गुलाम नबी आज़ाद का बयान मुसलमानों के अवांछित हो जाने के अहसास को स्‍वर दे रहा है!



उबैद उल्लाह नासिर

पिछले दिनों लखनऊ में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ओल्ड बॉयज एसोसिएशन के जलसे में मुख्य अथिति के तौर पर भाषण देते हुए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद ने बड़े भावनात्मक अंदाज़ में कहा कि पहले 90 फीसद प्रत्याशी उन्हें अपने चुनाव प्रचार में बुलाते थे लेकिन अब मुश्किल से ही 10 फीसद ही बुलाते हैं क्योंकि उन्हें डर होता है कि एक मुसलमान के अपील करने पर कहीं उनके हिन्दू वोट न कट जाएंI

आज़ाद देश के वरिष्ठ नेताओं में से हैं। उन्होंने संजय गांधी के साथ सियासत के मैदान में क़दम रखा था। लगभग चार दहाइयों तक वह देश की सियासत में छाये रहे। स्व. इंदिरा गांधी से ले कर डॉ. मनमोहन सिंह तक के मंत्रिमंडल में रहे। कांग्रेस पार्टी में भी उनकी बड़ी हैसियत है। वह राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं।  पार्टी की उच्चतम संस्था कांग्रेस वर्किंग कमिटी के सदस्य भी हैं। उन्होंने अपने उक्त भाषण में केवल अपना निजी दर्द ही नहीं बयान किया बल्कि इस समय भारतीय मुसलमानों की व्यथा का मर्सिया भी पढ़ा हैI

वैसे तो संघ परिवार की स्थापना ही मुसलमान, ईसाइयों और कम्युनिस्टों के विरोध के लिए हुई थी और अपने नब्बे वर्षों के सफ़र में संघ ने हार-जीत, ऊंच-नीच की परवाह किये बगैर अपनी मुहीम चलाई और 2014 के चुनाव में शानदार सफलता मिलने के बाद उसका सपना साकार हुआI आज हालत यह हो गयी है की संविधान में कोई परिवर्तन किये बगैर देश के मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। अधिकतर संवैधानिक संस्थाओं में संघ के लोग बैठा दिए गए हैं। इसलिए मुसलमानों पर होने वाले अत्याचारों और अन्याय के खिलाफ इन संस्थाओं से सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं। ऊपरी अदालतों में तो हालात किसी हद तक ठीक हैं लेकिन ट्रायल कोर्ट्स में हालत बहुत अच्छी नहीं है। यहां तक कि मॉब लिंचिंग जैसे जघन्य अपराध के मुलजिम भी फ़टाफ़ट जमानत पा जाते हैं और केन्द्रीय मंत्री उनका हार फूल पहना कर मुंह मीठा करते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हों या केन्द्रीय मंत्री गिरिराज किशोर आदि या सांसद और विधायक, सभी संविधान की रक्षा की शपथ लेकर असंवैधानिक बातें डंके की चोट पर करते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अधिकतर चैनलों ने तो जैसे देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने, मुसलमानों को विलेन बनाने और इस्लाम को क्रूर अमानवीय धर्म साबित करने की सुपारी ही ले रखी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषण भी पाकिस्तान, मुसलमान, श्‍मशान, कब्रिस्तान आदि के इर्द गिर्द ही घूमते हैं।

बीजेपी जो कुछ कर रही है वह अपनी विचारधारा और एजेंडे के अनुसार कर रही है। दुख की बात यह है की अन्य सियासी पार्टियों के एजेंडे से भी मुसलमान गायब हो गए हैं। देश का समाजी और सियासी माहौल कुछ ऐसा बन गया है कि किसी भी सियासी पार्टी के लिए मुसलमानों के हक और इन्साफ की बात करना भी घाटे का सौदा बन गया है। धर्मनिरपेक्षता अब संविधान में एक शब्द मात्र बन के रह गयी है। देश का सियासी एजेंडा हिंदुत्व से तय हो रहा है लेकिन धर्म और राजनीति का यह घालमेल देश के लिए अपशकुन है। याद रहे कि धर्मान्धता, उग्र-राष्ट्रवाद और बहुसंख्यकवाद ने श्रीलंका, पाकिस्तान, सीरिया, यूगोस्लाविया, म्यांमार आदि देशों को बर्बाद किया था। इन हालात ने देश के मुसलमानों में अलग थलग पड़ जाने, अवांछित होने का एहसास पैदा कर दिया है जो किसी भी तरह देश हित में नहीं हैI

2014 के आम चुनाव में अपनी करारी हार के कारणों का पता लगाने के लिए कांग्रेस ने वरिष्ठ नेता एके अंटोनी के नेतृत्‍व में जो कमिटी बनाई थी उसने भी यह रिपोर्ट दी थी की संघ परिवार हिन्दुओं को यह समझाने में सफल रहा है कि कांग्रेस मुसलमानों का तुष्टिकरण करती है और हिन्दुओं के हितों की अनदेखी करती है। उनका कितना तुष्टिकरण हुआ इसका दस्तावेजी सुबूत सच्चर कमिटी की रिपोर्ट है जो कहती है कि आज़ादी के बाद देश के मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर हो गयी है। विधायिका, कार्यपालिका आदि में मुस्लिम नुमाइंदगी दिन प्रतिदिन घटती ही जा रही है। इस स्थिति को सुधारने के लिए जब मुस्लिम आरक्षण की बात की जाती है तो संविधान की दुहाई देकर कहा जाता है कि धर्म की बुनियाद पर आरक्षण सम्भव नहीं। जब संविधान में 200 से अधिक संशोधन हो चुके है तो क्या इसके लिए संविधान में संशोधन नहीं किया जा सकताI इस सिलसिले में देश के मुस्लिम लीडरों को जवाब देना होगा कि इस स्थिति को सुधारने के लिए उन्होंने क्या किया?

यहां एक बात सियासी पंडितों और समाजशास्त्रियों के सोचने की है कि जिस चुनावी निजाम में 30 फीसद वोट पाकर मोदी जी एक मज़बूत सरकार बना सकते हैं वहां लगभग 20 फीसद मुस्लिम वोट बेमानी कैसे हो गए। यह वोट जब तक थोक भाव में कांग्रेस को मिलते रहे तब तक कांग्रेस सत्ता पाती रही। उधर मुसलमानों की सियासी और समाजी हैसियत भी बनी रही। हर दल यह समझता रहा कि जिधर मुस्लिम वोट जाएंगे सत्ता उधर ही जाएगी लेकिन 1986 में कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा कर अपनी सियासी किस्मत पर ताला डलवा दिया। मुसलमानों को लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है। इसके बाद इस समस्या से सम्बन्धित हर काम कांग्रेस सरकार के समय हुआ जिससे कांग्रेस और मुसलमानों के बीच की दूरी बढती गयी।

साम्प्रदायिक दंगों के दौरान भी कांग्रेस की प्रदेश सरकारों का रवैया बहुत खराब रहा। हाशिमपुरा के जिस काण्ड में अभी PAC के 16 जवानों को सज़ा हुई है वह देश और प्रदेश में कांग्रेस सरकारों के समय ही हुआ था। यह कटु सत्य है कि पार्टी के मुस्लिम नेताओं ने सरकार, पार्टी आलाकमान और एडमिनिस्ट्रेशन के सामने इसके खिलाफ पूरी ताक़त से आवाज़ नहीं उठाई। आज जब आम मुसलमान पूछता है कि जब मुसलमानों का क़त्लेआम हो रहा था या बाबरी मस्जिद गिराई जा रही थी तब इन मुस्लिम नेताओं ने क्या किया- कम से कम मंत्री पद से इस्तीफा ही दे दिया होता- तो कोई जवाब नहीं सूझ पड़ता। कांग्रेस विरोधी तत्व इन्हीं सब बातों को याद दिला दिला कर कांग्रेस और मुसलमानों के बीच दूरियां बढाते हैं और कांग्रेस उनकी काट के लिए कुछ बोलती तक नहीं, करना तो दूर की बातI

ईमानदारी की बात तो यह है कि कांग्रेस की गलतियां और जो नहीं हुआ उसे याद करते समय कांग्रेस ने जो किया उन्हें भी याद रखा जाए- संविधान सभा में मुसलमानों को वोटिंग समेत सामान अधिकार देने के लिए नेहरू, आज़ाद, आंबेडकर, पटेल आदि को जो कठिनाइयां झेलनी पड़ीं, उसके बाद यहां रुके मुसलमानों में विश्वास और सद्भाव पैदा करने के लिए जो पापड़ बेलने पड़े। मुसलमानों के बीच डॉ. जाकिर हुसैन फखरुद्दीन अली अहमद आदि ही नहीं, बरकतुल्लाह खान, अब्दुल गफूर, अनवरा तैमूर, अब्दुर रहमान अन्तुले, और डॉ अम्मार रिज़वी (जो कुछ महीनों के लिए उत्तर प्रदेश के कार्यवाहक मुख्यमंत्री रहे थे) को खड़ा करने की हैसियत केवल कांग्रस पार्टी में है, किसी अन्य दल ख़ास कर क्षेत्रीय दलों में तो बिलकुल नहीं हैI

यही नहीं, अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए 15 सूत्रीय कार्यक्रम, अल्पसंख्यक मंत्रालय का गठन, मदरसों का आधुनिकीकरण, पहले दर्जे से ले कर Ph.D तक करने के लिए वजीफे, मौलाना आज़ाद एजुकेशनल फाउंडेशन का गठन, मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी की स्थापना, अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के नए कैंपस, MSDP द्वारा मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में समस्त विकास कार्यों का 15-20 प्रतिशत भाग सुनिश्चित करना, बैंकों को मुस्लिम व्‍यापारियों को अपने क़र्ज़ का 15 ीसद अवश्य देना, इतने ही अनुपात में जवाहर नवोदय स्कूल और कस्तूरबा स्कूल खोलने आदि का प्रावधान कांग्रेस की सरकार ने ही किया थाI इसी सरकार ने रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट लागू करते हुए मुस्लिम पसमांदा बिरादरियों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 4.5 फीसद आरक्षण का आदेश भी जारी किया था लेकिन उसे सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज कर दिया गया जिसने इस पर रोक लगा के सरकार से कुछ स्पष्टीकरण माँगा लेकिन चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद मोदी सरकार ने स्वाभाविक रूप से न वह स्पष्टीकरण दिया न यह मुक़दमा आगे बढ़ाI

आज देश की सियासी और समाजिक परिस्थितियाँ बिलकुल बदल गयी हैं। आर्थिक, सामरिक, राजनयिक और समाजी सद्भाव बनाए रखने समेत हर मोर्चे पर मोदी सरकार बुरी तरह असफल रही है। लम्बे चौड़े दावे चाहे जितने किये जाएं, देश का आर्थिक ढांचा बिलकुल चरमरा चुका है। इसका सब से बड़ा सुबूत यह है की आर्थिक दिवालियेपन की रोकने के लिए मोदी सरकार ने रिज़र्व बैंक के नियमों की सातवीं धारा प्रयोग करने का निर्णय लिया जिसके तहत सरकार RBI के रिज़र्व फण्ड का प्रयोग कर सकती है। नोटबंदी जैसे अत्यंत बेवकूफी भरे फैसले पर भी खामोश रहने वाले RBI के गवर्नर ऊर्जित पटेल को इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद करनी पड़ी यह बिलकुल वही स्थिति है जैसे घर में रात का भोजन बनने तक की व्यवस्था न हो तो बच्चे का गुल्लक फोड़ दिया जाएI देश की

इस स्थिति से अंध भक्तों के अलावा हर नागरिक परेशान है और इसे बदलना चाहता है। इन हालात ने देश के आम जन के साथ देश के मुसलमानों को भी उतना ही चिंतित कर रखा है बल्कि उनकी चिंताएं तो दोहरी हो गयी हैंI कांग्रेस और मुसलमानों के बीच दूरी बढ़ने का घाटा दोनों पक्षों को हुआ। कांग्रेस सत्ता से दूर हुई तो मुसलमानों की सियासी और समाजी हैसियत समाप्त हो गयी। इस स्थिति को सुधारने के लिए कांग्रेस को मुसलमानों को विश्वास में लेने के लिए ठोस प्रोग्रामों के साथ मैदान में आना होगा। यह सोच कि मुसलमान जाएंगे तो कहां जायेंगे, उन्‍हें बहुत नुकसान पहुंचा चुकी है और आइंदा कांग्रेस ऐसा सोचेगी तो उन्‍हें और भी नुकसान पहुंचाएगीI