घाट घाट का पानी : पश्चिम को समझने की पहली कोशिश


उज्‍ज्‍वल भट्टाचार्य के साप्‍ताहिक स्‍तंभ का सोलहवां अध्‍याय


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काॅलम Published On :


कठोपनिषद का मुहावरा है : क्षुरस्य धारा. उस्तरे की धार पर चलना, थोड़ा इधर-उधर होने पर वही धार आपको काट खाएगी.

मैं समाजवादी पूर्वी जर्मनी में रेडियो पत्रकार था. एकीकरण के बाद तब तक के पश्चिम जर्मन रेडियो में उठा लिया गया. यानी मैं उस संस्था में काम करने लगा, जो मेरी राय में साम्राज्यवादी वर्चस्व का अंग था, विश्व ऐतिहासिक प्रक्रिया में प्रतिक्रिया का एक स्तंभ था, युद्ध और शांति के निर्णायक संघर्ष में युद्ध का पक्षधर था.

क्या मेरी राय बदल गई थी, या पश्चिम का चरित्र बदल गया था?

ईमानदारी से कहता हूं, 1990 के उन दिनों के दौरान यह सब नहीं सोच रहा था. अपनी और परिवार की आर्थिक सुरक्षा सबसे बड़ी वरीयता थी. जान बचानी थी. एकीकरण आने वाला था और उसी के साथ पूर्वी जर्मन रेडियो बंद होने वाला था, हम सड़क पर नंगे उतारे जाने वाले थे. पश्चिम जर्मन रेडियो से प्रस्ताव आया तो पैर के नीचे ज़मीन मिली.

और पैर के नीचे ज़मीन मिलने के बाद लगा कि मैं दुश्मनों के खेमे में एक छापामार हूं.

पूर्वी जर्मनी में काम करने का अनुभव अनोखा था. हर छोटी-बड़ी बात पर मीटिंग होती थी, कार्यदल बनाये जाते थे और सबको पता होता था कि जो कुछ हम सामान्य बुद्धि से सोचते हैं, वह कहना नहीं है. रोज़ सुबह उठकर पार्टी का अखबार पढ़ना है और दफ़्तर में उसी की भाषा में बात करनी है. हमें सृजनशील होना है, लेकिन उस अखबार की क्लिष्ट, ऊबाऊ भाषा के दायरे में. आलोचना शब्द का इस्तेमाल कभी भी स्वतंत्र रूप से नहीं किया जाता था, हमेशा कहा जाता था : आलोचना और आत्मालोचना. हमेशा कहा जाता था : समाजवादी पत्रकारिता को आगे बढ़ाने के लिये हमें नए तरीकों की ईजाद करनी पड़ेगी, लेकिन हर नई सोच को संदेह की दृष्टि से देखा जाता था, कार्यक्रम में अगर ऐसी सोच हो, तो ऊपर रिपोर्ट भेजते वक़्त उसे छिपाने की कोशिश की जाती थी. लोग सोचते थे, लेकिन छिपकर, और यह छिपी हुई सोच आमतौर पर समाजवाद विरोधी नहीं होती थी. कार्यक्रम में भी खुलकर बोलने के बदले शब्दों के बीच छिपे तरीके से अपनी बात कहने की आदत बन गई थी. और इसी आदत के साथ मैं पश्चिम के धरातल पर उतरा.

फ़र्क़ यह था कि समाजवादी पूर्वी जर्मनी अपना था, यहां पश्चिम में दुश्मन की ज़मीन थी. रोमान रुबिनश्टाइन, हान्स हैर्त्सबैर्ग, डाविड रुमेल्सबुर्ग, फ़्रांस के ज़्यां तारागो या रोजर थेरे – पूर्वी जर्मन रेडियो में विभिन्न विभागों में ये ऊंचे पदों पर थे. इन सभी को नाज़ी दौर में यातना शिविरों में रहना पड़ा था, इनमें से कुछ स्पेन के गृहयुद्ध में अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड में थे. ज़ाहिर है कि इनकी भारी इज़्ज़त थी, लेकिन जटिल कम्युनिस्ट तंत्र के सहारे इन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया से अलग़ रखा जाता था.

हां, संयोग की बात है कि ये सभी यहूदी थे. यहूदी कम्युनिस्ट.

इनसे, व अन्य वरिष्ठ सहकर्मियों से मुझे बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिला था. सबसे बड़ी बात कि नाज़ीवाद की मेरी समझ तैयार करने में इनकी बहुत बड़ी भूमिका थी. भारत में रहते दौरान नाज़ीवाद मेरे लिये सिर्फ़ एक अंध कम्युनिस्ट-विरोधी ख़ूनी विचारधारा थी, जो सोवियत संघ को ख़त्म करना चाहती थी. उसने सोवियत संघ पर हमला किया और स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत सेना ने उसे पटखनी दी.

पूर्वी जर्मनी आने के बाद नाज़ीवाद के इतिहास विरोधी, सभ्यता विरोधी चरित्र से मैं वाकिफ़ हुआ.

पूर्वी जर्मन लेखक हैरमान्न कांट का एक प्रसिद्ध उपन्यास है डेर आउला, यानी स्कूली आंगन. इसमें बताया गया है कि समाजवादी पूर्वी जर्मनी की स्थापना के बाद कैसे सभी नाज़ी शिक्षकों को हटाया गया और उनकी जगह पर कामगारों को शिक्षक बनाया गया. नये शिक्षक कहलाने वाले ये कामगार अक्सर रात को दीये की रोशनी में पढ़ते थे और अगले दिन सुबह बच्चों को वही पढ़ाते थे.

ऐसे साहित्य पढ़ते हुए मेरी यह समझ पक्की बनी कि पूरब में नाज़ी अतीत को पूरी तरह से कुचल दिया गया, नाज़ी अतीत नहीं, बल्कि उसके ख़िलाफ़ प्रतिरोध ही इसकी विरासत है. इसके विपरीत पश्चिम जर्मनी में नाज़ी अतीत की लीपापोती की गई, नई पूंजीवादी संरचना में उसके अवशेषों को स्थान दिया गया.

बात सच है और पूरी तरह से सच नहीं है.

समाजवादी पूर्वी जर्मनी में भी विनाज़ीकरण की प्रक्रिया से गुजरने के बाद अनेक उच्च पदाधिकारियों को नई व्यवस्था में स्थान दिया गया था. यह प्रक्रिया सोवियत नेतृत्व की देखरेख में हुई थी. जहां तक पश्चिम जर्मनी का सवाल है, सार्वजनिक जीवन से नाज़ियों को हटाने के मामले में काफ़ी उदारता बरती गई, लेकिन वहां भी ख़ासकर अमरीकी विजयी सत्ता की देखरेख में अनाज़ीकरण की प्रक्रिया चली थी.

जर्मन एकीकरण के बाद वस्तुस्थिति की बारीक जांच से मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि सिर्फ़ पूर्वी जर्मनी ही नहीं, बल्कि पश्चिम जर्मनी भी नाज़ीवाद के निषेध के आधार पर विकसित हुआ है.

1945 के बाद जब सोवियत नेतृत्व में पूर्वी जर्मन प्रणाली विकसित हुई और 1949 में (पश्चिम जर्मन गणतंत्र की घोषणा के बाद) समाजवादी जर्मन जनवादी गणतंत्र का गठन किया गया, तो उसके नेतागण निर्वासन या यातना शिविरों से आये थे. उनके मन में एक विश्वास कूट-कूटकर भरा हुआ था : हमें धोखा देते हुए यह जर्मन जनता हिटलर के साथ गई थी. इस जनता पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता. इसे दबाकर रखना पड़ेगा. स्तालिनवाद के अलावा यह घोर अविश्वास पूर्वी जर्मन साम्यवाद की एक ख़ासियत थी.

पश्चिम जर्मनी में नाज़ीवाद के दौरान सक्रिय न रहे तबकों में से नया नेतृत्व तैयार किया गया. संदिग्ध नाज़ीवादी अतीत के कुछ लोग भी उसमें शामिल हुए. प्रतिरोध में शामिल कुछ नेता भी उसके अंग बने (मसलन विल्ली ब्रांट).

पश्चिम जर्मनी में 1968 के छात्र आंदोलन के ज़रिये नाज़ीवादी अतीत और पश्चिम जर्मन प्रणाली में उसके अवशेष को खंगाला गया, उस पर सवाल उठाये गये. औपचारिक पश्चिम जर्मन प्रणाली ने इस छात्र आंदोलन को पूरी तरह से नकारा, लेकिन देश के बौद्धिक-सांस्कृतिक जीवन पर इस आंदोलन का गहरा दूरगामी असर पड़ा. पश्चिम जर्मनी में एक नयी उदारवादी, और साथ ही, युद्धविरोधी शांतिकामी चेतना का जन्म हुआ, जो उसकी स्थापना की घड़ी से ही पल रहे कम्युनिस्ट विरोध से भी मज़बूत था.

जर्मन एकीकरण के बाद 1968 के छात्र आंदोलन से उद्भुत उस चेतना को दबाते हुए एक नये अनुदारवादी मूल्यबोध को विकसित करने की कोशिश शुरू हुई. मैंने उस कोशिश को विकसित होते हुए देखा, उसे मात खाते हुए देखा.

जर्मन एकीकरण के तुरंत बाद वाले वर्ष इस प्रक्रिया के द्वारा चरित्रात्मक थे. ये पश्चिम जर्मन रेडियो में पत्रकार के रूप में मेरा प्रारंभिक दौर था, पश्चिम की प्रणाली से परिचित होने का प्रारंभिक दौर था. मेरे वैचारिक अवस्थान पर इनका गहरा असर पड़ा. उसे परिभाषित करना शायद मुश्किल है, लेकिन उसकी प्रक्रिया को जिस तरह मैं समझ पाया हूं, उसे पेश करने की कोशिश करता रहा हूं, करता रहूंगा.