जब अस्पताल ही नहीं हैं तो बीमा किस काम का सरकार?

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अशोक उपाध्याय

 

मुझे मालूम नहीं है कि जब बकरा कटता है तो वह कुछ विरोध करता है या नहीं करता. मगर मुझे यह मालूम है स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर भारत के नागरिक खामोशी से कटे जा रहे हैं.

संविधान के अनुसार, यह राज्य का उत्तरदायित्व है कि वह अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की देखभाल की उचित व्यवस्था करे. आरम्भिक पंच वर्षीय योजनाओं में जन स्वास्थ्य के लिए जितना सम्भव था उतना धन आवंटित किया गया था. जिस के परिणाम स्वरूप देश के कोने कोने में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद और बड़े अस्पताल बने थे. ये सभी देश की  जरूरत के हिसाब से कम थे .

देश में नई आर्थिक नीति लागू होने पर, सरकार ने यह मान लिया कि वह अकेले लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं करवा सकती. इसलिए इस क्षेत्र में निजी को भी शामिल किया जाय. सरकार के इस निर्णय से देश में छोटे बड़े चिकित्सालय खुलने लगे. बड़े अस्पताल खोलने के लिए सरकार ने सस्ती दरों जमीन दी और चिकित्सा के उपकरण विदेश से मंगाने के लिए कर में छूट दी.

देश के लोग इन निजी अस्पतालों में जाएं इस के लिए सरकार ने अपनी सी.जी.एच.एस. स्कीम में इन अस्पतालों को शामिल कर लिया जिस से इन अस्पतालों को नियमित रोगी मिल सकें.

सरकारी अस्पतालों में पहले इलाज मुफ्त या बहुत कम लागत पर होता था. अब इन निजी अस्पतालों के कारण रोगी के इलाज की राशि बढ़ गई. जिसे बीमा कम्पनियों ने अवसर के रूप में लिया. ये बीमा कम्पनियां एक निश्चित प्रीमियम के बदले इलाज के खर्चे का पुनर्भुगतान बीमाधारक को करती थीं / करती हैं.

इस बीमा को लोकप्रिय बनाने के लिए, सरकार ने आयकर की धारा 80 में यह प्रावधान किया है कि बीमा के प्रीमियम की राशि कर योग्य आय से घटा दी जाती है. बहुत से लोग इस में अपना दोहरा लाभ देखते हैं जहाँ एक ओर उन्हें आयकर में छूट मिलती है वहीं दूसरी उन्हें स्वास्थ्य बीमा मिल जाता है. जिस से बीमार होने पर वे इलाज की रकम बीमा कम्पनी से वापस पा सकते हैं.

इस तरह बीमा को आगे कर सरकार सब को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाने की अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी से पीछे हट रही है. सरकार ने अब काम निजी अस्पतालों पर छोड़ दिया गया है. आम जनता इस महंगे निजी अस्पताल के खर्चे को वहन कर सके इसके लिए स्वास्थ्य बीमा को आगे किया जा रहा है.

यहां महत्वपूर्ण है कि थोड़े से प्रीमियम के बदले, बीमा कम्पनी जो लाखों रूपये का भुगतान बीमा लेने वाले को करती है. वह यह रकम अपने पास से नहीं देती है. यह उन भुगतान वह उस राशि में से करती है जो उसने प्रीमियम के रूप में जनता से एकत्रित किया है. मतलब यह उन लोगों का पैसा है जिन लोगों ने प्रीमियम तो दिया लेकिन क्लेम नहीं लिया.

इलाज के लिए जो अस्पताल निजी क्षेत्र ने खोले हैं. वे लाभ कमाने के लिए खोले गए हैं. वे अपनी सेवाओं के बदले लाभ चाहते हैं. अब इन अस्पतालों में इलाज की लागत इतनी बढ़ गई है कि बिना बीमा के आम जनता इनकी सेवाओं के बदले बिल का भुगतान नहीं कर सकती है. इन निजी अस्पतालों में इलाज करवाने वाले 98 प्रतिशत लोग वे होते हैं जिन के बिलों का भुगतान बीमा कम्पनी या कोई और संस्थान कर रहा होता है.

इलाज की इस बढ़ती लागत के कारण बीमा कम्पनियों पर यह दबाव है कि इन स्वास्थ्य बीमा पोलसियों पर लिया जाने वाला प्रीमियम बढ़ा दें या अधिक से अधिक लोगों को बीमा लेने के प्रेरित करें. वे दोनों ही दिशाओं में काम कर रही हैं.

दुर्भाग्य से अब इन स्वास्थ्य पॉलिसियों का प्रीमियम इतना बढ़ गया है कि प्रीमियम की क़िस्त आम आदमी को कचोटने लगी है और जहां तक नए ग्राहक खोजने का सम्बन्ध है. इस कोरोना काल में लोग केवल अति आवश्यक खर्च मद्दों पर खर्च कर रहे हैं. बीमा उनकी प्राथमिकता नहीं है.

इस कोरोना संकट में हम ने देखा है कि विपदा के समय इलाज का सरकारी ढांचा ही काम आता है. निजी अस्पताल अपने लाभ के दृष्टिकोण को कभी नहीं छोड़ते हैं. यदि अब भी वे अपनी सेवाएं दे रहे हैं तो उसके बदले सरकार से उसकी लागत वसूल रहे हैं.

इलाज न होने की स्थिति में, आम गरीब जनता में असंतोष न बढ़े इसलिए, उन्हें बीमे की ही आयुष्यमान भारत जैसी योजना थमा दी जाती है. जिस में वे पांच लाख तक का इलाज किसी सरकारी या प्राइवेट अस्पताल में करवा सकते हैं. सवाल वही है जब अस्पताल ही नहीं हैं तो बीमा पॉलसी किस काम आयेगी. यहां यह महत्वपूर्ण जिस पांच लाख की पॉलसी को मुफ्त कह कर गरीबों को दिया जा रहा है. उसके प्रीमियम का भुगतान सरकार द्वारा बीमा कम्पनी को किया जा रहा है. यह वही पैसा है जिसे सरकार जनता से करों के रूप में वसूलती है.

हम समाज में देख रहे हैं कि निजी अस्पतालों के बिलों के भुगतान में लोगों घर और जेवर बिक रहे हैं. दूसरी ओर बड़े नेता, उधोगपति, बड़ी कम्पनियों के बड़े अधिकारी सिर्फ क्वारंटीन होने के लिए ऐसे अस्पतालों में भर्ती होते हैं. जहाँ एक दिन का खर्च लाखों में होता है. इस खर्च का भुगतान बीमा कम्पनी को करना होता है और अंत में उसी समाज को करना होता है जिस ने प्रीमियम दिया है. एक बार भुगतान की बात छोड़ दें तब भी नैतिक रूप से देखें वे उस महंगे संसाधन का उपयोग कर रहे हैं जिस की उन से ज्यादा जरूरत किसी और को है.

सरकार बीमा पर आधारित स्वास्थ्य सेवाओं का वह मॉडल देश में लागू करना चाहती है जो अमरीका जैसे देश में असफल हो चुका है. इस सरकार पर विदेशी संस्थाओं और कॉरपोरेट का इतना दबाव है कि वह चाह कर भी इस मॉडल को नहीं छोड़ सकती है.

आजकल मीडिया में सरकारी अस्पतालों की अव्यवस्था के ऐसे दृश्य सामने आ रहे हैं कि लगता नहीं कि हम सभ्य समाज में रहे हैं तो दूसरी ओर निजी अस्पतालों में बिलों के भुगतान न होने तक शव को न दिया जाना आम बात हो गई है. सरकार को इसे रोकने के लिए निर्देश जारी करने पड़ रहे हैं.

ऐसे समाज में असंतोष होना स्वाभाविक है. अस्पतालों में झगड़े बढ़ते ही जा रहे हैं. ऐसे में कोढ़ में खाज बन कर सरकार का एक नया अध्यादेश अप्रैल 2020 आया है. सरकार ने इसे कुछ एक अस्पतालों में हुई मारपीट के घटनाओं को देखते पारित किया हिया. इस एक अध्यादेश के द्वारा अब डाक्टरों या मेडिकल स्टाफ के साथ मारपीट करने या उनके काम में अवरोध पैदा करने को गैर जमानती अपराध बना दिया है. इस कानून का पालन न करने पर आर्थिक दंड के साथ सात साल तक की सजा दी जा सकती है.

अस्पतालों ने इन प्रावधानों के पोस्टर बना कर जगह जगह  लगवा दिए हैं. विरोध की आवाज निकलते ही उनके सिकियोरटी गार्ड हाजिर हैं और पुलिस को बुलाने की धमकी दी जाती है. ऐसे में आप मरीज को छोड़कर थाने और अदालतों के चक्कर काटते रहिए या खामोशी से उनके आदेश का पालन कीजिए. अस्पताल में मरीज किस स्थिति में होता है और अस्पताल प्रबंधन किस स्थिति में होता है यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है. मरीज की आवाज को दबाने में इस कानून का भरपूर दुरुपयोग हो रहा है.

मतलब बकरा कटे तो उछले नहीं. आवाज न करे. चुपचाप कटे. यह कहे कि आप भगवान हैं. तो बहुत अच्छा है.


 

अशोक उपाध्याय, सरकारी बीमा कम्पनी में करीब 35 साल तक अधिकारी के रूप में काम किया है. आज कल जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय में विजिटिंग फैकल्टी हैं.

 


 


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