घाट घाट का पानी : गोदौलिया का ‘दी रेस्त्रां’


अस्सी का सांस्कृतिक असर शहर के जीवन में नगण्य था, जबकि दी रेस्त्रां के अड्डे दशकों तक शहर के राजनीतिक व सांस्कृतिक जीवन पर असर डालते रहे


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काॅलम Published On :


लखनऊ या इलाहाबाद की तरह बनारस में कॉफ़ी हाउस तो नहीं था, लेकिन अस्सी के दशक के आरंभ तक गोदौलिया के दी रेस्त्रां में कॉफ़ी हाउस संस्कृति फलती-फूलती रही. दी रेस्त्रां के अड्डे के समाजशास्त्र का बनारस के राजनीतिक इतिहास से गहरा संबंध है. उसके भीतरी हिस्से में सामान्य ग्राहक आते थे, हालांकि भीतरी हिस्से के बीच के टेबुल पर देवेंद्र द्विवेदी, तरुण बोस व उनके दूसरे मित्रों का अड्डा होता था. बाहर राजनीतिक कार्यकर्ताओं का अड्डा था. राजनीतिक कार्यकर्ताओं के अलावा जो लोग होते थे, उनमें से प्रमुख थे पुस्तक व्यवसायी पिताजी (यह उनका उपनाम था), पुजारी जी, कमला बाबू, दीप्पन बाबू, वगैरह-वगैरह.

सत्तर का दशक शुरू होने के बाद हम युवा लोग दी रेस्त्रां में बैठने लगे थे, जिसके चलते बुजुर्गों को थोड़ी दिक्कत होने लगी थी. आपात स्थिति लागू होने के बाद समाजवादियों के स्थान पर युवा कांग्रेस के कार्यकर्ता वहां बैठने लगे और बातचीत का अंदाज़ भी बदलने लगा. पहली बार इस पर बहस होती थी कि किसके किचेन कैबिनेट में किसकी कितनी पहुंच है. यह भी रोचक है कि दी रेस्त्रां के राजनीतिक बहुलवाद में संघ के लोग कभी नहीं देखे गये.

बदमाशी का एक दिलचस्प किस्सा याद आ रहा है. दी रेस्त्रां के मालिक बोद्दीदा 1974 में समाजवादी छात्रनेता देबु मजुमदार के समर्थक हो गये थे. जेपी आंदोलन के तहत जब एक दिन के लिये जनता कर्फ़्यू का आवाहन किया गया तो शायद पहली बार दी रेस्त्रां बंद रहा. एक नटखट युवा कांग्रेसी ने एक पर्ची चिपका दी कि बोद्दीदा के आकस्मिक दुखद निधन के कारण आज दी रेस्त्रां बंद है. उनके सारे मित्र हमदर्दी दिखाने के लिये बोद्दीदा के घर पहुंच गये. गुस्से के मारे बोद्दी की हालत खराब थी. यहां यह भी बता दें कि वह नटखट युवा कांग्रेसी बाद में देबुदा का रिश्तेदार बन गया.

दी रेस्त्रां और उसके आस-पास के क्षेत्र में स्थानीय खुफ़िया विभाग के मुखबिर मंडराया करते थे. उनकी मुख्य दिलचस्पी कम्युनिस्टों और समाजवादियों में होती थी. समाजवादियों के बारे में ख़बर इकट्ठा करना कोई ख़ास मुश्किल नहीं होता था. वे संगठन के अंदरूनी झगड़ों को अक्सर दी रेस्त्रां के टेबुल पर उड़ेल देते थे.

1979 में मैं जर्मनी आ गया. उसके बाद भी दी रेस्त्रां चलता रहा, लेकिन उसकी रौनक ख़त्म हो चुकी थी. उसके मालिक बोद्दीदा की मौत के बाद उनका छोटा बेटा उसे चला रहा था. लेकिन दी रेस्त्रां की संस्कृति ख़त्म हो चुकी थी. मेरी राय में आपात स्थिति के दौरान राजनीतिक विमर्श का ख़त्म होना इसका एक प्रमुख कारण था. सीपीआई के असर के घटते जाने का भी असर पड़ा क्योंकि यह रेस्त्रां उसके दफ़्तर के ठीक नीचे था. सत्तर के दशक के आरंभ में नगर महापालिका में संघ विरोधी मोर्चे की रणनीति यहीं बनती थी.

दी रेस्त्रां में एक ही टेबुल पर पूर्व सांसद समाजवादी प्रभुनारायण सिंह या मार्क्सवादी सत्यनारायण सिह व उनके साथ कांग्रेस के पूर्व उप नगर प्रमुख शीतल प्रसाद की गर्मागर्म बहस आम बात थी. सीपीआई के गिरिजेश राय का वहां नियमित अड्डा होता था. रुस्तम सैटिन विरले ही वहां आते थे, हालांकि किसी ज़माने में दी रेस्त्रां उनका भी अड्डा था.

और एक अड्डे के बारे में बताये बिना दी रेस्त्रां की चर्चा अधूरी रह जाएगी. यह था युनिवर्सिटी के अराजनैतिक विद्रोही छात्रों का अड्डा. कैपस में मधुबन, लक्सा में नीलम के अलावा दोपहर के दौरान अक्सर दी रेस्त्रा में दाढीवाले ये नौजवान मिल जाते थे. ये इतने विद्रोही थे कि कम्युनिस्टों को हिकारत की नज़र से देखते थे. लेकिन मुझे वहां चिलम मिल गया था, क्योंकि मैं कविता लिखता था. हमलोग सार्त्र, कामू या काफ़्का के बारे में, सार्थक हस्तमैथुन के बारे में, या मुहल्ले और युनिवर्सिटी की लड़कियों के बारे में बात करते थे. मुझे याद है एक बार चींटियों के यौन जीवन पर लंबी बहस चली थी. मेरे अलावा ये सभी अच्छे नंबर लाने वाले छात्र थे. विद्रोही होने के बावजूद वे बुजुर्गों से मुंह चुराकर सिगरेट पीते थे और दी रेस्त्रां के भीतरी हिस्से में बैठते थे. इनकी एक ख़ासियत यह भी थी कि वे विश्वविद्यालय के अध्यापकों को मूर्ख समझते थे. अपवाद थे विजय मोहन सिंह, जिनका अड्डा मिश्राम्बू के पास होता था. छात्र नेताओं में वे आज के प्रोफ़ेसर व सीपीआई के दीपक मलिक को मानते थे, क्योंकि उनका मानना था कि दीपकदा अपनी दाढ़ी में खटमल पालते हैं.

यह भी बता दूं कि आपात स्थिति के बाद दी रेस्त्रां के बाहर फुटपाथ पर मेरी मार्क्सवादी किताबों की दुकान युवा लेखकों का एक छोटा-मोटा अड्डा बन गई थी… और वामपंथी नेपाली राजनीतिज्ञों का अड्डा, जिनमें पुष्पलाल से लेकर प्रचंडा तक सभी शामिल थे. मेरे जर्मनी जाने के बाद इस अड्डे पर समाजवादियों का वर्चस्व हो गया. दुकान के लिये ज़िम्मेदार मेरा छोटा भाई हालांकि कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य था, लेकिन उसका उठना-बैठना समाजवादियों के साथ ज़्यादा था.

उस ज़माने में भी अस्सी का अड्डा बना हुआ था. वहां हिंदी के लेखकों का वर्चस्व था. इसके अलावा अस्सी के अड्डों का चरित्र हमेशा स्थानीय रहा है. मेरी राय में उससे परे अस्सी का सांस्कृतिक असर शहर के जीवन में नगण्य था, जबकि दी रेस्त्रां के अड्डे दशकों तक शहर के राजनीतिक व सांस्कृतिक जीवन पर असर डालते रहे.

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