आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 20 अप्रैल,2018

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नवभारत टाइम्स

कश्मीर की जबावदेहि

जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों की कार्रवाई के दौरान नागरिक मौतों में हुई भीषण बढ़ोतरी पूरे देश के लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि सन 2016 के मुकाबले सन 2017 में, यानी पिछले साल वहां सुरक्षा बलों की कार्रवाई में मरने वालों आम लोगों की संख्या सीधे 166.66 फीसदी बढ़ गई है। ये लोग आतंकवादी नहीं थे और इनकी सुरक्षा का पूरा जिम्मा भारत सरकार का था। गृह मंत्रालय ने यह भी बताया है कि सन 1990 से लेकर सन 2017 तक आतंकवाद या इससे मुकाबले के दौरान हुई घटनाओं में 13,976 आम नागरिकों सहित 5123 सुरक्षाकर्मियों की जान गई है। बीता साल नागरिक मौतों के लिहाज से बेहद खराब कहा जाएगा। इस साल जम्मू-कश्मीर में 342 हिंसक वारदातें हुईं, जिनमें 80 सुरक्षाकर्मी, 40 आम नागरिक और 213 आतंकी मारे गए। इसके पहले साल 2016 में ऐसी 322 घटनाएं हुईं थीं, जिनमें 82 सुरक्षाकर्मी, 15 आम नागरिक और 150 आतंकी मारे गए थे। भविष्य में ऐसा न हो, इसके लिए सुरक्षा बलों के पास रटा-रटाया जवाब है कि नागरिकों को मुठभेड़ के बीच नहीं आना चाहिए। उनका यह कहना एक हद तक सही भी है, क्योंकि हथियारों से मानवता की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन देश की रक्षा के लिए इनका इस्तेमाल करने वालों से नागरिकों की रक्षा की उम्मीद तो की ही जाएगी। गौर से देखें तो यह जिम्मेदारी सुरक्षा बलों से कहीं ज्यादा केंद्र और राज्य सरकारों तथा जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक दलों की बनती है, जो खासकर घाटी के नागरिकों को अलगाववादियों से दूर रखने में लगातार नाकाम साबित हो रहे हैं। पिछले साल जब कश्मीर में हालात कुछ ज्यादा ही बिगड़ते दिखे तो केंद्र सरकार ने एक अच्छी पहल करते हुए नवंबर 2017 में अपने एक वार्ताकार दिनेश्वर शर्मा को वहां भेजा। उन्हें कश्मीर गए छह महीने बीतने को हैं लेकिन जिक्र करने लायक कुछ भी अभी तक उनके हाथ में नहीं है। उलटे कश्मीर में उन्हें कदम दर कदम विरोध का सामना करना पड़ा है। पिछले ही महीने वह कश्मीर के आतंक प्रभावित इलाके त्राल गए तो वहां के बाजार उनके आने की सूचना से ही बंद हो गए। यानी कश्मीर में नाराजगी इतनी बढ़ चुकी है कि किसी वार्ताकार वाली पहल से भी बात आगे नहीं बढ़ पा रही है। वहां मुठभेड़ों के दौरान हुई आम नागरिकों की मौतों में इतनी बड़ी बढ़ोतरी की मौजूदा सरकारी रिपोर्ट का सीधा इस्तेमाल अलगाववादी शांति प्रक्रिया को अधिक से अधिक नुकसान पहुंचाने और वैश्विक मंचों पर भारत को बदनाम करने में ही करने वाले हैं। ऐसे में सरकार और राजनेताओं की जिम्मेदारी कई गुना बढ़ जाती है। चाहे जैसे भी हो, वे जम्मू-कश्मीर में, खासकर घाटी में सौहार्द बढ़ाने और वहां के लोगों को बातचीत की प्रक्रिया में शामिल करने का प्रयास करें, क्योंकि इसके बिना हालात को और ज्यादा बिगड़ने


जनसत्त्ता

साझे स्वर

एनएसजी यानी परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह और सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की बाबत भारत की दावेदारी को नॉर्डिक देशों का समर्थन मिलना भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि है। दोनों वैश्विक संस्थाओं में भारत की दावेदारी की हिमायत यों तो कई देश कर चुके हैं, पर नॉर्डिक देश इस मसले पर अब तक चुप ही थे। यह पहला मौका है जब उन्होंने मुंह खोला है। यह भी पहली बार हुआ कि भारत और नॉर्डिक देशों का सम्म्मेलन आयोजित किया गया। नॉर्डिक देशों में स्वीडन, डेनमार्क, आइसलैंड, नार्वे और फिनलैंड आते हैं।

स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में हुए सम्मेलन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। इस अवसर पर जारी घोषणापत्र ने विश्व के मौजूदा हालात के मद्देनजर वैश्विक संस्थाओं के पुनर्गठन की जरूरत रेखांकित की है। यह भारत के नजरिए पर ही मुहर है। संयुक्त राष्ट्र का उदय द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुआ था, और सुरक्षा परिषद का स्वरूप विश्व की बड़ी ताकतों ने अपने हिसाब से तय कर दिया। लेकिन तब से दुनिया काफी बदल गई है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। जर्मनी यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।

अफ्रीका और लातीनी अमेरिका से कोई भी देश सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं है। इसलिए भारत ही नहीं, जर्मनी, जापान, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील भी स्थायी सदस्यता का दावा करते रहे हैं। लेकिन समस्या यह है कि वीटोधारी देश नहीं चाहते कि सुरक्षा परिषद में उनके समकक्ष कोई और आए। इसलिए सुरक्षा परिषद के पुनर्गठन की जरूरत भले सब स्वीकार करते हों, मगर इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने की आम सहमति नहीं बन पाती है। एनएसजी में वीटो जैसा कोई रोड़ा नहीं है, पर चीन ने भारत की राह रोकने की कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

बहरहाल, नॉर्डिक देशों के सम्मेलन के बाद प्रधानमंत्री मोदी लंदन पहुंचे और वहां ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेजा मे के साथ उनकी बातचीत तमाम मुद्दों पर हुई, पर आतंकवाद तथा आपसी व्यापार के मसले ही हावी रहे। मोदी और मे, दोनों ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित संगठनों मसलन लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हिजबुल-मुजाहिदीन, हक्कानी नेटवर्क, अल कायदा, आइएसआइएस से निपटने के लिए आपसी सहयोग और बढ़ाने की जरूरत है। साथ ही, ऑनलाइन चलने वाली आतंकवादी गतिविधियों को भी रोकना होगा। इनमें से अधिकतर आतंकी संगठन पाकिस्तान की जमीन की उपज हैं; बाकी ने भी वहां अपने अड्डे बना रखे हैं। लिहाजा, आतंकवाद को लेकर मोदी और मे की सहमति को पाकिस्तान की कूटनीतिक घेरेबंदी के रूप में भी देखा जा सकता है।

मोदी ऐसे वक्त लंदन गए जब सीरिया के खिलाफ अमेरिका और ब्रिटेन व फ्रांस की साझा सैन्य कार्रवाई को लेकर इन देशों की रूस से तनातनी चल रही है। मोदी ने सीरिया के मामले में भारत का दृष्टिकोण तो रखा, पर रूस का जिक्र किए बगैर। बातचीत में दूसरा अहम मसला निवेश और व्यापार का था। प्रधानमंत्री ने मे को आश्वस्त किया कि ब्रेक्जिट के बाद भी भारत के लिए ब्रिटेन की अहमियत बनी हुई है। जी-20 में ब्रिटेन ऐसा देश है जो भारत में निवेश के मामले में शुरू से अग्रणी रहा है। आधिकारिक अनुमान के मुताबिक दोनों मुल्कों का आपसी व्यापार तेरह अरब डॉलर का है। पिछले साल आपसी व्यापार में खासा इजाफा हुआ। दोनों पक्षों ने इस पर रजामंदी जताई कि द्विपक्षीय व्यापार की राह में आने वाली मुश्किलों को जल्द से जल्द दूर किया जाए। इस अवसर पर एक लाख अरब पाउंड के मुक्त व्यापार करार पर भी सहमति बनी, जो कि आपसी व्यापार को नए मुकाम पर ले जाएगी।


 हिंदुस्तान

लोया मामले पर पूर्णविराम

विवाद शायद अभी भी खत्म न हों, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपनी तरफ से जस्टिस बृजगोपाल हरिकिशन लोया के मामले पर पूर्णविराम लगा दिया है। अदालत का कहना है कि उनका निधन जिन परिस्थितियों में हुआ, उसकी स्वतंत्र जांच कराने की कोई जरूरत नहीं है। मामले में उठाई जा रही तमाम आपत्तियों को खारिज करते हुए प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाले पीठ ने उन न्यायाधीशों की गवाही को महत्वपूर्ण माना, जिनका कहना था कि जस्टिस लोया का निधन हृदय गति रुक जाने के कारण हुआ था। हालांकि तमाम राजनीतिक कारणों से कई लोग उनके निधन को रहस्यमय मान रहे थे और उसके लिए काफी बड़ा अभियान चलाया जा रहा था। तकरीबन साढ़े तीन साल पहले एक विवाह समारोह के लिए नागपुर गए जस्टिस लोया को यात्रा के दौरान ही दिल का दौरा पड़ा और तब से यह मुद्दा लगातार सुर्खियों में बना हुआ है। विवाद इसलिए भी बना है कि जस्टिस लोया उन दिनों शोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें एक आरोपी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी थे।

पूरे मामले में यही एक ऐसा कोण है, जिसने इसे संवेदनशील बना दिया और उनके निधन को लेकर बाकायदा एक राजनीति शुरू हो गई। राजनीति इतनी हुई कि एक दिसंबर 2014 को उनके निधन से लेकर अब तक शोहराबद्दीन का मामला पीछे चला गया और जस्टिस लोया का निधन मुख्य मामला बन गया। विवाद जब बढ़ा, तो पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल रामदास ने यह मामला उठाया और इसे लेकर वह सुप्रीम कोर्ट चले गए। उनकी मांग थी कि इस मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश और एक पूर्व पुलिस अफसर की अध्यक्षता में हो। ताजा फैसला उसी अपील से जुड़ा है। यह भी सच है कि जस्टिस लोया के निधन से जुड़ी कुछ घटनाएं थीं भी ऐसी, जिससे शक की गुंजाइश बनती थी और इसी पर राजनीति खेली जा रही थी। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला आते ही यह राजनीति और तेज हो गई है।

यहां मुख्य मामला यह नहीं है कि सच क्या था और झूठ क्या था? मामला यह है कि हमारे देश की कई संस्थाएं ऐसी क्यों बन गई हैं कि उन्हें कभी भी शक के दायरे में लाया जा सकता है? पुलिस नाम की संस्था पर हम पूरी तरह से विश्वास नहीं करते और उन्हें सत्ताधारी दल की कठपुतली ही मानते हैं। एनकाउंटर वास्तविक भी हो सकता है, इसे मानने को शायद ही कोई तैयार हो। जांच एजेंसियों की विश्वसनीयता लगातार खत्म हो रही है। सीबीआई को तो खुद सुप्रीम कोर्ट ने ही पिंजरे में बंद तोता कहा था। और जहां तक न्यापालिका का मामला है, तो इन दिनों उसके फैसलों पर भी सवाल ज्यादा ही उठाए जाने लगे हैं। ये स्थितियां विभिन्न दलों को अपनी राजनीति चमकाने के अवसर भी देती हैं।

मान लीजिए, देश की ये सारी संस्थाएं पूरी तरह विश्वसनीय होतीं, तो न ये शक और शुबहे उठते, न ही मामले को इतनी तूल मिलती और न ही इस पर हो रही राजनीति इतनी लंबी खिंचती। जाहिर है कि अगर हमें इस सूरत को बदलना है, तो इन सारी संस्थाओं को निष्पक्ष और विश्वसनीय बनाना होगा। इसके लिए जरूरी है कि हम पुलिस सुधार, प्रशासनिक सुधार और न्यायिक सुधार, सब एक साथ करें। इस तरह से करें कि इन संस्थाओं को राजनीतिक हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त किया जा सके, वरना ऐसे विवाद उठते रहेंगे।


दैनिक भास्कर

जब लंदन में प्रधानमंत्री मोदी ने कही भारत की बात

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संवाद कला में माहिर हैं और इसे उन्होंने एक बार फिर लंदन में ‘भारत की बात सबके साथ’ कार्यक्रम में साबित की है। कार्यक्रम के प्रस्तोता और केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी ने पूरे कार्यक्रम की संरचना भी इस तरह से तैयार की थी कि घरेलू मोर्चे पर विरोधपूर्ण वातावरण से घिरे मोदी की आम चुनाव से पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक कर्मठ, समझदार और संवेदनशील नेता की छवि उभरे। यूरोप में भारतवंशियों की बड़ी संख्या है और उनके केंद्र में गुजरातियों की एकजुटता भी है। उन सब ने इस कार्यक्रम में इकट्‌ठा होकर मोदी के साथ भारत की अच्छी छवि प्रस्तुत करने में विशेष भूमिका निभाई। दूसरी तरफ वहां प्रधानमंत्री की शानदार अगवानी के साथ ही भारत के कठुआ और उन्नाव के दुष्कर्म और अन्य हिस्सों में धर्म और जाति के नाम पर होने वाले भेदभाव की गूंज लंदन में भी सुनाई दी। अगर प्रधानमंत्री मोदी के स्वागत में नारे लगाने वाले थे तो उनके विरोध में भी बैनर लहराने वाले दिखे। प्रधानमंत्री ने देश से परदेस तक यह कहकर सांत्वना देने की कोशिश की कि दुष्कर्म पर राजनीति नहीं होनी चाहिए और अगर भारत में लाखों समस्याएं हैं तो यहां करोड़ों समाधान भी हैं। लंदन से दिए गए प्रधानमंत्री के इस संदेश की एक खास बात यह रही कि वे पाकिस्तान के प्रति सख्त थे लेकिन, अपने देश के विरोधियों के लिए थोड़े नरम। उन्होंने आतंकवाद का निर्यात करने वालों को यह बताने का प्रयास किया कि भारत बेवजह किसी देश की जमीन नहीं हथियाएगा लेकिन, वह चुप होकर हमला नहीं सहता रहेगा। कर्नाटक चुनाव के मौके पर लंदन में भगवान बसवेश्वर के प्रति अपना सम्मान व्यक्त कर उन्होंने यह कहने का प्रयास किया कि भारत की जाति-व्यवस्था का समाधान उसके संतों के संदेशों और उनके आचरण में है। मोदी ब्रिटेन से भारत का व्यापार बढ़ाने गए थे और एक अरब पौंड का व्यापार समझौता भी किया है। उनका प्रयास सराहनीय है लेकिन, स्मरण रहे कि हमारे प्रतिद्वंद्वी देश चीन और ब्रिटेन के बीच व्यापारिक संबंध का आकार हमसे कई गुना बड़ा है। मोदी ने इस बात पर चिंता जताई कि आज़ादी के बाद भारत की संस्कृति और परम्परा की उपेक्षा की गई लेकिन, वे जब तक धर्म के नाम पर फैलाई जा रही नफरत नहीं रोकेंगे तब तक श्रेष्ठ और समृद्ध भारत बना पाना कठिन होगा।


दैनिक जागरण

ढह गई झूठ की दीवार

सुप्रीम कोर्ट ने जज बीएच लोया की मौत के मामले की छानबीन विशेष जांच दल से कराने की मांग वाली याचिका को खारिज करते हुए जिस तरह यह कहा कि इसका उद्देश्य न्यायाधीशों को बदनाम करना था उससे यह साफ हो गया कि छल-छद्म के सहारे देश को गुमराह करने की कोशिश एक अभियान में बदल गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने न केवल यह पाया कि यह याचिका शरारतपूर्ण उद्देश्य से दाखिल की गई थी, बल्कि इस नतीजे पर भी पहुंचा कि वह आपराधिक अवमानना जैसी थी। खास बात यह है कि इस निष्कर्ष पर मामले की सुनवाई कर रहे सुप्रीम कोर्ट के तीनों न्यायाधीश पहुंचे। वे इस पर भी एक मत हैं कि जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग हो रहा है। अच्छा होता कि वे केवल चिंता जताने तक ही सीमित नहीं रहते और ऐसे कुछ उपाय करते जिससे जनहित याचिकाओं की दुकानें चलाने वाले लोगों पर लगाम लगती। ध्यान रहे कि एक पूरी जमात खड़ी हो गई है जो बात-बात पर जनहित याचिकाएं दाखिल कर सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ देश का भी समय जाया करती है। जज लोया की मौत के मामले में भी ऐसा किया गया। 1सीबीआइ की विशेष अदालत के जज बीएच लोया की मौत दिसंबर 2014 में हुई थी। करीब तीन साल बाद यकायक एक अभियान छेड़ दिया गया कि उनकी मौत स्वाभाविक नहीं थी और उनका न तो सही तरह उपचार हुआ था और न ही उनके शव को उचित तरीके से ले जाया गया था। झूठ की यह दीवार हर दिन ऊंची की जाती रही। इसके लिए जज लोया के दिल के दौरे के वक्त उनके साथ रहे न्यायाधीशों से लेकर उनका उपचार करने वाले चिकित्सक तक को काल्पनिक साजिश का हिस्सा बताया गया। इसमें आसानी इसलिए हुई, क्योंकि जज लोया के निधन के बाद उनके कुछ परिजनों ने उनकी मौत को संदिग्ध बता दिया था। हालांकि बाद में बेटे ने यह स्पष्ट किया कि वे बयान भावावेश में दिए गए थे, लेकिन मौत के पीछे साजिश की खोज करने वाले चैन से नहीं बैठे। इन तत्वों ने बेटे के बयान को तो हाशिये पर डाला ही, महाराष्ट्र पुलिस की उस दौरान की छानबीन को भी खारिज कर दिया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया और इस दौरान ऐसा माहौल बनाया गया कि इस मामले में वैसे ही आदेश-निर्देश दिए जाने चाहिए जैसा कुछ वकील और नेता चाह रहे हैं। इस मामले में दाखिल याचिका की पैरवी करने वाले आरोपी और वकील के साथ जज की भी भूमिका खुद ही निभाने पर आमादा थे। इस पर हैरानी नहीं कि फैसला उनके मनमाफिक नहीं आया तो उन्हें काला दिन दिखाई देने लगा। हैरानी इस पर है कि कुछ राजनीतिक दल भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर रुदन करने में लगे हुए हैं। इनमें भी कांग्रेस का रवैया सबसे विचित्र है। कल तक उसके नेता यह कहते नहीं थकते थे कि हम तो अदालती मामलों में टीका-टिप्पणी ही नहीं करते, लेकिन अब वे ठीक यही काम कर रहे हैं। क्या अब कांग्रेस ने शरारत भरी याचिकाओं की आड़ में राजनीति करने की ठानी है? जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट को जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग रोकना चाहिए।


प्रभात खबर

मजबूत होते संबध

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ब्रिटेन यात्रा के दौरान हुए करीब एक बिलियन पाउंड के द्विपक्षीय व्यावसायिक समझौतों से आपसी संबंधों को नया आधार मिला है. यूरोपीय संघ से अलग होने की कगार पर खड़े ब्रिटेन को यूरोप से बाहर नये बाजार और निवेश की जरूरत है. भारत को भी अपनी अर्थव्यवस्था की रफ्तार को बनाये रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मौजूदगी को बढ़ाना है. इस पृष्ठभूमि में शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में शुमार इन दो देशों के बीच मुक्त व्यापार संधि की संभावना के द्वार भी खुले हैं. एक साझा वाणिज्यिक समीक्षा की सिफारिशों के मुताबिक व्यापारिक बाधाओं को दूर करने पर भी सहमति बनी है. संयुक्त बयान में ‘वैश्विक दृष्टि और नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय प्रणाली के प्रति समर्पण’ के उल्लेख को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. ब्रेक्जिट को लेकर यूरोपीय संघ का रवैया बहुत कड़वा रहा है और जानकार ऐसी आशंका जताते हैं कि ब्रिटेन के आर्थिक हितों को भविष्य में इस रुख से नुकसान हो सकता है. वैश्वीकरण की प्रक्रिया में अंतर्निहित मुक्त व्यापार के सिद्धांत और व्यवहार पर अमेरिका के संरक्षणवाद और चीन की आक्रामकता के नकारात्मक प्रभाव की शंकाएं भी निराधार नहीं हैं. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य के नियमन पर दोनों देशों का जोर देना एक जरूरी पहल है. ब्रिटेन के लिए भारतीय प्रधानमंत्री का यह दौरा कितना अहम है, इसे दो बातों से समझा जा सकता है. स्वीडन से ब्रिटेन आ रहे प्रधानमंत्री मोदी के स्वागत में हवाई अड्डे पर विदेश मंत्री बोरिस जॉनसन खुद मौजूद थे तथा विभिन्न आयोजनों में प्रधानमंत्री थेरेसा मे और राजकुमार चार्ल्स उनके साथ रहे. जॉनसन कॉमनवेल्थ मामलों के भी मंत्री हैं और 1997 के बाद पहली बार 53 देशों की इस संस्था का शिखर सम्मेलन ब्रिटेन में आयोजित हो रहा है.

यूरोपीय संघ में शामिल होने के बाद से ब्रिटेन का ध्यान कॉमनवेल्थ से हट गया था तथा दो दशकों से भारत की भी दिलचस्पी काफी कम हो गयी थी. लेकिन, ब्रेक्जिट से होनेवाले नुकसान की भरपाई के लिए अब ब्रिटेन कॉमनवेल्थ की ओर देख रहा है. इस आयोजन में प्रधानमंत्री मोदी की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए ब्रिटेन लगातार प्रयासरत था. भारतीय प्रधानमंत्री ने भी इस बात पर जोर दिया है कि ब्रिटेन कॉमनवेल्थ देशों के साथ अपने व्यापारिक संबंधों को और बेहतर करे.इस आयोजन का मुख्य मुद्दा व्यापार ही है और यह आशा की जा सकती है कि सम्मेलन ब्रिटेन के साथ भारतीय हितों के लिए भी सकारात्मक होगा. इस यात्रा से यह उम्मीद भी बढ़ी है कि ब्रिटेन शिक्षा और रोजगार के लिए आने के इच्छुक भारतीयों के लिए वीजा और परमिट के नियमों को आसान बनायेगा.भारत और फ्रांस के संयुक्त प्रयासों से शुरू हुए अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन में ब्रिटेन का शामिल होना भी प्रधानमंत्री मोदी के दौरे की उल्लेखनीय उपलब्धि है. भारत-ब्रिटेन व्यापारिक संबंधों की मजबूती कूटनीति के अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी दोनों देशों के लिए फायदेमंद हो सकती है.


 देशबन्धु

लन्दन में मैजिक शो

अगर राजनेताओं के अभिनय, संवाद अदायगी, मंच प्रस्तुति, वेशभूषा इन सबके लिए आस्कर जैसा कोई पुरस्कार होता तो निश्चित ही भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार चार सालों तक उसे जीतने का रिकार्ड बना देते।  भारत का वाराणसी हो या अमेरिका में टाइम स्क्वेयर या लंदन में वेस्टमिंस्टर सेंट्रल हाल, साल दर साल मोदीजी की नाटकीय प्रस्तुति में निखार आता जा रहा है। क्या ग•ाब के अभिनेता और शो मैन हैं नरेन्द्र मोदी। या उन्हें जादूगर कहना ठीक होगा।

जादूगर स्टेज पर आकर सारे दर्शकों को सम्मोहित कर लेता है और फिर वह दिखाता है कि देखो बक्सा खाली है तो दर्शक मान लेते हैं कि खाली है। फिर उसी बक्से से वह रंगीन कागज निकालते जाता है, हवा में उड़ाते जाता है, इसके बाद वह इसी बक्से से एक कबूतर निकालता है, दूसरा कबूतर निकालता है, उन्हें भी उड़ा देता है और दर्शक यह सब मंत्रमुग्ध से देखते रह जाते हैं। जादूगर दर्शकों को थोड़ा सहमा भी देता है जब वह उन्हीं में से किसी एक को मंच पर बुलाकर एक बक्से पर लेटा देता है, फिर उस बक्से को हटाता है, फिर संगीत थोड़ा तेज होता जाता है, थोड़ा डरावना भी, फिर जादूगर उस व्यक्ति को बीच से आरी से काट देता है और संगीत एकदम से थम जाता है, लोगों की सांस अटक जाती है, जादूगर के चेहरे पर कुटिल मुस्कान आती है।

फिर वह अपने हाथों का कमाल दिखाता है, और आदमी को जोड़ देता है। दर्शक चैन की सांस लेते हैं कि वह जिंदा है। हाथ की सफाई, सम्मोहन, थोड़ी चालाकी, थोड़ी बेईमानी, ये सब जादू के खेल में होते हैं। जादूगर इस खेल के बाद दर्शकों की तालियां बटोरते हुए उन्हें नमन करता है और फिर अगले शहर जादू का मायाजाल फैलाने के लिए पहुंच जाता है। क्या मोदीजी भी ऐसा ही नहीं कर रहे? बतौर प्रधानमंत्री उनके लिए संवैधानिक रूप से जो मंच उपलब्ध कराया गया है, वह है संसद। लेकिन देख लें कि संसद में उनकी प्रस्तुति कितने बार हुई है। देश के जरूरी मुद्दों पर संसद में आन द रिकार्ड उनकी बातें होनी चाहिए, लेकिन वह नहीं होती है। हाल में बजट सत्र कैसा व्यर्थ गया है, सबने देखा है।

प्रधानमंत्री संसद में नहीं बोलते, मन की बात में बोलते हैं, चुनावी रैलियों में बोलते हैं और विदेश में आयोजित, प्रायोजित सभाओं में बोलते हैं। मन की बात की स्क्रिप्ट पहले से तैयार होती है, चुनावी सभाओं के एजेंडे भी जगह के हिसाब से तय होते हैं और विदेश की सभाओं में भी सब कुछ पूर्व नियोजित होता है। अब तक वे भाषण देते थे, इस बार उन्होंने राहुल गांधी स्टाइल में सवाल-जवाब का तरीका चुना। लेकिन यहां भी सब पहले से तय था। कौन क्या सवाल पूछेगा और मोदीजी उस पर क्या जवाब देंगे, सब कुछ स्क्रिप्टेड था।

सूत्रधार प्रसून जोशी हिंदी सिनेमा के लिए, विज्ञापनों के पहले ही बहुत कुछ लिख चुके हैं और अब तो वे सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष भी हैं। लिहाजा उनके साथ मोदीजी की जुगलबंदी खूब जमी। वे मुदित भाव से प्रश्न पूछते रहे, मोदीजी आशीïर्वचनों की तरह जवाब देते रहे। दो घंटे के इस कार्यक्रम में मोदीजी ने ऐसे सुविचार प्रकट किए कि इनसे नया धार्मिक ग्रंथ बन जाए। वे अपना नाम इतिहास में दर्ज नहींकराना चाहते, लेकिन जब मोदी-मोदी का घोष होता है, तो क्या मारक मुस्कान उनके चेहरे पर छा जाती है। वे राज करने की इच्छा नहीं रखते, लेकिन जहां चुनाव हों वहां 10-20 सभाएं करते हैं, ताकि बाजी हाथ से न निकले और अगर सीटें कम आती हैं, तो भी भाजपा की सरकार बनवा लेते हैं। वे अब तक सर्जिकल स्ट्राइक के लिए छाती ठोंक रहे हैं, जबकि उसके बाद न जाने कितनी बार पाकिस्तान से हुए संघर्ष में हमारे जवान, आम नागरिक मारे गए हैं।

वे भारतीयों से कहते हैं कि आपका पासपोर्ट ताकतवर हुआ है, आपको भारतीय पासपोर्ट रखने पर गर्व होता है, जबकि ग्लोबल पासपोर्ट पावर रैंक की रिपोर्ट बतलाती है कि हमारा पासपोर्ट कमजोर हुआ है, पिछले साल 75वें स्थान के साथ हमें 51 देशों में वीजा फ्री था, इस बार 86वें स्थान के साथ केवल 49 देशों में वीजा फ्री है। यानी एक देश के रूप में हमारी साख कमजोर हुई है, जो फिलहाल जादू की चमक-धमक में हमें नहींं दिख रही है। वे डिजीटल इंडिया, स्किल इंडिया, कौशल विकास का रिपोर्ट कार्ड पेश करते हैं, लेकिन डेटा चोरी, बेरोजगारी, छोटे कारोबारियों की दुर्दशा पर कुछ नहीं बोलते। वे कठुआ और उन्नाव की घटनाओं का दर्द लंदन में जाकर व्यक्त करते हैं। हर बात पर मैं ऐसा, मैं वैसा, मोदी ने ये किया, मोदी ने वो किया का गुणगान करते हैं, लेकिन ये नहीं कह सकते कि मेरी माताओं, बहनों, बेटियों जब तक ये मोदी है, तब तक तुम पर कोई अत्याचार नहीं होगा। अगर ऐसा एकाध डायलाग वे मारते तो तालियां बजती हीं, लड़कियों को भी थोड़ी देर राहत मिलती।

कविराज प्रसून जोशी ने राजाधिराज नरेन्द्र मोदी से उनकी फकीरी पर भी सवाल किया। अहा, क्या फकीराना ठाठ छिपा था उस सवाल और उसके जवाब में। भारत ने कबीर, मीरा बाई, रैदास, गुरु नानक की फकीरी देखी और फिर गांधीजी की। लेकिन मोदीजी की फकीरी ने तो इन सबको मात दे दी है। वे सुनहरी कढ़ाई में नमो-नमो लिखा हुआ राजसी परिधान पहनते हैं, लेकिन फिर भी कहते हैं कि मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे तो जो मिलता है, वह सब मैं तोशाखाना में जमा कर देता हूं। अपने इस त्याग का गुणगान करने वाले मोदीजी क्या यह नहीं जानते हैं कि वे ही नहीं, सरकारी तौर पर किसी भी पदाधिकारी को जो उपहार मिलते हैं, वह सब तोशाखाना में जमा करने का नियम ही है, क्योंकि वह किसी व्यक्ति को नहींं बल्कि उसके पद को मिला उपहार होता है, जिस पर देश का हक होता है। बहरहाल, वेस्टमिंस्टर सेंंट्रल हाल में दो-ढाई घंटों के जादुई शो का लोगों ने काफी आनंद लिया। उस हाल से बाहर निकलते ही असली दुनिया और देश की असली तस्वीर का दीदार उन्हें फिर हुआ ही होगा।


The Times of India

Protecting India
In a significant defence reform, a new integrated institutional mechanism called the Defence Planning Committee has been set up under the chairmanship of the national security adviser. It is tasked with preparing a national military and security strategy, assessing external security risks and defining security priorities. It will have on board the principal secretary to the prime minister, chair man chiefs of staff committee, service chiefs, defence secretary, foreign secretary and secretary (expenditure) in the finance ministry. The composition of the committee reflects its goal of bringing both military and civilian components of defence planning on one platfor m. This is absolutely vital for a moder n defence strategy that is nimble and adaptable to changing security realities.

At present defence planning in India is very disjointed, with lopsided emphasis on acquisitions. There is little coordination between ministries, and the bureaucracy and the military are often not on the same page. This leads to situations as witnessed recently where the military submitted to the parliamentary standing committee on defence that this year’s defence budget barely made room for modernisation. There’s a yawning gap between the expectations of the armed forces and the diplomatic priorities and financial capacity of government. The new committee is expected to bridge these various needs, and refine recommendations for defence procurement by taking a long-term view of security.
Functionally, the committee will be aided by sub-committees on policy and strategy, plans and capability development, defence diplomacy and defence manufacturing ecosystem – so that defence planning isn’t confined to silos. At a time when India’s security environment is fast changing with an assertive China increasingly flexing its muscle in India’s geo-strategic domain, integration ought to be the buzzword within the defence establishment. This is the only way procurement can be streamlined and decisions implemented in a timely fashion.

In the same vein, government had notified new statutory rules for the ar med forces as a step towards setting up integrated theatre commands for better operational preparedness. Realisation seems to be finally dawning that defence preparedness isn’t solely about buying the most advanced aircraft or warship. It also entails strategic diplomacy and prudent resource allocation based on available financial capacity. The new committee should get all.


The Indian Express

The Case in Point
The Supreme Court on Thursday said there is no reason to set up an independent probe into the death in 2014 of Judge BH Loya, and unambiguously struck down the petitions calling for such an investigation. It said that there was no cause to doubt the statements of four judges on the circumstances that led to the death of the judge who was hearing the Sohrabuddin Sheikh fake encounter case, in which BJP president Amit Shah figured as an accused before being discharged by the judge who replaced him. Controversy had erupted over the manner of the death of Justice Loya in November last year. In January this year, the four senior-most judges of the apex court who went public with their concerns about the functioning of the court, and who spoke of the Chief Justice of India selectively assigning cases with “far-reaching consequences” to junior judges, had also cited the Loya case. Now that the apex court has ruled on the matter that had gathered extraordinary political attention and that was catapulted to the centre of the fraught relationship unfolding between the executive and judiciary — an investigation by this paper had also not found any evidence to invite the suspicion that Justice Loya’s death was unnatural — it must be hoped that the spotlight shifts to the case which lies, as it were, at the beginning, but which may have been crowded out of the public attention span.


The New Indian Express

This is India’s Worst Kept Secret
To say the nation was shocked when media reported details of the postmortem of the Unnao rape victim’s father would be an understatement. Proof that this is not limited to a region came with the death of a Keralite youth, Sreejith, after allegedly being tortured while in police custody. National Crime Records Bureau data shows between 2000 and 2016, as many as 1,022 custodial deaths were reported. However, FIRs were filed in only 428 case, and chargesheets only in 234 cases. Only 24 police officers have been convicted so far. Torture of persons in police custody is arguably India’s worst kept secret. It permeates our popular imagination and as a result our popular culture as well.

As a society we rarely stand together against such police abuses unless the targets involve ‘people like us’. This could perhaps be tied with the uncritical faith we have in institutions exercising force in the name of our safety and security. However, too much power is never a good thing. Power must be challenged and held to account. Experts argue that these abuses are a result of poor training and poor compliance to strictures of the law. Too often the police choose to depend on ‘confessions’ rather than holistic investigation to support their cases before the courts.

This lack of rigour also reveals itself in the low conviction rates for crimes across the board. Some cops also seem to take the line of being investigator, judge and jury—taking the law into their own hands for the ‘greater good’. This is a line of thought often valorised in films that ought to be critiqued. Custodial torture happens because more often than not it is normalised behaviour that offenders get away with. It exists on a sliding scale of abuses such as extrajudicial killings. While the men and women in uniform need to introspect whose interests are served when those meant to be protected are most harmed, society at large needs to hold such institutions to greater account instead of tolerating violation of rights in the name of security and safety.


The Telegraph

Grim Battle
The rumble in the telecom jungle is just about ready to crank up to a crescendo as the three principals left in India’s hyper-competitive market hunker down for a grim battle for survival. It has become imperative for Bharti Airtel, Reliance Jio and the proposed Vodafone-Idea merged combine to make big investments to broaden their networks and service offerings at a time when their operations are crimped by wafer-thin margins. Early indications reveal that the Sunil Mittal-owned Bharti Airtel and Mukesh Ambani’s Reliance Jio plan to float bonds to create a combined war chest worth Rs 36,500 crore ahead of what promises to be an enthralling slugfest. But here is the nub. The battle has already started to put a deep strain on the financials of the key players. Jio claims to have climbed out of a loss and reported a net profit of Rs 504 crore in the third quarter of 2017-18 (October-December). Its turnaround has put the heat on the others. The buzz on the street is that Airtel will report its first quarterly loss in the past 15 years when it unveils its fourth-quarter results on April 24. If that happens, it will be dramatic since the company earned a profit of Rs 305.8 crore in the previous quarter. Vodafone India saw its revenues fall in the third quarter to 1,063 million euros from 1,450 million euros in the same quarter a year ago – a decline of over 26 per cent. Idea Cellular has seen its losses swell to Rs 1,428 crore in the third quarter and the proposed merger with Vodafone is the only road to salvation.
A lot will now depend on how the regulatory landscape evolves. The telecom regulator gave Jio a very long lease of life by permitting it to offer a virtually free pricing data plan when it launched operations in September 2016 that it was able to stretch well into the middle of 2017 even as it rejected complaints about predatory pricing from rivals. The next big areas of interest will be the roadmap towards a 5G network, the auction of new radiowave spectrum bands, and a possible review of the Telecom Regulatory Authority of India’s 15-year forbearance policy under which it permitted operators to float pricing plans and let the market forces determine the winners.