DU : ‘वरिष्ठता बनाम जाति’ के झमेले में कैसे फंसा हिंदी विभाग के मुखिया का पद

सुशील मानव सुशील मानव
ग्राउंड रिपोर्ट Published On :


दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में विभागाध्यक्ष पद को लेकर इन दिनों घमासान मचा हुआ है। एक ओर प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन के समर्थक हैं तो दूसरी ओर प्रो. केएन तिवारी। इसमें पहला पक्ष तो पूरी तरह से दिखता है लेकिन दूसरा पक्ष मीडिया, सोशल मीडिया से लेकर लगभग हर जगह ग़ायब है। न तिवारी बोल रहे हैं न उनके समर्थक। मीडियाविजिल ने सब से बात कर के इस मामले की पूरी पड़ताल की है।

विवाद क्या है

प्रो. श्योराज सिंह बेचैन वरिष्ठता क्रम में हिंदी विभाग के सबसे सीनियर प्रोफेसर हैं। वरिष्ठतम होने के चलते विभागाध्यक्ष के पद पर उनका स्वाभाविक तौर पर दावा बनता है और उन्होंने दावा किया भी है। प्रोफेसर बेचैन फरवरी 2010 में प्रोफेसर के पद पर प्रमोट किए गए थे।

हिंदी विभाग के ही एक और प्रोफेसर कैलाश नारायण तिवारी ने अपनी सीनियरिटी के निर्धारण के लिए यूनिवर्सिटी को एक पत्र लिखा था। यह पत्र उन्होंने विभागाध्यक्ष का पद रिक्त होने से कुछ दिनों पहले भेजा। अपनी वरिष्ठता को निर्धारित करने के लिए लिखे प्रोफेसर के. एन. तिवारी के पत्र के बाद विभागाध्यक्ष की लड़ाई तिवारी बनाम बेचैन में बदल गयी और इस आशय का प्रचार शुरू हुआ कि विभाग के इतिहास में पहली बार जब एक दलित अध्यक्ष बनने जा रहा है, तो सरकार समर्थित ब्राह्मण लॉबी उसे रोकने में लगी है।

प्रो. तिवारी को दिल्ली विश्वविद्यालय ने अक्टूबर 2010 से प्रोफेसर के पद पर लाने का नोटिस जारी किया था। उनकी वरिष्ठता अक्टूबर 2010 यानि नोटिस जारी होने के दिन से दर्ज थी जबकि वे 2001 से ही प्रोफेसर के समकक्ष रिसर्च साइंटिस्ट (सी) के पद पर कार्यरत थे। प्रो. तिवारी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भी रिसर्च साइंटिस्ट ही रहे हैं।

बेचैन समर्थक

प्रो. श्योराज सिंह बेचैन के समर्थक परंपरा और विभागीय नियम का हवाला देते हुए बेचैन को विभागाध्यक्ष बनाए जाने की मांग कर रहे हैं। सन 1948 में खुले डीयू के हिंदी विभाग में अब तक कुल 20 विभागाध्यक्ष बन चुके हैं और नियम व परंपरा रही कि वरिष्ठता के आधार पर हर तीन साल के बाद विभागाध्यक्ष नियुक्त किए जाते हैं। परंपरा यह भी रही कि विभागाध्यक्ष वरिष्ठताक्रम में सबसे वरिष्ठ प्रोफेसर को पदभार देकर वीसी को उनकी अनुशंसा भेजता रहा है।

पिछले दो विभागाध्यक्षों को देखें तो सुधीश पचौरी ने अपना कार्यकाल खत्म होने के बाद गोपेश्वर सिंह को विभागाध्यक्ष का पदभार सौंपकर उनकी अनुशंसा वीसी को भेज दी थी और फिर वीसी ने निर्देश जारी करके उन्हें मान्यता दे दी थी। इसी तरह गोपेश्वर सिंह ने अपना कार्यकाल पूरा होने के बाद वरिष्ठता के आधार पर प्रो मोहन को विभागाध्यक्ष का पदभार देते हुए वीसी को उनकी अनुशंसा भेज दी थी।

प्रो. मोहन का कार्यकाल 12 सितंबर 2019 को पूरा हुआ है। कार्यकाल पूरा होने के बावजूद मोहन ने विगत 70 वर्षों से चले आ रहे नियम और परंपरा का निर्वहन नहीं किया जबकि उन्हें 13 अक्टूबर 2019 को अपना पदभार वरिष्ठता के आधार प्रो. बेचैन को सौंपकर इसकी अनुशंसा वीसी को भेज देनी चाहिए थी। इससे उपजे विवाद का नतीजा यह हुआ है कि मोहन को ही फिलहाल कुछ दिनों के लिए विस्तार दे दिया गया है।

पूर्व विभागाध्यक्ष हिंदी प्रोफेसर मोहन

इस बाबत जब हमने 12 अक्टूबर को पदमुक्त हुए पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. मोहन से उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन्होंने कोई भी प्रतिक्रिया देने से साफ इन्कार कर दिया। उन्होंने इस बात से भी इन्कार कर दिया कि उन्होंने श्योराज सिंह बेचैन को पदभार क्यों नहीं दिया। डीन इर्तजा करीम ने भी इस मसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

उदासीन प्रो. तिवारी

प्रो. के. एन. तिवारी ने मीडियाविजिल के सामने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि मीडिया में कई तरह के झूठ एक साथ चल रहे हैं। उन्होंने कहा कि लीगल सेल से उनकी याचिका खारिज़ होने की जो बात फैलायी जा रही है, वह झूठी है।

उन्होंने कहा− “मेरे पक्ष में केंद्र सरकार और मंत्रालय का दबाव बनाने की बातें भी कोरी गप हैं। कथित मीडिया ने इन्हीं हवा हवाई झूठों के दम पर एक विभागीय मसले को जातीय विवाद और दलित मुद्दा बना दिया है। आलम ये है कि प्रोफेसर लोग ‘दलित-विरोधी’ न करार दे दिए जाएं इस भय से मुँह खोलने तक को तैयार नहीं हैं। लोग पूरे मामले को समझने की कोशिश करने के बजाय सोशल मीडिया पर मेरे खिलाफ़ लिख रहे हैं। मुझे गरिया रहे हैं।”

प्रो. के. एन. तिवारी सन 2001 में बीएचयू में रिसर्च साइंटिस्ट सी (प्रोफेसर के समकक्ष) के पद पर प्रमोट किए गए। फिर 2005 में रिसर्च साइंटिस्ट (सी) के तौर पर ही वे दिल्ली विश्वविद्यालय में आ गए। वर्ष 2008 में यूजीसी ने निर्णय लेते हुए लेटर जारी किया कि रिसर्च साइंटिस्ट के पद पर कार्यरत लोगों का विलय उनके समकक्ष अध्यापक पदों पर कर दिया जाएगा और उसी के अनुसार उनकी वरिष्ठता को उस पद के साथ जोड़ दिया जाएगा।

प्रो कैलाश नारायण तिवारी

इसके तहत रिसर्च साइंटिस्ट (सी) को प्रोफेसर के पद पर, रिसर्च साइंटिस्ट (बी) रीडर के पद पर और रिसर्च साइंटिस्ट (ए) को लेक्चरर के पद पर लाना सुनिश्चित हुआ। जनवरी 2009 में दिल्ली यूनिवर्सिटी की एक्जीक्यूटिव की बैठक में इसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया। यूजीसी के पत्र को स्वीकार करने के सवा साल बाद अक्टूबर 2010 में दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा नोटिस जारी करके तिवारी को प्रोफेसर तो बना दिया गया लेकिन उन्हें यूजीसी के निर्देश के मुताबिक वरिष्ठता नहीं प्रदान की गई।

प्रो. के. एन. तिवारी इस मामले में जेएनयू के प्रो. ओमप्रकाश सिंह के केस का हवाला देते हैं जिन्हें जेएनयू ने उनके प्रमोशन डेट 2007 से ही प्रोफेसर की सीनियरिटी प्रदान की है। प्रो. तिवारी का कहना है कि उन्होंने अपने डॉक्युमेंट और एक लेटर भेजकर दिल्ली विश्वविद्यालय से सिर्फ अपनी सीनियरिटी के बारे में पूछा है, बात सिर्फ़ इतनी सी है। बाक़ी विभागाध्यक्ष किसे बनाना है किसे नहीं, यह कुलपति का अपना विशेषाधिकार है। वे कहते हैं कि दो लोगो के झगड़े में कुलपति किसी तीसरे को भी विभागाध्यक्ष बना सकता है।

तिवारी के मुताबिक− “विभागाध्यक्ष का पद मेरे लिए कोई इशू नहीं है।”

जेएनयू की नज़ीर

मीडियाविजिल ने जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर ओमप्रकाश सिंह से वस्तुस्थिति समझने की कोशिश की। उन्होंने फोन पर बताया कि यूजीसी ने रिसर्च साइंटिस्ट के पद को बंद करते वक्त इस पद पर बैठे पुराने लोगों के लिए लिखा कि जो जहां जैसे जिस स्थिति में है उसे ज्यों का त्यों युनिवर्सिटी में एबजॉर्ब कर लिया जाए और फुल सीनियरिटी प्रदान की जाए।

मान लीजिए कि कोई अगर वर्ष 2000 में प्रोफेसर ग्रेड के समकक्ष रिसर्च साइंटिस्ट ‘सी’ पद पर था तो उसे वर्ष 2000 से ही प्रोफेसर माना जाएगा और वर्ष 2000 से ही उसकी सीनियरिटी दी जाएगी।

प्रोफेसर सिंह बताते हैं कि- “मैं वर्ष 2007 में यूजीसी की प्रोफेसर स्कीम में आ गया था। अतः मुझे यूनिवर्सिटी ने वर्ष 2007 से ही प्रोफेसर स्वीकार कर लिया। मैंने यूनिवर्सिटी को कभी भी एबजार्ब होने के लिए नहीं लिखा। दरअसल मैं एबजार्ब ही नहीं होना चाहता था लेकिन यूजीसी सबको अबजार्ब करवाकर अपना सिरदर्द खत्म करना चाहती थी। अतः मैंने यूनिवर्सिटी को साल 2017 में अपना एबजार्प्शन लेटर दिया और स्क्रूटनी काउंसिल ने उसे स्वीकार करते हुए वर्ष 2007 से ही मुझे सीनियरिटी प्रदान कर दी। तो मैं विभाग में सबसे सीनियर हो गया और फिर मुझे भारतीय भाषा केंद्र का हेड ऑफ डिपार्टमेंट बना दिया गया।”

प्रो ओमप्रकाश सिंह विभागाध्यक्ष भारतीय भाषा केंद JNU

प्रोफेसर सिंह आगे कहते हैं– “जेएनयू, बीएचयू, हैदराबाद यूनिवर्सिटी, लखनऊ यूनिवर्सिटी और नेहरू मेमोरियल समेत तमाम विश्वविद्यालयों ने यूजीसी के निर्देशानुसार काम किया, जिसमें लिखा था कि ‘फुल सीनियरिटी के साथ इन लोगों को अबजॉर्ब किया जाए’। दिल्ली यूनिवर्सिटी ने रिसर्च साइंटिस्ट को उनके समकक्ष पदों पर अबजार्ब तो कर लिया लेकिन उन्हें सीनियरिटी नहीं दी बल्कि पेंडिंग में डाल दिया। अतः जो मर्ज होने के समय सीनियरिटी मिलनी चाहिए वो दिल्ली यूनिवर्सिटी में कार्यरत रिसर्च साइंटिस्ट को नहीं मिली। वरना आज की तारीख़ में कैलाश तिवारी अपने विभाग के सबसे सीनियर प्रोफेसर होते।”

मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त

इस मामले में जब मीडियाविजिल के इस पत्रकार ने श्योराज सिंह बैचैन से 7 अक्टूबर की सुबह संपर्क किया तो उन्होंने फोन पर कहा- “न्याय मार्च कार्यक्रम में आओ, वहीं बात कर लूंगा।”

खुद बुलाने के बावजूद बेचैन न्याय मार्च में शामिल नहीं हुए। हिंदी विभाग में जाने पर पता चला कि वे यूनिवर्सिटी ही नहीं आए। दोपहर में उनके नंबर पर कॉल करने पर उनकी पत्नी ने कॉल रिसीव किया और उनके बाथरूम में होने की बात कहकर फोन काट दिया। देर रात फोन करने पर बेचैन ने फोन उठाया तो मीडिया से बात न करने की बात कहकर फोन डिसकनेक्ट कर दिया।

न्याय मार्च में शामिल एक दलित कार्यकर्ता ने मुझे दोपहर में ही बताया था कि श्योराज सिंह बात नहीं करेंगे। कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि अंदरखाने सारा मामला पहले से ही सेट है। उसने कहा− “हम भले ही इसे सामूहिक और दलित अस्मिता का मसला मानकर यहां मूंड़ फुड़वाने आये हैं लेकिन वो विभागाध्यक्ष के मसले को निजी ही मानते हैं। उन्हें तो ये भी लगता है कि कहीं इस तरह के धरना−प्रदर्शन से उन्हें निजी नुकसान न हो जाए। इसीलिए उन्होंने ख़ुद को इस धरना−प्रदर्शन से भी दूर कर रखा है। इसके अलावा इस मुहिम को लेकर बनाए गए वाट्सएप ग्रुप ‘न्याय मार्च’ से भी वे तीन दिन बाहर निकल चुके हैं।”

एक दलित लेखक ने नम न छापने की शर्त पर बताया− “सत्ताधारी वर्ग को भले लगता हो कि एक दलित प्रोफेसर के विभागाध्यक्ष बनने से सेलेक्शन कमेटी में दलित आ जाएंगे और हिंदी विभाग में दलित समुदाय के लोगों को भर्ती कर लेंगे, लेकिन यह केवल एक भ्रम साबित होगा।”

उन्होंने बताया कि कैसे बेचैन की चर्चित आत्मकथा के एक प्रसंग पर सवाल उठाने के चलते उनकी पीएचडी थीसिस पर प्रो. बेचैन ने ‘ऑबजेक्शन’ लगा दिया था। बाद में वो थीसिस दूसरे प्रोफेसर के पास गई और वहां से पास होकर आई। उन्होंने कहा कि फिर भी हमने निजी मसलों को दूर रखा और यहां न्याय मार्च में सामूहिक हित और दलित अस्मिता के लिए आए हैं।

बता दें कि 7 अक्टूबर को दिल्ली विश्वविद्यालय के 4 नंबर गेट पर प्रोफेसर श्योराज सिंह बेचैन को अविलंब विभागाध्यक्ष बनाने की मांग को लेकर तमाम शिक्षक छात्र, पत्रकार और कार्यकर्ता एकजुट हुए और धरना प्रदर्शन किया। कार्यक्रम को पहले शिक्षक और छात्रसंघ के प्रतिनिधियों ने संबोधित किया। इसके उपरांत गेट नंबर 4 से लेकर हिंदी विभाग के डीन कार्यालय तक और फिर डीन दफ्तर से लेकर कुलपति कार्यालय तक न्याय-मार्च निकालकर वीसी को ज्ञापन सौंपा गया।

लेखक संगठन भी कूदे

“साहित्य और संस्कृति से ताल्लुक रखने वाले चार संगठनों (दलित लेखक संघ, जन संस्कृति मंच,  प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ) ने एक बैठक कर दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद पर प्रो. बेचैन की नियुक्ति में आये गतिरोध को लेकर यह साझा बयान जारी किया है।

यह अत्यंत दुखद और चिंताजनक प्रकरण है कि विश्वविद्यालयी व विभागीय परंपरा, कानून और संवैधानिक उसूलों की अवमानना करते हुए दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग में अध्यक्ष का पद उसके वाजिब हकदार को न सौंपकर रिक्त रखा जा रहा है।

नियमानुसार इस पद पर प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन का अधिकार है लेकिन उन्हें अभी तक कोई पत्र नहीं मिला है। स्मरणीय है कि श्री बेचैन हिंदी के एक स्थापित लेखक और दलित साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उन्हें पदभार देने में देरी अथवा टाल-मटोल प्रशासन का जातिवादी, वर्चस्ववादी तथा मनुवादी चेहरा दिखा रहा है।

लेखकों-संस्कृतिकर्मियों के हम चार संगठन इस अन्याय पर गहरा आक्रोश व्यक्त करते हैं। सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन को कड़े शब्दों में चेतावनी देते हुए हम मांग करते हैं कि प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन को अबिलंब विभागाध्यक्ष का पद सौंपा जाए जिसके वे वाजिब हक़दार हैं।

(प्रेस-विज्ञप्ति, 08/10/2019)

मामले को उलझता देख विभाग के पूर्व अध्यक्ष को ही फिलहाल विस्तार दे दिया गया है।

किसकी बारात?

प्रो. बेचैन के समर्थकों में शामिल कुछ शिक्षक और छात्र प्रो. तिवारी की सत्ताधारी दल से निकटता का हवाला भी देते हैं और प्रो. बेचैन की लोकप्रियता व यश को गिनाते हैं। इन दोनों में संदेह नहीं कि दोनों ही प्रोफेसर अपने−अपने वैचारिक खित्ते में लोकप्रिय और सम्मानित हैं। प्रो. बेचैन को तमाम साहित्यिक पुरस्कार मिल चुके हैं तो प्रो. तिवारी बिहार में स्थित थावे विद्यापीठ के कुलाधिपति हैं। थावे विद्यापीठ की दक्षिणपंथी संगठनों से निकटताइस तथ्य से पता लगती है कि कुछ दिनों पहले दिल्ली में आयोजित अपने सम्मान समारोह में उसने हिंदू महासभा के पदाधिकारियों को सम्मानित किया था। खुद प्रो. तिवारी राम मंदिर के समर्थक हैं और उन्होंने मंदिर बनाने के पक्ष में कविता लिखी है।

वैचारिक और राजनीतिक सम्बद्धता दोनों की चाहे जो हो, लेकिन एक बात साफ़ है कि अपने पक्ष में चलाये जा रहे कैम्पेन से श्यौराज सिंह खुद बेचैन दिख रहे हैं कि कहीं उनकी उम्मीदवारी को नुकसान न पहुंच जाये। दूसरी ओर प्रो. तिवारी अपनी ओर से विभागाध्यक्ष की रेस में दिलचस्पी तक नहीं दिखा रहे हैं।

इसके दो मायने निकाले जा सकते हैं। या तो प्रो. तिवारी जानते हैं कि उनका मामला ‘सेट’ है इसलिए चुप रहना ही बेहतर है या फिर प्रो. बेचैन जानते हैं कि उनका मामला ‘सेट’ है इसलिए चुप रहना बेहतर है। सवाल उठता है कि दोनों बारातों के दूल्हे अपना−अपना हित देखते हुए चुप मारे बैठे हैं तो बाराती किसके लिए नाच रहे हैं।


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