Media Vigil Exclusive: महाराष्ट्र और गुजरात को छोड़ दें, तो कोरोना से ज़्यादा लॉकडाउन ने ली जान!

सौम्या गुप्ता सौम्या गुप्ता
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पहले ही स्पष्ट कर देते हैं कि इस आत्मकथा का आत्मनिर्भरता से कोई लेना देना नहीं है, अगर होता तो हमको ये लिखने की नौबत ही नहीं आती। ये लेख, समाज का डाययग्नोसिस करने की कोशिश है, क्योंकि सिर्फ़ कुछ लोग ही बीमार नहीं हैं, शायद ये समाज भी बीमार है। ये लेख आँकड़ों के आधार पर, लाक्डाउन के माध्यम से  इस देश की व्यवस्थाों को समझने का एक छोटा प्रयास है। ना तो ये सम्पूर्ण है, ना ही ये एकमात्र सत्य; ये एक बड़े सवाल से जूझने की एक छोटी सी कोशिश है। हमारा सवाल ये है कि  “क्या लॉकडाउन से समाज में परेशानी आयी है, या समाज की व्यवस्था से लॉकडाउन में मुश्किलें आयी हैं?” चिंता मत कीजिए, अंडे और मुर्ग़ी वाला सवाल नहीं है, उम्मीद है  इस लेख के अंत तक आपको जवाब ना सही, पर जवाब ढूँढने का नज़रिया तो मिल ही जाएगा।

बाकी बातें शुरू करने से पहले कुछ आँकड़े देख समझ लेते हैं। देश में 19 मार्च से लेकर अब तक लॉकडाउन की वजह से कुछ 350 लोगों से ज्यादा की मौत हो चुकी है। एक बात ध्यान रखें कि इनमें सिर्फ़ रिपोर्ट हुई मौतों की संख्या मौजूद है, इसलिए ये निश्चित है कि वास्तविक आँकड़े इनसे कहीं ज़्यादा होंगे। दूसरा रिसर्च, समय और साधनो की कमियों के चलते हमसे कुछ आँकड़े छूटे भी होंगे, उसका हमें खेद है। इन आँकड़ों तक पहुचने के लिए लेखिका ने 150 लेखों पर शोध किया है और 2 डाटाबेस का सहारा लिया है। पहला डाटाबेस  जिंदल स्कूल के सहायक प्रोफ़ेसर अमन और ऐक्टिविस्ट कनिका का है, दूसरा पत्रकार रेचल चित्रा का है। इन सबके साथ हमने इन आँकड़ों के लिए एक ख़ुद का डाटाबेस भी तैयार किया है। 350 से ज़्यादा मौतों की मुख्य वजह सड़क दुर्घटना, भूख, थकान, पुलिस  की बर्बरता, समय पर स्वास्थ्य सेवा ना मिल पाना, शराब की कमी, बेरोज़गारी-आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्या और बीमारी के डर से आत्महत्या हैं। 

हमने जो डेटाबेस तैयार किया, उसके नतीजे के तौर पर, ये पहला ग्राफ़ 19 मार्च से अब तक सड़क दुर्घटना, भूख, थकान, पुलिस  की बर्बरता, समय पर स्वास्थ्य सेवा ना मिल पाने और बेरोज़गारी-आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्या की वजह से हुई मौतों के आँकड़े दिखाता है।

लॉकडाउन जनित कारणों से 23 मार्च के बाद से प्रतिदिन हुई मौतें

अगर इन आंकड़ों पर ग़ौर करेंगे इन संख्याओं पर तो सड़क दुर्घटना और आत्महत्या से बहुत जानें गई।शराब और स्वास्थ्य सेवाएं न मिल पाने की वजह से भी आँकड़े बढ़े हैं।

(नोट – हमारे द्वारा शराब न मिलने या शराब की अनुपलब्धता से हुई मौतों का तात्पर्य उन मौतों से है, जो शराब की लत में – शराब न मिलने से होने वाले विदड्रॉल सिम्प्टम्स या फिर शराब के विकल्प के तौर पर किसी ज़हरीले मादक द्रव के इस्तेमाल से हुई मौतें हैं।)

नीचे दी गई टेबल में आप स्पष्ट तौर पर इन मौतों के कारणों का विभाजन देख सकते हैं। ये सारणी, इस अवधि में अलग-अलग कारणों से हुई मौतों की सूची के आधार पर बनाई गई है। ये अवधि 19 मार्च से 15 मई तक की है।

19 मार्च से 15 मई, 2020 के बीच लॉकडाउन के असर से मौतें और उनके विभिन्न कारणों का वर्गीकरण

चलिए अब इन संख्याओं को आधार बनाते हुए इस लेख को तीन विषयों में बाँटा गया है। पहला, क्यों ज़बरदस्ती का ही इस्तेमाल कर सरकार अपना उद्देश्य हासिल करना चाहती है? दूसरा, लॉकडाउन से हुई दिक्कतों में क्या समाज के हर वर्ग की साझा भागीदारी है?तीसरा, कोरोना ना सही, पर क्या लॉकडाउन भी जाति, धर्म  और लिंग में भेद नहीं  कर पा रहा है ? 

जिसकी लाठी, उसकी बहस 

जर्मन समाजशास्त्री और दर्शनशास्त्री वेबर के हिसाब से, समाज में सिर्फ़ सरकार या स्टेट का हिंसा पर एकाधिकार है। मतलब जब हिंसा का इस्तेमाल ग़ैर सरकारी ताक़तें करती हैं तो उन्हें नक्सल, आतंकवादी, उपद्रवी और समाज/देश विरोधी क़रार दिया जाता है। जैसे कि जब CAA/NRC के ख़िलाफ़ प्रदर्शन  हो रहे थे तो बहुत लोगों ने प्रदर्शन के तौर तरीक़ों पर सवाल उठाया, कि हिंसा नहीं होनी चाहिए, ग़लत भाषा का प्रयोग नहीं होना चाहिए या किस भाषा का प्रयोग हो और किस भाषा का प्रयोग न हो। इन सवालों से कोई आपत्ति नहीं है। परंतु जब लॉकडाउन लागू करने से पहले पूरा वक़्त और निर्देश नहीं दिए जाते हैं, तब पुलिस का यूं बर्बरता से लोगों को मारना हम सब के लिए सवाल क्यों नहीं बनता? इसी समाज में इस हिंसा को इतनी वैधता क्यों प्राप्त है? क्या सरकार और स्टेट, हम लोगों से नहीं बनता- तो एक की लाठी सुरक्षा और एक की दंगा क्यों मान ली जाती है?इसका जवाब इतना सरल नहीं है, ना ही हम ये कहना चाह रहे हैं कि किसी को भी हिंसा करनी चाहिए या न्यायिक बल-प्रयोग की कोई जगह ही नहीं हैं।

दिल्ली में सब्ज़ी खरीदने निकले एक व्यक्ति को पीटती पुलिस

परंतु जब 19 मार्च से अब तक 12 लोगों  की पुलिस की पिटाई से मौत हो जाती है और पिछले 2 दिनों में तीन अलग अलग  ऐसे मामले सामने आते हैं जिसमें आंध्रा प्रदेश, ओड़िसा  और मध्य प्रदेश में पुलिस बर्बरता से कई सौ प्रवासी मज़दूरों पर लाठियाँ बरसाती है, तो ये पूछना पड़ता है कि क्या सिर्फ़ ये लाठियाँ मार मार के ही उस मामले को सम्भाला जा सकता था? सूचना का प्रसार बेहतर ढंग से कर कर और इन मज़दूरों को आश्वासन देकर भी मामले को सुलझया जा सकता था। सरकार का क़ानून व्यवस्था के लिए बल-प्रयोग का अधिकार है, परंतु ये कब, कहाँ और कितना इस्तेमाल होना चाहिए इस पर तो सवाल उठ ही सकता है।

लॉकडाउन तेरे तीन नाम, परसु, परसा , परसुराम 

बेरोज़गारी और आर्थिक तंगी के चलते ग़रीब और पिछड़े वर्ग के लोगों ने सबसे ज़्यादा आत्महत्या की हैं। 42 आत्महत्याओं में से 85% मामले ग़रीब और  पिछड़े वर्ग से हैं। लॉकडाउन ने नहीं,समाज में पहले से मौजूद आर्थिक असमानताओं ने इन लोगों के सामने आत्महत्या के अलावा और कोई चारा नहीं छोड़ा। ऑक्सफेम के डाटा के मुताबिक़ 2019 में, भारत में 119 अरबपति थे। टॉप के 10% लोगों के पास, देश का 77% धन मौजूद है। टॉप के 1% लोगों की धनराशि, निम्न 70% लोगों की धनराशि से  चार गुना है।देश में लगभग 25 करोड़ लोग दिन के 140 रुपए से कम में गुज़ारा करते हैं।इतनी बड़ी असमानताओं के कारण और लॉकडाउन के चलते मज़दूरी का काम ख़त्म हो जाने की वजह से निम्न वर्ग की आर्थिक क्षमता और न्यूनतम आय में बड़ा अंतर आया है। सरकार की तरफ़ से देरी में, कम या शून्य नक़दी मदद की वजह से ये परिस्थितियाँ और भी मुश्किल हो जाती हैं। और तो और CMIE  के  मुताबिक़ फ़रवरी से क़रीब 12 करोड़ लोग बेरोज़गार हो चुके हैं, तो आने वाले वक़्त में ये मुश्किलें अभी कम नहीं होंगी ।वहीं मध्यम, उच्च मध्यम और उच्च वर्ग की आय में इतना अंतर नहीं आया है। ऐसा नहीं हैं कि उनके ऊपर बेरोज़गारी और व्यापार के घाटे की तलवार का ख़तरा नहीं है लेकिन उनकी बचत और दूसरी नौकरियों के मौक़े अब भी मौजूद हैं। कोरोना ने समाज में असामनताएँ नहीं फैलायी हैं, पर मौजूदा विवशताओं को ज़ाहिर कर दिया है।

किसी फ़िल्म का तो संवाद था कि जो कभी नहीं जाती – वो जाति है 

19 मार्च से अब तक 12 लोगों की पुलिस की बर्बरता की वजह से मृत्यु हुई है। इनमें 2 मुसलमान, 1 दलित, 1 आदिवासी और 4 बहुजन और मराठा शामिल हैं। बाक़ी मामलों में  जाति की पुष्टि नहीं हो पायी है।जहाँ सत्ता और समाज में दलितों, आदिवासियों  और बहुजनों को बराबर की साझेदारी नहीं मिल पाती, वहीं लॉकडाउन में सिस्टम जनतांत्रिक हो जाता है पुलिस बराबर से इन पर हिंसा करती है। आजकल बुद्धिजीवी, मध्यम और उच्च मध्यम वर्गों में समाज को लेकर तरह तरह के मीम, व्यंग्य, कटाक्ष, लेख, मार्मिक पोस्ट्स और दुखद तस्वीरें शेर की जा रही हैं।हर जगह बहुत मार्मिक बातें कहीं जा रही है, जैसे कि “समाज अपने प्रवासी मज़दूरों के लिए असफल हो गया”, “जिनकी वजह से शहर बसे थे, अब वो शहरों में नहीं बस सकते”। पर ऐसा नहीं है की लॉकडाउन या कोरोना ने समाज की रीढ़ तोड़ दी है , परंतु शायद लॉकडाउन ने समय और मौक़ा दे दिया कि उस टूटी हुई रीढ़ की हड्डी के बारे में बात होने लगे।

लॉकडाउन के दौरान, इसकी वजह से अलग-अलग घटनाओं में मारे गए लोगों का प्रतिशतवार आंकड़ा

दूसरा, पैसों की कमी और रोज़गार के साधन ख़त्म होने की वजह से भूख और पलायन का सिलसिला जारी है। इस पलायन की वजह से 90 से ज़्यादा लोग सड़क की दुर्घटनाओं के शिकार हुए हैं, 21 लोग थकान के और  15 लोग भूख की वजह से मौत के घाट उतर चुके हैं। इन लोगों में भी दलितों, आदिवासियों और बहूजनो के संख्या अधिक है। वैसे एक बार पीयूष गोयल जी से पूछ ज़रूर लीजिएगा  कि जब वो कह रहे थे कि इंडिया में कोई भूखा  नहीं रहेगा, तो वो कहीं भारत, हिंदुस्तान इत्यादि को घटाकर बनाए हुए इंडिया की बात तो नहीं कर रहे थे?

तीसरा, देश में 19 मार्च से अब तक  2800 से ज़्यादा लोग कोरोना की वजह से जान गँवा चुके हैं। वहीं 36 लोग स्वास्थ्य सुविधा ना मिल पाने की वजह से मरे हैं। एक और संख्या है जो थोड़ी परेशान करने वाली है कि इन 36 में 10 से अधिक मुसलमान हैं। मुसलमान जो देश में सिर्फ़ 14 प्रतिशत हैं, वो इस आँकडें में 27 प्रतिशत से भी ज़्यादा  हैं। इसका मतलब ये क़तई  नहीं है कि सब मुसलमानो से भेदभाव हुआ हैं स्वास्थ्य सेवाओं में, हाँ तबलीग़ी जमात की ख़बर के बाद मीडिया और राइट विंग की आईटी सेल के प्रोपोगेंडा ने कुछ के लिए सुविधाएँ पाना मुश्किल ज़रूर कर दिया था। परंतु ये आँकडें उनके मौजूदा स्वास्थ्य और जीवनयापन की सुविधाओं पर भी सवाल उठाते हैं। और इसकी ज़िम्मेदारी अगर देश की नहीं तो किस देश की सरकार की होनी चाहिए?

चौथा, लाक्डाउन के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में जनवरी से अब तक दुगुनी से ज़्यादा बढ़त हुई है। इनमें से ज़्यादातर मामलों में महिलाएँ पीड़ित हैं। इन सब आँकड़ों को देखकर एक बात तो तय है कि जाति, लिंग और  धर्म के आधार पर समाज में जो हिंसा, क्रूरता, भेदभाव होता है उसका लाक्डाउन नहीं हो सकता ।

अगर ‘लॉकडाउन’ कोई राज्य होता – तो कोरोना से हुई मौतों की सूची में किस स्थान पर होता?

इन आंकड़ों को इकट्ठा करने के बाद, हमने इनकी तुलना की, 18 मई तक के – राज्यवार, कोरोना से हुई मौतों के आंकड़ों से। ये वो काम था, जो शायद कोई भी पत्रकार या डेटा विश्लेषक कभी नहीं करना चाहेगा। जैसा कि हम बता चुके हैं कि ये आंकड़े 15 मई तक लॉकडाउन जनित कारणों से हुई मौतों के थे। जबकि हम कोरोना जनित मौत के उन आंकड़ों से इनकी तुलना कर रहे थे, जो हाल के यानी कि 18 मई, 2020 के थे।

कोरोना से हुई मौतों के साथ, लॉकडाउन जनित मौतों का 5 राज्यों के साथ तुलनात्मक अध्ययन

और इन आंकड़ों को हमने जब देखा, तो दरअसल ये एक निष्कर्ष जैसा था – जिसे किसी नेता के भाषण या विपक्ष के बयान में सुने जाने से ज़्यादा महसूस किए जाने की ज़रूरत थी। इन आंकड़ों के तुलनात्मक अध्ययन के मुताबिक भारत में कोरोना के कारण सबसे ज़्यादा मौतों की सूची में तीसरे नंबर पर कोई राज्य नहीं था…बल्कि लॉकडाउन था। ये ख़बर लिखे जाने तक – लॉकडाउन के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव से होने वाली इन मौतों का सिलसिला रुका नहीं था – बल्कि बढ़ रहा था। ऊपर दिए गए ग्राफ को देखें तो सिर्फ महाराष्ट्र और गुजरात में ही 350 से अधिक लोगों ने अपनी जान कोरोना संक्रमण से गंवाई है। जबकि इस सूची में तीसरे से 7वें स्थान तक, नीचे के 5 राज्यों के मुक़ाबले में भी लॉकडाउन के चलते हुए मौतों की हमारी जुटाई गई संख्या कहीं ज़्यादा है। यानी कि हम कह सकते हैं कि भारत के राज्यों में कोरोना संक्रमण से हुई मौतों के साथ अगर लॉकडाउन के चलते हुई मौतों को रख दें, तो ये तीसरे स्थान पर रहेंगी। जबकि ये हमारा जुटाया हुआ डेटा है, ये इससे कम नहीं हो सकता है – बल्कि ज़्यादा ही हो सकता है। क्योंकि कई ऐसी मौतें हो सकती हैं, जिनकी कोई रिपोर्टिंग किसी जगह न हुई हो। साथ ही, फिलहाल एनसीआरबी या वैसा कोई और आंकड़ा अपडेट नहीं किया जा रहा है।

अंततः कुछ बातें कहना ज़रूरी है। असमानता का सीधा सीधा ताल्लुक अन्याय और मानवधिकारों के उल्लंघन से है। हमें सिर्फ़ कोरोना से ही नहीं इन असमानताओं से भी जूझना होगा। लोग कहते हैं कि सामाजिक क्रांति आएगी, इस तबके को इतना दबाया गया है कि वो  ज्वालामुखी की तरह फटेगा और अपना हक़ लड़ कर लेगा। हो सकता है ऐसा हो, पर जब सारे संसाधन-साधन छीन लिए जाएँगे तो वो शायद और कमज़ोर हो जाएँगे और कमज़ोर को और दबाया कुचला जाता है। वो शायद ही क्रांति लाने की हिम्मत  जुटा पाए। पर हाँ, अगर सरकार-सत्ता से जवाबदेही सिर्फ़ जिनके साथ अन्याय हुआ है वो ही नहीं परंतु बाक़ी सब भी माँगे तो शायद कुछ बदल सकता है। आपके जनतंत्र में, इन्होंने कम भागीदारी के बावजूद भी उम्मीद के बल पर बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया  है, उनके संघर्ष में आपको भी भाग लेना चाहिए। साथ ना भी खड़े हों तो आड़े तो मत आइएगा, कल जब कोई ग़रीब, पिछड़ा या औरत आवाज़ उठाए तो यूँ मत कह देना कि इनकी तो आदत है धरने देने की, क्योंकि और कोई काम कहाँ  हैं इनके पास? हाँ काम नहीं  हैं इनके पास, और ये असमानता है उनका आलस नहीं…

 

(ये आंकड़ा सिर्फ उन ख़बरों और मौतों पर आधारित है, जो रिपोर्ट की गई हैं। ऐसी भी मौतें होंगी, जिनकी कोई रिपोर्टिंग नहीं हुई होगी और ये आंकड़ा – ऊपर दिए गए आंकड़ों से अधिक भी हो सकता है – साथ ही ये लगातार बढ़ रहा है)

 

लेखिका सौम्या गुप्ता, डेटा विश्लेषण एक्सपर्ट हैं। उन्होंने भारत से इंजीनीयरिंग करने के बाद शिकागो यूनिवर्सिटी से एंथ्रोपोलॉजी उच्च शिक्षा हासिल की है। यूएसए और यूके में डेटा एनालिस्ट के तौर पर काम करने के बाद, अब भारत में , इसके सामाजिक अनुप्रयोग पर काम कर रही हैं।

 


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