EVM के बारे में आपकी राय कुछ भी हो, लेकिन ये तथ्‍य ज़रूर जानने चाहिए



इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम शुरू से ही विवादास्पद है. 6 अगस्त 1980 में इलेक्शन कमीशन ने राजनीतिक दलों को ईवीएम दिखाया था लेकिन 24 साल बाद 2004 के लोकसभा चुनाव में इसका पूरे देश में इस्तेमाल शुरू हो सका. ईवीएम से वोटिंग सबसे पहले 1982 में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर केरल में हुई थी. 1982 में केरल असेंबली इलेक्शन में चुनाव आयोग ने पैरावूर विधानसभा के 84 में से 50 पोलिंग स्टेशन पर ईवीएम का ट्रायल रन किया था. चुनाव से पहले सीपीएम के सिवान पिल्लई ने हाईकोर्ट में ईवीएम के इस्तेमाल के खिलाफ पिटीशन दायर की थी. आयोग ने हाईकोर्ट के सामने ईवीएम का डिमॉन्स्ट्रेशन किया, जिसके बाद कोर्ट ने मामले में दखल से इनकार कर दिया. इलेक्शन में पिल्लई ने कांग्रेस के एसी जोस को 123 वोट से हरा दिया. फिर जोस ने हाईकोर्ट में अपील कर दी. हाईकोर्ट ने इसे खारिज कर दिया तो मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. इसके बाद बैलेट पेपर से ही चुनाव करवाए गए. इनमें जोस को जीत मिली.

2004 में दिल्ली हाई कोर्ट में वरिष्ठ वकील प्राण नाथ लेखी (बीजेपी नेता मीनाक्षी लेखी के पिता) ने भी भारत में ईवीएम के प्रयोग पर सवाल उठाया था.
2009 में जब भारतीय जनता पार्टी को चुनावी हार का सामना करना पड़ा, तब पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सबसे पहले ईवीएम पर सवाल उठाए थे. इसके बाद पार्टी ने भारतीय और विदेशी विशेषज्ञों, कई गैर सरकारी संगठनों और अपने थिंक टैंक की मदद से ईवीएम मशीन के साथ होने वाली छेड़छाड़ और धोखाधड़ी को लेकर पूरे देश में अभियान चलाया था.इस अभियान के तहत ही 2010 में भारतीय जनता पार्टी के मौजूदा प्रवक्ता और चुनावी मामलों के विशेषज्ञ जीवीएल नरसिम्हा राव ने एक किताब लिखी- ‘डेमोक्रेसी एट रिस्क, कैन वी ट्रस्ट ऑर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन?’

इस किताब की प्रस्तावना लालकृष्ण आडवाणी ने लिखी थी. आडवाणी ने लिखा था, “टेक्नोलॉजी के नजरिए से मैं जर्मनी को मोस्ट एडवांस्ड देश समझता हूं. वहां भी ईवीएम के इस्तेमाल पर बैन लगा चुका है. आज अमेरिका के 50 में से 32 स्टेट में ईवीएम पर बैन है. मुझे लगता है कि अगर हमारा इलेक्शन कमीशन भी ऐसा करता है, तो इससे लोकतंत्र मजबूत होगा.” उस किताब में अविभाजित आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन चंद्राबाबू नायडू का संदेश भी प्रकाशित है.

किन्तु 2006 में चुनाव आयोग ने जब ईवीएम के इस्तेमाल पर सभी पार्टियों की बैठक बुलाई थी, तो किसी ने इसका विरोध नहीं किया था. जीवीएल नरसिम्हाराव ने अपनी किताब में 2010 के ही उस मामले का जिक्र विस्तार से किया है जिसमें हैदराबाद के टेक एक्सपर्ट हरि प्रसाद ने मिशिगन यूनिवर्सिटी के दो रिसर्चरों के साथ मिलकर ईवीएम को हैक करने का दावा किया था.

इतना ही नहीं पुस्तक में वोटिंग सिस्टम के एक्सपर्ट स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डेविड डील ने भी बताया है कि ईवीएम का इस्तेमाल पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है.

2009 के आम चुनावों में जब बीजेपी के नेता ईवीएम पर सवाल उठा रहे थे, ठीक उसी वक्त ओडिशा कांग्रेस के नेता जेबी पटनायक ने भी राज्य विधानसभा में बीजू जनता दल की जीत की वजह ईवीएम को ठहराया था. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के बाद कांग्रेस के नेता और असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई ने भी ईवीएम पर सवाल उठाए थे और कहा था कि बीजेपी की जीत की वजह ईवीएम है. किन्तु ईवीएम विवाद से जुड़े किसी भी प्रश्न का चुनाव आयोग ने कभी भी संतोषजनक जवाब नहीं दिया.

आज यह विवाद अपने चरम पर पहुंच चुका है और चुनाव आयोग की भूमिका संदेह के घेरे में है.

2019 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगियों दलों के पक्ष में एक आश्चर्यजनक और अविश्वसनीय जनादेश दिया किन्तु पूरी चुनाव प्रक्रिया और केन्द्रीय चुनाव आयोग संदेह के घेरे में आ गया है. परिणाम घोषित होने से पहले ही चुनाव के संचालन, चुनाव आयोग द्वारा कथित रूप से पक्षपातपूर्ण भूमिका और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) के साथ छेड़छाड़ किए जाने या छेड़छाड़ किए जाने की संभावनाओं पर कई सवाल उठे. किन्तु इस बार भी चुनाव आयोग ने इस विवाद से जुड़े किसी भी प्रश्न पर संतोषजनक जवाब नहीं दिया. इस तरह की अपारदर्शिता ने विपक्षी दलों और सभ्य समाज को परिणामों के प्रति संदेह पैदा कर दिया है जिसके चलते लोग मौजूदा सरकार को “ईवीएम सरकार” कह रहे हैं.

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी भी ईवीएम के इस्तेमाल का जोर शोर से विरोध करते रहे हैं. उन्होंने 2009 के चुनावी नतीजे के बाद सार्वजनिक तौर पर ये आरोप लगाया था कि 90 ऐसी सीटों पर कांग्रेस पार्टी ने जीत हासिल की है जो असंभव है. स्वामी के मुताबिक ईवीएम के ज़रिए वोटों का ‘होलसेल फ्रॉड’ संभव है.

2014 और अब 2019 के चुनाव के दौरान ईवीएम का विवाद बहुत अधिक बढ़ गया. 2019 के आम चुनावों के दौरान 22 विपक्षी दलों ने वीवीपैट के ईवीएम से 100 फीसदी मिलान की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर किया किन्तु अदालत ने उसे ख़ारिज कर दिया.

इस बार आम चुनाव के बाद मतगणना से एक दिन पहले लगातर कथित तौर पर ईवीएम मशीन बदले जाने की ख़बरें और वीडियो सामने आते रहे, चुनाव आयोग ने सभी ख़बरों को नकार कर कह दिया कि ईवीएम से किसी तरह की छेड़छाड़ संभव नहीं, सभी ईवीएम सुरक्षित हैं. लाखों लापता ईवीएम और असुरक्षित वोटिंग और इन वोटिंग मशीनों के रख रखाव पर भी आयोग ने कोई जवाब नहीं दिया.

2019 के चुनाव में कई उम्मीदवारों के जीत के अंतर भ्रामक और आश्चर्यजनक रूप से संदेह पैदा करने वाले रहें.

हाल ही में ‘फ्रंटलाइन’ में “क्या हम ईवीएम पर भरोसा करते हैं” (डू वी ट्रस्ट ईवीएम) शीर्षक से पत्रकार दिव्या त्रिवेदी का ईवीएम पर एक लेख प्रकाशित हुआ है. इस लेख में ईवीएम पर कई विशेषज्ञों की राय शामिल हैं.

अक्टूबर 2018 में द हिंदू सेंटर फॉर पॉलिटिक्स एंड पब्लिक पॉलिसी द्वारा प्रकाशित एक पॉलिसी वॉच डॉक्यूमेंट “मेकिंग इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन टैम्पर-प्रूफ: कुछ प्रशासनिक और तकनीकी सुझाव” में भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी के.अशोक वर्धन शेट्टी ने ब्रिटिश गणितज्ञ और कृत्रिम बुद्धिमत्ता विशेषज्ञ रोजर पेनरोज की किताब “शैडोज़ ऑफ द माइंड” (1994) से कोट करते हुए 2019 के चुनाव के संदर्भ में लिखा है-“ईवीएम पर पेनरोज़ के प्रेजेंटेशन का फिर से अवलोकन किया जाना चाहिए”.

रोजर पेनरोज विश्व स्तर पर प्रसिद्ध ब्रिटिश गणितज्ञ हैं और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर अधिकार रखते हैं. अशोक वर्धन शेट्टी ने अपने शोध पत्र में रोजर की पुस्तक से कोट करते हुए लिखा है कि कई जनमत सर्वेक्षणों के बाद सत्ताधारी दल द्वारा चुनाव की उच्च तकनीक धांधली की संभावना की कल्पना की है. पेनरोज़ के अनुसार, चुनाव धोखाधड़ी के सफल होने के लिए दो शर्तें आवश्यक हैं. सबसे पहले, वोटिंग मशीन को प्रोग्राम करना होगा; और दूसरा, किसी भी स्तर पर मनुष्यों द्वारा मत-गणना प्रक्रिया की जाँच नहीं की जानी चाहिए.

शेट्टी के अनुसार यह पेनरोज़ की पहली शर्त के बाद थी कि एक आदर्श ईवीएम एक केंद्रीय प्रसंस्करण इकाई (सीपीयू) के साथ एक स्टैंड-अलोन, नॉन-नेटवर्क्ड मशीन होनी चाहिए, जिसके सॉफ्टवेयर को जला दिया गया हो और किसी भी तरीके से निर्माण या हेरफेर के बाद इसे प्रोग्राम नहीं किया जा सकता था. शेट्टी के अनुसार, भारतीय ईवीएम इसी श्रेणी में आते हैं. वे कंप्यूटर की तुलना में कैलकुलेटर की तरह अधिक हैं और इंटरनेट सहित किसी भी नेटवर्क (वायर्ड या वायरलेस) से कनेक्ट नहीं हैं, और यदि वे अपनी भौतिक अखंडता को बनाए रखते हैं, तो उन्हें हैक नहीं किया जा सकता है. किन्तु यदि बेईमान अंदरूनी सूत्र और अपराधी ईवीएम तक भौतिक पहुंच प्राप्त करते हैं और ईवीएम के गैर-हैक करने योग्य सीपीयू को एक जैसे दिखने वाले लेकिन हैक करने योग्य सीपीयू की जगह लेते हैं, जो कि एक अंतर्निहित ब्लूटूथ डिवाइस के साथ एक साथ बेईमानी से वोटों की गिनती करने के लिए प्रोग्राम किया जा सकता है और उसे रिमोट से नियंत्रित करने की अनुमति दें ?” अंततः शेट्टी इस निष्कर्ष पर आते हैं कि चुनाव परिणाम बदलने के लिए सभी सुरक्षा सुविधाओं और प्रशासनिक सुरक्षा उपायों के बाद भी ईवीएम के साथ छेड़छाड़ करना और बड़े पैमाने पर वोटों की चोरी करना संभव है.

किन्तु चुनाव आयोग का कहना है कि ईवीएम दो कारकों के कारण हैक करने योग्य नहीं हैं. पहला यह कि ईवीएम किसी भी नेटवर्क से जुड़े नहीं हैं इसलिए इन मशीनों में हेरफेर नहीं किया जा सकता है. दूसरा,ये ओटीपी यानी एक बार प्रोग्राम करने योग्य डिवाइस हैं. किन्तु आयोग का दूसरा दावा संदेहास्पद है. सीएचआरआई के वेंकटेश नायक द्वारा हाल ही में प्राप्त आरटीआइ जानकारी ने ईसी के इस दावे को झूठला दिया है. उनके द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (बीईएल) -निर्वाचित ईवीएम और वीवीपीएटीएस में चुनाव में इस्तेमाल होने वाले माइक्रोकंट्रोलर्स का निर्माण संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थित एक मल्टीबिलियन-डॉलर कॉर्पोरेशन एनएक्सपी द्वारा किया गया था और ओटीपी के रूप में माइक्रोकंट्रोलर का वर्णन एनएक्सपी की वेबसाइट पर माइक्रोकंट्रोलर की विशेषताओं के विवरण से मेल नहीं खाता है जो इंगित करता है कि इसमें तीन प्रकार की मेमोरी है- SRAM, FLASH और EEPROM (या E2PROM). यह एक कंप्यूटर चिप है जिसमें फ्लैश मेमोरी शामिल है, ओटीपी नहीं है.

ई.सी.की तकनीकी मूल्यांकन समिति (टीईसी) ने 1990 और 2006 की रिपोर्टों में कहा था कि भारतीय ईवीएम को हैक नहीं किया जा सकता है क्योंकि एक बार जब माइक्रोचिप में सॉफ्टवेयर को जला दिया जाता है, तो यह गुप्त होता है और यहां तक ​​कि निर्माता कंपनी भी इसे नहीं पढ़ सकती. इसका मतलब यह पुनर्प्राप्त करने योग्य नहीं है. इसलिए ईवीएम के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती. किन्तु, आयोग की 2013 की ई बुकलेट “ईवीएम कोड की ट्रांसपेरेंसी” में प्रोफेसर रजत रजत, प्रोफेसर दिनेश शर्मा, प्रोफेसर ए.के.अग्रवाल और प्रोफेसर डी.शाहनी ने कहा है कि ईवीएम इकाइयों में ऐसी सुविधा प्रदान की गई है ताकि ईवीएम इकाइयों की कोड को एक अनुमोदित बाहरी इकाई द्वारा पढ़ा जा सके और पढ़े जाने वाले कोड की तुलना उस कोड को दिखाने के लिए संबंधित संदर्भ कोड से की जा सके.इसका मतलब साफ़ है कि कोड अब बिलकुल भी सुरक्षित नहीं है और उन तक आसानी से पहुंचा जा सकता है. मने हैक किया जा सकता है.

विशषज्ञों के अनुसार एक लंबी चुनाव अवधि आमतौर पर ईवीएम के संभावित छेड़छाड़ के लिए पर्याप्त समय देती है किन्तु जॉर्ज वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में कंप्यूटर विज्ञान पढ़ाने वाली प्रोफेसर पूरवी वोरा एक ईवीएम विशेषज्ञ हैं, उनका कहना है कि आयोग ने मशीन के डिजाइन को सार्वजनिक नहीं किया है, जिससे इसकी कमजोरियों का पता लगाना मुश्किल हो जाता है.

2017 में चुनाव आयोग ने विपक्षी दलों के इस दावे पर कि ईवीएम हैक किये जा सकते हैं को चुनौती देते हुए कहा था मशीन के मदर बोर्ड को छेड़े बिना हैक करके दिखाए. यह एक बचकाना मजाक जैसा था.

बड़े पैमाने पर विशेषज्ञों का मानना है कि ईवीएम मशीनों में छेड़छाड़ संभव है. आयोग के जानकारी के बिना इसे तीन स्तर पर बदला जा सकता है. नकली ईवीएम की बड़ी संख्या को प्रतिस्थापित करना भी संभव है. गैर चुनावी अवधि के दौरान जिला स्तर पर जब अपर्याप्त सुरक्षा प्रणालियों के साथ कई स्थानों पर ईवीएम को एकत्र किया जाता है और चुनाव से पहले जब प्रथम स्तर की जांच के तौर पर ईवीएम बीईएल और ईसीआईएल से अधिकृत तकनीशियन द्वारा की जाती है. तब भी बदलाव संभव है.

ईवीएम में उम्मीदवारों के नाम, सीरियल नंबर और चुनाव चिह्न कैसे दर्ज किए गए हैं, इस पर कोई स्पष्टता नहीं है. मशीनें आयोग के मुख्यालय में संग्रहित नहीं होते, लेकिन राज्य निर्वाचन कार्यालयों में जाती हैं, और चुनाव से पहले निर्वाचन क्षेत्रों में चले जाते हैं और उम्मीदवारों के नामांकन वापसी की अंतिम तिथि के बाद ईवीएम में विवरण फीड किए जाते हैं. ईवीएम की विश्वसनीयता पर विवाद केवल भारत का विषय नहीं है. बोत्सवाना में राजनीतिक हंगामा के बाद वहां के विपक्षी दलों के दबाव में वहां ईवीएम के प्रस्तावित कानून को वापस लेना पड़ा.

मिशिगन विश्वविद्यालय में कंप्यूटर विज्ञान के प्रोफेसर एलेक्स हैल्डरमैन और हॉलैंड के एक प्रौद्योगिकी कार्यकर्ता रोप गोंगग्रिप (जिन्होंने नीदरलैंड में ईवीएम पर प्रतिबंध लगा दिया था) के साथ मिलकर 2010 में “भारत के इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की सुरक्षा विश्लेषण” शीर्षक से एक शोध पत्र तैयार करने वाले हैदराबाद के प्रौद्योगिकीविद हरि प्रसाद का कहना है कि 1980 में जब इस पर बात शुरू हुई तो इसे बहुत पसंद किया गया किन्तु इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग सुरक्षा की विज्ञान की कम समझ और आलोचना बहुत बढ़ गई है तब से दुनिया के कई देशों ने पहले इसे अपनाया और फिर ईवीएम-शैली का मतदान छोड़ दिया. नीदरलैंड, आयरलैंड और जर्मनी जैसे देशों, जिन्होंने ईवीएम के साथ प्रयोग किया था उन्होंने ईवीएम वोटिंग बंद कर दिया. इंग्लैंड, फ्रांस और इटली ने स्पष्ट कर दिया है कि वे मतदान के लिए ईवीएम का उपयोग नहीं करेंगे.यूनाइटेड किंगडम, जापान, कनाडा और सिंगापुर जैसे उन्नत देशों में पेपर बैलट से मतदान होते हैं.भारत के अलावा एस्टोनिया, भूटान, नेपाल, नामीबिया, मालदीव, जॉर्डन और ब्राजील जैसे कुछ देश ईवीएम का उपयोग करते हैं.


(फ्रंटलाइन में प्रकाशित दिव्या त्रिवेदी के लेख से साभार)