राष्ट्र-निर्माण को बेसब्र गैर-मामूली लोग बनाम कोरोनाक्रान्त मामूली लोग

लोकेश मालती प्रकाश
ओप-एड Published On :


हमारे जैसे छोटे-मोटे लोग दिन-रात बस अपनी चिन्ता करते हैं। कमाने-खाने, ओढ़ने-पहनने, खर्च-बचत की चिन्ताएँ। मामूली, निहायत ही स्वार्थी चिन्ताएँ। लेकिन हद तो यह है कि इस पर भी हम चाहते हैं कि बाक़ी सभी लोग बस हमारी चिन्ता में ही चिन्तित रहें। आस-पड़ोस, शहर, गाँव, देश, विदेश।

गोया हमारी चिन्ता चिन्ता नहीं कोई वैश्विक आपदा हो जिसका समाधान अंतरराष्ट्रीय राजनीति का केन्द्र बिन्दु होना चाहिए। मानो हमारी नून-तेल-चीनी की चिन्ताएँ दुनिया के लिए कोरोना या आर्थिक मन्दी से भी बड़ी चुनौती हो। मामूली लोगों के मामूली वजूद की चिन्ताएँ तो मामूली होती हैं मगर ख़्वाब बड़े होते हैं। ग़नीमत है कि हम जैसे लोग मामूली हैं। अगर गैर-मामूली होते तो आसमान ही सर पर उठा लेते! अपनी छोटी-मोटी टुच्ची चिन्ताओं में सारी दुनिया को उलझाए रखते!

दूसरी तरफ़ गैर-मामूली लोग होते हैं। उनकी चिन्ता का दायरा आपने आप से, अपने घर-बार व आस-पड़ोस से बहुत दूर शुरू होता है। वहाँ जहाँ तक मामूली लोगों की सोच और कल्पना कभी भूले से भी नहीं जाती – ‘नॉट ईवन इन देयर वाइल्डेस्ट ड्रीम्स’। (तभी तो वे मामूली होते हैं।) दूसरी तरफ़, गैर-मामूली लोगों के लिए राष्ट्र से नीचे किसी चीज़ के बारे में चिन्ता करना ख़ुद की तौहीन करने जैसा होता है।

गैर-मामूली लोगों का पूरा वजूद राष्ट्र को समर्पित होता है। वैसे यह भी कहा जा सकता है कि राष्ट्र होते ही इसलिए हैं क्योंकि गैर-मामूली लोग होते हैं। वर्ना मामूली लोगों को राष्ट्र-वाष्ट्र जैसी चीज़ की कभी ज़रूरत पड़ती है भला! पगार, रोज़गार, रोटी-कपड़ा-मकान जैसी निहायत ही छोटी-मोटी चिन्ताओं में डूबे रहने वालों को गैर-मामूली लोगों का कृतज्ञ होना चाहिए जिनकी बदौलत उनको राष्ट्र जैसी महान चीज़ के लिए मरने-मारने का मौक़ा मिल जाता है। वर्ना तो उनका जीवन लगभग व्यर्थ ही होता है।

गैर-मामूली लोग राष्ट्र की जो इतनी चिन्ता करते हैं उसके पीछे एक वजह यह भी है। वे चाहते हैं कि छोटे-मोटे लोगों को राष्ट्र के नाम पर कुछ करने का मौक़ा मिल जाए और उनका जीवन सार्थक हो सके।

दरअसल मामूली लोगों को अपने व्यर्थ होने के बोध से उबारने के लिए गैर-मामूली लोग राष्ट्र का झंडा हर कीमत पर उठाए रखते हैं। और अगर कोई मूढ़ मामूली आदमी इस झंडे से खिलवाड़ करने की कोशिश करता है तो उसे सबक़ सिखाने के लिए ‘राष्ट्रद्रोह’ का मुक़दमा चला जेल की हवा खिलाते हैं। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए यह ज़रूरी है। वर्ना मामूली लोग भूल जाएँगे कि उनकी मामूली ज़िन्दगी से परे राष्ट्र नाम की कोई चीज़ भी होती है।

अगर गैर-मामूली लोग न होते तो मामूली लोगों को न राष्ट्र का पता होता और न ही राष्ट्रद्रोह का। यह यूँ ही नहीं है कि गैर-मामूली लोगों के लिए राष्ट्र हमेशा कृतज्ञ रहते हैं।

लेकिन इस कृतज्ञता की एक वजह और है। गैर-मामूली लोग राष्ट्र के लिए गैर-मामूली बोझ उठाते हैं।

मिसाल के लिए, भारतवर्ष के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई राष्ट्र के लिए अब राज्य सभा में जाने की क़ुर्बानी देने जा रहे हैं। चाहते तो रिटायरमेंट के बाद आराम करते। घर-परिवार, मुहल्ले-पड़ोस के साथ समय गुज़ारते। गप्पें लड़ाते, घूमते-फिरते, दोपहर खाने के बाद अलसाते-सुस्ताते, कहानियाँ-उपन्यास पढ़ते, फ़िल्में देखते। कितना कुछ है आनन्द लेने को। मगर नहीं। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया।

जीवन का आनन्द लेने का ख़्याल इतना मामूली है कि गैर-मामूली लोगों के ज़ेहन में इसकी परछाई तक नहीं आ सकती। वहाँ सिर्फ़ एक चीज़ के लिए जगह है – राष्ट्र। और कुछ नहीं। तभी गोगोई साहब आराम को हराम मानते हुए राष्ट्र निर्माण के मैदान में अपना सर्वस्व दाँव पर लगा कर कूद पड़े हैं। ग़ज़ब तो यह है कि चन्द धूर्त क़िस्म के मामूली लोग इस महान त्याग के लिए गोगोई की आलोचना करने की हिमाक़त कर रहे हैं! ऐसे बदमाशों पर तत्काल राष्ट्रद्रोह का मुक़दमा चला कर उनको जेल भेज देना चाहिए। बल्कि मुक़दमे वग़ैरह के चक्कर में राष्ट्र का समय क्यों बरबाद करना? यूपी के मुख्यमंत्री ने रास्ता दिखा दिया है कि जब राष्ट्र का मामला हो तो कोर्ट-कचहरी का चक्कर न सिर्फ़ बेकार है बल्कि राष्ट्र के समय और संसाधनों की बर्बादी है। इन सब चक्करों में पड़े बिना राष्ट्रद्रोहियों को निपटा देना चाहिए।

गोगोई चाहते हैं कि विधायिका और न्यायपालिका मिल कर राष्ट्र निर्माण करें। यह सोच भी दुरुस्त है। इस देश की न्यायपालिका से न्याय के निर्माण का काम इतने सालो में नहीं हो सका। राष्ट्र निर्माण का काम करवा कर देख लेने में कोई बुराई नहीं है। क्या पता वो इसमें ज़्यादा बेहतर प्रदर्शन करे। गोगोई वैसे भी राष्ट्र निर्माण का काम बहुत सीरियसली लेते हैं। नौकरी में रहते हुए मंदिर निर्माण का रास्ता साफ़ किया। राष्ट्र निर्माण की ख़ातिर कश्मीर को जेल बने रहने दिया। राष्ट्र के लिए सरकार के साथ कन्धे-से-कन्धा मिला कर चलते रहें।

बन्दे का जज़्बा ऐसा है कि रिटायरमेन्ट के छह महीने के भीतर राष्ट्र निर्माण के लिए तैयार हो गया। गैर-मामूली लोग ऐसे ही होते हैं। इधर अपन जैसे मामूली लोग इस चिन्ता में डूबे हैं कि राष्ट्र के कोरोना-काल में जीवन कैसे चलेगा।