लोक कला : यह कठपुतली कौन नचावे?



कला जगत में आजकल लोक कलाओं के संरक्षण और उनके संवर्धन का विमर्श जोर-शोर से चल रहा है, लोक कला के विकास के नारे चारों तरफ गूँज रहे हैं। सरकार से लेकर सामाजिक संस्थाएं और अब तो कॉर्पोरेट जगत भी लोक कला के बचाव की लड़ाई में कूद पड़ा है। डाईंग आर्ट्स को बचाने के नाम पर सरकारी विभाग टेंडर पर टेंडर जारी कर रहे हैं। प्रबंधकीय कोर्स पढ़ाने वाली संस्थाएं और कंपनी भी इन कलाओं को दिखाने का ठेका ले रही हैं। 

ऐसे ही 2 अक्टूबर, गांधी जयंती पर जवाहर कला केंद्र, जयपुर में कठपुतली नचाने का काम इंडियन क्राफ्ट डिजाइन और बेयरफुट कंपनी को दिया गया, जिसका उदघाटन मुख्यमंत्री ने किया। कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश में भी बहुरूपिया कला दिखाने के लिए कुछ निजी संस्थाओं को ठेके दिए गए।

आज लोक कला मरणासन्न स्थिति में पहुँच गई है और उसको चलाने वाले कलाकार हर स्तर पर भेदभाव और शोषण का शिकार हैं। जब सरकार ही उनसे लोक कला का ये अधिकार छीन लेगी तो फिर उनके पास बचेगा क्या?

सवाल जिनका जवाब नहीं मिला

सरकार के इस कार्य ने कुछ गंभीर सवाल उठाए हैं जिनका हल तलाशना बहुत आवश्यक है। सवाल ये है कि क्या सरकार के इन कदमों से लोक कला बच पाएगी? जो लोक कलाकार पहले से ही हाशिये का जीवन जी रहे हैं, क्या इस ठेके और टेंडर प्रथा से लोक कलाकार के जीवन मे खुशहाली आएगी? क्या इस कदम से हमारे पुरखों की सदियों की विरासत बचेगी?

सरकार के दावों में कितना बड़ा विरोधाभास है, लोक कला के संरक्षण और संवर्धन के इस विमर्श से, लोक कला के जनक उसके पोषक, लोक कलाकार ही गायब हैं। हमारे लोक कला और लोक कलाकार के विचार में ही दोष है, हमारा विचार अधूरा, अस्पष्ट और टूटा-फूटा है।

भारतीय लोक कला की विशिष्टता

भारतीय लोक कला आजीविका कमाने का जरिया नही है बल्कि अपने विश्वासों, परंपराओं और अपनी मान्यताओं के अनुरूप अपने सामाजिक जीवन को शांतिमय बनाना है। लोक कला कोई बाजार का उत्पाद नही हैं बल्कि हमारे पुरखों का सदियों का सीखा हुआ ज्ञान है, समाज के सौंदर्यबोध की अभिव्यक्ति है। भारतीय समाज के सुख-दुःख, रीति-रिवाज़, परम्परा, इतिहास और धार्मिक विश्वास अर्थात जीवन के हरेक पक्ष की अभिव्यक्ति लोक कलाओं के माध्यम से होती है।

इसकी कच्ची सामग्री, उसके किरदार भी उसी परिवेश से लिए जाते हैं और ये उसी जीवन को समृद्ध बनाती है। ये लोक कला तो लोक कलाकार का समाज के साथ जुगलबन्दी का आधार रही है। इसका ज्ञान कोई फिजिक्स या केमिस्ट्री की तरहं से, व्यक्ति से तटस्थ ज्ञान नही है बल्कि लोक कलाकार के जीवन का हिस्सा है यदि लोक कलाकार बचेगा, उसकी जीवन शैली बचेगी तो ही ये लोक कला बचेगी।

लेकिन आज हम यही कर रहे हैं लोक कलाओं के संरक्षण के नाम पर न केवल उसे लोक कलाकारों से अलग कर रहे हैं बल्कि इस पूरे विमर्श से ये जुगलबन्दी भी गायब है।

लोक कला की विरासत

जिस कठपुतली नचाने का ठेका इंडियन क्राफ्ट डिज़ाइन को दिया है उस कठपुतली के जनक नागौर के भाट समाज को माना जाता हैं जो सदियों से इस काम को कर रहे हैं। भारत में कठपुतली कला ज्ञात कलाओं में सबसे पुरानी है जिसका जिक्र पाणिनि ने अपने ग्रंथ अष्टाध्यायी में किया है।

हिंदुस्तान में कठपुतली निर्माण की चार शैली प्रचलित हैं, इनके निर्माण, श्रृंगार और उनके लोकगीतों में उस स्थान विशेष का प्रभाव देखने को मिलता है जिसमें राजस्थानी धागा शैली ख़ास है। आंकड़े या आड़ू की लकड़ी से बनी कठपुतली जहां उम्मीद की डोर पर जिंदगी है जब डोर हिलती है तो जिंदगी के दृश्य बदलते हैं।

इस कठपुतली की आंखें, बोहें और होंठों का आकार उसे खास बनाता है। उसके पहनावे में और गीतों में यहां के राजघरानों और आम इंसान के जीवन के सभी किरदारों की जदोजहद दिखलाई पड़ती है।

कठपुतली के खेल में 52 कठपुतली होती हैं जो अलग-अलग किरदारों को समर्पित हैं। मौसम के अनुसार इनके गीत बदल जाते हैं। गांव की चौपाल में, शाम के शाम, लकड़ी का दरबार लगाकर यह खेल दिखाया जाता है, जिसमे 3-4 घंटे का समय लगता है।

कठपुतली से बच्चों में सर्जनात्मकता, सीखने की क्षमता का विकास होता, ये कला जन-जागृति का सशक्त माध्यम रही। कठपुतली के जरिए राजा से आम इंसान के कार्यों को नैतिकता से जोड़ा जाता।  ऐसा क्या हुआ कि आज ये कला होटलों, विदेशी सैलानियों और मेलों तक सिमट कर रह गई है?

पुष्कर के अजमेरी लाल भाट, वर्षों से कठपुतली का खेल दिखा रहे हैं। उनका पूरा परिवार इस काम मे लगा हुआ है लेकिन आज वे इस काम को छोड़कर मजदूरी करने जाते हैं। पूंजी के नाम पर एक फटा तम्बू है, एक झोला है जिसमे कठपुतलियां हैं, एक ढोलक है और एक लकड़ी का दरबार है।

तम्बू के एक कोने में जमीन पर सोने की जगहं हैं, तम्बू के बाहर एक मिट्टी का चूल्हा है जिसपर खाना बनता है। जमा-पूंजी के नाम पर दो-चार बर्तन है और एक पोटली में सर्दी के फ़टे-राने चार-पांच कपड़े हैं।

अजमेरी लाल कहते हैं की हमारी कला सम्पूर्ण कला है। हम अनपढ़ जरूर हैं फिर भी हम खुद ही नाटक बनाते हैं, उसके संवाद याद करते हैं, कठपुतली बनाते हैं, उसको सजाते हैं फिर उनको नचाते हैं।

एक समय था जब हम गधों पर बैठकर गांव- गांव में जाते और अपनी कला के जरिए मौखिक इतिहास को सुनाते, सामाजिक प्रसंगों को अपने गीतों के जरिए लोगों के समक्ष रखते। गांव के बूढे, बढेरे, महिलाएं और बच्चे बहुत चाव से इसे देखते। लेकिन आज समय बदल गया है। आज कोई भी हमे देखना भी पसंद नही करता। होटल वालों और विदेशी सैलानियों पर निर्भर हैं।

यही हालत जयपुर की कठपुतली कॉलोनी में रह रहे धन्ना राम भाट की है। धन्ना भाट मूल रूप से नागौर के रहने वाले हैं। उनकी उम्र करीब 80-85 वर्ष है। पिछले कुछ वर्ष से जयपुर में रह रहे हैं, उनका कहना है कि अब हमारा घूमना-फिरना बन्द हो गया है।

एक समय था जब हम गांव में जाते थे, हमारा इतना स्वागत होता था। हम लोग राजस्थान के 24 राज परिवारों के इतिहास को कठपुतली नाच के जरिए बताते थे। मीरा, लैला-मजनूं, शीरीं फरहाद इत्यादि के नाटक दिखाते।

धन्ना भाट आगे बताते हैं कि मैं कई देशों में जा चुका हूं लेकिन हमारी कला का फायदा बिचौलिए उठाते हैं। होटल मालिक और सामाजिक संस्थाओं के लोग हमें ले जाते हैं वहां महीनों रखते हैं और बदले में केवल दो से तीन हज़ार रुपए देते हैं। सरकार को हमारी स्थिति से कोई वास्ता नही है।

क्या होना चाहिए

हमारे कार्यक्रम और नीतियां इस तरहं होने चाहिएं जो लोक कलाकार और उसकी कला के मध्य संबंध को मजबूत बनाए न कि दोनों को अलग-अलग बांटे।

जब बड़े शहरों में निजी विद्यालय बच्चों को शिक्षा देने के लिए कठपुतली कला को माध्यम बनाया है तो सरकारी स्कूलों में ऐसा क्यों नही हो सकता? इससे लोक कला भी बचेगी, लोक कलाकार भी बचेगा और बच्चों की सीखने की क्षमता का विस्तार होगा।

जैसलमेर के क़िले के पास कठपुतली नचाने वाले ज्ञानी भाट कहते हैं कि अखबार में एक विज्ञापन देने के लिए सरकारें करोड़ों रुपए खर्च कर देती हैं जबकि अखबार पढ़ते कितने लोग हैं?

जिनके लिए वो नीति या कार्यक्रम रहता है उसे तो उस विज्ञापन से कोई वास्ता ही नही है। यदि इन लोक कलाकारों को केवल एक विज्ञापन भी दे दें तो ये लोग उसे महीनों तक गांव-गांव में लेकर जाएंगे और ये प्रभावशाली माध्यम भी है।

सरकारी तंत्र और कला केंद्र को यह बात समझनी पड़ेगी की कला केंद्र कोई तेल-साबुन बेचने के अड्डे नही हैं और न ही मुनाफा कमाने की कंपनी बल्कि ये वो स्थान हैं जहां नए विचार पैदा होते हैं, फलते-फूलतें हैं और अंत मे नए विचार में मिलकर नए बन जाते है।

यही वो स्थान है जो कठिन समय मे लोक कलाकार को थामते हैं उसके जीवन को उम्मीद देते हैं। कला केंद्र सप्ताह में कम से कम एक दिन लोक कलाकारों के लिए निःशुल्क उपलब्ध होना चाहिए जहां वे अपनी कला को दिखा सकें।

घुमन्तू बोर्डों और आदिवासी आयोगों की कार्यप्रणाली को दुरुस्त करने की आवश्यकता है। जब तक इन बोर्डों और आयोगों को राजनीतिक दलों की कैद से आज़ाद नहीं करेंगे तब तक इन कलाकारों के जीवन में कोई सार्थक बदलाव नहीं आएगा।

सामाजिक संस्थाओं को लोक कला के संरक्षण का बजट देने की बजाय उस पैसे को लोक कलाकारों के जीवन पर उनकी कला पर खर्च करना चाहिए यदि। कलाकार बचेगा तो ही ये लोक कला बचेगी।