चचा, अब चौबीस की सोचो… मोदी, शाह या योगी!

राजशेखर त्रिपाठी
काॅलम Published On :


सरकार बन गयी, शपथ ग्रहण हो गया। राम काज खतम, अब काम काज शुरु।

शाखा बाबू अब फुल विश्राम मोड में हैं। उन्हें जो कुछ चिन्ता थी भी वो अमित शाह के गृह मंत्री बनने के बाद खतम हो गयी है। गर्मी बहुत है सो शाखा आना जाना भी नहीं हो रहा। भाई जी लोग ही शाखा निपटान कर उनसे मिलने घर आ जाते हैं।

लेकिन शाखा बाबू अब रह-रह कर रहुलवा को लेकर मोहा जा रहे हैं। वही लोअर मिडिल क्लास टाइप मोह महराज!

अचानक सपूत से पूछे– “का हो अरे इसका उमर अब केतना हो गया होगा?”

सपूत मुनमुनाते हुए अपने ही मुंह में कुछ बोले। बाप का लिहाज़ एतना देखाते हैं कि पहले सवाल का पहला जवाब सीधे दे ही नहीं पाते।

शाखा बाबू को दोबारा ऊंची आवाज़ में पूछना पड़ा “आँ….का…केतना!”

सपूत ने अबकी बार थोड़ा ज़ोर लगा कर जवाब दिया- “अरे यही सैंतालीस अड़तालीस”

“आँआँआँआँययययययययय…..सहीsss!”

“आ तब का!” सपूत ने अपनी बात पर फिर मोहर लगायी।

शाखा बाबू ने बड़े दुखी मन से कहा “आ अब्बो कुकुरे के साथ खेल रहा है बुरबक। ई बियाह उआह कब करेगा। महतरिया कवनों ढंग क खोज के हरदी काहें नाहीं लगवाती है हो?”

“मने एगो जिनगी औरो झउंसा जाए….”, शाखा बाबू की पतोहू ने तमक कर कहा और आंख तरेर कर अपने पति को देखा, जो दिनही में रात के बचे पउव्वे का निपटारा कर चुके थे।

माहौल में तपिश आ चुकी है, ये भांप कर शाखा बाबू ने अखबार उठा कर मौन साध लिया और सपूत तरकारी का झोरा उठा कर सदन से वॉकआउट कर गए।

इधर चाय की दुकान पर दोपहर पसरने लगी थी। निठल्लों की पंचायत जमने लगी थी। अख़बार का एक पन्ना इधर तो दूसरा उधर। मगर होड़ पहला पन्ना पकड़ने की थी। दुकान का लौंडा जो बेंच दर बेंच चाय, समोसा और बालूशाही धरता है, वो भी इस मंडली में इंटरेस्ट लेने लगा है।

दरअसल कभी किसी ने बीड़ी मंगाने के लिए लल्लो-चप्पो करते हुए उसे बता दिया था कि मोदी जी भी उहे काम करते थे जो तुम करता है।

पहले पन्ने के लिए मंडली की बेचैनी देख कर उसने बंगाली बाबू से कहा-

“कल्हियां वाला फस्ट पेज दें का। बच गइल है। का है कि सांझ के गाहक नहीं था नSSS तो समोसा कम बना था”

(हलवाई की दुकान पर अखबार और समोसे का अन्तर्संबन्ध समझने वाले ये बात समझ सकते हैं बशर्ते वो मिलेनियल चाइल्ड न हों)

बालक की बात में मासूमियत थी लेकिन बंगाली बाबू की बांछों में आग लग गयी। इतना कुपित हुए कि बगल में पहले पन्ने का स्वाध्याय कर रहे पकठे समाजवादी से पन्ना ही छीन लिया।

“भाक् मरदे पढ़ रहे हैं कि निकिया रहे हैं। लाइए हम ज़ोर से पढ़ते हैं”!

समाजवादी जी का हाल ये था जैसे स्वपन से पहले ही दोष आ गया हो और किसी ने सुरमई नींद से थप्पड़ मार कर जगा दिया हो। माहौल में यहां भी तनाव आ गया। लेकिन दुकानदार समझदार होता है। वह पूरा बाज़ार समझता है। उसने पहले ही हस्तक्षेप कर दिया।

“अख़बार का पढिएगा ए बंगाली बाबू जो हम कहे थे उहे हुआ है”

“अबकी कई जनी माछी मारेंगे। राजनाथ तो मारगदरसक में गिरते-गिरते बच गए। लेकिन जेटली आ सुसुमा तो चलिए गए नss। बाकि गए त कई जनि हैं”

बंगाली बाबू मुंह बा कर दुकानदार को देखने लगे। हाथ ने अखबार वापस यंत्रवत समाजवादी जी को बढ़ाया, और उन्होंने उसे सरिया कर अपने प्रजा स्थान तर दबाया।

अब चर्चा सरकार की सूरत पर चल पड़ी।

“लेकिन नितिसवा तो मुंह कड़ुआ दिया थोड़ा… है कि नहीं?”

“ई मुंह कड़ुआना नहीं है महराज… सगुन है! बाकि नितिसवो जानता है कि भोट उहो मोदीए ख़ातिर मांग रहा था। अपना कंडिडेट ख़ातिर नहीं। अब ऊ बिधानसभा देख रहा है। मने चुनाव जी… चुनाव”!

(जब चाय की दुकान पर ये चर्चा चल रही थी, पटना में अणे मार्ग पर मंथन चल रहा था। इस मंथन में अकेले नीतीश कुमार शामिल थे। उनके दिमाग़ के बाएं हिस्से पर ललन सिंह सवार थे, दाएं पर आरसीपी सिंह)

एक अविवाहित लोहियापंथी ने कसमसा कर पूछा-

अनुपिरिया पटेल को काहें लतिया दिया हो?

आम तौर पर सिर्फ सुनने वाले दाद पीड़ित भगत जी ने पटरेवाली जांघिया के अंदर बी-टेक्स के टिनहे ढक्कन से दाद खजुआते हुए जवाब दिया-

“स्ससससस… उसका भी टाइम आएगा”!

बंगाली बाबू ने एक बार फिर भगत जी को नहाने के बाद शरीर की ज़रूरी जगहें रगड़ कर सुखाने की सलाह देकर मामला स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय की ओर मोड़ दिया।

“कहो अब पार्टी अध्यक्ष कौन बनेगा हो”?

बंगाली बाबू ने सवाल उछाला।

“वही जो शेर ख़ान और बघिरा की मर्ज़ी के मुताबिक बंदरों के मंदिर में डांस कर ले”!

इस जुमले के साथ ही जंगल बुक की पैंतालीस फीसदी आबादी के एक दहकते रिप्रजेंटेटिव ने निठल्‍लों की इस महफ़िल में एंट्री ली जिसके माथे पर मोदी विरोधियों ने ‘बेरोज़गार’ लिख दिया था।

अकबकाए-ऊंघते निठल्ले उठ बैठे!

लौंडा सख़्त ठहरा, बोला-

“चचा, अब चौबीस की सोचो… मोदी या शाह… या फिर योगी”!