आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 18 अप्रैल,2018

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जनसत्ता

राहत के बरक्स

महंगाई के ताजा आंकड़ों ने हालांकि राहत की खबर दी है, पर इसके साथ कई अगर-मगर हैं। एक तो यह राहत बहुत मामूली है। दूसरे, ऐसे कई कारक मौजूद हैं जो आने वाले दिनों में महंगाई का ग्राफ चढ़ा सकते हैं। ताजा आंकड़ों के मुताबिक थोक महंगाई दर इस साल मार्च में तनिक घट कर 2.47 फीसद पर आ गई। फरवरी में यह 2.48 फीसद थी। जाहिर है, जो फर्क दिखा है वह एकदम मामूली है। अलबत्ता पिछले साल से तुलना करें, तो फर्क ज्यादा दिखता है। पिछले साल मार्च में थोक महंगाई दर 5.11 फीसद थी। इस साल फरवरी के मुकाबले मार्च में आई हल्की-सी कमी के पीछे दालों और सब्जियों की कीमतों में आई गिरावट है। पर यह कीमतों में कोई स्वाभाविक कमी नहीं है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसका दंश किसानों को झेलना पड़ रहा है। मसलन, देश की अधिकतर प्रमुख मंडियों में दालों की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य से बीस से पच्चीस फीसद कम पर हो रही है। थोक महंगाई दर में दिखी थोड़ी-सी कमी का कारण खाद्य पदार्थों की कीमतों में आई नरमी है। अलबत्ता आलू और प्याज के भावों में तेजी बरकरार रही। थोक की तरह खुदरा महंगाई दर में भी कमी दर्ज हुई है।

पिछले हफ्ते सरकार ने खुदरा महंगाई के आंकड़े जारी किए थे, जिनके मुताबिक खुदरा महंगाई घट कर मार्च में 4.28 फीसद पर आ गई, जो कि पिछले पांच महीनों का न्यूनतम स्तर है। लेकिन यह भी ध्यान में रखने की बात है कि सरकार कई बार अपने आकलन में संशोधन करती है। मसलन, जनवरी में थोक महंगाई दर 2.84 फीसद बताई गई थी, पर संशोधित आकलन में यह 3.02 फीसद निकली। क्या पता ताजा आंकड़े संशोधित रूप में आएं, तो जो मामूली-सी गिरावट फिलहाल नजर आई है वह नदारद हो जाए। मौसम विभाग ने सामान्य मानसून की भविष्यवाणी की है। इससे कृषि की तरफ से महंगाई बढ़ने का दबाव शायद नहीं होगा। लेकिन अकसर देखा गया है कि फसल जब किसान के पास से व्यापारियों के पास पहुंच जाती है, तो उसकी कीमत तेजी से बढ़ जाती है। बहरहाल, क्या थोक महंगाई दर में दिखी हल्की-सी कमी को एक रुझान माना जा सकता है? कहना मुश्किल है, क्योंकि महंगाई बढ़ाने वाले कई कारक मौजूद हैं।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत सत्तर डॉलर प्रति बैरल पर चल रही है। यही नहीं, सऊदी अरब जैसा प्रमुख तेल उत्पादक देश इसे अस्सी डॉलर तक ले जाने का इरादा जता चुका है। इसी के मद््देनजर पिछले दिनों दिल्ली में संपन्न हुए अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा मंच के सम्मेलन में, जिसमें तेल निर्यातक देशों के प्रतिनिधि भी मौजूद थे, प्रधानमंत्री ने तेल की कीमतों में अतार्किक वृद्धि के प्रति चेताया था। अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्राकृतिक गैस की भी कीमत बढ़ने का ही रुझान है। सीरिया का संकट भी तेल के दाम में बढ़ोतरी का एक कारण बन सकता है। पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोतरी होगी, तो परिवहन और ढुलाई की लागत बढ़ जाएगी, और जाहिर है फिर इसका असर बहुत सारी चीजों की मूल्यवृद्धि के रूप में आ सकता है। फिर, हाल में डॉलर के मुकाबले रुपए के मूल्य में आई कमी भी महंगाई बढ़ने का सबब बन सकती है। लिहाजा, थोक महंगाई दर के ताजा आंकड़ों में जो थोड़ी-सी नरमी दिखी है उसे फिलहाल न तो टिकाऊ रुझान माना जा सकता है न सुचिंतित रूप से उठाए गए किन्हीं कदमों का परिणाम।


 हिंदुस्तान

नगदी का नया संकट

नवंबर, 2016 की तकलीफों को लोग भूलने लग गए थे। तब एटीएम व बैंकों पर जो लंबी लाइनें लगी थीं और आम लोगों को जो तकलीफें हुई थीं, वे सब अब बीते जमाने की बातें हो चुकी हैं। तकरीबन डेढ़ साल बाद अब जब सब कुछ सामान्य लगने लगा था, समस्या फिर उभर आई है। देश के कई हिस्सों में एटीएम पूरी तरह से खाली पडे़ हैं, जिनमें कुछ पैसा है, उनके बाहर लंबी लाइनें हैं। सरकार जल्द ही सब कुछ ठीक हो जाने का आश्वासन दे रही है। वित्त मंत्री अरुण जेटली कह रहे हैं कि देश में नगदी का कोई संकट नहीं है, नगदी पर्याप्त है। इसलिए उम्मीद है कि अगले दो-तीन दिनों में सब कुछ सामान्य हो जाएगा। फिर भी जो हुआ, वह हैरत में डालने वाला तो है ही। 2016 के अंत में जो हुआ था, उसे आसानी से समझा जा सकता है। तब सरकार ने बाजार से ज्यादातर नगदी सोख ली थी, जिससे नगदी का संकट पैदा हुआ, जो कुछ हफ्तों तक चला और जैसे ही नए नोट छपकर बाजार में आए, वह संकट खत्म हो गया। बेशक, कुछ सप्ताह के वे संकट भी बहुत बडे़ थे और लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। लेकिन उसके कारण थे, जो आसानी से समझ में आ रहे थे। अब जो हो रहा है, उसके पीछे किसी कारण की थाह नहीं मिल पा रही। सरकार की तरफ से या रिजर्व बैंक की तरफ से इसकी जो सफाई दी जा रही है, वह शायद ही आसानी से लोगों के गले उतर पाए। नवंबर 2016 में जो हुआ, वह तो एक नीतिगत निर्णय का नतीजा था, लेकिन अप्रैल 2018 में जो हो रहा है, वह लोगों के लिए एक पहेली है।

राजनीति में पहेलियां हमेशा ही अटकलों को जन्म देती हैं और इस समय यही हो रहा है। एक अटकल यह है कि कर्नाटक और उसके बाद दो राज्यों में विधानसभा चुनाव की तैयारियां चल पड़ी हैं और इसके लिए नगदी को बाजार से किनारे किया जा रहा है। इसीलिए कई लोग इस संकट के भूगोल पर इशारा कर रहे हैं। लेकिन सच यह है कि संकट उन बहुत से राज्यों में भी है, जहां आस-पास कोई चुनाव नहीं है। संकट का सबसे ज्यादा प्रभाव दक्षिण के राज्यों में दिख रहा है और वहां कुछ लोग कह रहे हैं कि केंद्र ने राज्यों को लिए धन का प्रावधान कम कर दिया है, इसलिए यह संकट आया है। एक अटकल यह भी है कि किसानों को रबी की फसल का नगद भुगतान किया जा रहा है, इसलिए बाजार से नगदी गायब हो गई है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने तो इसे षड्यंत्र ही बताया है। जाहिर है, इसमें बहुत सी अटकलें गलत होंगी ही।

यह भी हो सकता है कि मौजूदा संकट किसी बैंकिंग कुप्रबंधन का नतीजा हो। अगर ऐसा है, तो यह और भी खतरनाक बात है। हमें यह सच स्वीकारना ही होगा कि हम कैशलेस की बातें चाहे कितनी भी कर लें, लेकिन इस देश में अभी नगदी ही निचले स्तर पर अर्थव्यवस्था को चलाने का सबसे बड़ा साधन है। छोटे दुकानदारों के लिए, मजदूरों- किसानों के लिए और खासकर अनौपचारिक क्षेत्र के लिए नगदी ही सब कुछ है। जाहिर है, निचले स्तर पर इसका असर लोगों के जीवन पर पड़ने लगा होगा। यह ठीक है कि कैशलेस भुगतान बढ़ रहा है, लेकिन सिर्फ इसीलिए नगदी की अनदेखी को स्वीकारा नहीं जा सकता। लोग अपना ही धन अपने बैंक से न निकाल सकें, इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता। अर्थव्यवस्था के लिए तो खैर यह बुरा होगा ही। इसलिए जरूरी है कि इसके जिम्मेदार लोगों को दंडित किया जाए, ताकि यह फिर न हो।


राजस्थान पत्रिका

न्याय के सवाल

हैदराबाद में मक्का मस्जिद विस्फोट मामले में 11 साल बाद जो फैसला आया है, वह राष्ट्र के नजरिये से दुखद और चिंताजनक है। इस प्रकरण से जुड़े सवाल इसलिए भी बढ़ जाते हैं, क्योंकि माननीय जज ने पांच अभियुक्तों को बरी करने के साथ ही अपना इस्तीफा भी सौंप दिया है। जज रविन्द्र वेड्डी ने जो फैसला सुनाया है, उससे हमारी जांच व्यवस्था और जांच एजेंसियों पर फिर एक बार सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। वर्ष 2007 में यह विस्फोट हुआ था। पहले इसकी जांच सीबीआई ने की और 2011 में इसकी जांच का काम एनआइए ने संभाल लिया। लेकिन इतनी नामी और बड़ी एजेंसियों की मेहनत के बावजूद यह अत्यंत निराशाजनक बात है कि एक भी आरोप किसी भी आरोपी पर प्रमाणित नहीं हो सका। किसी भी आरोप के प्रमाणित नहीं होने के कारण ही जज को मजबूरन अभियुक्तों को छोड़ना पड़ा है। यह बहुत हाई-प्रोफाइल मामला था, जिस पर पूरे देश की निगाह थी। तरह-तरह के आरोप लगे थे। आरोप-प्रत्यारोपों के इस दौर में जमकर राजनीति भी हुई थी, सांप्रदायिक तनाव भी बना हुआ था। इसके बावजूद हमारी टॉप जांच एजेंसियों ने भी एक तरह से हार मान ली। सारे के सारे आरोपी बरी हो गए। फिलहाल जो यह फैसला आया है लेकिन जाहिर है, आगे की अदालतों में फिर इस फैसले को चुनौती दी जाएगी। अभी जो फैसला आया है, प्रह निराश करता है। विस्फोट हुआ है, यह सब जानते हैं, लेकिन उसके आरोपियों को पकड़ में नहीं आना या पकड़ में आकर छूट जाना एजेंसियों ने अपनी गरिमा या प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाया हैं। । दूसरी ओर, न्यायपालिका की दृष्टि से अगर हम देखें तो यह फैसला कंठित भी करता है। इसे जज की कुंठा ही कहेंगे कि उन्होंने इस फैसले के तुरंत बाद इस्तीफा सौंप दिया। कारण दूसरे भी रहे होंगे या हो सकते हैं, लेकिन इस्तीफे का जो वक्त जज साहब ने चुना, वह जाहिर तौर पर उनकी भी निराशा को दर्शाता है। फैसले । हवा में नहीं सुनाए जाते, सुबूत और गवाहियां देखी जाती हैं। कोई भी जज तभी फैसला सुनाता है, जब जांच एजेंसियां दूध का दूध और पानी का पानी कर देती हैं। खैर, कई उदाहरण ऐसे भी हैं, जब जांच एजेंसियां दुबारा से जांच करके नतीजे तक पहुंची हैं। हम अभी ऐसी ही उम्मीद कर सकते हैं।


दैनिक भास्कर

इस साल मानसून देश में लाना चाहता है अच्छे दिन 

अगर हम भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की भविष्यवाणी पर भरोसा करें तो पिछले दो वर्षों की तरह इस साल भी मानसून सामान्य रहेगा। मौसम विभाग का यह अनुमान औसतन सही बैठता है, लेकिन जब इसके ब्योरे में जाते हैं तो कई किस्म की कमियां उजागर होती हैं। पिछले साल भी यह अनुभव रहा और उससे पहले भी। मौसम विभाग अपनी भविष्यवाणियों में पांच प्रतिशत की गलती का हिसाब मानकर चलता है, लेकिन पिछले साल के 96 प्रतिशत के अनुमान में सिर्फ एक प्रतिशत की कमी रह गई थी और कुल बारिश 95 प्रतिशत हुई थी। गड़बड़ी उसके अखिल भारतीय प्रसार में थी और देश के 15 प्रतिशत जिलों में बाढ़ आई तो 40 प्रतिशत जिले सूखे रहे। विडंबना देखिए कि राजस्थान जैसे अपेक्षाकृत सूखे रहने वाले क्षेत्र में बारिश बढ़ रही है तो आमतौर पर बारिश से गीले रहने वाले पूर्वोत्तर और मध्य भारत में पानी गिरने की मात्रा कम हो रही है। आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों से सुसज्जित हमारे मौसम विभाग की सामान्य मौसम की भविष्यवाणी देश के सिर्फ 40 प्रतिशत जिलों के लिए सही रही। यही कारण है कि इस बार मौसम विभाग ने कहा है कि वह 15 मई के बाद जो अनुमान जारी करेगा उसमें क्षेत्रवार विवरण होगा। भारत जैसे विविधता वाले विशाल प्रायद्वीप के लिए यह प्रक्रिया बहुत पहले अपनाई जानी चाहिए थी। शुक्र है अब यह बात हमारे वैज्ञानिकों को समझ में आ रही है। असल में मानसून का अनुमान पूरी तरह से वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित नहीं है और न ही पूरी तरह से अनुभवजन्य ज्ञान पर। इसमें दोनों का मिलाजुला रूप दिखाई पड़ता है। इस अनुमान के लिए अगर सौ साल के अनुभव का अध्ययन होता है तो तकरीबन 28 मॉडलों को भी गणना के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इस साल अल नीनो प्रभाव न्यूट्रल बताया जा रहा है और उम्मीद है कि प्रशांत महासागर और हिंद महासागर की सतह गरम होगी और मानसून बनेगा। वास्तव में प्रकृति में दारिद्रय नहीं है, वैविध्य है। उद्योगीकरण से प्रकृति में बदलाव हुआ है। यह प्रकृति की अपनी प्रकृति के कारण भी हो रहा है। अगर वैज्ञानिक सभी कारकों को सही प्रकार से गणना में लाकर सही अनुमान करें तो किसान उस लिहाज से अपनी फसलों की योजना बना सकते हैं। सरकार को भी उसी लिहाज से सिंचाई, बिजली और डीज़ल की व्यवस्था करनी चाहिए। मतलब मानसून के साथ हमें अपने अच्छे दिनों की योजना बनानी चाहिए।


दैनिक जागरण

नकदी का संकट

देश के कई हिस्सों में नकदी संकट खड़ा हो जाने के बाद बैंकों, रिजर्व बैंक और सरकार की ओर से जो सफाई दी गई उसका मूल्य-महत्व तभी है जब इस संकट को जल्द सुलझा लिया जाए। अगर रिजर्व बैंक और सरकार अपने वायदे पर खरी नहीं उतरी तो यह संकट और गहरा सकता है और देश के उन हिस्सों को भी अपनी चपेट में ले सकता है जहां यह अभी उतना गंभीर नहीं जितना बिहार, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के साथ देश के कुछ अन्य हिस्सों में दिख रहा है। ऐसा होने की आशंका इसलिए है, क्योंकि जैसे-जैसे यह खबर फैलेगी कि बैंक और एटीएम नकदी की किल्लत से जूझ रहे हैं वैसे-वैसे लोग बिना जरूरत भी नकदी से लैस होने की कोशिश कर सकते हैं। ध्यान रहे कि नकदी संकट को लेकर कुछ विपक्षी दल आग में घी डालने वाला काम कर रहे हैं। इन स्थितियों में केवल यह भरोसा दिलाने से बात नहीं बनेगी कि रिजर्व बैंक के पास पर्याप्त नकदी है और उसकी आपूर्ति की जा रही है। समझना कठिन है कि रिजर्व बैंक समय रहते यह क्यों नहीं भांप सका कि देश के कुछ हिस्सों में नकदी की किल्लत बढ़ रही है? क्या बैंकों ने उसे वक्त पर सूचना नहीं दी या फिर उसने इस सूचना को गंभीरता से नहीं लिया? एक सवाल यह भी है कि क्या रिजर्व बैंक अभी तक नकदी पहुंचाने के अपने सिस्टम को दुरुस्त नहीं कर सका है? यह ठीक नहीं कि नकदी संकट के सिर उठा लेने और इस मसले पर विपक्षी नेताओं की जली-कटी सुनने के बाद सरकार को एक समिति बनाने की सूझी जो रिजर्व बैंक के साथ मिलकर नकदी की उपलब्धता पर नजर रखेगी। क्या इसके पहले सरकार या रिजर्व बैंक के पास ऐसा कोई तंत्र नहीं था जो नकदी के प्रवाह पर निगाह रखता? क्यानोटबंदी के अनुभवों से कोई सबक सीखने से इन्कार किया गया? किसी को इस सवाल का भी जवाब देना चाहिए कि यह जानना कठिन क्यों हो गया कि कहां कितनी नकदी खप रही है? संकट के सिर उठा लेने के बाद उसके समाधान के लिए समिति बनाना तो एक तरह से आग लगने के बाद कुआं खोदने वाला काम है। ऐसे काम तंत्र की ढिलाई के साथ-साथ सजगता के अभाव को ही रेखांकित करते हैं।1यह ठीक नहीं कि सरकार और रिजर्व बैंक यह बताने की स्थिति में नहीं कि करेंसी नोट की मांग अचानक क्यों बढ़ी? कम से कम अब तो इस सवाल का जवाब तलाशा ही जाना चाहिए कि नकदी की मांग में असामान्य उछाल क्यों आया-क्या कृषि उपज की बिक्री के चलते या फिर वित्तीय वर्ष के समापन के चलते अथवा अन्य किसी कारण से? कहीं यह अन्य कारण आगामी चुनाव तो नहीं? जब वित्त मंत्रलय के आर्थिक कार्य विभाग को यह अंदेशा है कि दो हजार रुपये के जितने नोट सिस्टम में डाले जा रहे हैं उससे कम ही वापस आ रहे हैं तब फिर तह तक जाने की जरूरत है। दो हजार रुपये को नोटों की जमाखोरी की आशंका पहले भी जताई जाती रही है, लेकिन लगता है कि उस पर ध्यान नहीं दिया गया।


प्रभात खबर

कैश की किल्लत

बीते कुछ हफ्ते से दक्षिण भारत के राज्यों- खासकर, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना- के लोग बैंकों और एटीएम में नकदी की किल्लत से जूझ रहे थे. लेकिन, इस कमी ने कई अन्य राज्यों को अपनी चपेट में ले लिया है. मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, बिहार, झारखंड समेत कई राज्यों में एटीएम खाली हैं और बैंकों में भी लोगों को पैसे नहीं मिल पा रहे हैं. बैंकों का तर्क है कि उन्हें समुचित मात्रा में नकदी की आपूर्ति नहीं हो रही है. वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि कुछ इलाकों में सामान्य से अधिक निकासी के कारण यह स्थिति पैदा हुई है. रिजर्व बैंक के मुताबिक, बाजार में नकदी का प्रवाह लगभग उसी स्तर पर है, जहां वह नोटबंदी के समय से पहले था. वित्त राज्यमंत्री एसपी शुक्ला ने बताया है कि 1.25 लाख करोड़ की मुद्रा उपलब्ध है और परेशानी की एक बड़ी वजह यह है कि कुछ राज्यों में उपलब्धता कमतर है. कुछ बैंकरों का कहना है कि अनेक इलाकों में किसानों को हो रहे भुगतान के कारण भी दिक्कत आयी है. वजहें चाहे जो हों, इस समस्या के तुरंत समाधान की जरूरत है. ध्यान रहे, सर्वाधिक समस्या कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में है, जहां डिजिटल लेन-देन का स्तर बहुत ही कम है और लोग सामान्यतः नगदी पर निर्भर हैं. यह स्वागतयोग्य है कि सरकार और रिजर्व बैंक के साथ विभिन्न बैंकों ने भी संकट को स्वीकार किया है तथा तीन दिनों में सामान्य स्थिति बहाल होने का भरोसा जताया है, परंतु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की वित्तीय प्रबंधन प्रणाली की नींद कुछ देर से खुली है. अगर लोगों की शिकायतों का संज्ञान पहले ही ले लिया जाता, तो हालात इस कदर नहीं बिगड़ते. इस रवैये को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरकार और बैंकों ने नोटबंदी के दौर की अफरा-तफरी से कोई सबक नहीं लिया है.

यह भी पता किया जाना चाहिए कि कहीं समस्या करेंसी चेस्ट के स्तर पर तो पैदा नहीं हुई, जहां से बैंकों को रिजर्व बैंक के आदेश से नगदी की आपूर्ति होती है. देश में फिलहाल 4075 करेंसी चेस्ट हैं. इनमें से सर्वाधिक (95 फीसदी) सरकारी बैंकों के पास हैं. कुछ जानकारों ने यह आशंका भी जतायी है कि आगामी चुनावों के मद्देनजर निहित स्वार्थों ने बड़ी मात्रा में नगदी छुपाना शुरू कर दिया है. यह तथ्य बैंकों में जमाराशि की वृद्धि से भी झलकती है. इस साल मार्च के अंत में बैंकों में जमाराशि की बढ़ोत्तरी 6.7 फीसदी रही थी, जबकि 2017 में इसी महीने का आंकड़ा 15.3 फीसदी था. लोगों को नोटबंदी के समय रोजाना नियमों के बदलने के सिलसिले और तकलीफें याद हैं. बैंकों के हालिया घोटालों और घाटों से वित्तीय प्रबंधन की साख को बट्टा भी लगा है. ऐसे में अगर नगदी की कमी बनी रहती है, तो यह सरकार और रिजर्व बैंक पर बड़ा सवाल होगा. जांच-पड़ताल और निगरानी के साथ नगदी की उपलब्धता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी आखिरकार उनकी ही है. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस सप्ताह समस्या का समुचित समाधान हो जायेगा.


 देशबन्धु

ग्यारह साल बाद हासिल आया शून्य

हमारी जांच एजेंसियां किस कदर लाचार, पंगु और अनुपयोगी हो चुकी हैं, इसका ताजा नमूना मक्का मस्जिद धमाका मामले में देखने मिला है। 18 मई 2007 को हैदराबाद की इस मशहूर मस्जिद में जुमे की नमाज के दौरान बम धमाका हुआ, जिसमें 9 लोग मारे गए थे और 58 घायल हुए थे। धमाके से अफरा-तफरी मची और भीड़ बेकाबू हुई तो हालात संभाल रही पुलिस ने फायरिंग की, जिसमें पांच और लोगों की जान चली गई थी। इतने बेकसूर अकाल मौत मारे गए, लेकिन उनके दोषियों को 11 साल बाद भी पकड़ा नहीं जा सका है और अब यह उम्मीद भी खत्म हो गई है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआईए की विशेष अदालत ने सभी पांच आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया है, जिसमें दक्षिणपंथी नेता असीमानंद भी शामिल है। लेकिन यह मामला इतना सीधा-सरल नहीं है कि इसमें सबूत न मिलने का बहाना काम कर जाए।

मक्का मस्जिद धमाका भारत के उन चंद मामलों में शुमार होता है, जिसमें शक हिंदूवादी संगठनों पर जाता है। यूं तो आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, फिर भी पूरी दुनिया में एक मिथ खड़ा कर दिया गया है कि आतंकवाद यानी इस्लाम का चरमपंथी रूप, आतंकवादी यानी दाढ़ी वाला कोई इंसान। यह मिथ इतना ज्यादा प्रचारित हो गया है कि अगर आप किसी बच्चे को कहें कि आतंकवादी का चित्र बनाए तो वह भी दाढ़ी, टोपी वाला इंसान ही बनाएगा। इतना दुराग्रह किसी विकसित सभ्यता के लिए ठीक नहीं है। लेकिन दुख की बात है कि हम सब उसका शिकार हो गए हैं। इसमें निश्चित ही दूसरे धर्मों की कट्टर ताकतों का हाथ है, जिन्होंने सोची-समझी साजिश के तहत एक धर्म को नीचा दिखाने का काम शुरु किया है।

भारत भी इस दुराग्रह का शिकार है, जबकि हम खुद आतंकवाद के हाथों घायल हुए बैठे हैं। यही कारण है कि कल जब असीमानंद को अदालत ने बरी किया तो भाजपा के बोल बांकुरों ने कमान संभाली और कांग्रेस पर हिंदुओं को बदनाम करने का आरोप लगा दिया। लेकिन क्या इन लोगों को यह सवाल नहीं उठाने चाहिए थे कि 11 साल तक आखिर दोषियों तक जांच एजेंसियां क्यों नहीं पहुंच पाईं? क्यों आरोपियों के खिलाफ सबूत नहीं मिले? क्या 11 साल तक यह समझ ही नहींआया कि जांच सही दिशा में नहीं बढ़ रही है? क्या जांच एजेंसियों ने सबूत जुटाने में कोताही बरती? अगर हां, तो किसके इशारों पर ऐसा किया गया? यह विचित्र संयोग है कि जज रवींद्र रेड्डी ने दिन में फैसला सुनाया और रात तक उनके इस्तीफे की खबर आ गई। उनका कहना है कि इस्तीफा निजी कारणों से दिया गया। लेकिन यह तर्क भी गले से नीचे नहीं उतरता।

मक्का मस्जिद धमाके की जांच पहले स्थानीय पुलिस ने की, फिर सीबीआई के पास मामला आया और बाद में एनआईए के पास। इन 11 सालों में केवल जांच एजेंसियां ही नहीं बदलीं, केेंद्र और प्रदेश की सत्ता भी बदल गई। एक प्रमुख आरोपी सुनील जोशी की हत्या हो गई। 2010 में असीमानंद ने दिल्ली में जज के सामने स्वीकार किया था कि मैं मंदिरों पर हमले से दुखी था, इसलिए ब्लास्ट को अंजाम दिया। बाद में वो इस बयान से पलट गए। इस मामले में 66 और गवाह भी अपने बयान से पलट गए, लिहाजा मामला एनआईए के हाथ से फिसल गया।

अब बड़ा सवाल यह है कि मामला फिसल गया या फिसल जाने दिया गया। क्योंकि बीते कुछ सालों में हम लगातार देख रहे हैं कि किस तरह महत्वपूर्ण मामलों में जांच को सत्ता के दबाव में प्रभावित किया जाता है। फिर उन्हें ऐसा उलझा दिया जाता है कि असल दोषी बच निकलते हैं और देश के सामने उन्हें अबूझ पहेली की तरह रख दिया जाता है। जनता सीआईडी और क्राइम पेट्रोल जैसे कार्यक्रम देखकर खुश है कि अपराधी को सजा मिलती है। लेकिन हकीकत में अपराध और राजनीति का गठजोड़ उसे नजर नहीं आ रहा है। अब तो इसमें धर्म भी शामिल हो गया है। बलात्कार हो या आतंकवाद, इन गंभीर अपराधों पर भी राजनैतिकदलों के धार्मिक एजेंडे हावी हो रहे हैं। हम अक्सर पाकिस्तान पर आरोप मढ़ते हैं कि वह आतंकवाद को पनाह देता है, पर हम खुद किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, यह भी सोचना चाहिए। रहा सवाल जांच एजेंसियों का, तो संविधान ने उन्हें शक्ति दी है, लेकिन वे खुद उसे सत्ता के पास गिरवी रख रहे हैं। सीबीआई को पिंजरे का तोता कहा गया, क्या एनआईए को खूंटे से बंधी गाय कहा जाए?


The Times of India

Murk Unlimited
The acquittal of five accused in the Mecca Masjid blast case brings us back to an intractable, but familiar, problem when prosecution fails: who killed the nine people and injured scores of others? National Investigation Agency has registered another miserable failure to its credit. Sixty-six material witnesses turned hostile, a reflection of the agency’s incompetence or political pressures on witnesses. If so many witnesses oppose the prosecution case, someone in NIA must pay for taking the system for a ride. Recall that three agencies – Hyderabad police, CBI and NIA – probed the case and each seem to have magnified, instead of rectifying, initial errors.

Hyderabad police arrested 20 Muslim youths but CBI wasn’t impressed and found a common strand between the Malegaon, Samjhauta, Ajmer Dargah and Mecca Masjid blasts. While a Jaipur NIA court convicted RSS worker Devendra Gupta for the Ajmer blast, he has been acquitted in the Mecca Masjid blast. Both Jaipur and Hyderabad NIA courts rejected Swami Aseemanand’s judicial confession, the major peg on which the cases rested. In 2011, Aseemanand repudiated his statement to a magistrate claiming it was made under CBI pressure.
It is time to videograph confession statements so that trial judges can look at the demeanour of the magistrate, accused persons, and investigating officers. Each failure of probe agencies diminishes public confidence in the police and justice system. However, BJP and Congress have started a political blame game that only exposes the influence governments wield over agencies. With the investigations completed during UPA-2 and prosecution progressing through NDA years the flaws during both periods are too blatant to ignore. Rather than check terror these political parties are doing a great disservice by scoring communal points in terror investigations.

This is dangerous and disheartening for police and intelligence agencies instrumental in busting terror plots and communal riots. A consensus on isolating threats to state and public order should not be so difficult, given that most politicians swear by nationalism. However, votebank politics has polarised the country. The state must answer to survivors and relatives of victims over its failure to dispense justice. NIA’s latest failure comes after its farcical pursuit of love jihad in Kerala. Thrusting India’s premier anti-terror agency in pursuit of a divisive agenda aimed at driving a wedge between consenting adults lowered its stature. NIA and CBI must act to regain their lost credibility.


The Indian Express

No One is Guilty
The acquittal of all the accused in the Mecca Masjid blast case shines the light on the National Investigation Agency (NIA), and the view is unimpressive. The organisation was formed after the Mumbai attacks, in response to two realities. One, that terrorism is agnostic to borders and jurisdictions, and therefore an agency with a nationwide footprint was needed to replicate strategies and successes at one location elsewhere. Two, the CBI, the famous “caged parrot”, had attained disreputability, and a national agency perceived to be above political pressures and other motives, and deserving of public trust, was required. However, the Mecca Masjid acquittals — the circumstances in which they played out, and the unanswered questions they leave behind — suggest that the NIA has not lived up to its promise.

In January, NIA chief Y C Modi claimed a 95 per cent conviction rate, but the numbers miss the point. These convictions included petty counterfeiting matters and Arms Act cases, the bread and butter of any enforcement agency. But the NIA was set up for the express purpose of addressing high-profile cases with wider political and geopolitical implications, such as the Mumbai attack.

It had performed well in that matter, working with agencies overseas and interrogating David Headley in the US. But from about 2014, it was clear that it would be unable to make a rigorous case in the Mecca Masjid matter. Notably, the agency had become controversial in 2015, after the NDA came to power at the Centre, following the revelation by former special prosecutor Rohini Salian that a superintendent of police of the NIA asked her to go easy on the Malegaon accused. The NIA was supposed to be the agency above such controversies, and immune to interference. On the contrary, it has laid itself open to the charge of attempting to interfere with due process.
In the Mecca Masjid case, the loss of evidence has contributed significantly to the outcome. But the perception that the agency showed little initiative to plug the loopholes has done more damage. A parliamentary committee pulled it up for similar lack of energy in 2017, when it dragged its feet on a probe in the Pathankot attack. In the present case, the phenomenon of witnesses turning hostile and the accused disowning testimony has drawn unfavourable attention. And the resignation of the judge who delivered the verdict, only two months before his retirement, is thought-provoking. Despite a fine beginning, today the NIA looks more like a new, unimproved CBI.


The New Indian Express

Turning A Nelson’s Eye to Brewing Cash Crisis
Reports across the country of a severe shortage of currency and ATMs sporting ‘Out of Order’ boards have created some disquiet. The big problem areas are eastern Maharashtra, Bihar and Gujarat. Some cities too seem to be hit hard. Snaky, long queues in front of ATMs in Patna, Hyderabad, Bhopal, Surat, Varanasi and Delhi have set off a demonetisation-like panic. The RBI has reported that currency notes worth `18.17 lakh crore were in circulation a few days ago, around the same volume before demonetisation was announced in November 2016. Moreover, considering the significantly higher level of digital transactions, a cash crunch is indeed surprising.

The government, instead of giving a cogent explanation, has unfortunately adopted an ostrich-like attitude. Finance Minister Arun Jaitley took to Twitter claiming there “is more than adequate currency in circulation” and there was a “temporary shortage” because of an unusual spurt in demand for cash. With Jaitley failing to clear the air, various theories are doing the rounds. One claims that at this time of the year, there is a sudden spike in cash withdrawals due to the harvest festival; another theory says elections in Karnataka next month have created a run to stash cash for the crucial political battle. Then there are persistent reports of `2,000 currency notes being hoarded and disappearing from the system.

Beyond the confusion, what is clear is the government has been again caught napping. The telltale signs of the crisis were there. In Telangana and Andhra Pradesh, ATMs have been dry for over a month. Bihar, Karnataka, UP, Maharashtra and Rajasthan have reported more cash being withdrawn than deposited. The demonetisation crisis we went through should have made the government more alert to these signals. It’s unfortunate that the RBI and Union finance ministry have begun to scramble around only after there has been an outcry. The least the government can do is provide a truthful explanation of what has happened.


The Telegraph

Muffled Voices

When it rains, it pours. This does not bode well for teachers in the colleges and universities of West Bengal, who are now likely to be at the receiving end of a number of draconian rules drawn up by the state government. The draft of the rules, put together by a committee in accordance with the West Bengal Universities and Colleges (Administration and Regulation) Act, 2017, not only impinges on their constitutional right to go to court against the authorities, but also prevents them from speaking to or writing in the media without prior approval. Published articles that are deemed critical of the Centre or state dispensation are likely to invite punishment, as will any behaviour that is perceived to be subversive. Teachers will not even be allowed to hire a lawyer; any grievances they might have against their employers can only be placed before a tribunal set up by the government. If the government’s muscle-flexing were not pronounced enough already, the new rules also state that it shall have a say in the recruitment process – a job that was hitherto the prerogative of the universities. These are ominous signs, for they lay bare the State’s determined attempt to encroach upon the autonomy of educational institutions and the freedom of teachers.

This blurring of the line between the responsibilities of teachers and the government raises some important questions. On what basis are such fundamental freedoms being taken away? There is no doubt that it can be deemed unethical for a citizen to speak ill of his place of employment publicly; professional decorum must always be maintained, and due process followed in addressing grievances. But does the theoretical possibility of a teacher approaching the court or communicating with the media – both of which he is well within his constitutional rights to do – justify the government’s move to clamp down on those freedoms? It is, perhaps, telling that the State feels the need to take steps that can easily be interpreted as an attempt to muffle voices of dissent. As the government’s presence in the educational sphere grows more and more overbearing, it will not only demoralize existing teachers, but also ensure that the best people for the job reconsider entering the profession. When basic human freedoms are taken away from the people tasked with shaping young minds, what will they teach their students?