घाट घाट का पानी : पत्रकार से समाजवादी प्रचारक बनने के खतरे

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मैं 12 साल का था, तभी पिताजी बनारस में होलटाइमरी छोड़कर नौकरी ढूंढ़ने कलकत्ता चले गये थे. बनारस में उन्होंने नौकरी ढूंढने की कोशिश की थी, एक सिल्क मिल में मैनेजर की नौकरी मिली भी थी, लेकिन कुछ कामगारों की छंटनी के फ़ैसले के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी. कलकत्ता में लगभग दो साल रहने के बाद बारासत के पास एक ग्रामीण स्कूल में उन्हें नौकरी मिली थी. लेकिन उनकी आय का अधिकतर हिस्सा गरीब छात्रों पर खर्च हो जाता था. मां प्राइमरी टीचर थीं, चार बच्चों की ज़िम्मेदारी उन्हीं पर थी. बनारस में अपना घर था, किसी तरह गुजारा हो जाता था. छुट्टियों में पिताजी आते थे और घर में जश्न सा माहौल हो जाता था. बड़ा बेटा होने की वजह से कम उम्र से ही पारिवारिक ज़िम्मेदारियां निभानी पड़ीं लेकिन कुल मिलाकर मैं घर का लाडला बच्चा ही रह गया था. नानी घर की मालकिन थी और मैं उनका चहेता नाती.

जर्मनी जाने के बाद पहली बार मुझे लगा कि मैं अब बच्चा नहीं रह गया. सलाह और नसीहतें तो मिलती थीं, लेकिन मैं पूरी तरह से आज़ाद था और उसी के साथ अपने हर काम के लिये खुद ज़िम्मेदार. मेरी शामें रंगीन होने लगी थीं और सुबहें खुमारी से भरी. सुबह आठ बजे से पहले दफ़्तर पहुंचना होता था और कुछ महीनों के बाद मैं अक्सर लेट पहुंचने लगा. एक दिन विभागाध्यक्ष फ़्रीडमान्न ने कड़ी डांट लगाई. मुझसे पूछा, आखिर समस्या क्या है ? मैं चुप था, तो उसने फिर पूछा : शाम को पीते हो? मैं फिर ख़ामोश. फ़्रीडमान्न ने अपने अनुभव के खज़ाने से एक अनमोल रतन निकालते हुए कहा :  देखो, तुम्हारी उम्र में मैं भी पीता था. सुबह एक ट्राम पहले ले लेता था, एक स्टॉप पहले उतर जाता था, रास्ते के किनारे उल्टी करने के बाद अगली ट्राम से दफ़्तर आ जाता था.

इसकी नौबत नहीं आई, लेकिन मैं संभल गया. एक साल के अंदर दो बार मेरा वेतन बढ़ा दिया गया.

यह वह दौर था, जब रूसी एसएस 20 मिसाइलों के जवाब में नाटो की ओर से यूरोप में मध्य दूरी की पैर्शिंग-2 और क्रूज़ मिसाइलों की तैनाती का निर्णय लिया गया था. सारे यूरोप में, ख़ासकर पश्चिम जर्मनी में इस निर्णय के ख़िलाफ़ एक व्यापक शांति आंदोलन पनप चुका था, आये दिन प्रदर्शन हो रहे थे. उसी बीच अफ़गानिस्तान में सोवियत सेना के प्रवेश की ख़बर आई. उसके बाद पश्चिम जर्मनी सहित अनेक पश्चिमी व मुस्लिम देशों ने मास्को के ओलंपिक खेलों का बहिष्कार किया. रेडियो मास्को के बाद हमारा रेडियो सबसे महत्वपूर्ण समाजवादी संचार माध्यम बन गया था. युद्धस्तर पर हम प्रचार कर रहे थे और मैं उसकी अगली पांत का सिपाही बन गया. मेरा तरीका था श्रोताओं को सीधे-सीधे संबोधित करना, जिसके चलते एक साल के अंदर श्रोताओं से मिलने वाली चिट्ठियां कई गुना हो गईं. निर्देशक मंडल इस नतीजे पर पहुंचा कि हिंदी विभाग में काफ़ी बेहतरी आई है और पूरी टीम के साथ-साथ मुझे ख़ास तौर पर सराहा गया.

यह सच है कि पत्रकार बनना मेरा सपना था, लेकिन उसके लिये मैंने कोई शैक्षणिक तैयारी नहीं की थी. जर्मनी पहुंचने के बाद रेडियो में मुझे पत्रकार के रूप में तुरंत मान्यता मिल गई. दरअसल, मैं पत्रकार नहीं, प्रचारक बन गया था लेकिन इसका अहसास मुझे नहीं था.

श्रोताओं से संवाद पर आधारित पत्रोत्तर कार्यक्रम की ज़िम्मेदारी मुझे दी गई थी और इस कार्यक्रम के दो विषय थे : समाजवादी देशों की शांति नीति और पूर्वी जर्मनी में समाजवादी निर्माण में प्रगति की जानकारी देना. अन्य शब्दों में, सरकारी दृष्टिकोण का प्रचार. और मैं पूरे जोश के साथ यह काम कर रहा था. रेडियो में हर माह कुछ चुने हुए कार्यक्रमों को पुरस्कृत किया जाता था. एक साल के अंदर मुझे तीन बार पुरस्कृत किया गया.

लगभग दो साल बाद एक श्रोता ने हमारे कार्यक्रम पर टिप्पणी करते हुए कहा था : आप सोवियत संघ व समाजवादी देशों को शांतिकामी और पश्चिमी देशों को जंगबाज़ कहते हैं, लेकिन मिसाइल तो दोनों ओर हैं. क्या एक हाथ से ताली बजती है? मैंने जवाब देते हुए कहा था कि यह सच है कि ताली दोनों हाथों से बजती है, लेकिन इन मिसाइलों की वजह से दुनिया एक ख़तरनाक़ मोड़ पर पहुंच गई है और समाजवादी देशों के प्रस्ताव उस खतरे को कम करने पर लक्षित हैं. इसके बाद मैंने सोवियत प्रस्तावों पर फिर एकबार प्रकाश डाला था. विभाग में राय बनी कि बहुत सरल भाषा में प्रभावशाली ढंग से समाजवादी शांति प्रस्तावों की व्याख्या की गई है और उस कार्यक्रम को पुरस्कार के लिये प्रस्तावित किया गया.

पुरस्कार समिति ने इस बात पर गहरा एतराज़ जताया कि हमारे कार्यक्रम में सोवियत मिसाइलों का ज़िक्र किया गया है. इसके अलावा कहा गया कि यह एक भयानक राजनीतिक गलती थी कि मैंने स्पष्ट रूप से कहा कि ताली दोनों हाथों से बजती है.

इसके बाद ऊपर से आदेश आया कि समाजवादी देशों की शांति नीति पर उज्ज्वल भट्टाचार्य कोई कार्यक्रम नहीं तैयार करेगा. वह एक विदेशी पत्रकार की नज़र से भारत की सामाजिक समस्याओं को ध्यान में रखते हुए पूर्वी जर्मनी में समाजवादी निर्माण की ख़ूबियों को पेश करेगा.



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