मज़दूरों के प्रति इस आपराधिक उपेक्षा की जड़ ‘धर्मसम्मत’ वर्णव्यवस्था में है !

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काॅलम Published On :


एक मई को विश्व मजदूर दिवस होता है, इस साल भी मनाया गया। दुनिया भर से मजदूरों के हक और बेहतरी की बातें उठाई गयीं। इस दिन भारत के करोड़ों मजदूर और उनके हितैषी उम्मीद कर रहे थे कि मजदूरों के हित मे सरकार विशेष नहीं तो कम से कम न्यूनतम इंतेजाम ही कर सकेगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इन मजदूरों की आर्थिक बेहतरी के लिए किसी पैकेज या सहायता की बात तो दूर रही उन्हे अपने गांवों मे लौटने देने तक के लिए कोई योजना या इंतेजाम नहीं आया। आइए कुछ अनुमानों पर नजर डालें और इस स्थिति की भयावहता को समझें। इंटरनेशन लेबर ऑर्गेनाइज़ेशन (ILO) का अनुमान है कि पूरी दुनिया मे 19.5 करोड़ लोग इस साल बेरोजगार होंगे, यह आंकड़ा द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है। भारत, नाइजीरिया और ब्राजील जैसे देशों के 90 प्रतिशत से अधिक मजदूर अनौपचारिक क्षेत्रों मे काम करते हैं। इनके सामने न सिर्फ रोजगार का बल्कि भुखमरी का संकट भी आ खड़ा हुआ है। इधर भारत मे 40 करोड़ मजदूर जो कि असंगठित क्षेत्र मे काम करते हैं वे भयानक गरीबी मे फँसने वाले हैं। 

ये गरीब मजदूर अचानक लादी गयी तालाबंदी के कारण अपने घरों से दूर अन्य राज्यों मे फंस गए हैं। अकेले बिहार से भारत के विभिन्न राज्यों मे फंसे 17 लाख लोगों को वापस बिहार लाने के लिए मदद मांगी गयी है। इसी तरह अन्य राज्यों के लाखों करोड़ों मजदूर भी अपने घरों से दूर फंसे हुए हैं। इसके अलावा इनके बच्चों की शिक्षा, परिवार मे सामान्य बीमारियों का इलाज, रोजमर्रा की विभिन्न आवश्यकताओं का प्रश्न तो बना ही हुआ है। इन जरूरतों की तो अभी बात भी नहीं की जा सकती है। स्थितियाँ कब सामान्य होंगी इसका कोई अंदाजा नहीं है। किसी तरह स्थिति सामान्य होने पर भी ये गरीब मजदूर क्या वापस अपने कामकाज पर लौटेंगे? क्या वे जल्द ही लौटना चाहेंगे? और इससे भी बड़ा सवाल ये है कि क्या उनके लिए रोजगार के वही अवसर जिंदा रहेंगे? ये सवाल अब करोड़ों मजदूरों के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह बनकर छा गए हैं।  

इस पूरी अनिश्चितता के बीच हद तो तब हो गयी जब तालाबंदी मे ढील देते हुए यात्रा करने को छूट मिली उसमे भी मजदूरों से किराया वसूल किया गया। एक तरफ गरीब मजदूर अपनी रेलयात्रा का किराया चुका रहे हैं वहीं दूसरी तरफ विदेशों मे फंसे सामर्थ्यवान भारतीय नागरिकों को वापस लाने के लिए निशुल्क विमान सेवाओं की घोषणा सरकार द्वारा की गयी है। 7 मई तक रेलवे ने 189 श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाकर लगभग 1.90 लाख लोगों को अपने घरों तक पहुंचाने का दावा किया गया है। कई राज्यों से आ रही खबरों के मुताबिक ट्रेनों मे मजदूरों को 500- 1200 रुपये तक चुकाने पड़ रहे हैं। इस स्थिति को देखते हुए काँग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने घोषणा की कि इन श्रमिकों की यात्रा का खर्च कांग्रेस वाहन करेगी। इस घोषणा के बाद तुरंत आरजेडी के श्री तेजस्वी यादव की तरफ से भी घोषणा हुई कि उनकी पार्टी बिहार सरकार को ऐसी 50 ट्रेनों का किराया देगी। इसके बाद अन्य नेताओं के बयान आए और इसपर राजनीति शुरू हो गयी। इसी बीच कर्नाटक से खबरें आ रही हैं कि वहाँ के बड़े बड़े बिल्डर्स नहीं चाहते कि उनके शहरों मे फंसे मजदूर अपने घर लौट जाएँ। उन करोड़पति बिल्डर्स को यह चिंता सता रही है कि मजदूर चले गए तो उनका कारोबार चौपट हो जाएगा। ऐसी ही खबरें गुजरात से आ रही हैं। यहाँ गौर कीजिए, उन्हे इन मजदूरों की कोई फिक्र नहीं है, वे अपने कारोबार के लिए मरे जा रहे हैं। 

कोरोना वाइरस ने जिस तरह से कहर बरपाया है उसका सबसे ज्यादा खामियाजा इन्ही गरीब बहुजन गरीब मजदूरों को भुगतना पड़ रहा है। 22 अप्रैल को भारत मे जिस तरह बिना तैयारी के देशव्यापी तालाबंदी लागू की उसकी तैयारी सरकार ने न तो स्वयं अपने लिए ठीक से की न ही आम जनता को जरूरी इंतेजाम करने का समय दिया गया। तालाबंदी के बाद स्वाभाविक रूप से औद्योगिक और व्यापारिक कामकाज सहित भवन निर्माण इत्यादि का काम भी स्थगित हो गया। ऐसे मे शहरों मे फंसे मजदूर बिना काम और बिना आमदनी के कितने दिन जिंदा रह सकते थे? इसी के साथ आवागमन के साधन भी रुक गए, रेलवे और बस मार्ग रोक दिए गए। लिहाजा गरीब मजदूर अपने गांवों की तरफ सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करते हुए पैदल ही निकल पड़े। कई मजदूर सड़कों पर ही मार गए और हजारों को अमानवीय कष्ट सहित अपमान और भेदभाव झेलना पड़ा। 

अब इस सबको कैसे समझा जाए? क्या भारत मे गरीबों की समस्याओं का इस तरह दर्दनाक रूप से उभरना कोई नई घटना है? क्या अमीरों के बच्चों को, विदेशों मे फंस गए लोगों को और अमीर तीर्थयात्रियों को सुरक्षित उनके घर तक पहुंचाना सरकार के लिए पहली प्राथमिकता है? क्या यही सुविधा गरीब और बहुजन मजदूरों को नहीं मिलनी चाहिए? जो सरकार शहरों के अस्पतालों पर फूल बरसाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर सकती है क्या वह मजदूरों को मुफ़्त रेलयात्रा नहीं करवा सकती? इन प्रश्नों पर विचार कीजिए। सबसे पहले तो यह देखिए कि ये मजदूर भारत की सामाजिक धार्मिक व्यवस्था मे किस तबके से आते हैं? फिर यह देखिए कि इनके साथ सदियों से जो व्यवहार हो रहा है उसका वास्तविक कारण क्या है? आप आसानी से देख सकेंगे कि छोटे किसान, असंगठित क्षेत्र के मजदूर, भूमिहीन खेती मजदूर और शहरी उद्योगों मे कार्यरत मजदूरों की अधिकतम आबादी भारत के ओबीसी, अनुसूचित जाति/जनजाति और पसमांदा मुसलमानों से निर्मित होती है। यही वह जनसंख्या है जो भारत की सामाजिक धार्मिक व्यवस्था मे सर्वाधिक उपेक्षित और शोषित होती रही है। इस बड़ी आबादी को बहुजनों की आबादी के रूप मे देखा जाना चाहिए तभी हम इस खेल के पीछे छिपी राजनीति को समझ सकेंगे। 

इतिहास मे झाँककर देखें तो बहुजन मजदूरों का संघर्ष सदियों पुराना है। वैदिक वर्ण व्यवस्था में जिन समूहों को शूद्र कहा गया है वे श्रमशील जातियाँ अथवा समुदाय हैं। मोटे अर्थ मे समझें तो अपने हाथों से प्राथमिक उत्पादन करने वाले लोग जैसे कि किसान, शिल्पकार, गो-पालक, कुम्हार, लोहार, धोबी, तेली, कुर्मी इत्यादि उत्पादक जातियों को शूद्र वर्ण मे माना गया है। भारत की धार्मिक व्यवस्था मे जो अनुशासन दिया गया है उसमे शूद्रों और अस्पृष्यों को शिक्षा, संपत्ति और शस्त्र का अधिकार नहीं दिया गया है। आज भी गांवों मे यह स्थिति जिंदा है और शहरों मे भी अनेकों रूपों मे यह भेदभाव काम कर रहा है। प्राचीन शास्त्रों और परंपराओं के द्वारा इन बहुजनों के खिलाफ जो भेदभाव और जातीय नफरत सिखाई गई है वह आज भी काम कर रही है। यह नफरत सामान्य समय मे छुपकर काम करती है और प्राकृतिक आपदा, युद्ध अथवा महामारी के समय मे भारत के धर्म, समाज और राजनीति के मूल चरित्र को एकदम से उजागर कर देती है। सवर्ण जातियों के सम्पन्न तबके को किसी भी स्थिति मे कोई कष्ट न हो और हर तरह की कुर्बानी गरीब बहुजन ही उठाए – इस बात का इंतेजाम कोई योजना पूर्वक नहीं होता है बल्कि यह अचेतन रूप से एक पारंपरिक कर्तव्य की भांति अमल मे आ ही जाता है। 

कुछ दशकों पहले तक जब कोई सवर्ण किसी बहुजन से जाति के कम मजदूरी देता था या अमानवीय परिस्थितियों मे काम करवट था तब उसे यह महसूस ही नहीं होता था कि वह कुछ गलत कर रहा है। उसे लगता था कि वह अपने धर्म का पालन कर रहा है। यही स्थिति कमोबेश आज भी बनी हुई है। एक तरफ समाज के निचले स्तर मे बहुजन मजदूरों की सबसे बड़ी आबादी है और दूसरी तरफ शासन प्रशासन मीडिया और न्यायपालिका सहित उद्योग व्यापार मे बहुजनों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है। ऐसे मे आज कोरोना महामारी के बीचोंबीच भारत के शूद्रों अतिशूद्रों और अल्पसंख्यकों के साथ जो हो रहा है उसे दोबारा समझने की कोशिश कीजिए। आप देख पाएंगे कि इस दुर्व्यवहार की जड़ें भारत की सामाजिक धार्मिक व्यवस्था मे गहराई से जमी हुई हैं। इस तरह देखा जाए तो गरीब बहुजन मजदूरों की वर्तमान समस्या किसी प्राचीन षड्यन्त्र और शोषण की व्यवस्था का विस्तार मात्र है।  

 


संजय श्रमण जोठे एक स्वतन्त्र लेखक एवं शोधकर्ता हैं। मूलतः ये मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं। इंग्लैंड की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन मे स्नातकोत्तर करने के बाद ये भारत के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं। बीते 15 वर्षों मे विभिन्न शासकीयगैर शासकीय संस्थाओंविश्वविद्यालयों एवं कंसल्टेंसी एजेंसियों के माध्यम से सामाजिक विकास के मुद्दों पर कार्य करते रहे हैं। इसी के साथ भारत मे ओबीसीअनुसूचित जाति और जनजातियों के धार्मिकसामाजिक और राजनीतिक अधिकार के मुद्दों पर रिसर्च आधारित लेखन मे सक्रिय हैं। ज्योतिबा फुले पर इनकी एक किताब वर्ष 2015 मे प्रकाशित हुई है और आजकल विभिन्न पत्र पत्रिकाओं मे नवयान बौद्ध धर्म सहित बहुजन समाज की मुक्ति से जुड़े अन्य मुद्दों पर निरंतर लिख रहे हैं। बहुजन दृष्टि उनके कॉलम का नाम है जो हर शनिवार मीडिया विजिल में प्रकाशित हो रहा है। यह इस स्तम्भ की चौथी कड़ी है।

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