अख़बारनामा : हिन्दी अखबारों से ग़ायब मज़दूरों के पलायन का दर्द

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
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कहावत है, “हाथी जिये तो लाख का और मरा तो सवा लाख का”। आज मैं अपने पुराने (असल में मैंने कायदे से नौकरी एक ही की है लगभग 15 साल) अखबार जनसत्ता की तारीफ कर रहा हूं। मैं जनसत्ता में नौकरी करने आया था। शुरू में ही समझ में आ गया कि गलत फंस गया पर कोई विकल्प नहीं था। जब तक रह सका रहा छोड़ दिया तो पत्रकारिता नहीं कर पाया। कायदे से कोशिश भी नहीं की। मैंने मान लिया था कि हिन्दी पत्रकारिता में मेरे लायक काम नहीं है। आज एक खबर से लगा कि बहुत बुरी हालत में भी खबरों की तमीज तो जनसत्ता को ही है। मैं जनसत्ता नहीं पढ़ता पर 26 मार्च को बैंगलोर से अपने गांव राजस्थान के चितलवाना की यात्रा पैदल शुरू करने वाले 28 साल के प्रवीण कुमार की द टेलीग्राफ में छपी कहानी फेसबुक पर पोस्ट करने के बाद मैंने मीडिया विजिल के अपने कॉलम के लिए यह सुनिश्चित करना चाहा कि प्रवीण की या ऐसी कोई कहानी किसी हिन्दी अखबार ने 31 मार्च के बाद की या नहीं।

मैंने शनिवार, 4 अप्रैल को गूगल किया तो दिन में 12 बजे के करीब ही मुझे जनसत्ता का लिंक मिला। खबर पढ़ी तो पता चला कि वह मेरी पोस्ट के बाद या लगभग उसी समय पोस्ट किया गया होगा। मानना पड़ेगा कि खबर लिखने वाले को खबर की समझ है (या उसकी समझ/ प्राथमिकता चयन मेरे जैसी है)। ऐसी समझ तो बहुतों की होगी पर अपनी सही पत्रकारीय समझ के अनुसार खबर करने की आजादी जनसत्ता में ही मिलती है और कहा जा सकता है कि जनसत्ता लगभग खत्म होने के बावजूद पत्रकारिता कर रहा है। यह खबर कहीं और नहीं मिली। मेरा शुरू से मानना रहा है कि एक्सप्रेस समूह जितना ध्यान अंग्रेजी खबर पर लगाता है उतना हिन्दी पर लगाए तो हिन्दी का एक अच्छा अखबार निकल सकता है। पर अंग्रेजी की पसंद जो न कराए। हालांकि वह अलग मुद्दा है। आज यहां मुद्दा प्रवीण कुमार की कहानी भी नहीं है।

आज का विषय है, जल्दीबाजी में लॉकआउट की घोषणा और उससे हुई परेशानी को मीडिया में आमतौर पर नहीं दिखाया जाना और ऐसा माहौल बनाना जैसे सब ठीक हो। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सूचना और खबरों के लिए देश की ज्यादातर आबादी अखबारों और टेलीविजन पर निर्भर रहती है और इसीलिए इस बंदी में अखबारों और टेलीविजन को चलने ही नहीं दिया जा रहा है उनके चलते रहने की व्यवस्था खाने-पीने की जरूरी चीजों की होम डिलीवीरी से बेहतर है और न भी हो तो खबर यही छपी रही है। यह नहीं कि अखबारों को क्या दिक्कत या यह कि होम डिलीवरी से मध्यमवर्ग मौज कर रहा है, छुट्टी मना रहा है। ऐसा लगता है कि यह सब निर्देश देकर करवाया जा रहा हो। 30 मार्च की रात मुझे यह समझ आ गया था कि सरकारी व्यवस्था की पोल खोलने वाले पलायन की खबरें अब नहीं दिकेंगी और ऐसा ही हुआ।

टेलीविजन मैं नहीं देखता लेकिन पलायन की खबरें हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने से अगले दिन से गायब हैं। उसके बाद के दो दिन, एक और दो अप्रैल को भी पलायन से संबंधित कोई खबर किसी हिन्दी अखबार में प्रमुखता से नहीं दिखी। अंग्रेजी अखबार द  टेलीग्राफ लगातार ऐसी खबर छाप रहा है। शुक्रवार को दो प्रवासी मजदूरों की कहानी छपी थी जो एक हफ्ते में 1000 किलोमीटर की दूरी तय करके बिहार पहुंचे थे। उसके बाद शनिवार को प्रवीण कुमार की खबर थी। एनएच 24 और दूसरे राजमार्गों पर पैदल चले जा रहे लोगों के साथ आनंद विहार की भीड़ से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि देश में कितने प्रवीण कुमार होंगे। कुछ कोरोना से नहीं मरे, रास्ते में मर गए पर उनकी खबरें नहीं आ रही हैं।

रविवार, पांच अप्रैल को भी अंग्रेजी दैनिक द टेलीग्राफ ने फिरोज एल विनसेन्ट की यह खबर छापी है और लिखा है, अगर आप आज मोमबत्ती जला ही रहे हैं तो एक इनके लिए भी जलाइए। इस खबर के अनुसार, जिन्दल ग्लोबल लॉ स्कूल, सोनीपत के असिस्टैंट प्रोफेसर अमन, इमोरी यूनिवर्सिटी में पीएचडी सोशियोलॉजी की स्कॉलर कनिका शर्मा, डाटा मीट ट्रस्ट के चेयरमैन, बैंगलोर के चेयरमैन तेजेश जीएन ने एक अनुसंधान में पाया है कि 24 मार्च से लेकर 31 मार्च के बीच कम से कम 77 मौतें ऐसे हुई हैं जिनका संबंध लॉक डाउन और ऐसे प्रतिबंधों से है। यह सूची अंग्रेजी, हिन्दी और कन्नड की खबरों तथा सूचना के आधार पर बनाई गई है जो ट्वीटर पर मलयालम और मराठी की खबरों से एकत्र किए गए हैं। 12 लोगों की मौत का कारण स्पष्ट नहीं है उसे इनमें शामिल नहीं किया गया है। इन 77 मौतों का विवरण इस प्रकार है : 43 लोगों की मौत का कारण पलायन से संबंधित दुर्घटना, मेडिकल इमरजेंसी और रोड ब्लॉक के साथ लाठी चार्ज, भूख से मौत तथा आत्म हत्या को बताया गया है। यह आंकड़ा ट्वीटर पोस्ट से लिया गया है जबकि 15 लोगों की मौत सड़क दुर्घटना में हुई जो इसमें शामिल नहीं है। 19 लोगों की मौत का कारण आत्महत्या बताया गया है। ये आत्महत्याएं शराब नहीं मिलने, अलग थलग पड़ जाने/ संक्रमण के डर के कारण हुई हैं। और ट्वीटर में शामिल नहीं हैं।

कहने की जरूरत नहीं है कि इस तरह के रिसर्च की जरूरत इसीलिए पड़ी कि अखबारों में मौत की खबरें नहीं छप रही हैं और छपनी तो यह रिपोर्ट भी नहीं है। आइए, अब देखें कि पलायन की खबरें नहीं छापने के मेरे अनुमान के बाद हिन्दी के प्रमुख अखबारों में पहले पन्ने पर क्या था और क्या नहीं। सोमवार, 30 मार्च को दैनिक जागरण में पहले पन्ने पर खबर छपी थी, अखबारों की सप्लाई चेन के सभी सामान की ढुलाई पर छूट। इसी तरह, अमर उजाला में पहले पन्ने पर प्रधानमंत्री के “मन की बात” को पांच कॉलम में छापा गया था। वैसे तो यह कोरोना से संबंधित है और इसे प्रमुखता देने का यह आधार हो सकता है पर सच यह है कि प्रधानमंत्री का यह कार्यक्रम रेडियो पर जब कोई भी सुन सकता है और जिसे सुनना होगा वह इतवार को ही सुन चुका होगा तो सोमवार को इसे पहले पन्ने पर छापना प्रचार नहीं तो क्या है? आखिर अंदर के पन्ने किसलिए होते हैं।

मंगलवार, 31 मार्च के अखबारों में जो सबसे महत्वपूर्ण खबर थी वह बरेली में प्रवासी मजदूरों को कीटनाशक से नहलाने और पैदल चले लोगों की स्थिति थी। मीडिया ने आमतौर पर मान लिया है कि प्रवासी मजदूर अपने घरों को पहुंच गए या रास्ते में रोककर कहीं उनकी सेवा की जा रही है और अब कोई परेशानी नहीं है। द टेलीग्राफ ने इलाहाबाद की सीमा पर एक मजदूर के जख्मी पैरों की तस्वीर छाप कर बताया कि पैदल निकले लोगों में कई अभी भी परेशान हाल हैं। कीटनाशक से नहलाए जाने वाले तो हैं ही। पर मजदूर के जख्मी पैर की फोटो हिन्दी के किसी भी अखबार में  पहले पन्ने पर नहीं थी जबकि कीटनाशक से नहलाए जाने की खबर भी हिन्दी के कई अखबारों में पहले पन्ने पर जगह नहीं बना सकी। इसके उलट लॉक डाउन बढ़ाया नहीं जाएगा और ज्यादा तापमान में वायरस मर जाता है और कोरोना का प्रसार रुक गया जैसी अपुष्ट और छिट-पुट खबरें थीं। राजस्थान पत्रिका में पहले पन्ने पर एक खबर थी, पैदल घर लौटने की कवायद में 29 कामगार सड़कों पर जान गंवा चुके हैं। यह एक असामान्य और हृदय विदारक खबर है जो निश्चित रूप से पलायन की स्थिति बनने और पलायन को रोके नहीं जाने के कारण पैदा हुई है। प्रशासनिक अव्यवस्था के कारण 29 जानें जाना साधारण नहीं है पर यह खबर भी अखबारों में प्रमुखता से नहीं दिखी। टेलीग्राफ की आज की खबर के अनुसार अब यह संख्या 77 हो चुकी है।

बुधवार, एक अप्रैल को हिन्दी अखबारों में निजामुद्दीन के मरकज की ही खबर लीड थी। तथ्य और महत्व के लिहाज से यह खबर निश्चित रूप से लीड है पर अंग्रेजी अखबारों में नहीं है। द टेलीग्राफ में इस खबर का शीर्षक था, तबलीगी के मरकज को लेकर आरोप-प्रत्यारोप। इसके साथ बॉक्स में 13 मार्च से लेकर 25 मार्च तक के अनुष्ठानों की सूची भी छपी थी जबकि नवोदय टाइम्स में अंदर पेज तीन पर प्रकाशित एक खबर का शीर्षक था, मरकज का खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ेगा। ऐसी और भी खबरें थीं। असल में यह खामियाजा मरकज का नहीं देश में लॉकडाउन और पाबंदियों की शुरुआत देर से होने का नतीजा है और मुमकिन है भोपाल में शपथग्रहण के दौरान या कांग्रेस के बागी विधायकों के भाजपा अध्यक्ष से मिलने के दौरान भी कोई संक्रमित हो और उसकी खबर बाद में आए या दबा दी जाए। वायरस तो धर्म नहीं देखेगा इसलिए वायरस की खबर भी धर्म देखे बिना छापनी चाहिए।

बुधवार को ही दैनिक भास्कर में एक पड़ताल और कोरोना अपडेट था, जांच बढ़ाने पर ही लॉकडाउन कारगर, नहीं तो घूमता रहेगा वायरस। मुझे लगता है कि दैनिक भास्कर को इसे देश भर के सभी एडिशन में पहले पन्ने पर छापना चाहिए था (या नहीं छापते)। लेकिन सकारात्मक पत्रकारिता की अपील और दबाव का असर होगा कि वास्तविक स्थिति बताने वाली यह खबर अंदर के पन्ने पर है। वैसे भी, कैबिनेट सचिव कह चुके हैं कि सरकार की लॉक डाउन को आगे बढ़ाने की ‘फिलहाल’ कोई योजना नहीं है तो यह खबर ‘नकारात्मक’ ही मानी जाएगी। अखबारों में अमूमन खबर या शीर्षक नहीं,  लिखने वाले का नाम और पद महत्वपूर्ण होता है और इसी हिसाब से पन्ना तय होता है। बहुत कम लोग पहले पन्ने की खबर हटाकर अंदर की खबर पहले पन्ने पर ले आते हैं। जनसत्ता में ऐसा हमलोग अक्सर करते थे। और ना कभी किसी खबर के लिए डांट पड़ी ना कभी किसी के लिए शाबासी मिली। सिर्फ ऐसा करते रहने को प्रोत्साहित किया जाता है।

भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा है,  अगर विदेशियों को भारत आने और विदेश से लौटने वाले भारतीयों को भी जल्दी ही (एक फरवरी के आस-पास) रोक दिया गया होता …. आवश्यक तौर पर क्वारंटाइन किया गया होता तो तबलीगी की गड़बड़ नहीं होती …. यह प्रतिबंध देर से क्यों लागू किया गया? इसी तरह कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने कहा है, नरेन्द्र मोदी, हम आपकी बात मानेंगे और 5 अप्रैल को दीया जलाएंगे। पर बदले में कृपया आप हमारी और महामारी विशेषज्ञों तथा अर्थशास्त्रियों की उचित सलाह भी मानें। राहुल गांधी ने कहा है, कोविड-19 वायरस से लड़ने के लिए भारत पर्याप्त मात्रा में जांच नहीं कर रहा है। लोगों से ताली बजवाने और आकश में टॉर्च चमकाने से समस्या दूर होने वाली नहीं है। क्या आपको पता चला?


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।