आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 04 अप्रैल ,2018

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नवभारत टाइम्स 

कैसे आए फीलगुड 
अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर कुछ अच्छी खबरें आई हैं। देश में टैक्स का दायरा और कुल कलेक्शन तेजी से बढ़ा है। नए वित्त वर्ष के दूसरे दिन वित्त मंत्रालय ने टैक्स से जुड़े आंकड़े जारी करते हुए बताया कि डायरेक्ट टैक्स कलेक्शन टारगेट को भी पार कर गया है। 2017-18 में डायरेक्ट टैक्स कलेक्शन 9.95 लाख करोड़ रुपये रहा, जो पिछले वित्त वर्ष के टैक्स कलेक्शन के मुकाबले 17.1 प्रतिशत ज्यादा है। 99.5 लाख नए लोगों ने इस बार टैक्स रिटर्न फाइल किए हैं। वित्त सचिव हसमुख अधिया के अनुसार मार्च में जीएसटी कलेक्शन भी पिछली बार से ज्यादा रहा। इसके अलावा एक बड़ी बात यह हुई है कि सरकार राजस्व घाटे का लक्ष्य साधने में कामयाब रही, जो बीच में असंभव लगने लगा था। टैक्स और विनिवेश के जरिए सरकार की आमदनी बढ़ने से जन कल्याण से जुड़ी योजनाओं में सरकारी निवेश की संभावना और बढ़ी है। आज जब निजी कंपनियां अपना हर कदम फूंक-फूंककर रख रही हैं, तब सरकारी खर्च ही अर्थव्यवस्था का इंजन बना हुआ है। खासकर इंफ्रास्ट्रक्चर पर सरकार का काफी जोर है। बीते वित्त वर्ष में देश में नैशनल हाइवे का निर्माण 10,000 किलोमीटर के रेकॉर्ड लेवल पर पहुंच गया। सड़कों का ठेका छोड़ने और उन पर काम शुरू कराने में सरकार ने विशेष तत्परता दिखाई है। 2018 में रोजाना औसतन 27.5 किलोमीटर सड़कें बनाई गईं, जबकि सड़कों के ठेके छोड़ने की रफ्तार लगभग 46 किलोमीटर रोजाना रही। इससे एक बड़े वर्ग को रोजी-रोजगार मिला है। लेकिन दिक्कत यह है कि जो क्षेत्र भारत में सबसे ज्यादा रोजगार देता आया है, वह आज भी काफी सुस्ती दिखा रहा है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की ग्रोथ मार्च में पांच माह के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। निक्केई इंडिया पर्चेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स (पीएमआई) में कहा गया कि मैन्युफैक्चरिंग में यह गिरावट बिजनेस ऑर्डर बढ़ने की धीमी रफ्तार और कंपनियों की ओर से कम लोगों को काम पर रखने की वजह से आई है। मार्च में मैन्युफैक्चरिंग पीएमआई गिरकर 51.0 पर पहुंच गया, जो कि पांच महीने में सबसे कम है। वैश्विक स्थितियां भी अनुकूल नहीं चल रही हैं। देश के निर्यात पर ‘ग्लोबल ट्रेड वॉर’ का असर पड़ सकता है। भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल (एसोचैम) ने कहा है कि अमेरिका द्वारा उठाए जा रहे कदमों का भारत पर भले ही कोई प्रत्यक्ष असर न हो लेकिन परोक्ष रूप से अर्थव्यवस्था जरूर प्रभावित होगी। विदेशी मुद्राओं की कीमतों में उथल-पुथल का संभवत: भारत के निर्यात पर बुरा असर पड़े। इस स्थिति से निपटने के लिए तत्काल कोई रणनीति बनानी होगी। निजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए भी कुछ उपाय करने होंगे। एक बात तो तय है कि घरेलू आर्थिक अनिश्चितता कम होने से इकॉनमी में हलचल दिख रही है, लेकिन फीलगुड जैसी कोई चीज अभी क्षितिज के उस पार ही है।


जनसत्ता 

मोसुल का सबक
इराक के मोसुल शहर के पास चार साल पहले मारे गए भारतीय कामगारों के शव भारत आ गए हैं और परिजनों को सौंप दिए गए हैं। इन कामगारों की इस्लामिक स्टेट (आइएस) के आतंकियों ने हत्या कर दी थी। भारतीय कामगारों की हत्या का यह प्रकरण चिंताजनक तो है ही, कई गंभीर सवाल भी खड़े करता है। जो भारतीय दूसरे देशों, खासतौर से अरब देशों में रोजगार के लिए जाते हैं, आखिर उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी किसकी है? इस मामले ने सरकार को एक बार फिर इस बारे में सोचने को मजबूर किया है। संसद की एक स्थायी समिति ने भी इस बात पर जोर दिया है कि जो भारतीय दूसरे देशों में +काम करते हैं उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए मजबूत तंत्र बनाने की जरूरत है। समिति ने प्रवासी कामगारों के मसले पर एक नए कानून की रूपरेखा तैयार करने का सुझाव दिया है।

मोसुल की घटना में सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि मारे गए लोगों के बारे में बगदाद स्थित भारतीय दूतावास के पास कोई जानकारी नहीं थी। जबकि कायदा तो यह है कि जो भी व्यक्ति रोजगार के लिए किसी देश में जाता है तो उसकी जानकारी दोनों देशों के पास होनी चाहिए। दरअसल, समस्या यह है कि अरब देशों में रोजगार के लिए अवैध रूप से जाने वालों की तादाद काफी ज्यादा है। इन देशों में काम करने वाली स्थानीय और विदेशी कंपनियां सस्ते और कुशल कामगारों की तलाश में रहती हैं। इराक, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कतर, ओमान जैसे देशों में बेलदारी, बढ़ई, पेंटर, प्लंबर, मिस्त्री जैसे कामगारों की भारी मांग रहती है। इन देशों में तेलशोधक संयंत्रों में भी रोजगार की संभावनाएं काफी रहती हैं। लेकिन मुश्किलें तब खड़ी होती हैं जब अवैध रूप से लोग एजेंटों के जरिए रोजगार के लिए इन देशों में पहुंचते हैं और सरकारी स्तर पर किसी भी देश को आधिकारिक रूप से इनकी बाबत जानकारी नहीं होती। ऐसे में इनकी सुरक्षा का जिम्मा किसी का नहीं होता। वे कंपनियां भी हाथ झाड़ लेती हैं जहां ये काम करते हैं। हालांकि सरकार अशांत क्षेत्रों में न जाने के लिए समय-समय पर परामर्श जारी करती रहती है, लेकिन अवैध रूप से इन क्षेत्रों में लोगों को भेजने वालों के नेटवर्क पर लगाम कसने में वह लाचार रही है।

सरकार इस तथ्य से अनजान नहीं है कि देश में बड़ी संख्या में ऐसे एजेंट अपना धंधा चल रहे हैं जो अवैध रूप से लोगों को काम दिलाने के नाम पर विदेश भेजते हैं और उनसे मोटा पैसा कमाते हैं। इन एजेंटों का यह जाल दूर-दूर तक फैला है। पंजाब में ऐसे एजेंट बड़े पैमाने पर सक्रिय हैं। पैसे के लालच में भोले-भाले और मजबूरी के मारे लोग इनके चंगुल में फंस जाते हैं। अवैध रूप से जाने वाले लोग दुबई या दूसरे देशों के जरिए इराक में प्रवेश करते हैं। सवाल है कि रोजगार के लिए अवैध रूप से बाहर भेजने वाले एजेंटों का जो नेटवर्क काम कर रहा है उस पर लगाम कैसे लगे?अगर सरकार ने गैरकानूनी रूप से काम कर रहे इन एजेंटों पर नकेल कसी होती तो शायद मोसुल जैसी घटना से बचा जा सकता था!


हिंदुस्तान

हाफिज पर नकेल

अमेरिका ने मुंबई हमले के मास्टर माइंड और जमात-उद-दावा सरगना हाफिज सईद को बड़ा झटका दिया है। उसने इस अंतरराष्ट्रीय गुनहगार का राजनीतिक चेहरा बनने जा रही पार्टी मिल्ली मुस्लिम लीग (एमएमएल) और सात नेताओं को आतंकवादी घोषित करते हुए प्रतिबंधित कर दिया है। अमेरिका का यह कदम ऐसे वक्त में आया है, जब पाकिस्तान में चुनावी सुगबुगाहट के बीच कई नए राजनीतिक दल पंजीकरण की फिराक में हैं। हाफिज भी मिल्ली मुस्लिम लीग का पंजीकरण कराकर पाकिस्तान पर राज करने की अपनी दिली तमन्ना को अंजाम देना चाहता है। जाहिर है, इसे पाकिस्तान की राजनीति और सेना, दोनों का मूक समर्थन हासिल है। एक बार जिस आधार पर वहां का चुनाव आयोग एमएमएल को मान्यता देने से इनकार कर चुका है, उसी आधार पर वह अब आंतरिक मंत्रालय से मंजूरी मांग रहा है। यहां अपना ही फैसला बदलने की आयोग की मजबूरी समझी जा सकती है।

हाफिज और उसके संगठन जमात-उद-दावा व लश्कर-ए-तैयबा पहले से अमेरिकी प्रतिबंधित सूची में हैं। अमेरिका का ताजा कदम उसकी उस मान्यता का प्रतिफल है, जो मानता है कि एमएमएल और तहरीक-ए-आजादी जैसे संगठन लश्कर के ही छिपे हुए चेहरे हैं और इनका गठन प्रतिबंधों को धता बताने के लिए किया गया है। यह कदम पाकिस्तान और हाफिज के इसी फरेब को बेनकाब करता है। दरअसल, अमेरिका ने अपने ताजा कदम से एक दल पर नहीं, बल्कि हाफिज की उस मंशा पर प्रतिबंध लगाया है, जिसके जरिये वह अपनी पार्टी को चुनाव लड़ाकर देश पर सीधे-सीधे काबिज होना चाहता है।

यह पहला मौका है, जब हाफिज और उसका आका बना पाकिस्तान, दोनों ही ठीक तरह से निशाने पर आए हैं। पाकिस्तान वैश्विक मंचों पर जो भी रोना रोए, सच यही है कि वह इस अंतरराष्ट्रीय गुनहगार के मोह से कभी मुक्त नहीं रहा और उसे व उसके संगठन को तमाम ‘फर्जी बंदिशों’ की आड़ में खुली छूट देता रहा। सच तो यह है कि हाफिज जैसे-जैसे निशाना बनता गया है, उसकी दबी हसरतें उफान मारने लगी हैं। यही कारण है कि हताश हाफिज अब राजनीति के गलियारे से पाकिस्तान को सीधे-सीधे काबू करने की फिराक में दिख रहा है। नए नाम से पार्टी का पंजीकरण इसी मंशा को आकार देने की नाकाम होती कोशिश है। कश्मीर को लेकर भारत पर हमला करने की राय देने वाला उसके ताजा बयान को भी इसी कड़ी में देखने की जरूरत है।

दरअसल, हाफिज जैसे अंतरराष्ट्रीय गुनहगार के लिए यह निराशा की घड़ी है, जब उस पर वैश्विक दबाव तो है ही, खुद पाकिस्तान में भी उसका विरोध करने वाले कम नहीं हैं। ऐसे में, नफरत की राजनीति करने वाले चंद हुक्मरानों और सेना की शह पर इससे पहले कि वह कुछ बड़ा कारनामा कर जाए, उसकी नकेल कसने की जरूरत है। नकेल तो अमेरिका ने डाल दी है, अब इसकी रस्सी चारों ओर से खींचे जाने की जरूरत है। यह पाकिस्तान के लिए भी संभल जाने का अवसर है। यह समझने का अवसर है कि आज वह तबाही के जिस मुकाम पर खड़ा है, उसमें सबसे बड़ा हाथ खुद उसका अपना है, क्योंकि उसकी तो पूरी राजनीति ही इस अंतरराष्ट्रीय गुनहगार के इर्द-गिर्द घूमती रही है। क्या पाकिस्तान से ऐसी कोई उम्मीद की जा सकती है?


 राजस्थान पत्रिका

घड़ियाली आंसू

ताजा घटनाओं ने इस तथ्य की पुष्टि एक बार फिर कर दी है कि वोटों की फसल काटने के लिए नेता किसी भी हद तक जा सकते हैं। पहली घटना एससी-एसटी कानून में बदलाव को लेकर है तो दूसरा मुद्दा कावेरी जल विवाद से जुड़ा है। एससी-एसटी कानून में संशोधन के खिलाफ एससीएसटी संगठनों ने भारत बंद करके कानून व्यवस्था की स्थिति बिगाड़ दी। सरकार से लेकर राजनीतिक दल तक सकते में आ गए। देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले के खिलाफ आयोजित बंद में जमकर हिंसा, आगजनी और तोड़फोड़ हुई। कांग्रेस समेत अनेक विपक्षी दल तो भारत बंद के समर्थकों के साथ मिलकर सामने भी

आ गए। दलित वोटों का लालच शायद उन्हें उनके पाले में खींच ले गया। फिर भला केन्द्र की सत्ता में बैठी भाजपा कैसे पीछे रहती? फैसला आने के बारह दिनों तक शांत बैठी रही केन्द्र ने बंद के राजनीतिक नफा-नुकसान पर मंथन के बाद सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका लगाकर स्टे की मांग कर डाली। यह बात और हैं कि अदालत ने केन्द्र की मांग ठुकराते हुए साफ कर दिया कि उसने कानून की धाराओं से कोई छेड़छाड़ नहीं की है। अदालत चाहती है कि इस कानून का दुरुपयोग ना हो और किसी भी निर्दोष को सजा नहीं मिलने पाए। साथ ही जो दोषी हो, उसके खिलाफ विधिसम्मत कार्रवाई हो।।

सर्वोच्च न्यायालय ने सभी पक्षों को दो दिन में इस मुद्दे पर अपना विस्तृत नजरिया पेश करने को कहा है। दस दिन बाद वह इस मसले पर सभी के जवाबों के अध्ययन के बाद सुनवाई करेगी। केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट की भावना समझती थी लेकिन मामला वोटों से जुड़ा था इसलिए पुनर्विचार याचिका डालने में देरी नहीं की गई। दूसरा मामला तमिलनाडु में कावेरी जल विवाद से जुड़ा है। कावेरी प्रबंधन बोर्ड के गठन की मांग को लेकर इन दिनों तमिलनाडु सुलग रहा है। कोयम्बटूर में दो लोग आत्मदाह की कोशिश कर चुके हैं तो प्रमुख विपक्षी दल डीएमके ने भी धरनेप्रदर्शन की चेतावनी दे रखी है। मुद्दा राज्य के हित का है। यानी यहां भी मामला वोटों से सीधे जुड़ा है। सो भला सत्तारूढ़ दल कैसे पीछे रहता। विपक्ष आन्दोलन का लाभ न लूट ले, इसलिए राज्य के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री भी उपवास पर बैठे। राजनेताओं को अब न चिंता अदालतों की रह गई है और न डर उन्हें संवैधानिक पदों का रह गया है। महत्वपूर्ण यह रह गया है कि हर मुद्दे पर


दैनिक भास्कर

सब पर भारी पड़ेगी कच्चे तेल की लगातार बढ़ती कीमत 

तेल के बढ़ते दाम सरकार और जनता दोनों पर भारी पड़ने वाले हैं। तेल के दाम न सिर्फ पिछले छह दिनों से बढ़ रहे हैं बल्कि मंगलवार को पिछले छह वर्षों की सबसे बड़ी उछाल दर्ज की गई। हालांकि, जाति और धर्म के मुद्‌दों में उलझे देश में इस मुद्‌दे पर न तो कोई आंदोलन हो रहा है और न ही राजनीतिक स्तर पर कोई विशेष प्रतिरोध। सरकार ने भी स्पष्ट किया है कि वह न तो अभी अपने कर कम करेगी और न ही मुक्त बाजार की नीति में किसी प्रकार का संशोधन। तेल और प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने न सिर्फ उत्पाद शुल्क में कमी से इनकार किया है बल्कि नया सुझाव दे डाला है कि अगर पेट्रोल डीज़ल को जीएसटी के तहत लाया जाएगा तो उपभोक्तों को फायदा होगा। इस समय पेट्रोल-डीज़ल के दामों में तेजी आने की वजह वे अंतरराष्ट्रीय स्थितियां हैं, जो तेल के दामों को तय करती हैं। तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक और रूस ने वैश्विक परिस्थितियों के मद्‌देनजर तेल के उत्पादन में कटौती करने का फैसला किया है और ऐसा करने से तेल के दाम बढ़ना स्वाभाविक है। 2016-2017 में भारत को तेल की कीमत 47.56 डॉलर प्रति बैरल देनी पड़ती थी जो अब 63.80 डॉलर प्रति बैरल हो गई है। मौजूदा एनडीए सरकार को तेल के अंतरराष्ट्रीय मूल्यों का खूब लाभ मिला है और उसके पूरे कार्यकाल में वह कम ही रहा है। इस दौरान सरकार ने उसका लाभ आम जनता को तो कम से कम दिया लेकिन, उत्पाद शुल्क बढ़ाकर खजाना खूब भरा है। 2014 से 2016 के बीच जब तेल के दाम गिर रहे थे तो सरकार ने उत्पाद शुल्क में नौ बार वृद्धि की है लेकिन, जब तेल के दामों में वृद्धि हुई तो सिर्फ एक बार उत्पाद शुल्क में कटौती की गई। सरकार का रोना यह है कि उसे उत्पाद शुल्क में कटौती से अब तक 26,000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है और आगे तकरीबन 13,000 करोड़ की हानि होने वाली है। मुक्त बाजार की नीति में दृढ़ता से यकीन करने वाली सरकार जनता की बजाय तेल कंपनियों के हित का ज्यादा ख्याल रखती है। अगर तेल के दाम ऐेसे ही बढ़ते रहे तो न सिर्फ व्यापार घाटा बढ़ेगा, बल्कि काबू में आ चुकी महंगाई भी बढ़ेगी और जीडीपी गिरेगा। ये चीजें उस सरकार पर भारी पड़ेंगी, जिसे अगले साल चुनाव लड़ना है। देखना है कि देश इस मुद्‌दे पर ध्यान देते हुए ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की ओर कदम बढ़ाता है या थोड़े-बहुत हेरफेर के साथ संकट के निकल जाने का इंतजार करता है।


दैनिक जागरण

फिर बेनकाब पाकिस्तान

अमेरिका ने आतंकी सरगना हाफिज सईद की ओर से बनाए गए तथाकथित राजनीतिक दल मिल्ली मुस्लिम लीग को आतंकी संगठन करार देकर पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान को एक बार फिर बेनकाब करने के साथ ही शर्मसार भी किया। अमेरिका के ऐसे फैसले के बाद भी इसके आसार कम हैं कि पाकिस्तान सरकार और वहां की सेना अपनी गलती मानने को तैयार होगी। आखिर यह एक तथ्य है कि पाकिस्तान की सिविल सोसायटी के विरोध के बावजूद हाफिज सईद की आतंक की नई लीग को राजनीतिक दल के तौर पर मान्यता देने की तैयारी हो रही थी। पाकिस्तान सरकार और सेना के साथ वहां के अन्य सत्ता तंत्र की समस्या यही है कि वह नीतिगत स्तर पर आतंकी सरगनाओं और आतंकी संगठनों का इस्तेमाल करना बेहतर समझता है। इसी आत्मघाती सोच के कारण वहां बड़े पैमाने पर आतंकी संगठनों को पालने-पोसने का काम किया जा रहा है। दुनिया की आंखों में धूल झोंकने के इरादे से इन आतंकी संगठनों को नए नाम धारण करने की भी सुविधा दी जाती है और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय होने की भी। यही कारण है कि लश्करे तैयबा जैसा खूंखार आतंकी संगठन खड़ा करने वाले हाफिज सईद को राजनीतिक दल बनाने की अनुमति दे दी गई। हालांकि आतंकी संगठनों को खुला समर्थन देने के कारण पाकिस्तान दुनिया भर में और यहां तक कि अरब देशों में भी बदनाम हो रहा है, लेकिन वह अपना रुख-रवैया छोड़ने के लिए तैयार नहीं। भले ही अमेरिका ने हाफिज सईद के एक और संगठन को आतंकी घोषित कर दिया हो, लेकिन इससे पाकिस्तान के सही रास्ते पर आने की उम्मीद कम ही है। यह किसी से छिपा नहीं कि अमेरिका के तीखे तेवरों के बाद भी पाकिस्तान भारत और अफगानिस्तान में सक्रिय एवं अपनी धरती पर पल रहे आतंकी संगठनों को संरक्षण देने से बाज नहीं आ रहा है। उलटे वह कभी खुद को आतंकवाद से पीड़ित बताता है और कभी आतंकवाद से लड़ने का ढोंग करता है। चूंकि चीन उसके इस ढोंग का साथी बना हुआ है इसलिए भारत को सतर्क रहना होगा। 1अमेरिका के फैसले का स्वागत करने के बाद भी भारत सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि पाकिस्तान अपने भारत विरोधी रवैये को छोड़ना तो दूर रहा, उसमें मामूली बदलाव लाता भी नहीं दिख रहा है। वह कश्मीर को अशांत करने और आतंकवाद की आग में झोंकने के लिए नित नए हथकंडे अपना रहा है। कश्मीर में आतंकियों की खेप भेजने के साथ वह भारत के खिलाफ दुष्प्रचार का भी सहारा ले रहा है। भारत इससे भी अच्छी तरह परिचित है कि पाकिस्तान ने किस तरह संघर्ष विराम को निर्थक बना दिया है। भारत को पाकिस्तान के शत्रुतापूर्ण रवैये के खिलाफ कोई ठोस रणनीति बनाने की जरूरत है। इस मामले में वह अमेरिका पर एक हद तक ही भरोसा कर सकता है, क्योंकि ट्रंप प्रशासन की पहली प्राथमिकता अफगानिस्तान में पाकिस्तान के दखल को रोकना है। अपने इस मकसद को पाने के लिए वह पाकिस्तान से कोई समझौता भी कर सकता है। इसका अंदेशा इसलिए है, क्योंकि पाकिस्तान एक तो अपने अराजक व्यवहार की कीमत वसूलने में माहिर है और दूसरे धोखा देने में भी।


देशबन्धु 

आज की चाणक्य नीति
प्रजासुखे सुखं राज्ञ: प्रजानां तु हिते हितम् ।
नात्मप्रियं हितं राज्ञ: प्रजानां तु प्रियं हितम् ॥
प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है, प्रजा के हित में ही उसे अपना हित दिखना चाहिए । जो स्वयं को प्रिय लगे उसमें राजा का हित नहीं है, उसका हित तो प्रजा को जो प्रिय लगे उसमें है ।

कौटिल्य यानी चाणक्य का लिखा यह श्लोक संसद भवन के एक गुंबद पर दर्ज है। तब राजशाही थी, इसलिए राजा के कर्त्तव्य का जिक्र है, आज के संदर्भ में इसे प्रधानमंत्री का दायित्व कहा जा सकता है। चार साल पहले जब नरेन्द्र मोदी ने संसद में प्रवेश किया था, तो ड्योढ़ी पर सिर झुकाया था, आगे उन्हें सिर उठाकर इन नीति वचनों को भी देखना चाहिए था, जो संसद भवन के स्तंभों, गुंबदों पर उत्कीर्ण हैं। प्रजा यानी जनता के सुख में ही राजा को अपना सुख देखना चाहिए, लेकिन क्या आज ऐसी स्थिति है। देश जिस तरह से जल रहा है, कम से कम उसे देखकर तो ऐसा बिल्कुल नहीं लगता। पहले किसान अपने हक के लिए सड़कों पर उतरे, उन्हें आश्वासन देकर वापस भेज दिया गया। फिर अन्ना हजारे ने न जाने क्यों किसानों के नाम पर अनशन का ऐलान किया, यह भी कहा कि वे इस मंच पर राजनीति नहीं होने देंगे, लेकिन राजनेताओं के हाथों जूस पीकर वे भी लौट गए, और सरकार को हिलाकर रख देंगे जैसी बातें खुद ही हवा में लटक गईं।

किसान एक बार फिर ठगे गए। इसके बाद बारी आई छात्रों की, जिनके नाम पर ठगी अभी चल ही रही है और वे भी समझ नहीं पा रहे हैं कि आंदोलन करें या पढ़ाई करें।  2 अप्रैल को देश भर में दलित सड़कों पर उतरे। वे एससी एसटी एक्ट में बदलाव का विरोध करने के लिए भारत बंद करवा रहे थे, लेकिन इसमें देश के कई राज्यों में ऐसी हिंसा भड़की कि कम से कम 10 लोगों की मौत हो गई। करोड़ों की सार्वजनिक और निजी संपत्ति का नुकसान हुआ सो अलग। बहुत से चैनलों में इस खबर को इस ढंग से दिखाया गया मानो इस नुकसान के जिम्मेदार दलित ही हैं। पता नहीं ये पत्रकार और मीडिया मालिक कैसी दिव्य दृष्टि रखते हैं कि घटना देखते ही उसके कारक, कारण और परिणाम तक तुरंत पहुंच जाते हैं।

यह सच है कि 2 अप्रैल को देश के कई राज्य सुलग उठे, लेकिन इनमें सबसे ज्यादा हिंसा वहीं हुई, जहां दलितों का उत्पीड़न सदियों से होता रहा है। मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार, उत्तरप्रदेश, हरियाणा इन तमाम राज्यों में आंदोलन उग्र रहा। यह शायद संयोग ही है कि इन तमाम राज्यों में भाजपा की सरकार है। केेंद्र में भी भाजपा की ही सत्ता है, जो यह दंभ भरती है कि संसद में एससी एसटी के कुल 131 सांसदों में 67 सांसद उसके हैं। जब दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाले इतने लोग भाजपा के सांसद हैं, तो फिर यह सरकार क्यों दलितों की पीड़ा को समझने में नाकाम रही है?

क्यों वह उनका भरोसा नहीं जीत पा रही कि वह उनके हित के लिए कदम उठाएगी। जिस दिन भारत बंद का ऐलान हुआ, उसी दिन सरकार ने पुनर्विचार याचिका क्यों दायर की? क्या वह यह काम पहले नहीं कर सकती थी? क्या वह अध्यादेश नहीं ला सकती थी, ताकि ऐस कानून बन सके कि दलितों को सम्मान के साथ जीने का अहसास हो? जिस तरह रामनवमी जुलूस निकालने के बाद सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में सरकार नाकाम रही, वही असफलता अब दलित आंदोलन में भी दिख रही है और यह संदेह होता है कि कहींयह सब कुछ जानबूझ कर तो नहीं होने दिया जा रहा, ताकि जनता का ध्यान भटक सके।

किसान, छात्र, सांप्रदायिक हिंसा सबकी बात भूलकर अब देश दलितों पर चर्चा कर रहा है और उसमें भी पक्षपात नजर आ रहा है। केेंद्र और राज्य सरकारें अब कानून-व्यवस्था संभालने में लगी हैं, यही कदम पहले क्यों नहीं उठाया गया? क्यों राजस्थान में करणी सेना दलितों के बंद का विरोध करने उतर आई, क्या वहां पुलिस की जिम्मेदारी करणी सेना ने उठा रखी है? क्यों मध्यप्रदेश में खुलेआम रिवाल्वर लेकर चलने वाले शख्स को पुलिस ने नहीं पहचाना, जबकि स्थानीय लोग उसकी पहचान बता रहे थे? हिंसा किसी भी तरह की हो और किसी भी पक्ष से हो, वह किसी सूरत में सही नहीं कही जा सकती। इसलिए कहा जाता है कि कानून सबके लिए बराबर है, पर समाज में भी सब बराबर कब होंगे, यह बड़ा सवाल है।

दलित आंदोलन के बहाने राजनीति ने समाज को फिर बांटने का खेल खेला है। यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि इस हिंसा के लिए दलित ही जिम्मेदार हैं और इस तरह फिर उन्हें गलत साबित करने की साजिश हो रही है। समाज बार-बार बंटने का काफी नुकसान उठा चुका है, अब कम से कम वह संभल जाए और राजनीति के षड्यंत्र को जीतने न दे। राजा ख्याल करे न करे, प्रजा अपने हितों का ख्याल खुद ही करे, आज चाणक्य होते, तो शायद यही कहते।


प्रभात खबर

संसद ठप क्यों

देश के संसदीय इतिहास में 2012 के मॉनसून सत्र को सबसे ज्यादा गतिरोध वाला सत्र माना जाता है. तब कोयला खदानों में आवंटन में हुई गड़बड़ी का मुद्दा था और इस पर यूपीए सरकार को विपक्ष ने घेर लिया था, पर मौजूदा बजट सत्र 2012 के मॉनसून सत्र के रिकाॅर्ड को तोड़ने की ओर अग्रसर है. चालू सत्र की महज 22 बैठकों की उत्पादकता लोकसभा में 25 और राज्यसभा में 35 फीसदी रही है.

संसद में जारी गतिरोध के कारण अब तक 190 करोड़ रुपयों का नुकसान हो चुका है, जो सांसदों के वेतन-भत्तों, अन्य सुविधाओं तथा कार्यवाही से संबंधित इंतजाम पर खर्च हुए हैं. इसी संसद ने पिछले साल बजट सत्र में कामकाज का शानदार रिकॉर्ड बनाया था. उसे दोहराने या बेहतर बनाने का संकल्प क्यों नहीं लिया गया? बीते वर्ष बजट सत्र के दोनों चरणों में लोकसभा की 29 बैठकें हुई थीं और कुल अवधि नियत समय से 19 घंटे ज्यादा रही थी.

जाहिर है, तब उपादेयता यानी कामकाज 113 प्रतिशत रही. पिछली बार बजट पर बहस के साथ वस्तु एवं सेवाकर प्रणाली (जीएसटी) जैसा महत्वपूर्ण विधेयक भी पर्याप्त चर्चा के बाद पारित हुआ था, मगर इस बार के बजट सत्र में हंगामे के कारण 99 मंत्रालयों/विभागों का बजट महज 30 मिनट में मंजूर कर दिया गया. राष्ट्रपति-राज्यपालों की वेतन में बढ़ोतरी और विदेश से मिले राजनीतिक चंदे को जांच मुक्त करने जैसे बहसतलब विधेयक भी बिना चर्चा के पारित हो गये.

अगर एक साल के भीतर संसद के कामकाज के स्तर में इतना अधिक अंतर दिख रहा है, तो उसकी वजहें दोनों खेमों- सत्तापक्ष और विपक्ष के दलों- के रवैये में खोजी जानी चाहिए. अगले लोकसभा के चुनावों की रणनीतिक तैयारियों के लिए जमीन तलाशी जा रही है. हर दल के पास रोष जाहिर करने के लिए एक मुद्दा है.

सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को लग रहा है कि संसद को रोष जाहिर करने के एक मंच की तरह इस्तेमाल किया जाये और मतदाताओं को उससे प्रभावित कर अपने मुद्दे के इर्द-गिर्द गोलबंद करने की कोशिश हो.

अगर मुद्दों के समाधान की तलाश रहती, तो दोनों ही पक्ष बहस का रास्ता अपनाते और संसदीय परंपराओं के मुताबिक तनातनी को समाप्त करने की गंभीर कोशिश करते. अगर संसद में विभिन्न पार्टियां संवाद और चर्चा की राह नहीं अपना सकतीं, तो फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमतियों और विरोधाभासों के उपचार की आशा किस मंच से की जायेगी?

अफसोस की बात है कि सुचारु रूप से कामकाज हो, इस पर मंथन करने की जगह आरोप-प्रत्यारोप से खुद को सही और दूसरों को गलत साबित करने की कवायद हो रही है.

एक देश के रूप में हमें हमेशा याद रखना होगा कि संसद लोकतंत्र की पवित्रतम संस्था और समस्याओं के समाधान की शीर्षस्थ पंचायत है. इस संस्थान की मर्यादा का निर्वाह करना संसद में मौजूद हर एक जनप्रतिनिधि और राजनीतिक दल का सबसे बड़ा कर्तव्य है.


The Hindu

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After an aborted attempt in February, the government has finally managed to successfully roll out the e-way bill system for tracking the movement of goods under the Goods and Services Tax net from April 1. No major execution challenges have been reported by businesses so far, and the IT backbone that generates the e-way bills — that are now required even before goods are loaded for transport — has so far held up without glitches. On the first two days of the e-way system, which included a Sunday, 5.5 lakh e-way bills were generated, and the GST Network has said that the system is now geared to cope with a much higher capacity. Equally heartening is the revival in GST collections, that had dipped to ₹83,716 crore in November 2017, after a fairly robust ₹90,000 crore-plus inflow for the first three months of the new indirect tax system. As per final data released by the Centre on Monday, collections for the three months since then are far healthier than initial indications suggested, with February recording ₹89,264 crore, the highest since September 2017. Finance Secretary Hasmukh Adhia expects collections to pick up further as the authorities get a better sense of who is regularly filing returns and paying taxes. His confidence reflects the government’s belief that analytics deployed on GST data compiled for nine months would deliver a bigger bounty, even as e-way bills make it tougher to avoid tax dues.
Everyone’s fingers are crossed that the e-way bill portal, which now has over 20,000 registered transporters and 11 lakh taxpayers, will hold up, going forward. It is important to note that since the system for tracking inter-State movement of goods was launched at the beginning of a financial year, the actual load that the portal will have to bear on a normal business day may be much higher than the initial trends. This is because many businesses had already moved and stocked up goods by March 31, ahead of the system kicking in, and are still completing usual year-end processes such as recording closing stock. A staggered schedule for rolling out e-way bills for intra-State trade in a few States at a time is expected soon. Given that India’s transport sector is still largely unorganised and many vehicle drivers are not fully conversant with the technical nuances, it is important that anti-evasion squads deployed to check e-way bills operate with a light touch to start with, and limit the frequency of inspections for goods moving across States. Else, the system could end up creating a bottleneck for transporting goods in a country where goods movement already takes inordinately long due to infrastructure deficiencies. A similar approach would be ideal for other anti-evasion measures in the pipeline, including the matching of invoices from buyers and sellers, and the reverse-charge mechanism (expected by June-end) under which large businesses would need to pay tax on behalf of unregistered small suppliers.


The Indian Express

Real News
The prime minister has put the lid on a disturbing episode by ordering the withdrawal of a Ministry of Information and Broadcasting release, which announced that journalists peddling “fake news” would have their accreditation with the Press Information Bureau suspended immediately on receipt of a complaint, pending an investigation, and that repeat offenders would lose it permanently.
At about the same time Smriti Irani, I&B minister, from whose mind the idea had sprung fully armed and ready for trouble, climbed down and offered to engage with media bodies and organisations to check fake news and “uphold ethical journalism”. This gesture was merely conciliatory, tacitly acknowledging the embarrassing reality that her step had backfired.
With elections on the horizon, her announcement amounted to a barefaced attempt to muzzle the press and chill dissent. It betrayed a mindset that seeks control through blacklisting, a primitive strategy presumed to have been left behind in the dilapidated ruins of the Emergency. Indeed, if the good minister had consulted some of her colleagues who were incarcerated by Indira Gandhi for standing up to fake news of that day, they would have saved her some embarrassment.


The New Indian Express

What’s Bringing Everyone to the Picket Lines

Why is protest the order of the day? Why are farmers, Dalits, high-school students all taking to the streets? What brings on this deluge of public anger? Why is everyone being driven to the picket lines? Is it because Parliament, the forum for debate where people’s concerns are meant to be aired, is dysfunctional? That it too has been rendered a zone of protest? The treasury benches must introspect. It’s not enough to score tactical points. And winning elections is not the be-all and end-all of politics. A mandate primarily means winning popular trust, and as trustees of public faith, it’s the duty of the government to cater to the general weal—to protect people’s rights, resources and livelihood.
Blaming the Opposition for fanning dissent is part of the game only in normal circumstances, not in such times. And blaming the traditionally most deprived sections of India’s population, for taking out protest marches to defend their basic rights, is not on. It must always be remembered: the violence of Dalit protesters is a response to the everyday, structural violence they live under. And to say democratic India has achieved nothing is simply not true. The young Jatav who was killed in police firing in Alwar, Rajasthan, was a post-graduate awaiting a lecturer’s job. That’s what constitutional India has achieved, a young Dalit joining the knowledge economy, to set right history’s wrongs, and with his life that’s what we lost. With every death, we lose a part of an idea, a bit of the India story. Of struggling and succeeding. If only cops could be trained to think like that, perhaps they would act differently. If only the Centre had filed its review petition earlier, against the dilution of the SC/ST (Prevention of Atrocities) Act. Juridical points about the framing of innocents needs gentler handling. Perhaps the Centre can make amends when the hearings start, if its law officers possess enough nuance to calm the protesters about the government’s intentions and persuade the apex court out of its order. Or the loss may be permanently ours.


Times of India

The Middle Road

The violence that accompanied the Bharat bandh called by Dalit organisations has no place in a democracy. Neither does it fit into the socio-economic changes that Dalits are experiencing. The community has made huge strides socially and politically and the violence does disservice to this onward leap. Virtually the entire political class and an influential section of civil society are standing with Dalits in their objections to the Supreme Court (SC) judgment that regulated how the Prevention of Atrocities Act is enforced. But the resort to violence has only damaged the cause of advancement of civil rights and humaneness in society.

The peaceful protest by Maharashtra farmers last month made quite an impression because the marchers kept unswerving focus on their message of farm distress and failure to implement forest rights act. The right to protest peacefully is a fundamental right. Conversely, no amount of anger or distrust is justification for violent protest in democracy. Interestingly, no political party has condemned the violence that saw arson, destruction of property and general lawlessness. Nevertheless, the collective assertion by disparate Dalit groups across north India raises the possibility that the judgment was only a pretext for violence amid widespread paucity of jobs and sharpening social divides.

Misuse of draconian laws meant to reverse social injustices is a real problem. According to National Crime Bureau Records Bureau data, 15-16% of complaints filed under the Act in 2015 were false and 75% resulted in acquittals or withdrawals. Judicial safeguards like anticipatory bail must be available against false implication and the principle of innocent until proven guilty preserved. At the same time, the victim’s complaint followed by police lodging an FIR is the starting point for justice and taking this power away from local police can have unforeseen consequences.

With politicians, judges and activists veering between extremes, finding a middle path has become difficult even if that is what the Buddha had originally championed. But while Congress and other opposition parties may be looking to farm the violent agitation for political gains, Congress leader Jyotiraditya Scindia deserves praise for calling for peace in a Madhya Pradesh that was hit by widespread violence. Moreover, without finding economic solutions, armies of unemployed youth are likely to lead to more violence for causes imagined or real. This could be the dark side of India’s demographic youth bulge.


Telegraph

AREIGN ENDS

he Centre ‘ s decision to sell 76 per cent stakes in Air India is welcome. The aviation sector opened up since the economic reforms of the 1990s. Hence there is no compelling reason for the government to run a comercial airline. This is a matter of economic logic, which enables the released resources from the sale to be spent on more important sectors like health, education and the environment. Commercial aviation is best left to the market and the concept of a national carrier makes little or no sense in the modern world. In this context, the reaction of the West Bengal chief minister, Mamata Banerjee, is unwarranted. Opposing privatization as a matter of ideology is passé . Ms Banerjee must realize that the old world socialist ideas of the 1970s have proven to be unworkable in the global economy of today. There is no going back. Her criticism betrays a lack of clarity of vision.

However, the timing of the divestment may not be ideal from the government ‘ s point of view.

Air India is stuck with losses to the tune of Rs 468.05 billion and outstanding debt to the tune of Rs 487.81 billion as of March 31, 2017. This huge economic burden would weigh down the revenue likely to be obtained from the sales besides deterring prospective buyers to bid for the deal. Air India has an impressive list of fixed assets though, including a fleet of 138 aircraft. It also has landing rights in 54 domestic and 94 international destinations, including code- sharing arrangements with other international carriers. Air India is also a very old surviving airline from the 1950s. Most of the big carriers of those days are no longer in existence.Hence the organization still has some brand equity left.

Will Air India be considered an attractive buy? It is unlikely. There has to be some added sweeteners, such as restructuring a part of the debt. It could also entail the downsizing of the organization — especially reducing fixed costs — before the sales. Buyers do not like to go through unpleasant exercises immediately on acquisition, not with Indian labour laws. It is also not clear as to why the government wishes to retain 24 per cent control. Air India, whatever be its immediate fate after privatization, will remain a classic example of government failure. Overstaffing, abuse by VIPs and poor service quality made the airline low priority with paying passengers. The sheer neglect in efficiency considerations has made the entity economically fragile. Trying to sell it off as fast as possible is not an indication of good economic management. The ‘ Maharaja ‘ of the Indian skies may have to end his reign with a bad and bumpy landing.