आज के हिंदी अख़बारों के संपादकीय: 28 फ़रवरी, 2018

मीडिया विजिल मीडिया विजिल
काॅलम Published On :


नवभारत टाइम्स 

सुविधा की पोशाक

भारतीय ओलिंपिक संघ (आईओए) ने महिला एथलीटों की परेड पोशाक में बदलाव करने का फैसला किया है। अब से वे किसी भी अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट के उद्घाटन समारोह में साड़ी नहीं पहनेंगी। साड़ी और ब्लेजर के बजाय वहां वे ब्लेजर और ट्राउजर्स में नजर आएंगी। आईओए ने यह कदम कई खिलाड़ियों से विचार-विमर्श के बाद उठाया है और कुछेक को छोड़कर ज्यादातर खिलाड़ियों ने इसका स्वागत किया है। निश्चय ही यह समय के अनुरूप और व्यावहारिक फैसला है। महिला खिलाड़ी अपने-अपने खेलों के लिए अलग-अलग पोशाक पहनती हैं, जो उस खेल के हिसाब से निर्धारित की गई होती है। लेकिन उद्घाटन समारोह जैसे औपचारिक मौके पर उन्हें साड़ी जैसा परिधान पहनना होता है, जिसकी वे आम तौर पर अभ्यस्त नहीं होतीं। गौर करने की बात है कि उन्हें साड़ी पहनकर खड़े नहीं रहना होता, बल्कि काफी दूर चलना भी पड़ता है, जिसमें उन्हें परेशानी होती है। ऐसे मौकों पर वे प्राय: असहज हो जाती हैं। लंबी कूद में देश का नाम रोशन करने वाली अंजू बॉबी जार्ज ने इस संबंध में अपना अनुभव व्यक्त किया है। 2004 ओलंपिक में वह भारतीय दल की कप्तान थीं। उनका कहना है कि साड़ी पहने हुए तिरंगा लेकर चलना उनके लिए काफी मुश्किल साबित हुआ। उन्होंने कहा कि ‘हर कदम पर मुझे लग रहा था कि मैं गिर जाऊंगी। इस तनाव के कारण मैं हाथ हिलाना भी भूल गई।’ यह सही है कि साड़ी भारतीय महिलाओं की परंपरागत पोशाक रही है। एक तरह से यह भारतीय स्त्री की पहचान है, और किसी अंतरराष्ट्रीय आयोजन में हम अपनी पहचान या प्रतीक के साथ ही उपस्थित होते हैं। लेकिन खुद यह देखना और दुनिया को दिखाना भी जरूरी है कि हमारे सामाजिक जीवन में कितना बदलाव आया है। साड़ी उस दौर का परिधान है, जब ज्यादातर औरतें घर के भीतर रहती थीं या ऐसे काम करती थीं, जिसमें साड़ी पहनकर आना सुविधाजनक होता था। मगर समय के साथ वे घर से बाहर निकलीं और वे तमाम काम करने लग गईं जिनमें पहले पुरुषों का एकाधिकार माना जाता था। अपने कामकाज और नई जीवन प्रणाली के मुताबिक भारतीय महिलाओं ने अब आधुनिक पोशाकों के साथ भी लय बिठा ली है। अब वे जरूरत और सहूलियत के हिसाब से कई तरह के कपड़े पहनती हैं। ऐेसे में हमें ड्रेस कोड को लेकर भी लचीला रुख अपनाना चाहिए और सिर्फ ड्रेस में ही नहीं, अन्य स्तरों पर भी जो प्रतीक रूढ़ हो गए हैं, उनसे छुटकारा पा लेना चाहिए। सरकारी विज्ञापनों में आज भी हिंदू को टीके और चुटिया से, मुस्लिम को दाढ़ी और नमाजी टोपी से, जबकि ईसाई को हैट से दर्शाया जाता है, जबकि सामाजिक जीवन में ऐसे प्रतीकों का कोई वजन नहीं रह गया है। याद रहे, सभ्यता वही आगे बढ़ती है, जो अपने प्रतीक बदलने के लिए हमेशा तैयार रहती है।


जनसत्ता 

घुसपैठ का सिलसिला

भारतीय सेना के शीर्ष कमांडर ने पुष्ट किया है कि पाकिस्तान फिर से बड़ी संख्या में कश्मीर में आतंकियों की घुसपैठ कराने की तैयारी में है। पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजंसी आइएसआइ की मदद से आए दिन सीमा पार से आतंकी भारत में घुसपैठ का प्रयास करते और नागरिक ठिकानों को निशाना बनाते हैं। हालांकि सुरक्षा बलों और सेना ने कई बार घुसपैठ को नाकाम किया है, फिर भी मौके का फायदा उठा कर घुसपैठिए कामयाब हो जाते हैं। पठानकोट, उड़ी और सुंजवान जैसे सैनिक ठिकानों और श्रीनगर के एक अस्पताल पर हमला कर आतंकियों को छुड़ाने, थानों सहित कई रिहाइशी इलाकों में हमले जैसी घटनाओं को पाकिस्तान से आए दहशतगर्दों ने ही अंजाम दिया था। भारतीय सेना को खुफिया जानकारी मिली है कि सीमा पार से बड़ी तादाद में आतंकी भारत में घुसने की तैयारी में हैं। हाल में संघर्ष विराम के उल्लंघन की तेजी से बढ़ती घटनाएं भी इस बात का प्रमाण हैं कि सीमा पार से आतंकियों को घुसाने की पूरी कोशिश हो रही है।

कश्मीर में जब बर्फबारी का मौसम होता है तो घुसपैठ की घटनाएं कम हो जाती हैं। पर जैसे ही बर्फ पिघलनी शुरू होती है, घुसपैठिए सक्रिय हो जाते हैं। हर साल यह होता है। मगर अभी सेना और सुरक्षा बलों की चिंता इसलिए बढ़ गई है कि इस बार बर्फ कम पड़ी है और घुसपैठ जल्दी शुरू हो जाएगी। नियंत्रण रेखा के पार लेपा घाटी से मंडाल इलाके तक में बड़ी संख्या में आतंकी ठिकाने हैं, जहां तीस से चालीस के समूहों में आतंकी घुसपैठ के लिए जमा हैं। इसलिए इन्हें रोकना सेना और सुरक्षा बलों के लिए गंभीर चुनौती है। पर अच्छी बात है कि सेना और सुरक्षा बलों को खतरे की सूचना पहले मिल गई और इस तरह उन्हें घुसपैठियों पर नजर रखने में आसानी होगी। लेकिन सेना के इस तरह चिंता प्रकट करने से एक बार यह सवाल जरूर उठा है कि क्या वह अभी घुसपैठियों को रोकने के पुख्ता इंतजाम नहीं कर पाई है। बीते डेढ़ साल में तीन सैन्य ठिकानों पर हुए बड़े आतंकी हमलों के बाद सीमा पर चौकसी बढ़ाने और अत्याधुनिक उपकरणों के उपयोग पर बल दिया गया। बजट में सुरक्षा खर्च भी बढ़ा दिया गया। इसके बावजूद अगर सेना के सामने चुनौतियां पेश आ रही हैं या सीमा पार से आतंकी उसे चकमा देकर घाटी के नागरिक और सैन्य ठिकानों में घुसपैठ में कामयाब हो पा रहे हैं तो इस दिशा में निस्संदेह गंभीरता से ध्यान दिया जाना चाहिए।

पाकिस्तान की तरफ से होने वाले संघर्ष विराम के उल्लंघन और घुसपैठ की वजहें और तरीके जाहिर हैं। भले पाकिस्तान इस बात को झुठलाने की कोशिश करता रहा हो कि उसके यहां आतंकी प्रशिक्षण शिविर नहीं चलते, पर उनके बारे में अनगिनत सबूत उपलब्ध हैं। वह सार्क घोषणापत्र में इस बात के लिए वचनबद्ध है कि अपनी सरजमीं का इस्तेमाल किसी भी तरह की आतंकी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा। मगर उसने शुरू से लेकर अब तक कभी इसका पालन नहीं किया। फिर जब से उड़ी हमले के बाद भारत ने उसे पड़ोसी देशों और विश्व समुदाय से अलग-थलग करने की कोशिश शुरू की है, उसकी बौखलाहट बढ़ गई है। इसलिए भी वह लगातार संघर्ष विराम का उल्लंघन और आतंकी घुसपैठ कराने का प्रयास करता है। ऐसे में सैन्य चौकसी के जरिए ही इस पर काबू पाया जा सकता है।


हिन्दुस्तान 

कामयाबी की कीमत

फैसला अभी नहीं आया है। हमें नहीं पता कि श्रीदेवी के निधन के पीछे की वजहें क्या थीं। हो सकता है कि शायद कभी पता भी न चले। ऐसे मौकों पर जांच एजेंसियां जांच के बाद किसी नतीजे पर पहुंच भी जाती हैं, तो लोग उस पर विश्वास नहीं करते। अटकलों का अंतहीन सिलसिला शुरू होता है, तो चलता ही जाता है। कामयाब लोगों के जीवन का आखिरी अध्याय कुछ ऐसा ही होता है। यह तब और भी ज्यादा होता है, जब कामयाबी की बुलंदी पर पहुंचा शख्स कोई महिला हो। कामयाब पुरुषों और कामयाब महिलाओं में यही फर्क होता है। कामयाब पुरुषों के मामले में हम सिर्फ उनकी बुलंदी को देखते हैं। लोगों को उनकी कहानी से प्रेरणा लेने को कहा जाता है। उनकी कामयाबी के सूत्र पढ़ाए और सिखाए जाते हैं। लेकिन जब कोई महिला कामयाब होती है, तो हम उसके निजी जीवन में झांकने की कोशिश करते हैं। उसकी सफलता और असफलता की कहानियों की बहुत सारी व्याख्याएं हम इन्हीं में ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं। अगर असमय निधन हुआ, तो षड्यंत्र के बहुत सारे किस्से रातोंरात बन जाते हैं। फिर ये किस्से उसकी जिदंगी के सच से बडे़ दिखने लगते हैं।

इसका सबसे अच्छा उदाहरण मर्लिन मुनरो हैं। दुनिया भर में जब भी सीधी सहज खूबसूरती का जिक्र आता है, सबसे पहले मर्लिन मुनरो का नाम ही आता है। कहा जाता है कि उनकी मौत जरूरत से ज्यादा नींद की गोलियां लेने के कारण हुई थी। लेकिन आज भी जब उनकी कामयाबी, उनकी मौत का जिक्र आता है, तो लोग अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी से उनके रिश्तों की बात जरूर करते हैं। मर्लिन मुनरो की मौत के रहस्य से परदा उठाने के लिए अब तक जाने कितनी कहानियां और किताबें लिखी जा चुकी हैं। यह एक ऐसा विवाद बन गया है, जो मर्लिन की मौत के 56 साल बाद भी अभी खत्म नहीं हुआ। इस फेहरिस्त में अकेली मर्लिन ही नहीं हैं। इसमें गायिका व्हिटनी ह्यूस्टन भी हैं, जिनका निधन भी कुछ उन्हीं परिस्थितियों में हुआ था, जिनमें श्रीदेवी का हुआ है। उनका पार्थिव शरीर भी होटल के बाथ टब में ही मिला था। यही जूडी गारलैंड के बारे में भी कहा जा सकता है। ऐसी ही कहानियां अभिनेत्री नटाले वुड के निधन के साथ भी जोड़ी गई थीं। ज्यां हर्लो का निधन इन्फेक्शन के कारण हुआ था, लेकिन उनके साथ भी ऐसी ही कहानियां जुड़ गईं। अपने देश में यही दिव्या भारती के साथ हुआ और न जाने कितने किस्से उन परवीन बॉबी से भी जोड़े गए, जो अपने अंतिम समय तक फिल्मी दुनिया के लिए इतिहास भर बनकर रह गई थीं।

ऐसे ज्यादातर किस्सों में एक जिक्र अक्सर होता है, वह है नशा का। श्रीदेवी की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी उनके शरीर में अल्कोहल की मौजूदगी की बात कही गई है। एक और जिक्र तकरीबन हमेशा ही होता है, वह है जिंदगी का बढ़ता तनाव और अकेलापन। हालांकि बढ़ते तनाव और उसके दबाव के कारण नशे की आदत को आज की दुनिया में सफलता का साइड इफेक्ट माना जाता है। कामयाब पुरुषों में इसे नजरअंदाज कर दिया जाता है, पर सफल महिलाओं में इससे फसाना बन जाता है। यह भी सच है कि जो शिखर पर पहुंचता है, वह वहां अकेला हो जाता है, पुरुष हो महिला। महिलाओं में यह शायद ज्यादा मुश्किलें खड़ी करता है, क्योंकि हम उनसे जिम्मेदार जीवनसाथी और बच्चों का कायदे से पालन-पोषण करने वाली मां बने रहने की उम्मीद भी करते हैं।


अमर उजाला

इस तरह विदा होना

महज 54 वर्ष वर्ष की उम्र में भारतीय सिनेमा की दिलकश अभिनेत्री श्रीदेवी की मौत ने दुनिया भर के उनके करोड़ों प्रशंसकों को स्तब्ध कर दिया है। आधिकारिक रूप से स्पष्ट कर दिया गया है कि उनकी मौत एक हादसा थी, मगर इससे पहले मीडिया ने जिस तरह की संवेदनहीनता दिखाई वह कम त्रासद नहीं थी। निष्कर्ष पर पहुंचने की हड़बड़ी में मीडिया ने निजता और मर्यादा की सारी हदें ही लांग दीं! श्रीदेवी इससे बेहतर की हकदार थीं, जिनके अल्पजीवन के पांच दशक सिनेमा को ही समर्पित थे। महज चार वर्ष की उम्र में तमिल सिनेमा से फिल्मों में कदम रखने वाली श्रीदेवी के लिए मानो सिनेमा ही सब कुछ था। भारतीय सिनेमा भी दुनिया के दूसरे सिनेमा की तरह इस मायने में एक जैसा है, जहां स्त्रियों के लिए जगहें कुछ तंग हैं। भारतीय सिनेमा में तो वैसे भी उठा रूपहले पर्दे में अभिनेत्रियों को उनके समकक्ष नायकों के बरक्स दोयम दर्जा हासिल है। ऐसे में श्रीदेवी उन विरल अभिनेत्रियों में से रही हैं, जिन्होंने अपनी प्रतिभा और काम के दम पर एक खास मुकाम बनाया। तमिल सिनेमा से उनकी शुरुआत हुई थी, लेकिन उन्होंने भाषा और क्षेत्र की सरहदों को लांघते हुए तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ फिल्मों में काम करने के बाद हिंदी सिनेमा में भी शिखर को छू लिया। रूप की रानी का यह सफर परी कथा जैसा नहीं था और उनके हिस्से में सिर्फ चांदनी ही नहीं थी। बचपन से फिल्मों में काम करने की वजह से बचपन ही उनसे छिन गया। यही वजह है कि महज 13 वर्ष की उम्र में वह तमिल फिल्म मंदरू मुरिचू में अभिनेत्री बनकर आ चुकी थीं। किशोरावस्था में ही वह अपने से उम्र में डेढ़-दो दशक बड़े रजनीकांत और कमल हसन जैसे स्थापित नायकों के साथ काम करने लगी थीं। यही स्थिति हिंदी फिल्मों में भी उनके साथ रही, जहां उन्होंने 1980 और 1990 के दशक के सारे बड़े सितारों की नायिकाओं के रूप में काम किया। उनकी फिल्में विविधताओं से भरी हुई हैं, जिसका एक छोर यदि सदमा जैसी गंभीर फिल्म है, तो दूसरा चालबाज और मिस्टर इंडिया जैसी खांटी मसाला फिल्में। इस प्रतिभाशाली अभिनेत्री की आकस्मिक विदाई के बाद जिस तरह मीडिया उनके साथ आया, उसे किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता। अब वह इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी फिल्में उनके प्रशंसकों और दर्शकों के दिलों में खास जगह बनाए रखेंगी।


दैनिक भास्कर

आईएस के नाम पर सनसनी फैलाने को सख्ती से कुचलें

विडंबना है कि जब सीरिया और इराक में इस्लामी स्टेट की हार हो रही है तब भारत के दो राज्यों से उसकी छिटपुट मौजूदगी के समाचार मिले हैं। इसमें पहला तो उग्रवाद से लंबे समय से पीड़ित कश्मीर है और दूसरा गुजरात। अभी तक इस बात की कोई पुख्ता जांच नहीं हो सकी है कि इस्लामी स्टेट की वारदात का दावा करने वाली एजेंसी या व्यक्ति सही ही बोल रहे हैं लेकिन उसकी अनदेखी भी अच्छी नहीं होगी। आईएस की समाचार एजेंसी ‘अल अमाक’ ने दावा किया है कि श्रीनगर के शूरा इलाके में हुर्रियत नेता फजल हक कुरैशी के घर के बाहर तैनात गार्ड की हत्या आईएस ने की थी। अल अमाक ने ऐसा दावा पिछले साल नवंबर में भी किया था, जब श्रीनगर के बाहरी इलाके जकूरा में हमला किया गया था। दूसरा समाचार गुजरात की एक महिला की ओर से एनआईए से की गई।

शिकायत से पैदा हुआ है। महिला ने अपने पति पर आरोप लगाया है कि उसने शादी के बाद उसको जबरन इस्लाम कबूल करवाया और फिर उसे सऊदी अरब ले जाकर आईएस के हाथों बेचना चाहता था। इन दोनों दावों की खुफिया एजेंसियां पुष्टि करने में लगी हैं लेकिन उन्हें इन दावों में अलग-अलग पेंच नजर आते हैं। उधर, कश्मीर में सुरक्षा बलों की कार्रवाई के कारण लश्कर-ए-तय्यबा और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे आतंकी संगठन कमजोर पड़े हैं। उन्हें भर्ती के लिए नए युवक नहीं मिल रहे हैं। इस बीच सरकार ने सुरक्षा बलों को यह भी आदेश दिया है कि वे बड़े आतंकियों के जनाजे में उमड़ती भीड़ पर अंकुश लगाएं, क्योंकि वहां आने वाले युवाओं को आतंकी संगठन अपनी भरती के लिए फुसलाते हैं। इन सख्त स्थितियों में आतंकी गुटों की रणनीति नए और ज्यादा चर्चित नामों से काम करने की हो सकती है ताकि उनकी ओर युवा आकर्षित हों। कश्मीर में अल कायदा और इस्लामी स्टेट की शाखाएं कायम करने की खबरें पिछले एक साल से आ रही हैं और उनमें अल कायदा के लिए जाकिर मूसा तो इस्लामी स्टेट के लिए ईसा फैजली का नाम चल रहा है। इस तरह के समाचार सनसनी फैलाने का तरीका भी हो सकते हैं और इनमें कुछ सच्चाई भी हो सकती है। इनकी रोकथाम सुरक्षा बलों द्वारा सख्ती बरतने के साथ सरकारी विभागों की चौकसी से होगी।


राजस्थान पत्रिका

अनुकरणीय पहल

कभी-कभी बहुत छोटे राज्य भी बड़े संदेश दे जाते हैं। जैसा हाल ही नागालैण्ड ने दिया है। विधानसभा चुनाव प्रचार क दौरान एक ही मंच से अलग अलग राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने अपनी बात रखी।दर्शकों ने सबकी बात सुनी और मंगलवार को अपनी बात ईवीएम में दर्ज करा दी। चुनावी नतीजों में कोई भी दल जीते या हारे लेकिन इस अनूठी पहल से नागालैण्ड में लोकतंत्र की जीत जरुर हुई है। देश के दूसरे हिस्सों में होने वाले चुनाव की तस्वीर पूरा देश देखता है। एक मंच से सब प्रत्याशियों का बोलना किसी सपने से कम नहीं लगता। उत्तर प्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनाव में क्या-क्या नहीं हुआ? पप्पू से लेकर फेंकू तक के नारे गूंजे और चुनावी प्रचार में श्मशान से लेकर कब्रिस्तान भी अछूते नहीं रहे। नीच,पापी और बच्चा शब्दों तक का इस्तेमाल हुआ। चुनाव आयोग नसीहतें देता ही रह गया।लेकिन नेता अपने मन की करने से नहीं चूके। लगा मानो दो दुश्मन देशों के नेता एक दूसरे को ललकार रहे हों। ये बात उत्तर प्रदेश या गुजरात तक ही नहीं, पूरे देश में दिखाई पड़ती है। कहीं कम तो कहीं ज्यादा कटु प्रतिस्पर्धा के इस दौर में नागालैण्ड से जो बयार बही है, उसे समूचे देश तक पहुंचाने की आवश्यकता है। ये जिम्मेदारी किसी एनजीओ पर नहीं छोड़ी जा सकती। न ही इसका बोज चुनाव आयोग के कंधों पर डाला जा सकता है। ये जिम्मेदारी सभी दलों को मिलकर उठानी होगी। एक मंच पर आकर अपनी बाट रखने की आदत और दूसरों की बातों को सुनने की आदत भी। जो काम नागालैण्ड कर सकता है वह काम दूसरे राज्य क्यों नहीं कर सकते। ऐसा हुआ तो बेतहाशा बढ़ रहे चुनावी खर्च पर भी रोक लगेगी और। कटुता कम करने में भी मदद मिलेगी।जरूरत इस भाव को जगाने की है है कि राजनीति में अपना विरोधी,अपना दुश्मन नहीं है। लोकतंत्र की बगिया महकेगी तभी, जब उसमें अलग–अलग फूल अपनी खुशबू बिखेरेंगे। ऐसा करने में कामयाब हो गए उस दिन हम अपने आप को सच्चे अर्थों में सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश कहने के अधिकारी होंगे।


दैनिक जागरण

जवाबदेही तय करें

पंजाब नेशनल बैंक में घोटाले के बाद जिस तरह जानबूझकर कर्ज न लौटाने वाले सामने आए उसे देखते हुए वित्त मंत्रलय की सक्रियता स्वाभाविक है, लेकिन अच्छा होता कि उसने सरकारी बैंकों को जैसे निर्देश अब दिए वैसे पहले ही दे दिए होते। वित्तीय सेवा सचिव ने सभी सरकारी बैंकों के प्रबंध निदेशकों को कहा है कि वे 50 करोड़ से ज्यादा एनपीए वाले खातों की जांच करें और जरूरत पड़ने यानी धोखाधड़ी की आशंका पर सीबीआइ, प्रवर्तन निदेशालय और राजस्व खुफिया निदेशालय को सूचना दें। इस निर्देश से यही संकेत मिल रहा है कि सरकारी बैंक आम तौर पर इसकी छानबीन नहीं करते थे कि उनके कर्जे धोखाधड़ी के कारण एनपीए में तो तब्दील नहीं हो रहे हैं? इसकी पुष्टि इससे होती है कि कई बैंकों ने जानबूझकर कर्ज न लौटाने वालों के बारे में सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय को जानकारी तब दी जब घोटालेबाज नीरव मोदी के विदेश भागने की खबर आई। दरअसल यही कारण है कि कर्ज चुकाने में समर्थ होने के बाद भी उन्हें न लौटाने वालों के नित नए मामले सामने आ रहे हैं। इनमें कुछ मामले ऐसे भी हैं कि कर्ज लेने वालों के बारे में यही नहीं पता कि वे देश में हैं या विदेश में। इस सबसे यही रेखांकित हो रहा है कि बैंकों का प्रबंधन कुप्रबंधन का पर्याय बन चुका था और किसी को इसकी परवाह नहीं थी कि फंसे कर्जो की वसूली करनी है। नि:संदेह इस स्थिति के लिए रिजर्व बैंक की भी जवाबदेही बनती है, लेकिन उसके साथ वित्त मंत्रलय भी उत्तरदायी है। चूंकि बैंकों के बोर्ड में स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति सरकार करती है और बैंकों के चेयरमैन भी उसकी ओर से नियुक्त किए जाते हैं इसलिए वह सारा दोष रिजर्व बैंक पर मढ़कर कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकती। 1सरकारी बैंकों के कुप्रबंधन के लिए किसी न किसी स्तर पर लेखा परीक्षण की मौजूदा व्यवस्था भी जिम्मेदार है। नोटबंदी के बाद सरकार को इसका आभास अच्छी तरह से हो गया था कि लेखा परीक्षक अपना काम सही तरह नहीं कर रहे हैं। उसे तभी यह देखना चाहिए था कि बैंकों के लेखा परीक्षण के नाम पर कहीं खानापूरी और लीपापोती तो नहीं हो रही है? कम से कम अब तो इसे न केवल देखा जाना चाहिए, बल्कि लेखा परीक्षकों की संस्था आइसीएआइ के जरिये यह सुनिश्चित भी किया जाना चाहिए कि बैंकों का लेखा परीक्षण नीर-क्षीर ढंग से किया जाए। पंजाब नेशनल बैंक में घोटाले के बाद आइसीएआइ की ओर से यह कहा जाना एक हद तक ही सही है कि जांच पूरी न होने तक चार्टर्ड अकाउंटेट के पेशे के बारे में निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं होगा। यह अपेक्षा उचित नहीं, क्योंकि फंसे कर्ज की राशि करीब आठ लाख करोड़ रुपये पहुंच गई है और जानबूझकर कर्ज न लौटाने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। बेहतर होगा कि वित्त मंत्रलय केवल बैंकों को निर्देश जारी करने तक ही सीमित न रहे। उसे हर हाल में यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके निर्देशों का पालन भी हो। इसी के साथ उसे सभी जिम्मेदार व्यक्तियों और संस्थाओं की जवाबदेही भी तय करनी होगी।


प्रभात खबर

वक्त से मिले आवंटन

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भरोसा जताया है कि बैंकिंग सेक्टर बजट में कृषि ऋण के लिए प्रस्तावित 11 लाख करोड़ के लक्ष्य को पूरा करने में सक्षम है और इस देनदारी से 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने की कोशिशों को संबल मिलेगा. वर्ष 2018-19 के बजट का मुख्य उद्देश्य किसानों की आमदनी बढ़ाना और किसी क्षेत्र को संकट से उबारना है. कृषि मंत्रालय के आवंटन में 13 फीसदी की बढ़त की गयी है, जो कि अब 58 हजार करोड़ से अधिक है. साथ ही कृषि क्षेत्र को 11 लाख करोड़ के कर्ज देने का लक्ष्य है. सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों की कामयाबी के लिए यह जरूरी है कि सभी संबद्ध पक्ष उन्हें सही वक्त पर और समुचित तरीके से असली जामा पहनायें. किसानों की आमदनी बढ़ाये बिना अर्थव्यवस्था में स्थाई बढ़ोतरी को सुनिश्चित कर पाना मुश्किल है. उपज की कम कीमत मिलने और कर्ज न चुका पाने की बेबसी न सिर्फ किसानों को बेचैन कर रही है, बल्कि उन्हें मौत के कगार पर भी धकेल रही है. अगर उन्हें कर्ज मिलने में आसानी हो, तो उनकी परेशानियां कम होंगी. वित्त मंत्री ने ने सुझाव दिया है कि बैंकों को दीर्घकालिक परिसंपत्तियों में निवेश करना चाहिए, ताकि कृषि क्षेत्र में पूंजी निर्माण बेहतर हो सके. वित्तीय तकनीक के निवेश के फायदे ग्रामीण वित्तीय प्रणाली की बेहतरी के रूप में हमारे सामने हैं. यदि बैंक गांवों और उनकी आर्थिकी में सहभागिता करेंगे, तो यह उनके वित्तीय स्वास्थ्य को भी पुष्ट करेगा. मंत्रालय के आवंटन और कर्ज राशि में वृद्धि के अलावा बड़ी रकम ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए भी निर्धारित की गयी है. इसमें आवास और सिंचाई जैसी महत्वपूर्ण सुविधाओं पर ध्यान दिया गया है. इन पहलों को को यदि कारगर ढंग से जमीन पर उतार पायें, तो निश्चित ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बड़ी मदद मिलेगी. खेती में आमदनी घटने और गांवों की आर्थिक स्थिति खराब होने का एक नतीजा पलायन भी है, जिससे शहरों में रोजगार और आवास के हिसाब पर दबाव बढ़ता है, जो खुद ही इन समस्याओं से जूझ रहे हैं. खेती में निवेश के साथ नीतिगत हस्तक्षेप भी जरूरी है. आर्थिक समीक्षा में रेखांकित किया गया है कि बीते तीन दशक से खेती की पैदावार में वृद्धि रुकी पड़ी है. सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भरता के साथ जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान का असर भी चिंताजनक है श्रमिकों के शहरों की ओर रुख करने का सिलसिला भी खेतिहरों के लिए चुनौती बना हुआ है. इसके साथ उपज के वितरण और बिक्री की मुश्किलें भी हैं. इस परिदृश्य में बैंकों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे किसानों और खेती से जुड़े उद्यमों के लिए समुचित धन की व्यवस्था सुनिश्चित करें. इससे क्षेत्र के संकट से निपटने में सहयोग भी मिलेगा और अन्य मुश्किलों से निपटने से निपटने की तैयारी भी बेहतर होगी. उम्मीद है कि सरकार और बैंकों की ओर से आवंटनों और कर्जों को लोगों तक पहुंचाने में कोई कोर-कसर नहीं रखी जायेगी.


देशबन्धु 

न्यू इंडिया की त्रासदी 

बिहार में गरीब बच्चों की जान की कीमत बीते 5 सालों में दोगुनी हो गई है। याद करें जुलाई 2013 की वह त्रासदी, जिसमें जहरीला मध्याह्नï भोजन बच्चों को परोसा गया था और 23 बच्चे तड़प-तड़प कर मर गए थे। तब भी नीतीश कुमार मुख्यमंत्री थे और भाजपा विपक्ष में थी। नीतीश कुमार ने तब मृतक बच्चों के परिवारों को 2-2 लाख रुपए मुआवजे का ऐलान किया था। विपक्षी भाजपा ने तब विरोध, प्रदर्शन, बंद सारे राजनीतिक प्रहसन किए थे। पांच साल बाद बिहार के गरीब बच्चे एक बार फिर त्रासद मौत का शिकार हुए।

मुजफ्फरपुर के मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी एनएच 77 के दोनों ओर बसे धर्मपुर में शनिवार को स्कूल के बच्चे छुट्टी के बाद घर लौट रहे थे, तभी एक तेज रफ्तार कार ने उन्हें रौंद दिया, जिसमें 9 बच्चों की मौत हो गई। यह गाड़ी भाजपा नेता मनोज बैठा की बताई जा रही है, जो इन पंक्तियों के लिखे जाने तक फरार बताया जा रहा है। पहले तो भाजपा यह मान ही नहीं रही थी कि ऐसा कोई व्यक्ति पार्टी में है। लेकिन अब मनोज बैठा को पार्टी से निलंबित कर भाजपा ने खुद ही साबित कर दिया है कि आरोपी उसका सदस्य था। बहरहाल, नीतीश कुमार अब भी बिहार के मुख्यमंत्री हैं और भाजपा उनके साथ सत्ता में भागीदार है, तो वह इन बच्चों की मौत पर विरोध-प्रदर्शन नहीं कर रही है। इस बार यह जिम्मा तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद ने उठा लिया है। नीतीश कुमार ने इस बार मृतक बच्चों के परिजनों को 4-4 लाख के मुआवजे का ऐलान किया है। यानी पांच साल में सरकार की निगाह में बच्चों की जान की कीमत दोगुनी हो गई है।

सरकार ऐसे मुआवजे देकर शायद अपना अपराधबोध थोड़ा कम कर लेती हो, या शायद सत्ताधीशों में इतनी संवेदनशीलता भी नहीं बची कि ऐसी दुर्घटनाओं पर उन्हें दर्द होता हो, वे केवल जनता को दिखाने के लिए मुआवजे का ऐलान करते हैं। उन्हें यह नजर ही नहीं आता कि एक बच्चे की मौत से पूरे परिवार के सपने कैसे टूट जाते हैं।

हमारे प्रधानमंत्री बार-बार न्यू इंडिया का जाप करते हैं। क्या वे मासूमों के जनाजे पर न्यू इंडिया की इमारत खड़ी करना चाहते हैं? धर्मपुर में जो हादसा हुआ, वह महज सड़क दुर्घटना नहींंं है, यह एक गंभीर अपराध है। इस घटना की प्रत्यक्षदर्शी एक बच्ची ने बताया कि कैसे वे सब छुट्टी के बाद सड़क के दूसरी ओर बसे अपने घरों की ओर जा रहे थे, तभी अचानक जोर से आवाज आई, उसने पलट कर देखा तो उसके कई सहपाठी खून से लथपथ सड़क पर पड़े थे। इसी तरह एक और प्रत्यक्षदर्शी ने बताया कि गाड़ी की टक्कर ऐसी थी कि बच्चे सड़क पर बिखर गए, कुछ उछलकर पेड़ों से जा टकराए।

धर्मपुर के कई गरीब परिवारों के बच्चे स्कूल पढ़ने जाते थे, जबकि उनके मां-बाप चरवाहे, मजदूरी जैसे काम करते थे। अधिकतर मां-बाप अनपढ़ हैं, लेकिन बच्चों का भविष्य संवर जाए, इसलिए उन्हें स्कूल भेजते थे। राज मिस्त्री का काम करने वाले इंद्रदेव तो अपनी मृत बच्ची के अंतिम संस्कार में नहीं जा पाए, क्योंकि इसी दुर्घटना में उनका बेटा भी घायल हो गया और वे उसका इलाज कराने अस्पताल में थे। मौत का यह भयावह मंजर धर्मपुर के लोगों को केवल इसलिए देखना पड़ा, क्योंकि गाड़ी चलाने वाले में जरा भी इंसानियत नहीं थी। कहा जा रहा है कि चालक शराब के नशे में था। बिहार में शराबबंदी होने के बावजूद कोई शराब पीकर गाड़ी कैसे चलाने निकल गया, यह सोचने वाली बात है।

चालक की वास्तविक दशा क्या थी, यह सच तो अब शायद ही सामने आए, क्योंकि घटना के तुरंत बाद उसे पकड़ा नहीं जा सका। अगर वह शराब के नशे में नहीं था, तब भी सत्ता का नशा उस पर था, इस बात से इन्कार नहीं  किया जा सकता। जिस गाड़ी से बच्चों को कुचला गया, उस पर बीजेपी महादलित प्रकोष्ठ का बोर्ड लगा था। और हम जानते हैं कि पूरे हिंदुस्तान में सत्ता की सनक दिखाने के लिए राजनीतिकदलों के नेता, कार्यकर्ता अक्सर अपनी पार्टी, प्रभार या पदनाम का बोर्ड गाड़ियों पर लगाकर शान से घूमते हैं और कोईर् कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनावों से थोड़ी फुर्सत मिले, तो वह न्यू इंडिया की इस विडंबना पर भी कुछ फरमाएं।