बिपन चंद्रा: इतिहास लिखते-लिखाते इतिहास रचने वाला जन-इतिहासकार !

सौरभ बाजपेयी
ओप-एड Published On :


इतिहास किसी भी राष्ट्र की चेतना का निर्माण करता है। बिपन चंद्र ने आधुनिक भारत के इतिहास को साम्राज्यवादी इतिहास दृष्टि से पैदा हुयी आत्मविश्वासहीनता, राष्ट्रवादी इतिहासलेखन की अपूर्णता और परंपरागत मार्क्सवादी इतिहासलेखन के रूढ़ियों से आधुनिक भारत के इतिहास को बाहर निकाला। वे एक जन-इतिहासकार थे। जिन्होंने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को समझते हुए हमेशा आम लोगों तक बात पहुँचाने की कोशिश की। अपनी सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना के चलते ही उन्होंने अपनी सबसे लोकप्रिय किताब “भारत का स्वतंत्रता संघर्ष” समाज को समर्पित कर दी थी। वे उसकी रॉयल्टी नहीं लेते थे।

विश्व प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार बिपन चन्द्र नहीं रहे। पिछले दिनों 30 अगस्त 2014 को उनका लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया। 1928 में हिमाचल प्रदेश, जो तब पंजाब का हिस्सा हुआ करता था, के कांगड़ा जिले में जन्मे बिपन चन्द्र 86 वर्ष के थे। वे ऐसे इतिहासकार के रूप में हमेशा याद रखे जाएंगे, जिन्होंने आधुनिक भारतीय इतिहास लेखन को पूरी दुनिया में प्रतिष्ठित जगह दिलाई। उनके नेतृत्व में इतिहासकारों के एक समूह ने भारतीय इतिहास लेखन की साम्राज्यवादी धारा के वैचारिक आधारों को गंभीर चुनौती दी। उनका यह योगदान इतिहासलेखन में इतना महत्वपूर्ण माना गया कि उनके नाम पर इतिहासलेखन का एक पूरा “स्कूल ऑफ़ थॉट” ही बन गया। जिसे बिपन चन्द्र स्कूल ऑफ़ हिस्टोरिओग्राफ़ी के नाम से जाना जाता है। वे एकलौते भारतीय इतिहासकार थे, जिन्हें इस तरह की पहचान मिली। जो जगह एरिक हॉब्सबॉम और ईo एचo कार की ब्रिटिश इतिहासलेखन में है, भारतीय इतिहासलेखन में वही स्थान बिपन चन्द्र का है। उनके लेखन ने हमारे दिमागों को उपनिवेशवाद के प्रभाव से इतना मुक्त कर दिया है कि यह बात उनकी श्रद्धांजलि लेख में पूरे आत्मविश्वास से कही जा सकती है।

बिपन चन्द्र को तमाम तरह से भारतीय बौद्धिकता के इतिहास में याद रखा जाएगा। उनकी क़िताबें और उसमें समाये उनके विचार आने वाले समय में हमारा मार्गदर्शन करेंगे। इतिहास किसी भी राष्ट्र की चेतना का निर्माण करता है। उन्होंने आधुनिक भारत के इतिहास को साम्राज्यवादी इतिहास दृष्टि से पैदा हुयी आत्मविश्वासहीनता, राष्ट्रवादी इतिहासलेखन की अपूर्णता और परंपरागत मार्क्सवादी इतिहासलेखन के रूढ़ियों से आधुनिक भारत के इतिहास को बाहर निकाला। एक धर्मनिरपेक्ष, वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक राष्ट्र के निर्माण में उनके इतिहासलेखन ने नींव बनाने का काम किया है। उनकी लाखों- लाख की सँख्या में बिकी किताबें इस बात का प्रमाण हैं कि वे भारतीय जनमानस को छूने वाले विद्वान थे। गंभीर शोध- छात्र, नौकरशाह, सिविल सेवा के अभ्यर्थी से लेकर इतिहास में सामान्य रूचि रखने वाले सामान्य पाठक तक बिपन चन्द्र की चेतना के वाहक हैं। इसीलिए भारत के छोटे-छोटे शहरों और कस्बों तक जब कभी आधुनिक भारत के किसी मुद्दे पर बात होती है, तो बिपन चन्द्र के लेखन का ही हवाला दिया जाता है। वे एक जन-इतिहासकार थे। जिन्होंने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को समझते हुए हमेशा आम लोगों तक बात पहुँचाने की कोशिश की। फ़िराक़ गोरखपुरी कहते थे साहित्य इतना सरल होना चाहिए कि आठ साल के बच्चे से लेकर अस्सी साल के बूढ़े तक को समझ आये। बिपन चन्द्र ने तो इतिहास जैसे कठिन विषय को भी इतनी सरलता से पेश किया कि वो भी इस कसौटी पर खरा उतरता है। अपनी सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना के चलते ही उन्होंने अपनी सबसे लोकप्रिय किताब “भारत का स्वतंत्रता संघर्ष” समाज को समर्पित कर दी थी। वे उसकी रॉयल्टी नहीं लेते थे।

सवाल दर सवाल

वे अपने जीवन के शुरुआती दिनों से ही प्रश्न पूछने के आदी थे। उनकी शुरुआती शिक्षा लाहौर के फोरमैन कॉलेज में हुयी। उन दिनों वे अंग्रेजी बोलने में असमर्थ थे। लेकिन क्लास के दौरान उन्हें तमाम प्रश्न पूछने का मन करता था। इसलिए वो अपने गहरे दोस्त, जिनकी अंग्रेजी अच्छी थी, के कान में प्रश्न बता देते थे। उनके दोस्त वही प्रश्न अंग्रेजी में खड़े होकर दोहरा दिया करते थे। एक बार टीचर ने उन्हें इस बात के लिए डाँट लगायी कि वे क्लास में खुसुर-फुसुर क्यों करते रहते हैं। तब उन्होंने टीचर को सच्चाई बताई। टीचर ने खुश होकर उन्हें हिंदुस्तानी में ही प्रश्न पूछने को कह दिया। इसके बाद तो उन्होंने क्लास में सवालों की बौछार कर दी। उन्होंने ताउम्र यह आदत नहीं छोड़ी।

पूरा जीवन वे अपनी जिज्ञासा में सवाल पूछते रहे। और उन सवालों का जवाब तलाशने के क्रम में उन्होंने परंपरागत इतिहासलेखन की जाने कितनी मान्यताओं को ध्वस्त कर दिया। यही सीख उन्होंने अपने तमाम छात्रों और अन्य लोगों को दी। वे अपनी क्लास में खूब बहस- मुबाहिसा पसंद करते थे। एक बार जेएनयू के किसी सीनियर छात्र ने उनसे पूछा कि उस साल का बैच कैसा है? उन्होंने निराश होकर कहा कि उस बैच में तो कोई सवाल ही नहीं पूछता।

बिपन चन्द्र ने भारतीय इतिहासलेखन पर पहला बड़ा सवाल अपने पीएचडी शोध प्रबंध के दौरान उठाया। जब उन्होंने आरंभिक राष्ट्रवादियों पर अपना काम शुरू किया तो उनकी परिकल्पना पहले के दो मार्क्सवादी विद्वानों के अध्ययन से भिन्न नहीं थी। रजनी पाम दत्त और एo आरo देसाई जैसे शुरुआती मार्क्सवादी विद्वानों ने दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, एमo जीo रानाडे, जीo वीo जोशी और रोमेशचन्द्र दत्त आदि की भूमिका को नज़रअंदाज़ कर दिया था। उनका मानना था कि यह आरम्भिक नेता ब्रिटिश साम्राज्य की अच्छाइयों में यकीन करने वाले लोग थे। जो अपनी समस्याओं के समाधान के लिए घोर संवैधानिक तरीकों से याचिकाएँ देने में यकीन रखते थे। उनके वर्ग चरित्र को उन्होंने “बिग बुर्जुआजी” माना। देसाई ने उन्हें नए बुर्जुआ समाज के प्रतिनिधि और शिक्षित समाज और व्यापारिक वर्गों के प्रवक्ता माना था। लेकिन जब बिपन चन्द्र ने अपना अध्ययन शुरू किया तो उन्हें भिन्न निष्कर्ष मिले।

उन्होंने सबसे पहले इस स्थापना को खारिज किया कि बुद्धिजीवी नेतृत्व हमेशा अपने वर्ग के फायदों की दृष्टि से ही सोचता है। और, विचारों की चेतना का निर्माण विचार के स्तर पर होता है, न कि नफा- नुक़सान के आकलन से। उन्होंने सिद्ध किया कि आरंभिक राष्ट्रवादी अपने निजी हितों की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे। भले ही उनका व्यापक दृष्टिकोण औद्योगिक पूँजीवाद को समर्थन करता था। इसकी वजह यह थी कि तत्कालीन भारत में औद्योगिक पूँजीवाद सबसे बड़ी जरूरत था। सबसे बड़ी बात थी कि वे संभवतः दुनिया के पहले ऐसे बुद्धिजीवी थे, जिन्होंने उपनिवेशवाद को विस्तार से परिभाषित किया। इस तरह यह तथ्य सामने आया कि ब्रिटेन भारत का जबर्दस्त आर्थिक शोषण कर रहा था। पूरा देश एक जैसे शोषण-चक्र में फँसा है, यह देखकर लोगों में एकजुटता की भावना आयी। यहीं से भारत में आर्थिक राष्ट्रवाद की नींव पड़ी।

यहाँ उन्हें एक द्वन्द का सामना करना पड़ा। वे एक मार्क्सवादी इतिहासकार थे। उस समय तक आधुनिक भारतीय इतिहास की मार्क्सवादी समझ रजनी पाम दत्त और एo आरo देसाई की मान्यताओं पर आधारित थी। 1946 में ही पार्टी ने “पीपुल्स वार” की लाइन ले ली थी और 1947 में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मिली आज़ादी को झूठा कहकर ख़ारिज कर दिया था। नयी स्थापनाओं से पार्टी में उथल- पुथल मचना स्वाभाविक था। लेकिन उन्होंने और उनके खास दोस्त मोहित सेन (जो अपने समय के प्रभावशाली कम्युनिस्ट नेता थे) ने यह तय किया कि एक मार्क्सवादी इतिहासकार की तरह जो निष्कर्ष मिलें, उन्हें निडर होकर स्वीकार करो। और यहीं से बिपन ने अपने जीवन में निडर रहकर हर तरह की रूढ़ियों के खिलाफ सवाल उठाये। उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी लेकिन उन्होंने खुद भी ऐसा किया और दूसरों को भी ऐसा करने का हौसला दिया। इस मामले में वे गजब लोकतान्त्रिक थे। वे नए विचारों को स्वीकार करने को हमेशा तत्पर रहते थे। लेकिन उन पर लड़ने- भिड़ने की हद तक बहस के बाद। उनका कहना था कि हर विचार की हरसंभव कसौटी पर परीक्षा की जानी चाहिए।

बिपन चन्द्र ने इतिहास की समझ सक्रिय राजनीतिक भागीदारी के मार्फ़त बनाई। अपने अमेरिका प्रवास के दौरान जब वे स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में थे, उन्होंने समसामयिक राजनीति में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी। वहाँ वे मार्क्सवादियों के सम्पर्क में आये और अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव- प्रचार में हिस्सा लिया। जब वे भारत लौट के आये तो उनका उद्देश्य सम्भावित क्रान्ति का हिस्सा बनना था। लेकिन धीरे- धीरे वे समझ गए कि एक भिन्न समाज होने के नाते क्रांति उन रास्तों से नहीं आएगी, जिन पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी काम कर रही थी। उनके इस अनुभव ने उन्हें भारतीय समाज के चरित्र का नए सिरे से परीक्षण करने को प्रेरित किया। इस काम में उन्होंने अन्तोनिओ ग्राम्शी की अंतर्दृष्टियों को अपना आधार बनाया।

ग्राम्शी का मानना था कि पूंजीवादी वर्ग सत्ता को हासिल करने और उसे बनाये रखने के लिए बहुतेरे तरीकों से अपना प्रभुत्व स्थापित करता है। बिपन चन्द्र ने इस अंतर्दृष्टि को आगे बढ़ाते हुए इसे औपनिवेशिक समाजों पर लागू किया। उन्होंने कहा कि उपनिवेशों के भीतर औपनिवेशिक सत्ता अपनी जनता पर प्रभुत्व बनाती है। जैसे ब्रिटिश राज ने भारतीयों के मन में दो धारणाएं गहरे तक बैठा दी थीं। पहली, ब्रिटिश राज भारतीयों के भले के लिए है। या दूसरे शब्दों में अंग्रेज भारतीयों के “माई- बाप” हैं। और दूसरा यह कि “ब्रिटिश राज का सूर्य कभी अस्त नहीं होता”। यानी ब्रिटिश राज अजेय है। जिसे जीता नहीं जा सकता। यानी अपने दुखों को भोगना ही एकमात्र चारा है, प्रतिरोध करना बेकार है। इसके जवाब में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन ने अपनी हेजेमनी स्थापित करने की कोशिश की। और धीरे- धीरे लोगों के भीतर से अंग्रेजी राज का भय मिटा दिया।

राष्ट्रीय आंदोलन की पुनर्व्याख्या

उनकी यह धारणा 1980 के मध्य में और मजबूत हुयी। उन्होंने एक मौखिक इतिहास परियोजना (ओरल हिस्ट्री प्रोजेक्ट) शुरू की। जिसका उद्देश्य यह जानना था कि जिन लोगों ने उपनिवेशवाद- विरोधी आन्दोलन में भाग लिया था; वे उस आन्दोलन को कैसे समझते थे। अपनी टीम के साथ उन्होंने लगभग पूरे देश में हजारों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से बातचीत की। तक़रीबन 3000 घण्टे के साक्षात्कार इस दौरान रिकॉर्ड किये गए। साक्षात्कार देने वालों में कम्युनिस्ट, गांधीवादी, समाजवादी, नेहरूवादी, सुभाषवादी, क्रांतिकारी, पूँजीपति और यहां तक भूतपूर्व आईसीएस अधिकारी तक शामिल थे। इस अनुभव ने उनकी इतिहास-दृष्टि पर आमूलचूलकारी प्रभाव डाला। उनकी तमाम पुरानी मान्यताएँ इन साक्षात्कारों के सामने बदल गयीं। एक बार फिर उन्होंने नए विचारों का तहे- दिल से स्वागत किया। उनके विचारों में आये इस बदलाव को उन्होंने अपने छात्रों के साथ “भारत का स्वाधीनता संघर्ष” नामक किताब में संकलित किया। यह काम एक तरफ तो बिपन चन्द्र स्कूल के लिए मील का पत्थर बन गया।

दूसरी तरफ़ उनकी तमाम मौलिक स्थापनाओं ने उन्हें कम्युनिस्ट और परंपरागत मार्क्सवादियों के बीच अलोकप्रिय बना दिया। हालाँकि हमेशा गहन ऐतिहासिक शोध से निकले अपने निष्कर्षों के प्रति बिपन की आस्था अडिग बनी रही। उन्होंने कभी राजनीतिक रूप से सही रहने की कोशिश नहीं की। न ही लोकप्रिय होने के लिए इतिहास की सहज प्रचलित मान्यताओं को दोहराया। उनके लिए तो इतिहास समाज को जागरूक बनाने का जरिया था। न कि केवल अकादमिक बहसबाज़ी का माध्यम।

उनकी यह किताब भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की ग्राम्शियन दृष्टिकोण से पुनर्व्याख्या है। जो उनके खुद के पहले के कामों से एक बहुत बड़ा शिफ्ट था। उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व में लड़े जा रहे उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन को विभिन्न वर्गों का एक सम्मिलित संघर्ष माना। उनके मुताबिक़ आंदोलन के रणनीतिकारों ने संघर्ष के प्राथमिक और द्वितीयक संघर्ष को पहचान लिया था। जिसमें प्राथमिक संघर्ष उपनिवेशवाद विरोध था। उसको हासिल करने तक अन्य द्वितीयक संघर्षों को टालने की समझदारी थी। कांग्रेस को उन्होंने विभिन्न वर्गों के सम्मिलित उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन का समुच्चय कहा। जोकि अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ एक ऐतिहासिक ब्लॉक का निर्माण करती थी। और साथ ही साथ औपनिवेशिक प्रभुत्व को चुनौती देती थी। उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व को औद्योगिक बुर्जुवा के प्रभाव में मानते हुए भी सब वर्गों का प्रतिनिधि कहा। इस तरह, कांग्रेस एक पार्टी नहीं थी बल्कि एक आंदोलन थी। जिसके भीतर विभिन्न वर्गों के लोग अलग- अलग वर्गीय हितों के होने बावजूद उपनिवेशवाद-विरोध के नाम पर एकजुट थे।

गाँधी को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उनका उचित स्थान दिलाने का श्रेय बिपन चन्द्र को जाता है। यदि वे गांधी को लेकर इतिहासलेखन की परंपरागत समझ को चुनौती न देते तो गांधी “जोनाह (बाइबिल का एक ख़राब चरित्र) ऑफ़ रेवोलुशन” (क्रांति से गद्दारी करने वाले) और “मैस्कॉट ऑफ़ बुर्जुआजी” ही बनकर रह जाते। उन्होंने गांधीवादी रणनीति को “संघर्ष- शान्ति- संघर्ष” के तौर पर व्याख्यायित किया। और कहा कि अहिंसा उनके लिए कोई पवित्र मूल्य नहीं था, बल्कि आंदोलन का हथियार था। इसीलिए जो गांधी 1922 में चौरी- चौरा के बाद असहयोग आंदोलन वापस ले लेते हैं, वही 1942 में हुयी जबरदस्त हिंसा की आलोचना करने से इंकार कर देते हैं। यह कहते हुए कि यह तो ब्रिटिश शासन द्वारा की जा रही हिंसा की प्रतिहिंसा है।

बिपन चन्द्र ने हिंसा की क्रांतिकारी अनिवार्यता को ख़ारिज करते हुए भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को दुनिया की अन्य क्रांतियों के समान एक क्रान्ति माना। जो कि किसी ऐतिहासिक पल में घटित न होकर एक प्रक्रिया के तौर पर घटित हुयी थी। और, जनभागीदारी की दृष्टि से वह दुनिया की सबसे महान क्रान्ति थी। इस तरह उन्होंने गाँधी को लोकतांत्रिक और अर्ध- लोकतांत्रिक समाजों में चलाये जा रहे उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन का सबसे सफल नायक बनाया। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से मिले अनुभव के बाद वो गांधी से इतना प्रभावित हुए थे कि बाद के दिनों में वे खुद को गर्व के साथ गांधीवादी कहने में भी नहीं हिचकिचाते थे।

भगत सिंह की वैचारिकता

आंदोलन को एक प्रक्रिया के तौर पर देखने से एक बड़ा फायदा हुआ। विभिन्न विचारधाराओं के लोग और विभिन्न धाराओं के आंदोलन को एक साथ पिरोकर देखने में इससे बड़ी आसानी हुयी। इसीलिए एक तरफ तो वे गांधी के प्रशंसक थे, तो दूसरी तरफ भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी को भी हिन्दू कट्टरपंथियों के कब्जे से छीन कर भी वे ही लाये। वरना इसके पहले भगत सिंह की तस्वीर आरएसएस के दफ्तरों में शान से लगाई जाती थी।

बिपन चन्द्र ने भगत सिंह के आलेख “मैं नास्तिक क्यों हूँ” को एक जबर्दस्त प्रस्तावना लिखकर प्रकाशित करवाया। जिससे कि यह पता चला कि भगत सिंह कोई रोमांटिक क्रन्तिकारी मात्र नहीं थे। वरन वे तो एक ऐसे क्रांतिकारी थे, जिनके पास अपनी एक वैज्ञानिक समझ थी। उन्होंने भगत सिंह को एक राजनीतिज्ञ और विचारक के तौर पर प्रतिष्ठित कराया। प्रोफ़ेसर चमनलाल ने भगत सिंह पर बाद में बहुत काम किया। उनका मानना है कि भगत सिंह को सम्मान दिलाने का श्रेय बिपन चन्द्र को जाता है। उन्होंने तो बस बिपन चन्द्र की परंपरा को आगे बढ़ाया। बाद के दिनों में जब वो एनबीटी के चेयरमैन बने उन्होंने क्रांतिकारियों पर खूब किताबों का प्रकाशन करवाया। ग़दर आंदोलन पर किताब उनमें बहुत महत्वपूर्ण है।

उन्होंने सावरकर के क्रांतिकारी दिनों की भी कद्र थी। एक बार अंडमान के काला पानी पर लिखी एक किताब प्रकाशन के लिए आयी। उसमें सावरकर की माफ़ी का ज़िक्र करते हुए उन्हें सिरे से खारिज कर दिया गया था। बिपन चन्द्र ने लेखक से उस हिस्से को हटाने का अनुरोध किया। उनका मानना था कि सावरकर के क्रांतिकारी जीवन का सम्मान किया जाना चाहिए। इतना खुला दिमाग रखते थे बिपन चन्द्र।

अपने अंतिम दिनों में वे भगत सिंह पर एक किताब पूरी करने की कोशिश कर रहे थे। उनका मानना था कि भगत सिंह को समझने के लिए जरूरी है कि उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर समझा जाए, जो क्रांतिकारी बनने की प्रक्रिया में था। और जोकि व्यापक जनभागीदारी वाले संघर्षों के लिए अहिंसक आंदोलन के महत्त्व को समझने लगा था। ध्यान रहे भगत सिंह ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में किसान- मजदूर एकता के आधार पर आंदोलन खड़ा करने पर विचार किया था। जोकि उनकी व्यक्तिगत क्रांतिकारी गतिविधियों वाली छवि से एकदम विपरीत बात थी।

साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों की गहन पड़ताल

बिपन चन्द्र ने साम्प्रदायिकता के खतरे को बहुत शुरुआत में ही पहचान लिया था। 1960 के मध्य में उन्होंने एनसीईआरटी के लिए लिखी पाठ्यपुस्तक में साम्प्रदायिकता को विस्तार से समझाया था। बाद में 1969 में उन्होंने तत्कालीन इतिहासलेखन में मौजूद सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों की गहन पड़ताल की थी। इस साल उन्होंने रोमिला थापर और हरबंस मुखिया के साथ मिलकर “कम्युनलिज़्म एंड द राइटिंग ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री” नाम की पुस्तिका लिखी थी। इसके बाद अपने विचारों को उन्होंने व्यवस्थित आकार अपनी किताब “कम्युनलिज़्म इन मॉडर्न इंडिया” में दिया। यह किताब साम्प्रदायिकता की वैज्ञानिक विवेचना के बौद्धिक आधार तैयार करती है। इसके पहले ऐसा कोई आधारभूत स्रोत मौजूद नहीं था।

साम्प्रदायिकता को परिभाषित करते हुए उन्होंने उसे उदार और उग्र साम्प्रदायिकता में बांटा। जिनमे पहली इस विश्वास पर आधारित थी कि एक धर्म के मानने वालों के सामाजिक-आर्थिक हित एकसमान होते हैं। और, उस धर्म को मानने वाले ने केवल एक धार्मिक बल्कि राजनीतिक इकाई का भी निर्माण करते हैं। अपनी चेतना के दूसरे चरण में साम्प्रदायिक विचारधारा उग्र, चरमपंथी और फ़ासीवादी हो जाती है। इस दौर में माना जाने लगता है कि अलग-अलग धार्मिक समुदायों के हित न केवल भिन्न होते हैं, बल्कि एक दूसरे के विरोधी होते हैं। यानि एक के हितों के पूरा होने का मतलब है, दूसरे का अहित। इसलिए, यह माना जाने लगता है कि कोई भी दो धार्मिक समुदाय एक साथ नहीं रह सकते। इसकी चरम परिणति अलग- अलग देशों की मांग में होती है। इसे ही द्विराष्ट्र सिद्धान्त के तौर पर जाना जाता है। जिसके मुताबिक़ हिन्दू और मुसलमान दो भिन्न राष्ट्र माने जाते हैं। सावरकर और जिन्नाह इस विचार के प्रतिपादक थे।

बिपन चन्द्र ने साम्प्रदायिकता को राष्ट्रवाद से अलग एक विरोधी विचारधारा के रूप में पहचाना। उनका मानना था कि धर्म आधारित राष्ट्रवाद एक मिथ्या चेतना होता है। जो न तो सामाजिक यथार्थ को सही ढंग से समझ पाता है, न ही उसका समाधान। इसलिए राष्ट्र का नाम दरअसल साम्प्रदायिकता को छुपाने के लिए लिया जाता है। इसके अलावा लोग राष्ट्रवाद का नाम लेने से आकर्षित होते हैं। बिपन चन्द्र ने उपनिवेशवाद- विरोधी आंदोलन के समय और फिर आज़ाद भारत में साम्प्रदायिकता की समाज में नकारात्मक भूमिका को उद्घाटित किया। जो कि वास्तव में राष्ट्रीय चेतना, राष्ट्रवाद और राष्ट्र तीनों की दुश्मन विचारधारा है।

राष्ट्रवाद भारतीय सन्दर्भों में एक ऐसी चीज़ था, जिसे वे एक सशक्त विचारधारा मानते थे। वह उन्हें अपने समय, समाज और राजनीति के प्रति उत्तरदायी बनाता था। वे कहा करते थे सामाजिक उत्तरदायित्व के बिना अच्छा इतिहास नहीं लिखा जा सकता। 1960 के दशक में जब प्रोo रोमिला थापर को एनसीईआरटी की किताब लिखने को कहा गया, तो उन्होंने पहले मना कर दिया। उनका कहना था की बच्चों के लिए एकदम सरल किताब लिखना बहुत मुश्किल है। लेकिन बिपन चन्द्र ने उनसे कहा कि अगर तुम्हारे अंदर कोई सामाजिक उत्तरदायित्व है, थोड़ा सा भी राष्ट्रवाद है; तो यह किताब जरूर लिखो। प्रोo थापर ने यह किस्सा खुद बिपन चन्द्र की श्रद्धांजलि सभा में सुनाया।

इस प्रतिबद्धता के लिए उन पर सवाल भी खड़े किये गए। उन्हें राष्ट्रवादी कहकर नकारने की कोशिशें भी हुईं। क्योंकि भारतीय राष्ट्र की अवधारणा पर कई बौद्धिक प्रहार किये जा रहे थे। लेकिन बिपन चन्द्र ने राष्ट्र की चेतना को दक्षिणपंथी ताकतों के विस्तृत सन्दर्भ में समझा था। उनके मुताबिक़ साम्प्रदायिक ताक़तों के मुकाबले के लिए राष्ट्रीय पहचान ही सबको जोड़े रख सकती है। उनकी यह बात समकालीन सन्दर्भों में सौ फ़ीसदी सच साबित हुयी है। राष्ट्रवाद को हिन्दू अस्मिता के साथ जोड़कर प्रचारित करने से ही साम्प्रदायिक ताकतें आज आम लोगों की नज़र में इज्ज़त हासिल कर सकी हैं।

अनूठे गुरु

वे एक अनूठे गुरु थे। उनकी शिक्षा का पहला सबक इतिहास से शुरू नहीं होता था। उन्होंने हमेशा कहा कि एक अच्छा इंसान ही अच्छा शोधार्थी बन सकता है। क्योंकि एक अच्छा इंसान खुद से अच्छे सवाल पूछता है। इसलिए वो अपने शोध में भी अच्छे सवाल पूछेगा, ये लाजमी है। दूसरा सबक था- मजबूत बनो। ये सबक उन्होंने अपने लम्बे अकादमिक जीवन में सीखा था। वे अपने शोध के प्रति पूरी तरह सजग रहे। हर विचार को तर्क की सान पर चढ़ाया। और फिर जो भी निष्कर्ष मिला, उसको हिम्मत के साथ स्वीकार किया। इसके लिए उन्होंने जान तक की परवाह नहीं की।

1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के करीब एक पखवाड़े पहले वो अपनी टीम के साथ केरल में थे। एक व्याख्यान के दौरान उनसे पूछा गया कि वो भिंडरावाले के बारे में क्या सोचते हैं। उस वक़्त भिंडरावाले एक बहुत बड़ी चुनौती बन चूका था। पंजाब और दिल्ली में उसके खिलाफ बोलना खतरा मोल लेना था। लेकिन बिपन ने दो टूक लहजे में कहा- उसका सफ़ाया कर दिया जाना चाहिए। ये वही वक़्त था जब सत्यपाल डंग और कमला डंग जैसे कम्युनिस्ट पंजाब में सिख साम्प्रदायिकता से डटकर लोहा ले रहे थे। और, इस कोशिश में तकरीबन 200 कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की जान जा चुकी थी। बिपन चन्द्र के साथी उनकी इस बेबाकी पर चिंतित हो उठे। क्योंकि बिपन चन्द्र को तो फिर दिल्ली ही लौट कर आना था। लेकिन उन्होंने उतनी ही बेफ़िक्री से सारी चिंताओं को हँसी में टाल दिया। इतिहास समझने की सारी कवायद तो इन दो सबकों के बाद शुरू होती थी।

उनसे पढ़े छात्रों के बीच बिपन की क्लास एक मिथ बन चुकी है। दो घण्टे की क्लास (जेएनयू में एक क्लास दो घण्टे की होती है) कब चार- चार घण्टे की हो जाती थी, पता नहीं चलता था। बिपन बिना तैयारी बोलना कभी पसंद नहीं करते थे और न ही हाथ में नोट्स लिए बिना। उनके हाथ में एक गड्डी इंडेक्स कार्ड्स के पलटने के साथ- साथ उनकी क्लास की ऊर्जा बढ़ती जाती थी। वो पसीने से तर- बतर हो जाते थे। अपनी शर्त उतार कर पढ़ाने लगते थे। लेकिन उनकी क्लॉस तमाम किस्सों और रोचक उदाहरणों के बीच विकसित होती थी। उसमें एकालाप नहीं होता था। ज़ोरदार बहस- मुबाहिसा होता था। उसमें छात्रों की भी सक्रिय सहभागिता होती थी।

आख़िरकार उन्होंने कभी अपनी बौद्धिकता छात्रों पर नहीं थोपी। उनको सहज बनाने के लिए, अपने बराबर लाने के लिए उन्होंने हमेशा खुद को ‘बिपन’ बुलाया जाना पसंद किया। किसी भी हद तक बहस करने की आज़ादी दी। खुद से मतभेद रखने वालों को और बहस के लिए प्रोत्साहित किया। वो हमेशा किसी भी टीम के सबसे छोटे सदस्य को सबसे पहले बोलने को कहते थे। यह कहते हुए कि नए विचार तो उनके ही पास हैं। खुद उनका और उनके सीनियर स्टूडेंट्स का दिमाग तो एक ख़ास तरह से सोचने का आदी हो चुका है, यह कहकर वो नए छात्रों का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर चढ़ा देते थे।

उनके छात्र उनके व्यापक परिवार के सदस्य बन जाते थे। उन्हें अपने छात्रों के बीच रहना बहुत अच्छा लगता था। इसलिए कभी वे जेएनयू में टहलने निकलते या बाज़ार जाते, किसी न किसी छात्र को साथ ले लेते थे। उनकी फिएट कार भी खुद में मिथ है। जिसमें हर किसी को लिफ्ट मिल सकती थी। और किसी को भी उसके बंद होने पर धक्का लगाना पड़ सकता था। वो बहुत ज्यादा बात कर लेना चाहते थे। ऐसा लगता था जैसे कहने को बहुत ज्यादा हो और समय बहुत कम। कभी- कभी बातचीत में वे इतना उत्तेजित हो जाते थे कि कार का स्टीयरिंग ही छोड़ देते थे।

वो हर वक़्त सोच- विचार की प्रक्रिया की प्रक्रिया में रहते थे। कुछ इंडेक्स कार्ड्स हमेशा उनकी जेब में रहते थे। उनका मानना था कि विचार कभी भी आ सकता है। यहाँ तक कि सोते वक़्त भी। उनकी चिंतन प्रक्रिया का एक किस्सा लेखक को जेएनयू स्थित एक बाल काटने वाले ने बताया। एक बार वे बिपन चन्द्र के बाल काटने के लिए उनके दक्षिणपुरम स्थित घर पर गए। बाल कटाते- कटाते अचानक बिपन को कोई विचार आया। उन्होंने दो मिनट रुकने को बोला और पहली मंजिल पर अपने स्टडी रूम में चले गए। जब तकरीबन आधा घंटा हो गया और वो नीचे नहीं आये, तो नाई ने घर के बाहर जाकर फिर से घंटी बजायी। वही तौलिया गर्दन में ठीक उसी तरह लपेटे बिपन नीचे आये। दरवाज़ा खोलते ही पूछा- “कहो शंकर कैसे आये?” वो अपने विचार के साथ ऐसे मशगूल हुए कि उन्हें यह याद ही नहीं था कि वो बाल कटा रहे थे।

उनकी एक बड़ी खासियत थी गैर अंग्रेजी भाषी छात्रों को विशेष प्रोत्साहन देना। छोटे- छोटे शहरों और गाँवों से आये छात्रों को उन्होंने हमेशा एक विशेष स्थान दिया। उनका मानना था कि ये छात्र सामाजिक अनुभव के धनी होते हैं। यदि उन्हें ठीक ढंग से शोध के लिए प्रशिक्षित किया जाए, तो उनकी मौलिकता शोध को विशिष्ट बनाएगी। इसीलिए बिपन चन्द्र के छात्रों की फ़ेहरिश्त में पूरे देश से लोग मिल जाएँगे। उनमें तमाम जब जेएनयू आये तो उन्हें अपनी मातृ भाषा के अलावा कुछ नहीं आता था। लेकिन बाद में उन्हीं लोगों ने आधुनिक भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान दिए। यहाँ तक उन्होंने उन छात्रों को भी अपने सानिध्य में लाने का मौक़ा नहीं छोड़ा, जो किन्ही कारणवश दिल्ली नहीं आ सकते थे। उनके व्यापक परिवार में सबकी जगह थी। इसीलिए बिपन चन्द्र के छात्र और उन्हें चाहने वाले आज भारत ही नहीं दुनिया के कोने- कोने में फैले पड़े हैं।

उनके एक छात्र जयरस बानाजी की विद्वता का पश्चिम यूरोप और लैटिन अमेरिका के विश्वविद्यालयों में लोहा माना जाता था। एक बार जब बिपन वहाँ गए, तो लोग उनसे मिलने के लिए आतुर थे। वजह थी- यह देखना कि जब उनका शिष्य ऐसा है, तो गुरु कैसा होगा? आज उनके जाने के बाद भी उनके तमाम शिष्य उनकी परम्परा के वाहक हैं। जिनको देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब उनके शिष्य ऐसे हैं तो उनका गुरु कैसा रहा होगा!



डा.सौरभ बाजपेयी दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं और राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के संयोजक हैं। उन्होंने प्रो.बिपन चंद्र के निर्देशन में शोध किया था। प्रो.बिपन चंद्र के निधन के बाद 2014 में पटना से प्रकाशित फ़िलहाल में यह श्रद्धांजलि लेख प्रकाशित हुआ था। 30 अगस्त को विपन चंद्र की पुण्यतिथि थी। उन्हें याद करते हुए मीडिया विजिल आभार सहित यह लेख प्रकाशित कर रहा है जो बिपन चंद्र आर्काइव में मौजूद है।