आज के हिंदी अखबारों के संपादकीय: 05 मार्च, 2018

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नवभारत टाइम्स

करवट बदलती राजनीति

पूर्वोत्तर में बीजेपी का एक बड़ी ताकत के रूप में उभरना एक बड़े राजनीतिक बदलाव का संकेत है। इसका न सिर्फ पूर्वोत्तर बल्कि राष्ट्रीय राजनीति पर भी गहरा असर पड़ेगा। बीजेपी ने त्रिपुरा में लेफ्ट का मजबूत किला ढहा दिया और नगालैंड में शानदार प्रदर्शन किया। हाल तक इसकी कल्पना भी असंभव थी। यह बात सही है कि नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों का अपना कोई मजबूत आर्थिक ढांचा नहीं है, इसलिए वे केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के साथ मिलकर चलने में विश्वास करते रहे हैं। लेकिन बीजेपी ने उनके साथ एक अलग तरह का रिश्ता बनाया है। मोदी सरकार ने नॉर्थ-ईस्ट पर खासतौर से फोकस किया। खुद प्रधानमंत्री ने वहां की कई यात्राएं कीं। केंद्रीय मंत्रियों का आना-जाना लगातार लगा रहा। वहां के लोकप्रिय नेता किरन रिजिजु को केंद्रीय मंत्रिमंडल में अहम विभाग सौंपा गया। पूर्वोत्तर में इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए कई बड़ी परियोजनाएं शुरू की गईं, जिनसे वहां की जड़ अर्थव्यवस्था को गति मिल सकती है। इस तरह बीजेपी ने उन राज्यों के अलगाव को काफी कम किया और वहां के लोगों का विश्वास जीता। नॉर्थ-ईस्ट को लेकर केंद्र सरकार की सक्रियता के कारण ही इस बार तीन राज्यों के चुनाव मीडिया में छाए रहे। पूर्वोत्तर के इलेक्शन को इतनी कवरेज शायद ही कभी मिली हो। चुनाव में बीजेपी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। खुद पीएम ने त्रिपुरा में चार सभाओं को संबोधित किया। वहां लेफ्ट के पास मुख्यमंत्री माणिक सरकार की ईमानदारी और सादगी के सिवा और कोई बड़ा मुद्दा नहीं था। किसी सीएम का ईमानदार होना अच्छी बात है, मगर जनता को रोजी-रोटी और तरक्की भी चाहिए। राज्य की जनता इन मामलों में निराश होने लगी थी। फिर माणिक सरकार निचले स्तर के भ्रष्टाचार को रोकने में कामयाब नहीं हो पाए। त्रिपुरा में सीपीएम की हार महज एक चुनावी पराजय नहीं है। सीपीएम की सरकार जहां भी हारती है, वहां पार्टी अपनी जड़ से ही उखड़ जाती है। पश्चिम बंगाल में यही देखने को मिला। सीपीएम की मुश्किल यह है कि वह मुख्यधारा की पार्टियों के बरक्स अब तक अपनी कोई वैकल्पिक नीति पेश नहीं कर पाई। त्रिपुरा की हार उसके लिए एक बड़ा झटका है। अब भी वह नहीं संभली तो उसका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। कांग्रेस ने मेघालय में अपनी पकड़ जरूर बनाए रखी, पर त्रिपुरा और नगालैंड में वह मुंह के बल गिरी। जमीनी स्तर पर तत्परता की कमी पार्टी की स्थायी समस्या बनी हुई है। गुजरात और हाल के कुछ उपचुनावों में पार्टी के अच्छे प्रदर्शन से पार्टी कार्यकर्ताओं में जो उत्साह आया था, वह इन परिणामों से कम हो सकता है। बहरहाल बीजेपी ने पूर्वोत्तर की जनता को जो सपने दिखाए हैं, उन्हें पूरा करना पार्टी के लिए चुनौती है। उसकी नई सरकारें अगर वहां की जनजातियों की शिकायतें दूर कर उन्हें मुख्यधारा में ला सकीं तो यह उनकी बड़ी उपलब्धि होगी।


जनसत्ता

नतीजों के निहितार्थ

शनिवार को आए तीन राज्यों के चुनावनतीजे पूर्वोत्तर में भाजपा के जबर्दस्त उभार को रेखांकित करते हैं। दूसरी तरफ, ये चुनाव कांग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए काफी निराशाजनक साबित हुए हैं। त्रिपुरा में माकपा का किला ढह गया, जहां वह ढाई दशक से राज कर रही थी। राज्य की साठ सदस्यीय विधानसभा में भाजपा और आइपीएफटी यानी इंडीजीनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के गठबंधन को तैंतालीस सीटें हासिल हुर्इं। गठबंधन में भाजपा का हिस्सा काफी बड़ा है। त्रिपुरा में भाजपा की ऐतिहासिक सफलता का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछली बार उसे लगभग डेढ़ फीसद वोट ही मिले थे, वहीं इस बार अपनी लड़ी गई इक्वायन सीटों पर उसने तैंतालीस फीसद से अधिक वोट हासिल किए। जबकि माकपा को साढ़े बयालीस फीसद वोट आए। पर ज्यादा अंतर सीटों का है।

माकपा ने पिछली बार पचास सीटें जीती थीं, इस बार वह सोलह सीटों पर सिमट गई। वोट-प्रतिशत और सीटों के इस हिसाब ने एक बार फिर ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ चुनाव प्रणाली पर बहस की गुंजाइश पैदा की है। त्रिपुरा में कांग्रेस को पिछली बार छत्तीस फीसद से कुछ अधिक वोट और दस सीटें मिली थीं, पर इस बार वह एक भी सीट न पा सकी। दरअसल, कांग्रेस का सारा जनाधार भाजपा की तरफ मुड़ गया। इसमें भाजपा की अपनी तूफानी सक्रियता और चतुराई से बनाई गई रणनीति की काफी भूमिका तो है ही, अपना सूपड़ा साफ हो जाने के लिए कांग्रेस भी कुछ कम दोषी नहीं है। काफी समय से त्रिपुरा में कांग्रेस ने विपक्ष की भूमिका निभाना बंद कर दिया था। फिर, इस चुनाव में कांग्रेस ने अपना सारा ध्यान केवल मेघालय पर केंद्रित कर रखा था, जहां वह सत्ता में थी।

नगालैंड में भी कांग्रेस का खाता नहीं खुला। मेघालय में वह अब भी सबसे बड़ी पार्टी जरूर है, पर उसकी सीटें उनतीस से घट कर इक्कीस पर आ गर्इं। नगालैंड और मेघालय में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति है, लिहाजा जोड़-तोड़ से सरकार बनाने की कवायद चल रही है। नगालैंड में 2013 में भाजपा को सिर्फ एक सीट मिली थी, इस बार उसकी झोली में बारह सीटें आई हैं; यहां पिछली बार उसे दो फीसद से भी कम वोट मिले थे, इस बार चौदह फीसद से कुछ ऊपर वोट मिले हैं और सहयोगियों के साथ उसके सत्ता में आने के आसार हैं। इन तीन राज्यों में लोकसभा की कुल मिलाकर केवल पांच सीटें हैं, लेकिन इन नतीजों का संदेश बड़ा है, क्योंकि पूर्वोत्तर भाजपा के लिए परंपरागत पैठ वाला क्षेत्र नहीं था। केंद्र की सत्ता में आने के बाद भाजपा ने पूर्वोत्तर में बहुत तेजी से पैर पसारे हैं। इस तरह ये चुनाव परिणाम भाजपा के भौगोलिक विस्तार की भी पुष्टि करते हैं।

ये नतीजे ऐसे समय आए हैं जब गुजरात में झटका खाने और राजस्थान व मध्यप्रदेश के उपचुनावों में शिकस्त खाने से भाजपा के माथे पर थोड़ी-बहुत चिंता की लकीरें दिख रही थीं। लेकिन कहना मुश्किल है कि आगे जिन राज्यों के चुनाव होने हैं उनके परिणाम पूर्वोत्तर की लकीर पर ही आएंगे। जैसे, राजस्थान और मध्यप्रदेश के उपचुनाव जीतने के बावजूद कांग्रेस को पूर्वोत्तर में इसका कोई लाभ नहीं मिला, वैसे ही सुदूर त्रिपुरा और नगालैंड के चुनाव भी कर्नाटक, राजस्थान और मध्यप्रदेश पर शायद ही कोई असर डाल पाएं। अलबत्ता ताजा नतीजों ने देश भर में भाजपा के कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाया होगा, और पार्टी जरूर इससे लाभान्वित हो सकती है।


हिंदुस्तान

हर्बल प्लास्टिक

हमारी दुनिया, हमारी जिंदगी में उसकी घुसपैठ काफी गहरी है। बहुत से काम ऐसे हैं, जिन्हें हम चाहकर भी उसके बिना नहीं कर सकते। लेकिन इसके साथ ही प्लास्टिक आधुनिक जीवन का सबसे बड़ा खलनायक भी है। इसे प्रदूषण का सबसे बड़ा गुनहगार माना जाता है। यह भी कहा जाता है कि प्लास्टिक सिर्फ जन्म लेता है, कभी मरता नहीं। यह ऐसी मानव रचना है, जो अजर-अमर है। प्लास्टिक के आगमन से पहले हम जितनी भी चीजें अपने जीवन में उपयोग करते थे, वे सब ऐसी थीं, जिनका एक समय बाद क्षरण हो जाता था। उसके अवयव उसी प्रकृति में पहुंच जाते थे, जहां से उसने अपनी यात्रा शुरू की थी। प्लास्टिक ने इस समीकरण को हमेशा के लिए बदल दिया। प्लास्टिक की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसका कभी क्षरण नहीं होता। कोई कीड़ा नहीं है, जो प्लास्टिक को खाता हो। कोई जीवाणु नहीं है, जो प्लास्टिक से पोषण पाता हो। मूल रूप से प्लास्टिक पेट्रोलियम पदार्थों से बनता है और उसके पूरे रासायनिक संगठन की विशेषता यह होती है कि उसमें किसी भी तरह से ऑक्सीजन नहीं होती। इस कारण से जीवाणुओं के लिए वह बेमतलब है। उसे जला कर नष्ट करना कहीं ज्यादा खतरनाक होता है। किसी प्लास्टिक की थैली को जलाने से जो गैसें निकलती हैं, वे किसी कागज को जलाने से हुए कार्बन उत्सर्जन से कहीं ज्यादा विषैली होती हैं। न भी जलाओ, तब भी कैंसर जैसे कई खतरे इससे जुड़े हैं। यह भी कहा जाता है कि पिछली एक सदी को प्लास्टिक की सदी नहीं, बल्कि कभी न नष्ट होने वाला कूड़ा बनाने वाली सदी के रूप में याद किया जाएगा।

लेकिन यह भी सच है कि प्लास्टिक बहु-उपयोगी भी है। यह सस्ता है और सर्वसुलभ भी। प्लास्टिक की बाल्टियों और डिब्बों ने धातु की भारी-भरकम बाल्टियों को तो दशकों पहले ही चलन से बाहर कर दिया था। पैकिंग के लिए तो इससे बेहतर कुछ भी नहीं। इसने खाद्य पदार्थों, और कई दूसरी चीजों की शेल्फ लाइफ को बढ़ाया है, उन्हें दूरदराज तक भेजना आसान बनाया है। प्लास्टिक की आधे ग्राम वजन की थैली में आप पांच किलो तक सामान आसानी से ले जा सकते हैं, और यह थैली आपको कभी निराश नहीं करेगी। यही वजह है कि हम न जाने कितने समय से इन थैलियों से मुक्ति का अभियान चला रहे हैं, लेकिन यह संभव नहीं हो रहा। हिमाचल प्रदेश ने तो दो दशक पहले ही इन पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन वहां भी इनका उपयोग धड़ल्ले से होता है। सच यही है कि अभी तक इनका कोई भरोसेमंद विकल्प मौजूद नहीं है। लेकिन इस बीच कुछ कोशिशें ऐसी हैं, जो उम्मीद बंधा रही हैं।

यॉर्क विश्वविद्यालय का ग्रीन कैमेस्ट्री सेंटर ऐसे प्लास्टिक तैयार कर रहा है, जो पेट्रोकेमिकल से नहीं, वनस्पतियों से तैयार होगा। इसकी रासायनिक संरचना की खासियत यह होगी कि इसमें पर्याप्त रूप से ऑक्सीजन तत्व एक घटक के रूप में शामिल होगा, जिसकी वजह से यह पूरी तरह बायो-डिग्रेडेबल होगा। लेकिन इसके साथ ही यह भी ध्यान रखा जा रहा है कि इसकी मजबूती और लोच वही हो, जो अभी तक इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक की होती है। वैज्ञानिकों को इसमें शुरुआती सफलता भी मिली है, लेकिन असली परीक्षा तब होगी, जब यह बाजार में पुराने प्लास्टिक को मात देगा। पेट्रोकेमिकल प्लास्टिक को इस हर्बल प्लास्टिक से ही मात दी जा सकती है।


अमर उजाला

हाशिये पर वाम

त्रिपुरा में भाजपा की जीत जितनी ऐतिहासिक है, वहां पच्चीस साल बाद वाम मोर्चे का सत्ता से बाहर होना उससे कम महत्वपूर्ण नहीं है। वैसे तो अभी वाम मोर्चे की सरकार केरल में है, जहां एलडीएफ और यूडीएफ बारी-बारी से सत्ता में आता है, लेकिन 2011 में पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के सत्ता से बाहर होने के बाद त्रिपुरा इकलौता राज्य था, जहां कम्युनिस्टों का एकछत्र राज था। इस लिहाज से देखें, तो भाजपा ने सुनियोजित रणनीति से कम्युनिस्टों का आखिरी किला ढहा दिया है। त्रिपुरा की हार को वाम दल अब भी जिस तरह अविश्वसनीय बता रहे हैं, उससे साफ है कि आखिरी वक्त तक बदलाव की आकांक्षा को वे नहीं भांप पाए। निवर्तमान मुख्यमंत्री माणिक सरकार की ईमानदारी और वाम विचारों के प्रति प्रतिबद्धता की काफी चर्चा होती है; उनकी आय आयकर रिटर्न भरने जितनी भी नहीं थी! लेकिन वह भूल गए थे कि त्रिपुरा के युवा रोजगार और विकास के आकांक्षी थे। सरकारी कामकाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और औरतों की सुरक्षा के मुद्दे पर उन्होंने अपनी आंखें बंद रखी थीं। जब अनेक राज्यों के सरकारी कर्मचारी सातवें वेतन आयोग के अनुरूप वेतन पा रहे हैं, तब त्रिपुरा में चौथे वेतन आयोग के अनुसार वेतन देना समय से पीछे चलना ही था। कम्युनिस्टों को तो इसका भी अहसास नहीं नहीं नहीं था कि जो आदिवासी उनकी ताकत थे, और जिनके बीच से कभी दशरथ देव जैसी कद्दावर शख्सियत निकल कर आए थे, वह समाज तक उन से पीछा छुड़ाना चाहता है। यह सिर्फ त्रिपुरा की नहीं, दुर्योग से तेजी से सिकुड़ रहे हमारे समूचे वाम विमर्श की सच्चाई है। ईमानदारी अच्छी चीज है, पर इस 21 वीं सदी में विकास, प्रतिस्पर्धा और नई तकनीक की तरफ पीठ के रहना व्यावहारिक नहीं है। लेकिन विद्रूप यह है कि हाशिये पर सिमटते जाने के बावजूद हमारे कम्युनिस्ट बदलने के लिए राजी नहीं हैं। भाजपा से मुकाबला करने के लिए वाम मोर्चे के भीतर से अब धर्मनिरपेक्ष दलों का गठजोड़ बनाने की भी जरूरत बताई जा रही है। लेकिन खुद को बदले बिना वे अपनी प्रासंगिकता बनाए नहीं रख सकते। त्रिपुरा की पराजय को गंभीरता से लेने के बजाय माकपा के दोनों गुट हार का ठीकरा एक दूसरे पर फोड़ने पर जिस तरह आमादा हैं, वही बता देता है कि वे अपनी गलतियों से शायद ही सीखें।


राजस्थान पत्रिका

आत्ममंथन का वक्त

गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावी नतीजों की गूंज अभी शांत भी नहीं हो पाई थी कि पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनावी परिणाम देश के सामने हैं। त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी ने 25 साल पुराने वामपंथी किले को ढहा दिया ढहा दिया दिया को ढहा दिया किले को ढहा दिया ढहा दिया दिया। ढाई दशक से त्रिपुरा में प्रमुख विपक्षी दल की भूमिका निभा रही कांग्रेस राज्य में अपना खाता भी नहीं खोल पाई। नगालैंड में भाजपा ने क्षेत्रीय दल के साथ मिलकर बहुमत हासिल कर लिया तो मेघालय में त्रिशंकु विधानसभा सामने आई है। तीनों राज्यों में से त्रिपुरा के नतीजों ने देश को वाकई चौंका दिया। इसलिए क्योंकि पिछले चुनावों में एक सीट भी नहीं जीतने वाली भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर लगभग तीन चौथाई सीटें जीतने में कामयाब रही प. बंगाल के बाद त्रिपुरा में वामपंथी दलों की करारी हार ने इस विचारधारा के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिए। खासकर उस स्थिति में जब मुख्यमंत्री माणिक सरकार की छवि देश के गिने-चुने ईमानदार नेताओं में होती है। तीन राज्यों के नतीजे आने वाले महीनों में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों को प्रभावित करेंगे या नहीं, ये सवाल राजनीतिक गलियारों में महत्वपूर्ण हो चला है। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश हारने वाली कांग्रेस मेघालय में भी बहुमत हासिल नहीं कर पाई। देश की सबसे प्राचीन पार्टी के पास अब कर्नाटक बचाने की चुनौती है। पार्टी अगर यहां भी हार गई तो 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में उसकी दावेदारी कमजोर हो जाएगी। एक के बाद एक चुनावों में हार रही कांग्रेस के अलावा गैर भाजपा दलों के सामने भी अगले लोकसभा चुनाव बड़ी चुनौती के रूप में आने वाले हैं। कांग्रेस के साथ-साथ वामदलों को भी समय के साथ बदलने की नई सोच विकसित करनी होगी। त्रिपुरा, नगालैंड में जीत के बावजूद भाजपा को भी अधिक खुश होने की जरूरत नहीं है। राजस्थान और मध्य प्रदेश के उपचुनावों में मिली करारी पराजय उसके लिए आत्मचिंतन का अवसर होना चाहिए। अपनी हार के कारणों का पता लगाकर उसके अनुरूप रणनीति बनाने वाले राजनीतिक दल ही फायदे में रह सकते हैं। देखना यह होगा कि कौन दल कितनी ईमानदारी से अपना विश्लेषण करता है।


दैनिक जागरण

संसद के शेष सत्र में

संसद के बजट सत्र के शेष हिस्से में पीएनबी घोटाले की गूंज सुनाई देना स्वाभाविक ही है। इस पर हैरानी नहीं कि विपक्ष ने पंजाब नेशनल बैंक में हुए घोटाले पर सरकार को घेरने की रणनीति के तहत राज्यसभा में कामरोको प्रस्ताव का नोटिस दिया है, लेकिन बेहतर होगा कि वह इस मसले पर संसद का काम बाधित करने के बजाय सार्थक चर्चा पर ध्यान केंद्रित करे। उसे पूवरेत्तर के तीन राज्यों में अपनी हार की खीझ संसद में हंगामा करके निकालने से भी बचना होगा और पीएनबी घोटाले के बहाने राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश से भी। यह ऐसा मसला नहीं कि विपक्ष संसद में हंगामे के जरिये सरकार को कठघरे में खड़ा करके कर्तव्य की इतिश्री कर ले। नि:संदेह सरकार के लिए भी यह आवश्यक है कि वह इस घोटाले पर विपक्ष के सभी सवालों का जवाब देने के लिए तैयार रहे। सरकार को संकेत रूप में भी ऐसा कुछ प्रकट नहीं करना चाहिए कि वह इस मसले पर चर्चा से किनारा कर रही है। हालांकि पंजाब नेशनल बैंक में घोटाले के बाद सरकार ने बैंकों के लापरवाही भरे कामकाज को दुरुस्त करने और साथ ही नीरव मोदी सरीखे घोटालेबाजों पर शिकंजा कसने के लिए कुछ कदम उठाए हैं, लेकिन अभी यह सामने आना शेष है कि आखिर बैंकों की नियामक संस्था के रूप में रिजर्व बैंक अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह क्यों नहीं कर सका? न केवल इस सवाल का जवाब मिलना चाहिए, बल्कि यह सुनिश्चित भी किया जाना चाहिए कि रिजर्व बैंक बैंकों का नियमन और निगरानी सही तरह से करने में सक्षम हो। इसी के साथ यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि बैंकों के अॅाडिट के नाम पर खानापूरी न होने पाए। नियामक संस्थाएं अपना काम जिम्मेदारी से करें, यह देखना सरकार का ही काम है। इसमें दो राय नहीं कि रिजर्व बैंक ने अपने हिस्से का काम अच्छे से नहीं किया, लेकिन आखिर सरकार का तंत्र समय रहते यह क्यों नहीं देख सका कि वह अपने दायित्वों का निर्वहन सही तरह कर पा रहा है या नहीं?1संसद में केवल पीएनबी घोटाले पर सार्थक चर्चा की ही दरकार नहीं है। यह भी अपेक्षित है कि लंबित विधेयक और अधिक लंबित न होने पाएं। संसद सत्र के इस हिस्से में जो महत्वपूर्ण विधेयक पारित होने हैं उनमें मोटर व्हीकल एक्ट में संशोधन के विधेयक के अतिरिक्त तत्काल तीन तलाक संबंधी विधेयक भी है। बेहतर होगा कि सत्तापक्ष और विपक्ष इस विधेयक पर आम सहमति बनाएं, क्योंकि तत्काल तीन तलाक रोधी कानून के अभाव मेंमुस्लिम महिलाएं उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं। नि:संदेह विपक्ष को विधेयकों पर चर्चा के साथ राष्ट्रीय महत्व के मसले उठाने और उन पर सरकार से जवाब मांगने का भी अधिकार है, लेकिन इस अधिकार की आड़ में हल्ला-हंगामा ही नहीं किया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से अब ऐसा ही अधिक होता है और इसी कारण संसद में महत्वपूर्ण मसलों पर चर्चा कम और हंगामा अधिक होता है। कम से कम संसद को नारेबाजी का मैदान बनाने की प्रवृत्ति का तो परित्याग किया ही जाना चाहिए। इस प्रवृत्ति के रहते संसद का काम सही तरह से नहीं चल सकता।

 


प्रभात खबर

भाजपा का वर्चस्व

मशहूर कहावत है कि राजनीति संभावनाओं की कला है. यह बात भाजपा के बढ़ते वर्चस्व पर सटीक बैठती है. पूर्वोत्तर के राज्यों में कुछ समय पहले तक खाता खोलने को तरसती भाजपा उस हिस्से के सात में से पांच राज्यों में सत्तासीन है। त्रिपुरा में ढाई दशक से सरकार चला रहे वाम मोर्चे को परास्त कर उसने न सिर्फ रणनीतिक जीत हासिल की है, बल्कि अपनी विचारधारात्मक बढ़त को भी दर्ज किया है. त्रिपुरा और नगालैंड में गठबंधन बनाने, आक्रामक प्रचार करने और विपक्ष की खामियों पर प्रहार की उसकी शैली एक बार फिर कामयाब हुई है. मेघालय की संभावित सरकार में अपनी जगह बनाने की भी उसे गंभीर कोशिशें शुरू कर दी हैं. देश के 29 में से 21 राज्यों की सरकारें या तो भाजपा की हैं या फिर उसके सहयोगी दलों की. संसद से लेकर सड़क तक भाजपा को ठोस विरोध का भी सामना नहीं करना पड़ा है. परंतु, ऐसा नहीं है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से अब तक उसकी जीत का सिलसिला निर्बाध रहा है. बीच-बीच में झटके भी लगे हैं और खतरनाक चुनौतियां भी सामने आयी हैं, पर उसके राजनीतिक विरोधी न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की काट खोज पाये हैं और न ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के रणनीति कौशल की. संगठन के सटीक इस्तेमाल में भी भाजपा का मुकाबला उसके विरोधी नहीं कर सके हैं. अब अगर कहीं भाजपा कमजोर दिख रही है, तो वह दक्षिण भारत है, पर वहां उसकी उपस्थिति भी है और उसकी सक्रियता भी तेज हुई है. ऐसे में देश के कुछ राज्यों में जहां विरोधी दल सत्तारुढ़ हैं, उनका भाजपा के बढ़ते वर्चस्व से चिंतित होना स्वाभाविक है. अब विरोधी दलों को नये सिरे से आत्मावलोकन कर भाजपा के बरक्स खड़ा होने की कोशिश करनी होगी, लेकिन विपक्ष की कमजोरियों को देखते हुए यह कह पाना मुश्किल है कि वह कब मजबूत चुनौती के रूप में खड़ा हो सकेगा. भाजपा के राजनीतिक विस्तार के साथ उससे जुड़ी लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ रही हैं और पार्टी को इसका गंभीरता से संज्ञान लेना चाहिए. यह ठीक है कि उसका जनाधार व्यापक हुआ है, पर लोकतंत्र में पार्टियों को मतदाताओं के दरवाजे बार-बार खटखटाने होते हैं. ऐसे में चाहे वह देश का पश्चिमी क्षेत्र हो, मध्य भारत हो या फिर पूर्वोत्तर, भाजपा को अपने चुनावी वादों को पूरा करने की गंभीर कोशिश करनी होगी. केंद्र और कई राज्यों में सत्तारूढ़ होकर उसके पास अपनी नाकामयाबियों के लिए कोई बहाना बनाने की गुंजाइश नहीं है. पार्टी को भी निश्चित ही इसका भान होगा. पूर्वोत्तर बेहद पिछड़ा होने के साथ दशकों से अलगाववाद और हिंसा से भी पीड़ित रहा है. केंद्र सरकार के सहयोग से उन राज्यों में विकास की नयी इबारत लिखी जा सकती है. अब समय है कि भाजपा अपने वादों को अमलीजामा पहनाकर अपने वर्चस्व को सार्थक सिद्ध करे.


देशबन्धु

कब आंखें खोलेंगे कांग्रेस और वामदल

पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनावी नतीजों ने देश के सियासी नक्शे को बदलकर रख दिया है। होली के पहले जहां उपचुनाव में कांग्रेस जीत से लाल-गुलाबी हुई, तो होली के बाद भाजपा को अपना केसरिया रंग और फैलाने का मौका मिल गया। त्रिपुरा में बहुमत और नगालैंड में गठबंधन के साथ वह सरकार बनाने जा रही है और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मेघालय में जोड़-तोड़ की उसकी कोशिशें जारी हैं। मेघालय में भाजपा को मात्र 2 सीटें मिली हैं, लेकिन फिर भी वह सरकार बनाने की कोशिश में लगी है, इससे उसकी सत्ता की भूख जाहिर होती है। इससे पहले मणिपुर, गोवा और बिहार में वह यह कारनामा दिखा चुकी है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल जारजजर रोकर इसे अनैतिक बताते रहें, लेकिन उनका रोना, रूठना या शिकायत करना ही पर्याप्त नहीं है। भाजपा एक के बाद दूसरे राज्य पर भगवा झंडा लहरा रही है और आप केवल दुहाई-दुहाई करते रहिए।

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस दंभी अंदाज में जीत के बाद कार्यकर्ताओं को संबोधित किया, उससे नजर आता है कि उनके मन में एकछत्र शासन की कैसी अदम्य इच्छा है। वे बात भले लोकतंत्र की करें, लेकिन अपने अलावा कोई और पार्टी शायद उन्हें मंजूर नहीं है। इसलिए पहले कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया, अब कह रहे हैं कि लेफ्ट इज नाट राइट। क्या राइट है, क्या रांग, इसका फैसला तो उन्हें जनता के विवेक पर छोड़ देना चाहिए। लेकिन राजनीति का दौर भी ऐसा चल पड़ा है कि जनता के मन की बात सुनने के लिए दलों के पास समय ही नहीं है। आज कांग्रेस और वामदल जिस दुर्गति का शिकार हुए हैं। यह जनता की नब्ज को न समझ पाने का ही नतीजा है। प.बंगाल में 34 साल की सत्ता के बाद वामदल ऐसी बाहर हुई कि लगातार दो विधानसभा चुनाव हार गई और अब उसका कैडर वहां कमजोर हो गया है। जबकि तृणमूल कांग्रेस के बाद भाजपा वहां तेजी से उभर रही है।

त्रिपुरा में भी 25 साल के शासन को माणिक सरकार नहीं बचा पाए। आखिर वे अकेले क्या कर लेते? माकपा के बड़े नेता राजनीति की जगह केवल विचारधारा की बारीकियों में उलझे रहे और इस बात को समझ ही नहींपाए कि जनता, खासकर युवा किस तरह का बदलाव चाहता है। जबकि भाजपा ने बकौल मोदीजी नो वन से वन की यात्रा सफलतापूर्वक संपन्न की। इसके पीछे  केवल मोदी का करिश्मा नहीं है, जैसा भाजपा समर्थकों का मानना है, बल्कि सोची-समझी रणनीति के तहत भाजपा राज्यों में अपना दायरा बढ़ा रही है। जहां जैसी जरूरत होती है, वैसी बिसात बिछाकर अपनी बाजी चलती है। जैसे पूर्वोत्तर में उसका जनाधार एकदम सीमित था, तो यहां पहले उसने असम को हथियाने का काम किया। असम में आधार बढ़ाने के लिए नरेंद्र मोदी ने 2016 में बांग्लादेशी घुसपैठियों को देश से बाहर निकालने का नारा दिया था। उनका यह नारा बीजेपी के पक्ष में गया। दो साल बाद वही फार्मूला भाजपा ने त्रिपुरा में आजमाया और नतीजा भी असम जैसी बंपर जीत के तौर पर देखने को मिला।

केंद्र सरकार ने 1955 के सिटिजनशिप एक्ट में धर्म के आधार पर संशोधन करने की बात कही ताकि बांग्लादेश से आने वाले हिंदू जो अवैध घुसपैठिये कहलाते थे, उन्हें भारत की नागरिकता मिल सके। भाजपा का यह प्रयास बहुसंख्यक समुदाय को लुभाने वाला था, जिसकी काट लेफ्ट की सरकार नहीं तलाश सकी। इसके बाद बारी आई यहां के मूल निवासी आदिवासी समुदाय की, जो अब अल्पसंख्यक बन गए हैं। भाजपा यह जानती थी कि त्रिपुरा में आदिवासियों के लिए आरक्षित 20 सीटों पर कब्जा जमाए बगैर लेफ्ट को यहां से उखाड़ना मुश्किल होगा। ऐसे में उसने पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के साथ गठबंधन किया, जो अलग आदिवासी राज्य की मांग करता रहा है। इस तरह बंगाली हिंदुओं समेत आदिवासियों को साथ जोड़ने का काम भाजपा ने किया। नगालैंड और मेघालय में ईसाइयों की बहुलता है और यहां की राजनीति पर चर्च का प्रभाव है। इस पर भाजपा ने अपनी रणनीति बदली। गौमांस का मुद्दा, जिस पर देश में हत्याएं हो चुकी हैं, वह यहां किनारे कर दिया गया।

भाजपा के स्थानीय नेताओं ने नगालैंड में यहां तक कहा कि वे भी इसाई हैं और सांस्कृतिक अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। भाजपा अब प्रचारित कर रही है कि वह हिंदुत्व की राजनीति नहीं करती है और सभी धर्मों के लोग उसे स्वीकार रहे हैं। लेकिन भाजपा और संघ ने पूर्वोत्तर में हिंदू राष्ट्रवाद के अपने अजेंडे को वहां की छोटी पार्टियों की मदद से आगे बढ़ाने की रणनीति तैयार की है ताकि चर्च ग्रुप्स की काट निकाली जा सके। संघ के नेता, कार्यकर्ता लंबे अरसे से पूर्वोत्तर में अपना प्रभाव बढ़ाने के मिशन में जुटे हुए थे, जिसमें वे सफल दिख रहे हैं।

वाम नेताओं को भी इस की जानकारी होगी, लेकिन बावजूद इसके वे अपना जनाधार बचाने में नहीं जुटे। यही हाल कांग्रेस का भी रहा। बार-बार ऐसा लगता है कि राहुल गांधी आधे-अधूरे मन से राजनीति करते हैं। पिछले विधानसभा चुनावों में हिमाचल की सत्ता आसानी से भाजपा के हवाले कर दी। इस बार त्रिपुरा में उसका बुरा हाल हुआ ही, मेघालय में भी सरकार बचाने की चुनौती उसके सामने है। इस कठिन समय में राहुल गांधी देश से बाहर चले गए और अपने दूतों को मेघालय भेज दिया। क्या अब राजनीति इतनी आसान रह गई है कि कोई सत्ता थाली में परोस कर आपको देगा? कांग्रेस हो या वामदल, केवल भाजपा की आलोचना कर वे अपना अस्तित्व नहीं बचा सकते है।

उन्हें  जनता के सामने अपना मिशन, अपना एजेंडा भी पेश करना होगा। देश में अब भी एक वर्ग ऐसा है जो भाजपा का अंधभक्त नहीं है, जो लोकतंत्र की विविधता में विश्वास रखता है, लेकिन इस वर्ग को नेतृत्व का भरोसा दिलाने वाले नेता ही नहींरहेंगे, तो लोकतंत्र में तानाशाही के खतरे को कौन रोकेगा?