारणा जिसके तहत हम किसी गल्प अथवा कपोल कल्पित कथा के अनुसार स्थान , समय और व्यक्ति के वास्तव में होने का निर्धारण करते हैं. उदाहरण के लिए बनारस में काफी समय से रामलीला का मंचन होता है तो वहां उससे संबंधित रामनगर भी है और लंका भी. इतना ही नहीं वहां रामश्वेरम से समुद्र लांघने का अभिनय एक छोटे से तालाब को समुद्र मानकर किया जाता है. अब कुछ भी हो हम उस तालाब को समुद्र तो नहीं मान सकते हैं. न ही रामनगर के किसी टीले को संजीवनी बूटी वाला पहाड़ मान सकते हैं.

अयोध्या जिसे पूर्व में साकेत के नाम से जाना जाता था वो भी इसी काल्पनिक भूगोल की देन हैं.

साकेत का नाम अयोध्या गुप्तकाल में पड़ा. इससे पहले भारत में कहीं भी कोई भी अयोध्या नहीं थी. क्योंकि गुप्त शासकों ने राम की कथा के बारे में सुन रखा था और वो उससे खासे प्रभावित थे ( खासकर स्कन्दगुप्त जो खुद को राम समान मानता था ) इसलिए उन्होंने राम से जुड़े काल्पनिक भूगोल की रचना की और साकेत को अयोध्या के रूप में चिन्हित किया. ऐसा करने वाले शासक का नाम ‘ विक्रमादित्य ‘ था. यह एक प्रामाणिक तथ्य है. लेकिन इतिहासकार अभी इस बात पर निश्चित नहीं हैं कि यह ‘ विक्रमादित्य ‘ वास्तव में कौन सा गुप्त शासक था. जो थोड़े बहुत उपलब्ध साक्ष्य हैं उनके आधार पर विक्रमादित्य की पहचान स्कन्दगुप्त के रूप में की जाती है. लेकिन यह भी पूरी तरह मान्य नहीं है. स्कन्दगुप्त से दो पुस्त पहले गुजर चुके चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में रचित कालिदास की रचनाओं में साकेत के लिए अयोध्या का प्रयोग शुरू हो चुका था. मतलब ये कि साकेत को अयोध्या कहने वाला विक्रमादित्य चंद्रगुप्त गुप्त द्वितीय था. स्कन्दगुप्त के समय में यह तय हो चुका था कि साकेत को अयोध्या के रूप में बसाया जाएगा.

रामायण की कथा सुनने के बाद विक्रमादित्य के पास अयोध्या का काल्पनिक भूगोल रचने के लिए सबसे अहम सबूत था – पवित्र नदी सरयू की धारा और उसके किनारे महादेव को समर्पित मंदिर जिसे नागेश्वरनाथ के नाम से जाना जाता था. यहां शिव को समर्पित मंदिर ध्यान देने योग्य बात है. इसमें विष्णु की भक्ति , राम की परंपरा और उनसे संबंधित स्थानों का कोई उल्लेख नहीं है. लेकिन विक्रमादित्य को काल्पनिक भूगोल रचने का चस्का था इसीलिए उसके समेत बाद के विष्णु भक्त गुप्त शासकों ने साकेत को अपनी राजधानी बनाया और वहां राम , लक्ष्मण , सीता समेत अनेक हिन्दू देवी-देवताओं के मंदिर बनवाये.

गौरतलब है कि गुप्तों के हस्तक्षेप के पहले साकेत को लंबे समय तक कोई पूछने वाला नहीं था. यहां शिव के मंदिर के अतरिक्त बौद्ध मठ थे जिन्हें गिरवाकर गुप्त शासकों ने राम , सीता , लक्ष्मण आदि के मंदिर बनवाये. 1860 के दशक में कार्नेगी ने बाबरी मस्जिद के आसपास पहले की इमारत के अच्छी तरह सुरक्षित स्तंभों के बारे में लिखा है जो मस्जिद में भी लगे हुए हुए थे – ” ये मज़बूत , ठोस प्रकृति के गहरे , स्लेटी या काले रंग के पत्थर हैं जिन्हें स्थानीय लोग कसौटी कहते हैं और जिनके ऊपर विभिन्न चिन्हों की नक्काशी हुई है. यह उन बौद्ध स्तंभों में मिलते हैं जिन्हें मैंने बनारस और दूसरे स्थानों पर देखा है. ” कार्नेगी के अतरिक्त वहां बौद्ध मठो के प्रमाण आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया द्वारा 1862-63 में दिया जा चुका है. इसके अलावा 1969-70 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के एके नारायण को भी उत्खनन में बुद्धिस्ट प्रमाण मिल चुके हैं.

वास्तव में विक्रमादित्य ने तुक्के से एक काल्पनिक भूगोल की रचना की तथा साकेत को अयोध्या का नाम दिया. यदि विक्रमादित्य का तुक्का आज़मगढ़ , बहराइच , दोहरीघाट , बलिया , आरा या छपरा पर लगा होता तो आज इनमें से किसी को अयोध्या माना जाता और वहीं कहीं काल्पनिक राम की जन्मस्थली भी खोज ली जाती.

अभी कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या के विनीत कुमार मौर्य के इस दावे को कि वहां मंदिर से सैकड़ों साल पहले बौद्धिस्ट मठ आदि थे , सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया है. सुनवाई के बाद इस पर से पर्दे हटाना शुरू हो जाएंगे. उसके पहले आपको यह समझ लेना चाहिए कि काल्पनिक भूगोल को समझना कोई राकेट साइन्स नहीं है. इसके लिए सिर्फ वैज्ञानिक-तार्किक सोच साथ रखने और नाज़ुक धार्मिक भावना को परे रखने की जरूरत है.

मुझे उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में निष्पक्षता के साथ न्याय करेगा.