बनारस: जाति का कार्ड खेलकर DM ने आखिर ‘घास’ को दाल क्यों बना दिया!

शिव दास
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“प्रदेश के मुसहर जाति बाहुल्य जनपदों यथा- गोरखपुर, महराजगंज, कुशीनगर, देवरिया, गाजीपुर, वाराणसी, चंदौली, जौनपुर सहित अन्य समस्त जनपदों में निवासरत मुसहर जाति के परिवारों का सर्वे करके उन्हें पात्रता के आधार पर भारत सरकार व राज्य सरकार द्वारा संचालित आवासीय योजनाओं, उनके परिवारों को अंत्योदय सूची में शामिल करने/पात्र गृहस्थी कार्ड (राशन कार्ड) निर्गत करने, पेंशन का लाभ व महिलाओं के लिए संचालित योजनाओं का लाभ अनुमन्य कराने, विद्युत कनेक्शन की सुविधा प्रदान करने, पेयजल हेतु हैंडपंप लगवाने एवं अन्य जन कल्याणकारी योजनाओं का लाभ अनुमन्य कराये जाने हेतु जनपद स्तर पर मुख्य विकास अधिकारी की अध्यक्षता में समिति का गठन किया जाता है। समाज कल्याण अधिकारी समिति के सदस्य सचिव होंगे जबकि जिला विकास अधिकारी, जिला प्रोबेशन अधिकारी, जिला पूर्ति अधिकारी, अपर जिला अधिकारी (वित्त एवं राजस्व), ऊर्जा विभाग और जल निगम के अधिशासी अभियंता इसके बतौर सदस्य होंगे। उक्त समिति जनपदों में मुसहर जाति के परिवारों को सर्वे कर पात्रता के आधार पर एक माह के अंदर उपरोक्त अनुमन्य सुविधाओं का लाभ उपलब्ध करायेगी और तदनुसार अपनी रिपोर्ट जिलाधिकारी के माध्यम से शासन को उपलब्ध करायेगी।” 

उत्तर प्रदेश शासन के मुख्य सचिव की ओर से मुसहर समुदाय के विकास के लिए जारी शासनादेश की छायाप्रति

उत्तर प्रदेश शासन के मुख्य सचिव ने दो साल पहले सूबे के सभी जिलाधिकारियों और मंडलायुक्तों को यह आदेश दिया था लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में ही योगी सरकार का यह आदेश दम तोड़ गया। हिन्दी दैनिक ‘जनसंदेश टाइम्स’ में बृहस्पतिवार को ‘बनारस के कोइरीपुर में घास खा रहे मुसहर’ शीर्षक से छपी खबर के तथ्यों पर विश्वास करें तो गांव के मुसहर बस्ती के बच्चे पिछले तीन दिनों से ‘अकरी’ नामक घास की फली के बीज को खाकर पेट की भूख मिटा रहे थे।

खबर छपते ही प्रशासनिक अमले में हड़कंप मच गया। आनन-फानन में वाराणसी के जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा ने अखबार के प्रधान संपादक सुभाष राय और स्थानीय संपादक विजय विनीत को समाचार के खंडन का नोटिस भेज दिया।

जिलाधिकारी नोटिस में लिखते हैं, “…24 घंटे के अंदर स्पष्ट करें कि उक्त समाचार पत्र में मुसहरों के घास खाने का जो समाचार प्रकाशित किया गया , वह किस आधार पर किया गया है।….उक्त समाचार का खण्डन प्रकाशित करते हुए यह प्रकाशन भी करें कि आपके द्वारा दिनांक 26.03.2020 के प्रकाशन में जो खबर लिखा गया है, उसमें इस गांव से कोई घास नहीं खा रहा है।” साथ ही उन्होंने चेतावनी दी कि यदि शुक्रवार के अंक में समाचार का खंडन प्रकाशित नहीं होता है तो अखबार और पत्रकारों के खिलाफ विधिक कार्रवाई की जाएगी।

अगर जिलाधिकारी के नोटिस पर गौर करें तो वह खुद स्वीकार करते हैं कि पिण्डरा तहसील के कोइरीपुर गांव स्थित मुसहर बस्ती के बच्चे ‘अकरी (अखरी)’ की बालियां खा रहे थे, हालांकि वह उसे दाल बताते हैं।

वह लिखते हैं, “उक्त प्रकरण में अपर जिलाधिकारी (वि./रा.), उप-जिलाधिकारी (पिण्डरा) एवं तहसीलदार (पिण्डरा) वाराणसी को मौके पर भेजकर जांच करायी गई, जिसमें पाया गया कि उक्त बच्चों के घास खाने का प्रकाशित समाचार एवं तथ्य वास्तविकता के विपरीत है। इस गांव में बच्चे फसल के साथ उगने वाली अखरी दाल और चने की बालियां तोड़ कर खाते हैं व ये बच्चे भी अखरी दाल की बालियां खा रहे थे।”

जिलाधिकारी द्वारा गठित जांच कमेटी की रिपोर्ट और उनकी नोटिस में उल्लेखित ‘अखरी’ दाल के दावों की वैज्ञानिक पड़ताल करें तो पाते हैं कि अकरी (जिसे जिलाधिकारी ने नोटिस में ‘अखरी’ लिखा है) चौड़े पत्ते वाली खर-पतवार है। सामान्य बोलचाल में ग्रामीण इसे घास कहते हैं जो दलहनी और अनाज वाली फसलों के साथ उग जाती है। इसका वैज्ञानिक नाम ‘वीसिया सटाइवा’ है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अधीन भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर के वरिष्ठ वैज्ञानिक नरेंद्र कुमार, सीनियर रिसर्च फेलो आरती यादव और सत्येंद्र लाल यादव भी अपने लेख में इसकी पुष्टि करते हैं।

 

कानपुर स्थित भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक नरेंद्र कुमार, एसआरएफ आरती यादव और सत्येंद्र लाल यादव के संयुक्त लेख में उल्लेखित तालिका

भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान (आइआइपीआर) के अधिकारिक डिजिटल प्लेटफॉर्म ‘दलहन ज्ञान मंच’ पर भी इसकी पुष्टि है। इसकी अधिकारिक वेबसाइट पर मौजूद ‘खरपतवार अभिज्ञान प्रणाली’ के ‘रबी’ खण्ड में जाने पर इसकी जानकारी दी गई है

 

अकरी खरपतवार

आइआइपीआर की इस वेबसाइट पर दलहनी फसलों की सूची भी दी गई है जिसमें अकरी या अखरी फसल का कोई जिक्र नहीं है। इसमें केवल चना, अरहर, मूंग, उड़द, मटर, मसूर, काबुली चना और राजमा को ही दलहनी फसल बताया गया है।

दलहनी फसलों की सूची

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद देश के कृषि क्षेत्र में शोध की सबसे विश्वसनीय और अधिकृत संस्था है। इसके विवरण  में अकरी को दाल नहीं बताया गया है। इसके बावजूद जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा और उनके अधीन अधिकारियों की टीम अकरी को दाल बता रही है। इतना ही नहीं, जिलाधिकारी ने इसे चने और मटर की तरह प्रोटीन को स्रोत भी बताया और कहा कि वह और उनके नाबालिग बेटे ने भी अकरी की बाली खाई।

जिलाधिकारी ने अकरी की बाली खाते हुए अपनी और अपने नाबालिग बेटे की तस्वीर भी मीडिया में जारी की। मीडिया को दिए गए बयान में इसे दाल बताकर सामान्य रूप से खाये जाने वाली फसल बताया जबकि कृषि वैज्ञानिकों की नज़र में यह खर-पतवार है जिसे ज्यादा खाने से सेहत खराब हो सकती है।

अपने बच्चे और अंकरी की “दाल” के साथ फोटो में जिलाधिकारी शर्मा

ऐसे में सवाल उठता है, जिलाधिकारी और उनके अधीन अधिकारी किस आधार पर अकरी घास की फली को दाल की फली बता रहे हैं? मामला इसे दाल बताने तक ही रहता तो ठीक था लेकिन उन्होंने खुद इसे खाया और अपने नाबालिग बेटे को खिलाया भी। साथ ही साथ इसका प्रचार मीडिया के जरिये लोगों के बीच किया जबकि कृषि वैज्ञानिक इसे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मानते हैं। क्या जिलाधिकारी का यह कृत्य खाद्य सुरक्षा अधिनियम के प्रावधानों के तहत अपराध की श्रेणी में नहीं आता है? क्या जिलाधिकारी पर लोगों को गुमराह करने का आरोप नहीं बनता है?

क्या जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा के खिलाफ की खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम-2006 की धारा 53(1) के खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए जो कहता है, “यदि कोई व्यक्ति, जो ऐसे किसी विज्ञापन का प्रकाशन करता है या उस प्रकाशन का कोई पक्षकार है, जिसमें (क) किसी खाद्य का मिथ्या वर्णन है; या (ख) किसी खाद्य की प्रकृति या अवयव या गुण के बारे में भ्रम पैदा होने की संभावना है या मिथ्या गारंटी देता है तो वह दण्ड का उत्तरदायी होगा जो दस लाख रुपये तक हो सकती है।

ग्रामीणों की बातों की मानें तो घास खाने की घटना की सूचना आने के बाद प्रशासन के लोग रात में फोर्स के साथ गांव में पहुंचे और अकरी घास को उखाड़कर ले गए। उनका कहना है कि बड़ी संख्या में प्रशासन के लोग आए थे। आखिरकार वे क्या छिपा रहे हैं?

अगर प्रशासनिक जिम्मेदारियों की नजर से ‘जनसंदेश टाइम्स’ की खबर को देखें तो जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा इसे निभाने में नाकाम रहे हैं। अखबार ने उनकी इसी नाकामी को उजागर किया है। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के तत्कालीन मुख्य सचिव राजीव कुमार ने 22 जनवरी 2018 को सभी जिलाधिकारियों और मंडलायुक्तों को पत्र लिखकर प्राथमिकता के आधार पर मुसहरों को सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने की बात कही थी लेकिन जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा ने इसे गंभीरता से नहीं लिया जबकि मुख्य सचिव ने सभी जिलों से मुसहर समुदाय के हालात पर एक महीने के अंदर रिपोर्ट मांगी थी।

ग्राउंड रिपोर्ट : लाइट, कैमरा, ऐक्‍शन… सोनभद्र की मुसहर बस्‍ती में मुख्‍यमंत्री की स्क्रिप्‍ट!

इतना ही नहीं, सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लोकसभा चुनाव-2019 से पहले मुसहरों के लिए जारी उक्त आदेश का जोर-शोर से प्रचार-प्रसार भी किया था। इसकी जमीनी हकीकत जानने के लिए वे सूबे की मुसहर बस्तियों का दौरा भी कर रहे थे। ऐसा ही एक दौरान उन्होंने 12 सितंबर 2018 को सोनभद्र के ग्राम पंचायत तिनताली स्थित मुसहर बस्ती का किया था। इस दौरान उन्होंने मुसहरों को प्राथमिकता के आधार पर सरकारी योजनाओं का लाभ देने की बात कही थी। मीडिया ने इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया था। इसके बावजूद कोइरीपुर गांव के मुसहर बस्ती की तस्वीर नहीं बदली। आखिर क्यों? इसका जवाब तो जिलाधिकारी ही दे पाएंगे।

सोनभद्र के रॉबर्ट्सगंज विकासखंड के तिनताली मुसहर बस्ती का दौरा करते मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (फाइल फोटो)

ग्रामीणों की बातों पर विश्वास करें तो सरकार की ओर से उन्हें अभी तक आवास नहीं मिला है। वे झोपड़ी में रह हैं। बिजली, शौचालय, रसोईं गैस कनेक्शन आदि की सुविधाएं भी अभी उनको नहीं मिल पाई हैं। ये हालात उस समय हैं, जब उत्तर प्रदेश में मुसहर समुदाय की बदतर हालात का मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर वाराणसी से उठा।

बता दें कि वाराणसी स्थित गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) ‘मानवाधिकार जन निगरानी समिति’ के सदस्य अनूप श्रीवास्तव ने 23 सितंबर 2013 को वाराणसी जिले के नेहिया गांव स्थित मुसहर बस्ती में दो साल से खराब पड़े हैंडपंप, आवास, राशन कार्ड, मतदाता पहचान-पत्र आदि से संबंधित शिकायत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से की थी।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 20 सितंबर 2017 को मामले की सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश शासन के मुख्य सचिव को आदेश दिया कि अत्यंत गरीब श्रेणी में मुसहर समुदाय के परिवारों का नाम शामिल नहीं किया जाना और केंद्र एवं राज्य सरकार की सामाजिक सुरक्षा एवं जन कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उन्हें इस तरह से मुहैया नहीं कराना भारतीय संविधान के अनुच्छेद-20 के तहत सुनिश्चित सम्मान के साथ जीवन जीने के उनके अधिकार का उल्लंघन करने के समान है। इसलिए, यदि प्रस्तावित सर्वे और उसके आधार पर कार्रवाई में आगे देरी की जाती है तो आयोग मानवाधिकार सुरक्षा अधिनियम-1993 की धारा-13 के तहत कठोर कार्रवाई करेगा।”

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का पत्र।

इससे पहले भी आयोग ने 27 नवंबर 2013 को उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव को निर्देश दिया था कि “संपूर्ण उत्तर प्रदेश में रह रहे मुसहर समुदाय का विशेष सर्वे किया जाए। साथ ही उनकी योग्यता के आधार पर उनका नाम बीपीएल सूची, अन्त्योदय सूची और अन्य दूसरी सूचियों में सुनिश्चित रूप से शामिल किया जाए।“ इस संदर्भ में आयोग ने राज्य सरकार से 31 मार्च 2014 तक रपट मांगी लेकिन तत्कालीन उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार ने आयोग के निर्देशों का पालन नहीं किया। हालांकि वाराणसी के जिला प्रशासन ने नेहिया गांव की मुसहर बस्ती की अधिकतर समस्याओं का समाधान कर दिया था।

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2017 में भाजपानीत योगी सरकार सत्ता में आई लेकिन उसने भी मुसहरों के विकास के लिए कोई ठोस पहल नहीं की। तब मुसहरों के हालात से चिंतित आयोग ने सितंबर में सुनवाई के दौरान उक्त आदेश दिया। साथ ही आयोग ने अपने आदेश में लिखा, ऐसा प्रतीत होता है कि आयोग के निर्देशानुसार सर्वे नहीं किया गया है। इसलिए आयोग उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव को उत्तर प्रदेश में रह रहे मुसहर समुदाय का सर्वे करने का निर्देश देता है। साथ ही आयोग यह भी निर्देश देता है कि मुख्य सचिव चार महीने के अंदर 27 अगस्त 2015 को आयोग की सुनवाई के दौरान निर्देशित बिंदुओं पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करे।

इतने प्रशासनिक आदेशों के बाद भी बनारस के पिण्डरा विकास खंड के कोइरीपुर गांव के मुसहरों की हालत नहीं बदली। जब जनसंदेश ने खबर प्रकाशित की थी तो जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा अपनी प्रशासनिक नाकामी छिपाने के लिए पत्रकारों पर समाचार खंडन का दबाव देने लगे। इतना ही नहीं , भारतीय समाज के उच्च समुदाय से ताल्लुक रखने वाले जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा जातीय कार्ड खेलने से भी बाज नहीं आए। वे अपनी नोटिस में लिखते हैं, “…जनसंदेश टाइम्स के संबंधित रिपोर्टर द्वारा उक्त प्रकाशित समाचार में खास खाना लिखकर मुसहर जाति के परिवारों पर लांछन लगाने का कुत्सिक प्रयास किया गया है व जन-सामान्य के बीच गलत संदेश फैलाया गया है, जो वर्तमान हालात में काफी संवेदनशील हो सकती है।

अब सवाल उठता है कि जिलाधिकारी को वाराणसी के मुसहर समुदाय के लोगों की इतनी ही चिंता थी तो उन्होंने उत्तर प्रदेश शासन के आदेशों का अनुपालन क्यों नहीं सुनिश्चित किया? सरकार द्वारा लॉक-डाउन घोषित होने के बाद उनके घरों में राशन की खेप क्यों नहीं पहुंची। कोइरीपुर, छित्तुपुर समेत जिले के विभिन्न मुसहर बस्तियों के बाशिंदों को सरकारी योजनाओं का लाभ अभी तक क्यों नहीं पहुंचा? बावजूद इसके जिलाधिकारी सच्चाई उजागर करने वाले पत्रकारों पर मुसहर जाति पर लांछन लगाने का आरोप लगाते हैं। अगर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आदेश और उत्तर प्रदेश शासन की अधिसूचना पर गौर करें तो मुसहर समुदाय की हालत को जाति के आधार पर ही हल करने का निर्देश दिया गया है।

ऐसे में जब पत्रकार इस पहलू पर तथ्यों के साथ रिपोर्ट करता है तो फिर उस पर जाति के आधार पर बदनाम करने का आरोप क्यों लगाया जा रहा है? क्या जिलाधिकारी जाति आधारित मुद्दा उठाकर अपनी प्रशासनिक नाकामियों को छिपाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं?

वाराणसी के कोइरीपुर स्थित मुसहर बस्ती के हालात पर खबर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत के दावों पर यकीन करें तो जिलाधिकारी उनके खिलाफ एफआइआर दर्ज कराकर उन्हें जेल भेजने की कोशिश कर रहे हैं। वे कहते हैं, “जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा के करीबी लोगों से जानकारी मिली है कि वह खबर का खंडन नहीं करने पर मेरे और अखबार के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने का निर्णय ले चुके हैं। क्या पत्रकार अपना काम भी करे? हमने मुसहर बस्ती का जो हाल था, वही रिपोर्ट किया है। वह भी स्वीकार कर रहे हैं कि बच्चे अकरी घास खा रहे थे लेकिन वह उसे दाल बता रहे हैं जबकि यह घास है। बीएचयू के कृषि वैज्ञानिक भी इसे हानिकारक बता चुके हैं।”

फिलहाल विजय विनीत अपनी रिपोर्ट के साथ खड़े हैं। उन्होंने जिलाधिकारी के नोटिस के सवाल पर कहा कि जिलाधिकारी को समाचार-पत्र की ओर से उचित जवाब भेज दिया गया है। जिलाधिकारी को जवाब मिला है कि नहीं, इसकी पुष्टि अभी तक नहीं हो पाई है।

ग्राउंड रिपोर्ट : सपा सरकार की बनाई सामाजिक न्‍याय की पिच पर योगी की चुनावी बैटिंग