अयोध्या फैसला: लोकतंत्र में संविधान महत्वपूर्ण है, आस्था-बहुसंख्यकवाद नहीं

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उत्तर प्रदेश Published On :


रिहाई मंच ने कहा कि अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला संविधान की कसौटी पर खरा उतरता नहीं दिखता। यह लोकतंत्र में बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देगा, कायदे-कानून के बजाए आस्था को निर्णायक बनाए जाने का काम करेगा। लखनऊ स्थित रिहाई मंच कार्यालय पर हुई एक बैठक में वक्ताओं ने कहा कि भाजपा के चुनावी घोषणापत्र के वादे को पूरा करता हुआ यह फैसला उसकी चुनावी राजनीति को आगे बढ़ाते हुए दिखता है। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की शुरूआत में ही स्पष्ट किया था कि टाइटल के विवाद में फैसला साक्ष्यों के आधार पर किया जाएगा।

इस बात के साक्ष्य मौजूद थे कि देश की आज़ादी के समय और उसके बाद बाबरी मस्जिद मौजूद थी और उसमें नमाज़ अदा की जाती थी। यह भी स्वीकार किया गया कि 1949 में मस्जिद में राम की मूर्ति रखी गई न कि वहां प्रकट हुई थी जैसा कि प्रचारित किया जाता रहा। इसके बावजूद पूरी ज़मीन रामलला विराजमान को इसलिए दे दिए जाने पर सहमत नहीं हुआ जा सकता कि मस्जिद के बाहर चबूतरे पर पूजा या धार्मिक अनुष्ठान होता था। इसे गंभीरता से लिए जाने की जरुरत है कि इतने महत्वपूर्ण और संवेदनशील फैसले पर पूर्व न्यायधीशो को कहना पड़ा कि उनके दिमाग में शक पैदा हुआ। यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश प्रेस वार्ता कर देश में लोकतंत्र पर गहराते खतरे को लेकर अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं।

मंदिर के पक्ष में चलाए जाने वाले आन्दोलन का तर्क ही यही था कि राम मंदिर को तोड़कर उसकी जगह बाबर ने बाबरी मस्जिद बनवाई थी। फैसले में यह स्वीकार किया गया है कि किसी मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने के साक्ष्य मौजूद नहीं हैं और न ही इस बात के कि राम का जन्म उसी स्थान पर हुआ था जहां दावा किया किया गया है। केवल मान्यताओं या आस्था के आधार पर किसी कथन या दावे को स्वीकार कर लेने को तर्कपूर्ण नहीं कहा जा सकता।

राम के पिता राजा थे ऐसे में यह माना जाना चाहिए कि राम का जन्म राज महल में हुआ होगा। इस विवाद के समाधान के लिए आवश्यक था कि सुनिश्चित किया जाता कि राजा दशरथ का महल किस स्थान पर था। उसके लिए आपराधिक तरीके से किसी ढांचे को गिराने या उतने भर की पुरातत्व जांच को पर्याप्त नहीं माना जा सकता।

राम मंदिर आंदोलन राजनीतिक था। चूंकि उस स्थान पर मंदिर होने के कोई सबूत नहीं थे इसलिए सबूत गढ़ने के लिए पुरातत्व विभाग द्वारा पुरातात्विक जांच की भूमिका तैयार की गई। देश के प्रतिष्ठित इतिहासकारों ने भी यह आरोप लगाए हैं कि पुरातत्व विभाग ने जांच में पारदर्शिता नहीं बरती बल्कि इसके उलट कुछ चीज़ों को छुपाया जो वहां पूर्व में किसी मंदिर के अस्तित्व को नकारते थे।

‘आस्था और विश्वास के आधार पर विवादित ढांचा राम जन्म स्थान है या नहीं’ विषय पर बहस करते हुए फैसले की परिशिष्ट के पृष्ठ 19 पर कथित रूप से बृहद धर्मोत्तर पुराण से एक पंक्ति उद्धृत की गई है। इसमें कहा गया है कि ‘अयोध्या, मथुरा, माया (हरद्वार), काशी, कांची, अवन्तिका (उज्जैन) और द्वारावती (द्वारका) सात पवित्रतम नगर हैं।’ यदि ज़मीन के मालिकाने का फैसला आस्था और विश्वास पर न होकर साक्ष्यों के आधार पर होना था तो आस्था और विश्वास के नाम पर विवादित ढांचे के रामजन्म स्थान होने की संभावना पर 116 पृष्ठ का परिशिष्ठ जोड़ने का क्या औचित्य है। यह परिशिष्ठ न केवल बाबरी मस्जिद के ढांचे को राम जन्म स्थान साबित करने के लिए अतिरिक्त प्रयास लगता है बल्कि भविष्य में काशी और मथुरा में भी अयोध्या की तरह आस्था के नाम पर राजनीतिक–साम्प्रदायिक गोलबंदी की पृष्ठिभूमि भी तैयार करता है।

बैठक में रिहाई मंच अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब, महासचिव राजीव यादव, नागरिक परिषद के रामकृष्ण, आल इंडिया वर्कर्स कौंसिल के ओपी सिन्हा, सृजनयोगी आदियोग, फैजान मुसन्ना, जैद अहमद फारुकी, जहीर आलम फलाही, शकील कुरैशी, डॉ एमडी खान, सचेन्द्र प्रताप यादव, शादाब खान, ओसामा सिद्दीकी, अजीजुल हसन, बाकेलाल यादव, वीरेन्द्र कुमार गुप्ता, नरेश कुमार, परवेज़, अयान गाजी, केके शुक्ला, एडवोकेट वीरेंद्र त्रिपाठी, पिछड़ा समाज महासभा के शिवनारायण कुशवाहा आदि मौजूद थे।


विज्ञप्ति: रिहाई मंच द्वारा जारी


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