बिसात-1998 : चौथी बार मध्यावधि चुनाव हुआ, भाजपा अस्पृश्यता के अभिशाप से मुक्त हुई

अनिल जैन
काॅलम Published On :


जीवन भर कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार के दरबारी रहे और संयोगवश कांग्रेस के अध्यक्ष बने सीताराम केसरी की बेलगाम महत्वाकांक्षा और सनक भरी जिद के चलते महज दो साल से भी कम समय में दो सरकारें (एचडी देवगौडा और इंद्र कुमार गुजराल) गिरने के बाद तत्कालीन लोकसभा का दलगत स्वरूप ऐसा था कि कोई भी पार्टी या गठबंधन वैकल्पिक सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था। नतीजतन 1998 में देश को दो साल के भीतर ही दूसरी बार लोकसभा चुनाव सामना करना पडा। देश के चुनावी इतिहास में यह चौथा मध्यावधि चुनाव था।

देश राजनीतिक अस्थिरता के दौर से तो गुजर ही रहा था, मगर देश का राजनीतिक परिदृश्य भी बदल रहा था। संयुक्त मोर्चा की दो साल में दो सरकारों के गिरने से जनता में गहरी ऊब और निराशा छायी हुई थी। जनता दल का कुनबा बुरी तरह अंतर्कलह से ग्रस्त होकर छिन्न भिन्न हो चुका था। जार्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार ने अलग होकर समता पार्टी का, लालू प्रसाद यादव ने राष्‍ट्रीय जनता दल का और रामविलास पासवान ने लोक जनशक्ति पार्टी का गठन कर लिया था। मुलायम सिंह पहले ही अलग होकर समाजवादी पार्टी बना चुके थे। नवीन पटनायक ने भी अपने पिता बीजू पटनायक के नाम पर बीजू जनता दल का गठन कर लिया था। ओम प्रकाश चौटाला और अजित सिंह के अलग-अलग लोकदल बन गए थे। चंद्रबाबू नायडू का भी संयुक्त मोर्चा से मोहभंग होना शुरू हो गया था। उधर, कांग्रेस में नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह और सिंधिया की वापसी हो चुकी थी लेकिन ममता बनर्जी ने कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल कांग्रेस बना ली थी। इसी बीच भाजपा की भी सत्ता पाने की महत्वाकांक्षा परवान चढ चुकी थी।

भाजपा की सीटें भी बढी और स्वीकार्यता भी, जनता दल का सफाया

कुल मिलाकर ऐसे ही माहौल में फरवरी, 1998 में लोकसभा का चुनाव हुआ। भाजपा एक बार फिर 182 सीटें जीतकर सबसे बडे दल के रूप में उभरी। पिछली बार के मुकाबले उसकी ताकत में 22 सीटों का इजाफा हुआ। कांग्रेस की स्थिति में कोई फर्क नहीं पडा। पिछले चुनाव में उसे 140 सीटें मिली थीं, जबकि इस बार उसे 141 सीटें हासिल हुईं। प्राप्त वोटों के लिहाज से हालांकि कांग्रेस आगे रही। कांग्रेस को कुल 9,81,40,471 वोट मिले और उसे प्राप्त वोटों का प्रतिशत 26.14 रहा, जो कि पिछले चुनाव के मुकाबले 2.66 प्रतिशत कम था। कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को मिले वोटों की संख्या 9,60,75,541 रही यानी उसे 25.59 फीसदी वोट मिले जो कि पिछले चुनाव के मुकाबले 5.30 फीसदी अधिक रहे। पिछले एक दशक से क्षेत्रीय दलों की एकता का केंद्र बनते आ रहे जनता दल का इस चुनाव में लगभग सफाया हो गया। उसे महज छह सीटें हाथ लगी। उससे टूटकर अलग हुई समाजवादी पार्टी को 20, राष्ट्रीय जनता दल को 17, समता पार्टी को 10, बीजू जनता दल को 9, हरियाणा में ओम प्रकाश चौटाला के लोकदल को 4 और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी को 3 सीटें मिलीं। वामपंथी दलों की ताकत लगभग बरकरार रही। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को 32, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 9 रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी को 5 और फारवर्ड ब्लॉक को 2 सीटें प्राप्त हुईं। तमिलनाडु में जयललिता की अन्ना द्रमुक को 18, एम. करुणानिधि की द्रमुक को 6, अकाली दल को 8, तेलुगू देशम को 12, तृणमूल कांग्रेस 7, शिवसेना को 6, बहुजन समाज पार्टी को 4 और नेशनल कांफ्रेंस को 3 सीटें प्राप्त हुईं। कुल मिलाकर क्षेत्रीय दलों के खाते में करीब 175 सीटें गईं।

अटल बिहारी दूसरी बार प्रधानमंत्री बने

राष्ट्रपति ने सबसे बडा दल होने के नाते भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दिया। एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। वाजपेयी ने समता पार्टी के नेता जार्ज फर्नांडीज के सहयोग से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का गठन किया, जिसमें करीब 18 छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियां शामिल हुईं। वाजपेयी एनडीए के अध्यक्ष और जॉर्ज संयोजक बने। शिवसेना और अकाली दल तो पहले से भाजपा के साथ थे ही। जयललिता ने एनडीए शामिल हुए बगैर अपनी पार्टी का बाहर से समर्थन देने की घोषणा की। थोडे से मोलभाव के बाद चंद्रबाबू नायडू और फारूक अब्दुल्ला भी साथ आ गए। इन सबके समर्थन की बडी कीमत के तौर पर भाजपा को अपने राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक कानून जैसे तीन पुराने और प्रिय मुद्दों को दरकिनार करना पडा। भाजपा ने घोषणा की कि सरकार बनने पर वह इन तीन मुद्दों पर कुछ भी करने से परहेज बरतेगी। एनडीए में शामिल सभी दलों की सहमति से सरकार चलाने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया गया। अंतत: लोकसभा में वाजपेयी विश्वास मत जीतने में सफल हो हुए। मंत्रिपरिषद का गठन हो गया। लोकसभा अध्यक्ष का पद चंद्रबाबू नायडू से सौदेबाजी के तहत तेलुगू देशम को देना पडा। जीएमसी बालयोगी सर्वसम्मति से लोकसभा के अध्यक्ष चुन लिए गए।

कांग्रेस फिर नेहरू-गांधी परिवार की छत्रछाया में लौटी

इसी बीच कांग्रेस में एक बडे घटनाक्रम के तहत पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी से मिलकर उन्हें कांग्रेस का नेतृत्व संभालने के लिए राजी कर लिया। इस सिलसिले में पार्टी की कार्यसमिति ने सीताराम केसरी को पार्टी अध्यक्ष और संसदीय दल का नेता पद छोड देने को कहा। केसरी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया, जिस पर कार्यसमिति ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर दोनों पदों से हटा दिया तथा सोनिया गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष और पार्टी संसदीय दल का नेता चुन लिया गया।

सिर्फ तेरह महीने बाद ही वाजपेयी सरकार एक वोट से गिर गई

उधर करीब बीस दलों के भीतरी और बाहरी समर्थन से वाजपेयी की अगुवाई में सरकार तो बन गई, मगर लगातार हिचकोले खाते हुए महज तेरह महीने में ही उनकी सत्ता की नाव डूब गई। पूरे तेरह महीने तक सहयोगी दलों के रूठने और उन्हें मनाने का सिलसिला चलता रहा। इस बार उनकी सरकार के पतन के सूत्रधार बने उन्हीं के पुराने जनसंघी सहयोगी डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी। डॉ. स्वामी उस समय अपनी एक सदस्यीय जेबी पार्टी यानी जनता पार्टी के अध्यक्ष थे और अनौपचारिक तौर पर तमिलनाडृ की मुख्यमंत्री जयललिता के सलाहकार बने हुए थे। जयललिता भी उन पर बेहद मेहरबान थी। उन्होंने डॉ. स्वामी को अपनी पार्टी के सहयोग से राज्यसभा में भेज रखा था। उन दिनों जयललिता पर आर्थिक मामलों से जुडे कुछ मुकदमे अदालतों में चल रहे थे और कुछ मामलों की जांच सीबीआई कर रही थी। वाजपेयी सरकार को जयललिता ने जिन शर्तों पर अपनी पार्टी का समर्थन दिया था, उनमें एक शर्त यह भी थी कि वित्त मंत्री उनकी पार्टी का अथवा उनकी पसंद का बनाया जाएगा। सुब्रमण्यम स्वामी जयललिता की मदद से वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री बनना चाहते थे। उनकी यह महत्वाकांक्षा पुरानी थी। 1990 में चंद्रशेखर की सरकार में भी उन्होंने यह मंत्रालय हासिल करने की कोशिश की थी, लेकिन चंद्रशेखर ने उन्हें इस मंत्रालय से दूर ही रखा था। उस सरकार में स्वामी को वाणिज्य और कानून मंत्रालय से ही संतोष करना पडा था।

वाजपेयी ने शुरू में तो जयललिता का समर्थन हासिल करने की गरज से उनकी बाकी सभी शर्तें मान ली और वित्त मंत्रालय भी उनकी पार्टी को देने पर भी विचार करने का आश्वासन दिया। सरकार गठन के बाद जयललिता ने वित्त मंत्रालय के लिए स्वामी का नाम पेश करते हुए वाजपेयी पर दबाव बनाना शुरू किया। वाजपेयी किसी भी सूरत में स्वामी को वित्त मंत्रालय देना नहीं चाहते थे, लिहाजा कुछ समय तक तो वे किसी तरह जयललिता के दबाव को टालते रहे। अंतत: उन्होंने स्पष्ट रूप से जयललिता को संकेत दे दिया कि वे यह मंत्रालय किसी भी सूरत में स्वामी जैसे व्यक्ति को नहीं दे सकते। दरअसल स्वामी की वाजपेयी से पुरानी अदावत थी जो जनसंघ के समय से चली आ रही थी।

वाजपेयी की ओर से स्पष्ट रूप से नकारात्मक संकेत मिलने के बाद स्वामी ने वाजपेयी को सबक सिखाने की योजना पर काम शुरू किया। इस सिलसिले में उन्होंने सबसे पहले जयललिता को वाजपेयी सरकार से समर्थन लेने के लिए राजी किया। फिर उन्होंने जयललिता को दिल्ली बुलाकर उनकी और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की मुलाकात कराई। यह मुलाकात दिल्ली के अशोका होटल में एक चाय पार्टी के दौरान हुई। उस मुलाकात में तय हुआ कि कांग्रेस लोकसभा में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाएगी और अन्नाद्रमुक उसका समर्थन करेगी। लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव आया। वाजपेयी सरकार सूक्ष्म बहुमत के सहारे चल रही थी। वाजपेयी और जार्ज फर्नांडीज ने जयललिता को अपने पाले में रखने के हर संभव प्रयास किए गए। जयललिता ने भी अंतिम क्षणों तक भ्रम की स्थिति बनाए रखी। इस बीच सरकार के कुछ रणनीतिकार बसपा अध्यक्ष मायावती से संपर्क बनाए हुए थे। सरकार के रणनीतिकारों को पूरा भरोसा था कि अविश्वास प्रस्ताव गिर जाएगा लेकिन जब मत-विभाजन का मौका आया तो जयललिता ने भाजपा को गच्चा दे दिया। बसपा के सांसदों ने भी अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया। नतीजा यह रहा कि वाजपेयी सरकार मात्र एक वोट से गिर गई।

जिस एक निर्णायक वोट से वाजपेयी की सरकार गिरी वह वोट था कांग्रेस के गिरिधर गोमांग का, जो थोडे ही दिनों पहले ओडिशा के मुख्यमंत्री बन गए थे लेकिन उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया था। लोकसभा अध्यक्ष बालयोगी चाहते तो उन्हें वोट देने से रोक सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। सरकार गिरी और कुछ दिनों के भीतर ‘करगिल’ हो गया। पाकिस्तान के साथ दो महीने तक चली करगिल की लडाई के बाद 1999 के सितंबर-अक्टूबर में लोकसभा का तेरहवां चुनाव हुआ।


लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं और मीडियाविजिल के लिए आम चुनावों के इतिहास पर श्रृंखला लिख रहे हैं