आज के हिंदी अख़बारों के संपादकीय: 02 मार्च, 2018

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नवभारत टाइम्स

टेलिकॉम की टकराहटें

भारतीय दूरसंचार क्षेत्र का अंदरूनी संकट अब पूरी दुनिया के सामने आ गया है। देश की शीर्ष टेलिकॉम कंपनी भारती एयरटेल के चेयरमैन सुनील मित्तल का कहना है कि भारत में पुरानी टेलिकॉम कंपनियों के लिए काम करना कठिन होता जा रहा है। स्पेन के बार्सिलोना में आयोजित मोबाइल वर्ल्ड कांग्रेस के मौके पर उन्होंने कहा कि दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के नए नियमों के खिलाफ अदालत जाने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता उनके पास नहीं बचा है। अभी कुछ समय पहले वोडाफोन ने भी ट्राई पर ऐसा ही आरोप लगाया था। उनका संकेत इस तरफ है कि ट्राई एक तटस्थ नियामक की तरह काम करने के बजाय नई टेलिकॉम कंपनी जियो को फायदा पहुंचाने की कोशिश कर रहा है। पिछले दिनों एक के बाद एक देश की कई टेलिकॉम कंपनियां बदहाल होती देखी गई हैं। अभी भारत की छठें नंबर की टेलिकॉम कंपनी ‘एयरसेल’ ने खुद को दिवालिया घोषित किया। सरकार का इनके हाल पर आंखें मूंदे रहना इस सेक्टर में पस्तहिम्मती ला रहा है। सितंबर 2016 में रिलायंस जियो की लॉन्चिंग के बाद से उसकी बेहद सस्ती सेवाएं टेलिकॉम सेक्टर में उथल-पुथल की सबसे बड़ी वजह बन गई हैं। प्रतिद्वंद्वी कंपनियां जियो पर प्रिडेटरी प्राइसिंग (अपना माल सस्ता करके औरों को धंधे से बाहर कर देने) का आरोप लगा रही हैं। लेकिन ट्राई की दलील है कि टेलिकॉम कंपनियों की संस्था सीओएआई इस मुद्दे पर अदालत जाकर वहां मुंह की खा चुकी है। ट्राई के एक हालिया आदेश में कहा गया कि प्रिडेटरी प्राइसिंग होने या न होने का मामला भविष्य में ऐवरेज वेरिएबल कॉस्ट के आधार पर तय किया जाएगा। यानी सेवाओं की कीमत लंबी अवधि के औसत के रूप में देखी जाएगी। कुल मिलाकर मामला उलझ गया है और सरकार की तटस्थता भी सवालों के दायरे में आ गई है। यह स्थिति न सिर्फ कारोबार के लिए, बल्कि दूरगामी रूप से उपभोक्ताओं के लिए भी सकारात्मक नहीं कही जा सकती। यह सही है कि दूरसंचार के क्षेत्र में पैदा हुई होड़ ने उपभोक्ताओं को राहत दी है। उन्हें सस्ते विकल्प उपलब्ध कराए हैं। लेकिन प्रतियोगिता का कोई मतलब तभी बनेगा, जब कई प्रतियोगी मैदान में टिके रहने का सामर्थ्य रखें। ऐसा न हो कि बाकी कंपनियां धीरे-धीरे मैदान छोड़ती जाएं और टेलिकॉम सेक्टर पर किसी एक ही कंपनी का राज चलने लगे। ऐसा हुआ तो इसकी मार उपभोक्ताओं को ही झेलनी पड़ेगी। दूरसंचार क्रांति ने भारत के सामाजिक-आर्थिक जीवन पर गहरा असर डाला है। इसने बड़े पैमाने पर रोजगार दिया है और लोगों का रहन-सहन जड़ से बदल डाला है। सरकार को इसका विनियमन इस तरह करना चाहिए कि इसमें आगे बढ़ने का हौसला बचा रहे।


जनसत्ता
 वृद्धि का अर्थ

बुधवार को आए जीडीपी के आंकड़े अर्थव्यवस्था को लेकर आश्वस्त करते हैं। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी किए गए इन आंकड़ों के मुताबिक अक्तूबर से दिसंबर 2017 की तिमाही में जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर बढ़ कर 7.2 फीसद पहुंच गई। इसके उत्साहजनक होने का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि यह पिछली पांच तिमाहियों में सबसे ज्यादा है। यही नहीं, ताजा आंकड़ों के साथ भारत ने जीडीपी की वृद्धि दर के मामले में फिलहाल चीन को भी पीछे छोड़ दिया है। ये आंकड़े ऐसे वक्त आए हैं जब कुछ समय से बैंक घोटाला लगातार सुर्खियों में रहा है। ऐसे माहौल में, जीडीपी की ताजा खबर से सरकार ने राहत महसूस की होगी। पिछले वित्तवर्ष में तीसरी तिमाही में वृद्धि दर सात फीसद थी। जबकि मौजूदा वित्तवर्ष में जुलाई से सितंबर के दौरान की वृद्धि दर 6.3 फीसद दर्ज की गई थी, जिसे अब संशोधित कर 6.5 फीसद कर दिया गया है
यानी ऐन पिछली तिमाही के मुकाबले आधा फीसद की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। सालाना विकास दर के अनुमान को भी संशोधित किया गया है। पहले अनुमान था कि वित्तवर्ष 2017-18 में वृद्धि दर 6.5 फीसद रहेगी; अब इसे तनिक बढ़ा कर 6.6 फीसद कर दिया गया है।

अगर खंडवार देखें तो पिछली यानी तीसरी तिमाही में खनन को छोड़ कर बाकी सभी क्षेत्रों में बढ़ोतरी हुई है। औद्योगिक सूचकांक में करीब तीन चौथाई हिस्सा मैन्युफैक्चरिंग का रहता है, वहीं कृषि भी अर्थव्यवस्था का एक विशाल क्षेत्र है। मैन्युफैक्चरिंग में 8.1 फीसद और कृषि में 4.1 फीसद की वृद्धि और खनन में 0.1 फीसद की गिरावट दर्ज की गई है। बुधवार को ही आठ बुनियादी क्षेत्रों यानी कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, रिफाइनरी उत्पाद, उर्वरक, इस्पात, सीमेंट तथा बिजली की वृद्धि दर के आंकड़े आए। इनके मुताबिक इन आठ क्षेत्रों की वृद्धि दर जनवरी में 6.7 फीसद रही, जबकि यह आंकड़ा दिसंबर में 4.2 फीसद और नवंबर में 7.4 फीसद रहा। जैसा कि अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी कहा है, भारतीय अर्थव्यवस्था ने साल 2016 में हुई नोटबंदी के नकारात्मक असर तथा पिछले साल लागू की गई जीएसटी प्रणाली से संबंधित व्यवधानों से उबरना शुरू कर दिया है। इस तरह, ताजा आंकड़ों ने जहां मौजूदा वित्तवर्ष की अंतिम तिमाही में अच्छे नतीजे आने की संभावना जताई है वहीं अगले वित्तवर्ष को लेकर भी उम्मीद बढ़ाई है। अलबत्ता मूडीज ने अगले वित्तवर्ष की बाबत वृद्धि दर के अपने अनुमान को 7.6 फीसद पर यथावत रखा है।

बहरहाल, खुशनुमा आंकड़ों के बीच, यह उचित नहीं होगा कि अर्थव्यवस्था के सामने खड़ी नई चुनौतियों या समस्याओं को भुला दिया जाए। सरकार ने बजट में राजकोषीय घाटे का लक्ष्य बढ़ा कर 3.5 फीसद कर दिया है, जो कि पहले 3.2 फीसद था। राजकोषीय घाटे का लक्ष्य बढ़ाना तमाम अर्थशास्त्रियों को तो नागवार गुजरा ही, खुद प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के कई सदस्यों ने भी इस पर नाराजगी जताई। फिर, तीसरी तिमाही के उत्साहजनक आंकड़े ऐसे वक्त आए हैं जब पीएनबी घोटाले की वजह से बैंकिंग क्षेत्र साख के संकट से गुजर रहा है। रोज घोटाले की नई-नई परतें खुल रही हैं और अन्य बैंकों के भी धोखाधड़ी का शिकार होने की खबरें आ रही हैं। फिलहाल कहना मुश्किल है कि यह अध्याय कहां जाकर बंद होगा। इतना जरूर कहा जा सकता है कि इससे आने वाले दिनों में कारोबार पर बुरा असर पड़ सकता है। जाहिर है, नोटबंदी और जीएसटी के असर से उबरने के संकेतों के बीच देश की अर्थव्यवस्था एक नई चुनौती से रूबरू है।


हिन्दूस्तान

नए संदेश दे रही होiली 

बीती शाम दिल्ली के व्यस्त और आधुनिकतम बाजार में किसी कॉलेज के युवा जिस तरह गीले-सूखे रंग में सराबोर दिखाई दिए, उसने एक बारगी होली के उस रूप की याद दिला दी, जो गाहे-बगाहे डराता रहा है। लेकिन जल्द ही यह खौफ सुखद एहसास में बदल गया, जब वे हंसते-मुस्कराते आसपास गुजरते लोगों को होली की बधाई देते दिखाई दिए। लड़के-लड़कियों का यह झुंड उस उत्साह का एक अक्स था, जिसकी हर होली कल्पना की जाती है। होलिकोत्सव आखिर इंसान के मन की उस इच्छा का बयान ही तो है, जो उसके अंदर अलग-अलग रूप में मिलती है। इसे मौज, आनंद, मस्ती, प्रसन्नता, सुख का नाम दिया गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हल्ला, हंगामा, उल्लास, उमंग यानी गीत-गान-तरंग से होती है, जो इन सबको एक कड़ी में बांधता है। यह उत्सव के उल्लास में आनंद की खोज का पर्व भी है। बहुत कुछ बदला है। रंग बदले, भावनाएं बदलीं, भावना व्यक्त करने के तरीके बदले। परिवेश बदला, इच्छाएं भी बदलीं। सब कुछ बदला, तो तौर-तरीके भी बदले। लेकिन बहुत कुछ है, जो बदल-बदलकर वापस भी आ रहा है। टेसू फिर से हमारे जीवन में रंग घोलने लगा है। हर्बल रंगों और गुलाल ने रासायनिक रंगों को परे धकेल दिया है। प्राकृतिक रंग ज्यादा भाने लगे हैं। प्रकृति के रंग हमेशा से ज्यादा सुरक्षित और प्रीतिकर रहे हैं।

होली समरसता का संदेश देती है। स्वरूप और रंग अलग हों, लेकिन ब्रज से लेकर अवध और मिथिला तक संदेश एक ही है। होली पर गीत गाने का चलन फसल की आवक से उत्पन्न इत्मीनान का प्रतीक है। यह अग्नि की पूजा का पर्व भी है, यानी उस शक्ति की पूजा, जो सर्वशक्तिमान है और हमें कष्टों से मुक्ति दे सकती है। ठीक उसी तरह, जैसे होलिका की गोद में बैठे प्रह्लाद को मुक्ति मिली थी। यह नव संवत् का प्रस्थान बिंदु भी है। तो क्यों न इस होली को बदले जीवन संदर्भों में नए तरीके से मनाने का संकल्प लें? मेल-मिलाप और समरसता के इस त्योहार को मेल-मिलाप और समरसता का प्रतीक बना दें। हम तेजी से ग्लोबल होते गए हैं। हमारा आकाश जितना विशाल हुआ, संवाद भी उतना ही बढ़ा है। इंटरनेट ने दूरी इतनी कम कर दी कि एक इशारे पर दुनिया हमारी स्क्रीन पर होती है। संचार की इस सहज सुलभता ने कुछ विकृतियां भी दी हैं। जाहिर है, सोशल मीडिया ने हमें जितना करीब किया है, कटुता बोकर उतना ही दूर भी किया है। यह उस विकृति से मुक्ति पाने का समय भी है।

होली उन्मुक्त एहसास का पर्व भी है। यह भिन्न संस्कृतियों-समाजों का ‘संधि पर्व’ भी है, जो किसी भी भाषा-भाषी को करीब लाकर अपने रंग में रंग लेता है। यूपी के कुछ इलाकों में अगर होली के रंग के समय से तालमेल बिठाते हुए मुस्लिम बंधुओं ने नमाज के समय में तब्दीली की है, तो यह उसी रंग में रंगने का एहसास है। यह पहली बार हुआ हो, ऐसा भी नहीं। हमारे समाज में होली-दिवाली-ईद मिलकर मनाने की परंपरा रही है। होली बस उसी समरसता की याद दिलाने आई है, जो हम प्राय: भूल जाया करते हैं। होली तो बस अपनी पुरानी भूमिका में एक बार फिर आई है। हमें अपनी भूमिका का आकलन कर, नई भूमिका में आने की जरूरत है। जमीनी से लेकर आभासी कड़वाहट के इस दौर में यह हमें हमारी उसी व्यापक और नई भूमिका की याद दिला रही है। यह होली के अर्थों की नई व्याख्या का वक्त है।


अमर उजाला

अर्थव्यवस्था की रफ्तार

दिसंबर में खत्म हुई तिमाही से संबंधित आंकड़े बता रहे हैं कि अर्थव्यवस्था नोटबंदी और जीएसटी के प्रतिकूल प्रभावों से उबर कर फिर रफ्तार पकड़ रही है। इस तिमाही में आर्थिक विकास दर 7.2 फ़ीसदी दर्ज की गई है, जोकि पिछले पांच तिमाहियों में सर्वाधिक तो है ही, इसके साथ ही भारत एक बार फिर से चीन को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे तेज गति वाली अर्थव्यवस्था बन गया है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन ने अपने अनुमान में संशोधन किया है, जिससे विकास दर 6.6 फीसदी रह सकती है। ये आंकड़े उत्साहजनक हैं, खासतौर से इसलिए, क्योंकि पिछले महीने जब अमेरिका में ब्याज दर बढ़ने के चलते निवेशकों ने हाथ खींचे थे, तब दुनिया भर के बाजारों में अभूतपूर्व गिरावट दर्ज की गई थी और भारत भी इससे अछूता नहीं था। न केवल मुंबई शेयर बाजार का सूचकांक 1,200 अंक तक गिर गया था, बल्कि अनुमान था कि इसकी वजह से अर्थव्यवस्था को भी तगड़ा झटका लग सकता है। दुनिया की सबसे तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था होना, सिर्फ मनोवैज्ञानिक असर ही नहीं पैदा करता है, बल्कि इससे अर्थव्यवस्था पर निवेशकों का भरोसा भी बढ़ता है। हाल के महीनों में कृषि और विनिर्माण जैसे क्षेत्रों की सुस्त रफ्तार को लेकर काफी सवाल उठाए गए हैं और अंदेशा जताया गया है कि इन पर जल्द ध्यान नहीं दिया गया, तो स्थिति को संभालना मुश्किल हो सकता है। आंकड़े बता रहे हैं कि स्थिति सुधर रही है। कृषि क्षेत्र में तीसरी तिमाही में 4.1 फ़ीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है, जबकि उससे पहले वाली तिमाही में यह सिर्फ 2.7 फीसदी थी। इसी तरह से विनिर्माण क्षेत्र में पिछली तिमाही की 6.9 फीसदी की तुलना में तीसरी तिमाही में 8.1 फ़ीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। यही हाल अर्थव्यवस्था में 60 फीसदी की हिस्सेदारी करने वाले सेवा क्षेत्र का है, जहां 7.1 की तुलना में 7.7 फीसदी की वृद्धि देखी गई। अच्छी बात यह है कि आधारभूत संरचना के आठों कोर क्षेत्रों में 6.7 फ़ीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। इसका असर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में नजर आ सकता है। राजनीतिक रूप से देखें, तो सरकार के लिए यह अच्छी स्थिति है। इसके बावजूद उसे सुनिश्चित करना होगा कि विकास की यह रफ्तार रोजगारविहीन न हो, क्योंकि जमीनी स्तर पर इस मोर्चे पर बहुत आश्वस्त करने वाली स्थिति नजर नहीं आती।


राजस्थान पत्रिका

नफरत की आग

गुजरात में साबरकांठा जिले में एक दलित युवक की मूछें जबरन साफ कराने का मामला बेहद चिंताजनक है। चिंताजनक इसलिए क्योंकि आज के सभ्य और शिक्षित होते जा रहे समाज में इस तरह की घटनाएं सामाजिक तनाव को बढ़ा रही हैं। बात अकेले गुजरात की नहीं, पूरे देश में दलित और पिछड़ी जातियों के लोगों के साथ इस तरह के उत्पीड़न की वारदातें राजनीतिक रूप लेती जा रही हैं। आश्चर्य की बात ये कि तमाम राजनीतिक दल भी ऐसी घटनाओं को सिर्फ राजनीतिक चश्मे से ही देखने लगे हैं। उत्पीड़न की ऐसी घटनाएं पहले भी होती थीं लेकिन उसे आपराधिक नजरिए से ही देखा जाता था। समाज में जैसे-जैसे मीडिया की भूमिका बढ़ती जा रही है वैसे वैसे ऐसी वारदातों का देखने का नजरिया भी बदलता जा रहा है। एक दशक पहले तक दलित उत्पीड़न की घटनाएं उत्तर प्रदेश और बिहार में ही देखने-सुनने को मिलती थीं। लेकिन धीरे-धीरे सभी राज्यों में इसकी गूंज सुनाई देने लगी है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के 2016 के आंकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं। दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचार के 40 फीसदी मामले अकेले उत्तर प्रदेश और बिहार में दर्ज होते हैं। पहले ये घटनाएं अधिकांशतः ग्रामीण इलाकों में होती थी लेकिन अब शहरी इलाके भी इनकी चपेट में आने लगे हैं। गुजरात के साबरकांठा में एक दलित युवक की मूंछे साफ कराने का मामला सामाजिक भेदभाव की परिणति ही माना जाएगा। एक समुदाय के आठ लोगों ने पिटाई के बाद दलित युवक की मूंछे साफ कर दी। इन युवकों की शिकायत थी कि दलित युवक रौबीली मूछें कैसे रख सकता है? रौबीली मूंछे रखने का अधिकार ऊंची जाति के लोगों को किसने दिया? आश्चर्य तब होता है जब इस तरह की घटनाओं में शिक्षित समाज की भागीदारी नजर आती है। देश इक्कीसवीं सदी में चल रहा है। दुनिया तेजी से बदल रही है। ऐसे दौर में इन घटनाओं को स्थान क्यों दिया जाए? सरकारों को चाहए कि इस तरह की वारदातों में शामिल लोगों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई करे। ताकि समाज में तनाव पैदा ना हो। दलित उत्पीड़न के विरोध में पिछले दिनों गुजरात में हुई हिंसक वारदातों को चेतावनी के रूप में लेना चाहिए। समय है जब हम संभल सकते हैं। नफरत की आग बड़ा नुकसान भी करा सकती है।


दैनिक जागरण

घोटालेबाजों पर शिकंजा

घोटाले कर विदेश भागने वालों के खिलाफ केंद्रीय कैबिनेट ने एक ओर जहां एक ऐसे विधेयक के मसौदे को मंजूरी दी जो भगोड़ों की संपत्ति जब्त करने में सहायक बनेगा वहीं फाइनेंशियल रिपोटिर्ंग अथॉरिटी के गठन का भी रास्ता साफ किया। यह निकाय चार्टर्ड अकाउंटेंट के साथ-साथ ऑडिट कंपनियों के कामकाज पर भी निगरानी रखेगा। ऑडिट कंपनियों के निराशाजनक रवैये के बाद ऐसे किसी निकाय की आवश्यकता और बढ़ गई थी। ऑडिट कंपनियां चाहे जो सफाई दें, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि वित्तीय धांधली रोकने के मामले में उनकी भूमिका बहुत ही दयनीय रही है। बेहतर हो कि वे शिकवा-शिकायत करने के बजाय अपनी कमजोरियों पर गौर करें। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार की ओर से उठाए गए ताजा कदम घोटालेबाजों के मंसूबों पर पानी फेरने का काम करेंगे। अच्छा होता कि ये कदम पहले ही उठा लिए जाते, क्योंकि घोटालेबाजों के विदेश भागने का सिलसिला एक अर्से से कायम है। बेहतर हो कि केंद्र सरकार के नीति-नियंता यह देखें कि घोटालेबाजों और साथ ही उनकी मदद करने वालों के खिलाफ और क्या कदम उठाने की जरूरत है, क्योंकि अभी तो ऐसा लगता है कि नियामक एवं निगरानी तंत्र डाल-डाल है तो भ्रष्ट तत्व पात-पात। नि:संदेह यह भी देखने की जरूरत है कि आर्थिक अपराधी अदालती प्रक्रिया का बेजा इस्तेमाल करने में समर्थ न रहें। अदालतों के लिए यह आवश्यक है कि वे आर्थिक अपराधियों पर शिकंजा कसने में सख्ती बरतें। पता नहीं इस पर पहल किस स्तर पर होगी, लेकिन यह अजीब है कि जब न्यायपालिका यह चाह रही है कि लोकपाल का गठन जल्द हो तब कांग्रेस ने उसमें अड़ंगा लगाने का काम किया।लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने लोकपाल की नियुक्ति के लिए चयन समिति की बैठक में जाने के बजाय जिस तरह प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर अपना असंतोष प्रकट करने में दिलचस्पी दिखाई उससे यही लगता है कि उनका उद्देश्य इस मसले पर सियासत करने का अधिक था। उन्होंने बैठक में शामिल हुए बिना ही यह निष्कर्ष निकाल लिया कि सरकार विपक्ष की आवाज खारिज करने की साझा कोशिश कर रही है। क्या वह यह कहना चाह रहे हैं कि इस कोशिश में लोकसभा अध्यक्ष के साथ सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैं? पता नहीं वह क्या इंगित करना चाहते हैं, लेकिन यह ठीक नहीं कि जब लोकपाल के गठन में पहले ही देरी हो रही है तो उन्होंने और देर करने वाला बहाना पेश करना ठीक समझा। क्या यह अच्छा नहीं होता कि वह उक्त बैठक में शामिल होते और अपनी सहमति या असहमति बाद में व्यक्त करते? आखिर वह बैठक में गए बिना इस नतीजे पर कैसे पहुंच गए कि लोकपाल चयन प्रक्रिया से विपक्ष को अलग करने की कोशिश हो रही है? ऐसा लगता है कि कांग्रेस लोकसभा में अपने नेता को नेता विपक्ष का दर्जा न मिलने से परेशान है, लेकिन क्या यह परिपाटी उसने ही नहीं बनाई कि संख्याबल के अभाव में सबसे बड़े विपक्षी दल को नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं मिलेगा? अगर कांग्रेस लोकपाल गठन को लेकर गंभीर है तो उसे असहयोग करने वाले रवैये को छोड़ना चाहिए।


देशबन्धु

होली खेलें पढ़ के बिस्मिल्लाह
अच्छा लगा यह देखकर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस्लामिक हेरिटेज के मुद्दे पर बोलते हुए भारत की विविधता वाली विरासत को याद किया। दरअसल जब से नरेन्द्र मोदी केंद्र की सत्ता में आए हैं और भाजपा के शासन का दायरा बढ़ा है, तब से धार्मिक भेदभाव की खाई और गहरी नजर आने लगी है। सत्ताधीश भले सबको साथ लेकर चलने की बात कहें, लेकिन उनके नुमाइंदे तो सबको बांटने की नीति पर ही चलते रहे। होली के त्योहार के इस मौके पर पुरानी कड़वी बातों को याद करना सही नहीं लगता, लेकिन जो हकीकत है, उससे कैसे मुंह फेर लें। अखलाक, पहलू खां, कैराना, सहारनपुर, भीमा-कोरेगांव, कासगंज, ताजमहल बनाम तेजोमहल, हिंदू हम दो हमारे दो पर नहींचलें, अधिक बच्चे पैदा करें, भारत में सभी हिंदू हैं, जैसी बातें, गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की सिफारिश या लालकिले में राष्ट्र रक्षा यज्ञ की तैयारी, ये सब भाजपा शासन के इन्हीं चार सालों में तो घटी घटनाएं हैं। ऐसी और ढेरों बातों, बयानों, घटनाओं से समाज में समरसता का तानाबाना बिखरा है।

मोदीजी ने अपने भाषणों में तो एकता की बातें कई बार कहीं, लेकिन अपने नेताओं, मंत्रियों, कार्यकर्ताओं की जुबान पर लगाम लगाने की कोशिश उन्होंने नहीं की। शायद यही वजह है कि भारत में अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना बढ़ी और ओबामा जैसे नेताओं को नसीहत देने का मौका लगा। अब जार्डन के शाह की भारत यात्रा पर मोदीजी ने अमन और मोहब्बत के पैगाम की बातें कहीं, जो भले ही राजनैतिक और आर्थिक कारणों से कही गईं हों, लेकिन इससे उनका महत्व कम नहीं होता है। नरेन्द्र मोदी ने कहा कि दुनिया भर के मजहब और मत भारत की मिट्टी में ही पनपे हैं। विरासत की विविधता पर, और विविधता की विरासत पर हर भारतीय को गर्व है। चाहे वह कोई ज़ुबान बोलता हो। चाहे वह मंदिर में दिया जलाता हो या मस्जिद में सजदा करता हो, चाहे वह चर्च में प्रार्थना करे या गुरुद्वारे में शबद गाये। उन्होंने यह भी कहा कि भारत में लोकतंत्र केवल एक राजनैतिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि समानता, विविधता और सामंजस्य का मूल आधार है।

दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित इस कार्यक्रम में मोदीजी ने और भी कई अच्छी-अच्छी बातें कहीं, जिन्हें सुनकर लगेगा कि भारत में सांप्रदायिक तनाव नाम की समस्या का कोई वजूद ही नहीं है। लेकिन हकीकत क्या है, वह देश जानता है। धर्म के तवे पर राजनीति की रोटियां सेंककर नेताओं ने अपना पेट खूब भरा, और जनता को फाकाकशी के लिए मजबूर किया। अब जबकि प्रधानमंत्री ने विदेशी मेहमान के सामने एकता का राग बुलंद आवाज में गाया है, तो इसके साथ उनकी जिम्मेदारी भी बनती है कि वे देश को बिखरने से बचाएं। मोदीजी ने जिस मजहबी एकता की बात कही है, वह एक दिन में कायम नहीं हुई है।

सदियों तक भारत के शासकों ने इस पौधे को सींचा और बड़ा किया है। होली का त्योहार ही इसकी मिसाल है, जो भले हिंदुओं का माना जाता हो, लेकिन मुगल शासकों ने भी होली के रंगों से हिंदुस्तान की विविधता को निखारा था। अकबर, जहांगीर, शाहजहां इन सबके शासन में होली धूमधाम से पूरा समाज मनाता था। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहाँ के समय में होली को ईद-ए-गुलाबी  या आब-ए-पाशी  (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफऱ के वक्त होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे और महल में शायरी होती थी। सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो, बहादुर शाह जफऱ, शाह आलम, रसखान, नजीर अकबराबादी जैसे कवियों, शायरों ने होली पर सुंदर रचनाएं लिखीं और इनमें से कोई हिंदू नहीं था। नईम अख्तर को याद करें, जिन्होंने कहा
‘मुझे भी तीर चलाना है समय आने पर, मेरे मालिक मुझे अर्जुन का निशाना दे दे,

ईद हिंदू मिलें और खेलें मुसलमां होली, हिंदू मुस्लिम में वही प्यार पुराना दे दे…’ या फिर भद्रा, अहमदाबाद में ख्वाजा अब्दुल समद रहमतुल्लाह की मजार पर लिखीं इन पंक्तियों पर गौर फरमाएं

ला-इलाहा की भरके पिचकारी
ख्वाजा पीया ने मुंह पै मारी
श्याम की मैं तो गई बल-बलहारी
कैसा है मेरा पीया सुभान अल्लाह
होली खेलें पढ़ के बिस्मिल्लाह
ला-इलाहा-इल्लिल्लाह।