फ़ेसबुक पर अशोक पांडे के कुत्ते !

मीडिया विजिल मीडिया विजिल
काॅलम Published On :


अनिल यादव

 

कुत्ते महान शिक्षक हैं जो स्कूल से घर लौटते शहरी बच्चों को सेक्स की बुनियादी तालीम देते हैं. यह काम बहुत पहले समाज और सरकार को करना चाहिए था लेकिन हमने धार्मिक शुचिता के फर्जी घमंड में अपनी नैतिकता और असलियत के बीच इतनी दूरी बना ली थी कि हमसे न हो पाया. इस दूरी के बीच ही अश्लीलता के व्यभिचारी स्वयंभू लठैत व्याख्याकार पैदा हुए हैं. पहले यह काम घरों, स्कूलों के दरवाजों और पंखों पर गौरैया भी किया करती थी लेकिन अब लुप्त हो चुकी है.

ऊंची मल्टीस्टोरी इमारतों में सबसे शालीन शिक्षक कबूतर जरूर बचे हैं लेकिन उन्हें घंटो देखने का समय बच्चों के पास नहीं बचा है.

 

 

ये कुत्ते सड़कों पर घूम रहे थे. मुहल्लों में खड़ी कारों के टायरों और बिजली के खंभों पर धार मार कर अपने नगण्य प्रभुत्व की बड़ी सीमाएं बनाने में लहूलुहान हो रहे थे. अपने इलाज के लिए घास खाकर उल्टियां कर रहे थे जो उनका योग था. जीवन का कोई अर्थ खोजते चंद लोगों के बिस्कुट और खिचड़ी का नमक खाकर उनके बाल गिर रहे थे, स्वभाव बदल रहा था. इनमें से कुछ घरों में डॉगफीड खाकर अपने बारे में भ्रष्ट अंग्रेजी में की जाने वाली मनमानी व्याख्याएं झेल रहे थे. इनकी फोटो खींची गई तो कैमरे के भीतर आ गए. फोटो इंटरनेट में भर दी गईं तो रफ्तार बढ़ गई. वे साइबर स्पेस में भटकती हमारी आंखों के और करीब आ गए लेकिन जहां थे वहीं रहे यानि आदमी के भीतर, बाहर, माजी और मुस्तकबिल में बने रहे. तभी अशोक पांडे की नजर उन पर पड़ी.

 

 

वे पितृसत्ता के पुरातन लोक में हैं जहां सब कुतियां गंगा नहाने जाती हैं और कोई एक अकेली घर में हंडिया ढूंढती है. वे नारीवाद की कटखन्नी ‘बिचेज’ हैं. कामयाबी के बिना बेकार जिंदगी की प्रतिस्पर्धा में हैं जहां कोई हाथी बनकर झूमते हुए गुजरना चाहता हैं और वे झुंड बनाकर भौंकते रहते हैं. राजनीति में हैं, जहां कार के नीचे आया कुत्ते का पिल्ला नरसंहार का क्रूर रूपक बन जाता है. फिल्मों में हैं जिन्हें जितनी बार देखा जाए उतनी बार एक नया धरमेंदर उनका खून पीता है. मीडिया में हैं जिन्हें लोकतंत्र का वॉचडॉग होना था लेकिन पालतू खौरहे रोडेशियन हो गए. कॉरपोरेट और उद्योग में हैं जहां ‘सीएसआर’ की नली में बरसों दुम रखी होने के बाद भी टेढ़ी ही निकलती है और घोटाले होते रहते हैं. संस्कृति में हैं जहां गुरू-शिष्य परंपरा की ओट में कार्तिक का महीना कलाकर्म पर पूरे बरस फैला रहता है. धर्म में हैं जहां वे भैरव के वाहन के रूप मे पूजे जाते हैं. शायरी में हैं जिन्हें जौक-ए-गदाई बख्शा गया है जो रोटियां फेंक कर जनता की तरह लड़ाए जाते हैं. वे कहां नहीं हैं.

 

 

इन दिनों अजीब सा मौसम है. अचानक ठंड बढ़ जाती है, कभी बेहिसाब गर्मी लगने लगती है. कुहरा नहीं है फिर भी ट्रेनें लेट चल रही हैं और स्टेशन बेचे जा रहे हैं. हर ओर आतंक, घुटन का माहौल है. अचानक कोई मरियल सा लड़का नींद से उठकर हिंदू-मुसलमान बर्राने लगता है. पांच साल से एक चेहरा चेतना पर छाया हुआ है जो लगातार हैरतअंगेज दृढ़ता से झूठ बोलता है, ऊंची हांकता है, हांकता ही जाता है. कहता है हवाई चप्पल वाले हवाई जहाज में चलेंगे. जिस वक्त वे सपने की उड़ान में होते हैं, हवाई जहाज का तेल बाइक के पेट्रोल से भी सस्ता हो जाता है. कहता है खाऊंगा न खाने दूंगा उसी समय गरीब मुल्क को हीरा पहनने की तमीज सिखाने वाला कलाकार बैंक लूट जाता है. किसी भी घटिया चीज को विकास, देशभक्ति, राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, सुपर पॉवर, जगतगुरू, स्वच्छता, आस्था, मर्यादा कह दिया जाता है और हंसने से पेश्तर लोग मान लेते हैं क्योंकि ऐसा व्हाटसैप में लिखा हुआ है जिसे मनवाने के लिए भीड़ डंडे और सरिया लिए खड़ी है. बलात्कारी के पक्ष तिरंगा लिए देशभक्त खड़े होते हैं जो सिनेमा में राष्ट्रगान के वक्त किसी विकलांग के न खड़ा हो पाने पर पीटते हैं. एक हत्यारा जेल में अपने अपराधबोध के अभाव का वीडियो बनाता है, मंत्री एसिड अटैक से जली लड़की से बलात्कार करता है. दूसरा मंत्री फसलें तबाह होने पर हनुमान चालीसा पढ़ने के लिए कहता है. सरकार लालकिले पर सीमाओं की रक्षा के बगलामुखी यज्ञ कर रही है और एलआईजी कालोनी के चुलबुल खुश हैं कि सीमा पर सैनिक तो मरते ही रहते हैं लेकिन देखो पहिली बार मुगलिया सल्तनत के अंतिम प्रतीक का शुद्धिकरण हो रहा है.

 

 

कलावा, रक्षासूत्र, अंगूठियों और झक्कड़ बाबा की भभूत से मंडित चुलबुल पान की दुकान पर टेढ़े खड़े हैं. आते जाते लोगों को घूर रहे हैं. उनकी आंखों के आगे धूप के पकौड़े उड़ रहे हैं. कोई नहीं बोलेगा क्योंकि चार साल से सत्ता की कलारी की देसी पी के टाइट हैं.

 

 

हां तो तभी अशोक पांडे की नजर कुत्तों पर पड़ी.

 

 

अपने वक्त की  जो सबसे मानीखेज बात हो, अगर आंख है तो हर जगह दिखाई देने लगती है. कान है तो सुनाई देने लगती है. रचनात्मकता अपना रस्ता हर हाल में खोज लेती है. आपमें से कुछ ने विन्सेंट वेन गो के सूरजमुखी देखे होगे. राजा रवि वर्मा की नारियां देखी होंगी. जरा  फेसबुक पर देखिए, अशोक पांडे ये कुत्ते कुछ कह रहे हैं!

 



अनिल यादव हिंदी के चर्चित लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं।